झुकी कमर जबसे है अपनी.....
रिश्ते-नाते, दोस्त पड़ोसी,
गढ़ते घर-संसार हैं।
झुकी कमर जबसे है अपनी,
हुए सभी पर भार हैं।
जन्म दिया जब पंच रत्न को,
काँधे चार रहे अपने।
जीवित ही सब छोड़ चले हैं,
भाग्य भरोसे अब सपने।
उपकारों को भुला गए सब,
तर्पण कर उद्धार हैं।
झुकी कमर जबसे है अपनी,
हुए सभी पर भार हैं।
स्वाभिमान था जो पहले वह,
गिरवी रख कर रीते हैं।
ढूँढ रहे हैं सपनों का घर,
पर-आश्रय पर जीते हैं।
उनके मन दिखते उजड़े ज्यों,
रद्दी के अखबार हैं।
झुकी कमर जबसे है अपनी,
हुए सभी पर भार हैं।
अपना घर खुशहाल बनाने,
झोली खुशियाँ भर लाए।
देख रहा हूँ सम्मोहन में,
फँसकर कितने भरमाए।
पार लगे जीवन की नैया,
सौंप चुके पतवार हैं।
झुकी कमर जबसे है अपनी,
हुए सभी पर भार हैं।
डोली विदा कराने तक ही,
आगत-स्वागत खड़े रहे।
कुछ वर्षों में ऐसे बदले,
बँटवारे पर अड़े रहे।
घाव दिए हैं इतने गहरे,
उभरे बारंबार हैं।
झुकी कमर जबसे है अपनी,
हुए सभी पर भार हैं।
रही स्वस्थ जब तक काया तो,
सबकी खुशियाँ ही बरसीं ।
जीवन जब कृशकाय हुआ तो,
उनसे सुख को हैं तरसीं।
कहें भाग्य का खेल इसे या,
ये कलजुगिया खार हैं।
झुकी कमर जबसे है अपनी,
हुए सभी पर भार हैं।
फिर भी आँखें खोज रहीं हैं,
अपनी उन बेगानों में।
जितना नेह लुटाया उसने,
बचपन के चौबानों में।
करुणा दिखे जरा भी उनकी,
समझें वही दुलार हैं।
झुकी कमर जबसे है अपनी,
हुए सभी पर भार हैं।
लिखने को तो बहुत पड़ा पर,
थोड़ा कुछ ही लिख पाया।
स्वार्थ पूर्ति की इस नगरी में,
खुद ही खुद से शरमाया।
आस लगी है नव विहान की,
खुलें नेह के द्वार हैं।
झुकी कमर जबसे है अपनी,
हुए सभी पर भार हैं।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’