(रामनाथ शुक्ल)
हमारे वंश के वट वृक्ष की शाखायें देव तुल्य आदि ऋषि भरद्वाज जी द्वारा प्रकट होकर निरंतर बढ़ती रही हंै। अपने उन पूर्वजों का कोई लिपिबद्ध प्रयास न होने से उनका इतिहास विस्मृत हो गया है। संभवतः यह हमारी अज्ञानतावश हुआ है। हम श्रद्धा पूर्वक अपने उन पूर्वजों से क्षमा याचना करते हैं। हमें अपने जिन पूर्वजों से अपनी पहचान मिली, उन पूर्वजों का इतिहास हमने क्रमानुगत लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है ताकि हमारी वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के लिये यह धरोहर सुरक्षित रहे। हमारी भावी पीढ़ी भी हमारी इस वंश परम्परा को उस काल की भौतिक मर्यादा के साथ आगे बढ़ाती रहे। हमारे इस विश्वास को सफल करने का दायित्व अब हम भविष्य को सौंप रहे हैं। कृृपया वे इस वट वृक्ष को सींचते रहें, ताकि उस काल में हुए विकास एवं परिवर्तन के इतिहास का भी एक चित्रण हमारे पास संचित होता रहे।
हमारा मानना है कि हमारे जीवन में घटित प्रमुख घटनायें कभी विस्मृत नहीं होतीं। हाँ, वे गर्त के आवरण से ढँक अवश्य जाती हैं। हम जैसे ही उस आवरण को हटाते हैं, वे पुनः हमारे समक्ष अपने असली स्वरूप में आ जाती हैं। यही अनुपम भंडार हमारे संस्मरणों को पुनर्जीवित करने में सहायक बनता है। इस संस्मरण का भी यही आधार है। घटित घटनायें अक्षरशः सत्य पर आधारित हैं। साथ ही इस काल में उदित महापुरुष जिन्होंने करोड़ों लोगों को प्रभावित किया, उनसे प्रत्यक्ष न सही अप्रत्यक्ष सम्बन्ध तो बने ही रहे। उनके हर सुख-दुख में भावनात्मक रूप से हम सभी सम्मिलित रहे। अतः उनको भी रेखांकित करना अनुचित बात नहीं। उनके आदर्शों से हम सभी प्रभावित रहे हैं। अतः वे सब हमारे बीच के अपने काल के महानायक हैं।
यदि हम अपने अतीत के पन्ने पलट कर देखते रहें, तो हमें अपने पूर्वजों की जीवन शैली-क्रिया कलापों के मूल्यांकन का ज्ञान होता रहता है। वर्तमान हमारे अतीत के रास्ते से ही हो कर आता है। अतः हम अपने ज्ञान चक्षुआंें द्वारा अपनी उस उन्नति या अवनति की स्थितियों का चिट््ठा बना सकते हंैं। वर्तमान में यदि हम प्रगति मार्ग पर अग्रसर हैं। तो हम उसे अपने पूर्वजांें के श्रम का प्रतिफल मानेंगे, पर हम यदि अवनति मार्ग पर हों तो उसे हम प्रारब्ध का प्रतिफल मानेंगे और उन्हें हम सुधारने का यत्न करेंगे। इसी तरह हमारे द्वारा वर्तमान में किये गये कार्यांे का असर हमारे आने वाली भावी पीढ़ियों पर पड़ेगा। अतः हम संभावित हानि- लाभ के प्रति कुफल-सुफल के प्रति सतर्कता अपना सकते हैं। अधिकाँश व्यक्ति अपने जीवन में, अपने भूत-वर्तमान-भविष्य की तरफ देखने का प्रयास ही नहीं करते और जब करते हैं तो काफी देर हो चुकी होती है और वे ही उसके परिणाम भोगने के भागीदार बन जाते हैं।
प्रस्तुत संस्मरण हमारे पूर्वजों द्वारा भोगे अतीत और हमारे द्वारा भोगा जा रहा वर्तमान का लिपिबद्ध प्रयास है ताकि भावी पीढ़ी के आत्म चिंतन के काम आए। अपने वर्तमान के प्रति सतर्क हो उसे सँवारंे ताकि उनका भविष्य उज्ज्वल हो। हमने अपने घर परिवार शहर गाँव ही नहीं वरन् देश के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक परिवेश को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि हर मानव स्वयं और अपने समाज व देश के बारे में मूल्यांकन भी कर सके। उसके मार्ग के अवरोधों का भली भाँति अध्ययन कर विकास मार्ग पर द्रुतगति से आगे बढ़ सके।
हम अपने पूर्वजों को श्रद्धा पूर्वक नमन करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि भावी पीढ़ी पर भी उनके शुभाशीषों का वरद हस्त रहे। हमारा वर्तमान उनके सुकर्मों का प्रतिबिंब है। ऐसा हमारा अटल विश्वास है।
सन् 1935 से ही इस कथा का आरंभ करें, तब इस कथाकार ने अपने जीवन के छः विजयादशमी पर्व मना लिये थे। हमारे पूर्वजों के जन्म-मृत्यु का सिलसिला तो आदि ऋषि भरद्वाज ने स्थापित कर दिया था,जो कि आज भी वह अनवरत गति से चल रहा है। शाखायें जैसे- जैसे बढ़ती गयीं-फेैलती गईं, हमारे वंशज भी फैलते गये और क्रमशः छूटते गये। उसी वंशज के पंडित जुड़ावन जी शुक्ल के पुत्र पंडित फेरन प्रसाद जी शुक्ल पचास वर्ष पूर्व महोबा से ग्राम सीलोन जिला छतरपुर (म प्र) नाम की कर्मभूमि में स्थापित हुये।
उस समय भागवत कथा वाचक-ज्योतिष मर्मज्ञ पंडित ही विशेष सम्मान के पात्र माने जाते थे। अतः रियासत-सीलोन हवेली के बड़े ठाकुर के पिता जी ने उन्हें महोबा से सीलोन लाकर बसाया और अपने को बड़भागी माना। पंडित जी यहाँ से अन्यत्र न भागें, अतःउनके बड़े पुत्र ठाकुर प्रसाद शुक्ल का पंडित रामबक्स दुबे (पटना ) की बहन से विवाह करवा दिया। दुबे जी का सीलोन के ठाकुर घराने में वही महत्व था जैसा कि महाभारत काल में द्रोणाचार्य का। विद्वता में उनकी टक्कर का ढाई-तीन सौ मील की सीमा में शायद ही कोई रहा हो। संस्कृत के वे प्रकांड विद्वान थे, इसलिये दूर-दूर से संस्कृत की शिक्षा ग्रहण करने के लिए छात्र गण उनके पास आते थे।
विद्वता के कारण उनमें अहं का भाव कूट-कूट कर भरा था। अनुशासन -कठोर स्वभाव -क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी पाठशाला को वजीफा देने वाले हवेली के तीनों ठाकुर परिवार उनके घर आकर ही विचार- विमर्श करते। उन्हें अपनी ड्योढ़ी पर बुलाने की हिम्मत हवेली वाले बड़े ठाकुर -मँझले ठाकुर और छोटे ठाकुर ने कभी भी नहीं दिखाई। पं. रामबख्श दुबे जी की एक ही बहन -मथुरा बाई जो कि उनसे छोटी थी फिर छोटा भाई रामदयाल-दोनांे भाई अविवाहित जीवनपर्यन्त रहे।
शुक्ल परिवार कर्मकांडी माना जाता था-और दुबे जी इस कृत्य से अप्रसन्न रहते थे। उनका मानना था कि कर्मकांडी पंडित दान दक्षिणा पर आश्रित रहते हैं जो कि उनके पांडित्य के प्रतिकूल था। अतःउनके बीच रिश्तेदारी के मधुर सम्बंध स्थापित न हो सके। हाँ उनके छोटे भाई रामदयाल दुबे जो कि उनसे दूर जबलपुर जाकर बस गये थे। वे ही रिश्तेदारी निभाने की सारा उत्तरदायित्व अपने सिर पर लिये थे।
श्री रामदयाल जी दुबे साल में दो तीन बार जबलपुर शहर से अपने गृह सीलोन ग्राम जब भी आते, एक पेटी भर उपहार के सामान अपने बहन-बहनोई एवं परिवार के सदस्यों के लिये लाते थे। सामान के रूप में सूती कपड़े होते थे - सस्ते से सस्ते। पर सैकड़ों मील दूर से लाने वाले की अपनत्व की भावना उसमें रची बसी होती थी। बहन मथुरा बाई के लिये साड़ी का उपहार कीमती हीरों के हार से भी अधिक अमूल्य होता था। बहनोई उनसे अँगोछा पाकर खुश होते तो भांजे परदनियाँ पाकर और नाती कमीज-कुर्ता पाकर। जैसे वे सारे जहाँ का ऐश्वर्य ही पा जाते। इसी प्रेम भावना के कारण सभी रामदयाल जी की आगामी आगमन की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते।
मध्यप्रदेश के जिला छतरपुर का यह सीलोन गाँव है .....नदी से दो मील दूर... गाँव में प्रवेश करते ही एक पहाड़ी पर राजा साहब की गढ़ी है। कभी वैभव के साम्राज्य की प्रतीक। राजा-रानी का राजमहल।आमोद-प्रमोद के लिये रंगमहल। फौज के लिये विशाल परकोटा। उस गढ़ी का जिस आश्चर्य जनक ढंग से उत्थान हुआ-उसी आश्चर्य जनक ढंग से पतन भी। कहते हैं -गढ़ी निर्माण के बाद केवल दस साल राजा साहब सुख भोग सके और निःसंतान ही चल बसे। गढ़ी के अंदर मंदिर था - मंदिर में ठाकुर जी (भगवान) की पूजा अर्चना के लिये कात्यायनी महाराज थे।
राजा साहब की मृत्यु के उपरान्त रानी साहिबा एवं कात्यायनी महाराज के प्रेम-प्रसंग के सच्चे-झूठे किस्से उड़ते रहे और रानी साहिबा की मृत्यु के उपरांत सारे किस्से समाप्त हो गये। गढ़ी को अभिशप्त मान लिया गया और जो भी बारिस न्युक्त हुआ, वह कभी भी उस मनहूस महल में रहने को तैयार न हुआ। अंत में उससे आधा मील हटकर तालाब के किनारे समतल धरा पर एक नई हवेली का निर्माण हुआ और गढ़ी बेचारी वीरान हो गई। कुछ साल गोरी पल्टन की मेहरवानी हुई और उसमें गोरों की फौज रही। पर रात में, नीचे तालाब के किनारे बने स्नान कक्ष से किसी नारी के चीखने की डरावनी आवाजों से डर कर गोरी पल्टन ने भी वहाँ से अपना डेरा कूच कर लिया। लोग यह भी कहते हेैं, उस फौज के एक सूबेदार परिवार का अंत हो गया। तब से वह गढ़ी खाली हेै।
अनेक सालों से गढ़ी के वीरान रहने के कारण - अब लोग उसे एक दर्शनीय धरोहर मान बैठे हैं। अब दूर से ही कभी गाँव आने वाले इसे देख लेते हैें। सीलोन का विशाल तालाब तीन मील की सीमा में फैला है, सारा गाँव का निस्तार इसी से होता हेै। इसका जल अथाह है -कितना भी सूखा पड़े पर यह कभी खाली नहीं होता। एक पक्का घाट सौ गज का गढ़ी के नीचे बनवाया गया था - दूसरा पक्का घाट उससे दुगने क्षेत्रफल से नई हवेली के पास बनवाया गया। इसी घाट के किनारे मंदिर, धर्मशाला और संस्कृत पाठशाला थी। इसकी व्यवस्था श्री रामबक्स दुबे जी के अधीन थी। इस घाट के किनारे साल में छः उत्सवों पर मेला का आयोजन अनेक सालों से होता आ रहा है, जिसमें बाहरी पचासों दुकानदार और आसपास के कई गाँवों के लोग आते हैं। हर उत्सव सात दिनों तक चलता। इसमंें नौटंकी, रासलीला, रामलीला आदि की मंडलियाँ भाग लेती थीं। जनता का भरपूर मनोरंजन होता रहता था और ज्ञानवर्धन भी।
सबसे बड़ा उत्सव विजया दशमी से आरंभ होकर शरद पूर्णिमा तक चलता था। विजया दशमी के दिन गढ़ी के बड़े ठाकुर, मँझले ठाकुर और छोटे ठाकुर अपने शस्त्र बंदूक, तलवार, भाला, बरछी, कटार आदि की साफ सफाई करते और उसकी विधि -विधान से पूजा- अर्चना करते। उस दिन गाँव के सभी लोग नीलकंठ के दर्शन को गढ़ी वाले घाट जाते और फिर मेला से होते हुये बारी-बारी से तीनों ठाकुरों की ड्योढ़ी में ‘‘दशहरा की राम-राम’’ करने जाते। ठाकुर परिवार हर आगन्तुक को आदर सहित बिछावन पर बैठाता, हाल-चाल पूँछता। श्रेणी के अनुसार अभिवादन करता और दशहरा की राम-राम के उपलक्ष में ठाकुरों द्वारा एक-एक पान का बीड़ा हर आगन्तुक को स्नेह से भेंट करता। पाने वाला इस पान के बीड़े को पाने के लिये पूरे साल प्रतीक्षा करता। पाने वाला अपने भाग्य को धन्य मानता। उसमें अधिकांश ऐसे आगन्तुक रहते,जो पान के बीड़े रूपी प्रसाद को साल में केवल एक ही बार प्राप्त कर पाते थे। इसका स्वाद इस साल चखने के बाद, अब शायद दुबारा अगले विजया दशमी पर्व पर ही मिले या न मिले।
उस समय की कितनी सत्य किन्तु विचित्र परम्परा थी-स्मरण करते हुये दुख मिश्रित हँसी आती है। वह समय राजा-महाराजाओं-जमीदारों, सेठ-साहूकारों के वर्चस्व तले जीवन काटने का पीड़ा दायक काल था। एक ओर जहाँ साधारण परिवार घोर अभावों मेें जी रहा था तो दूसरी ओर एक पान के बीड़ा के लिये कृतज्ञ हो जाना महज एक संकेत है, उस काल की जीवन यापन पद्धति का।
मंैने ऐसे परिवार देखे हैं,जिनकी महिलाएँ बच्चे प्रातः चार बजे से पेट की भूख शांत करने के लिये घर से दो मील दूर जंगल में महुआ बीनने के लिये निकल पड़ते थे और जमीन पर गिरे महुआ बीनकर घर लाते- अधिक बीन लेने पर अपने को बड़भागी समझते थे। मैंने उन महिलाओं, बच्चों को भी देखा है, जो सूखे कंडे और सूखी लकड़ियाॅं बीनते रहते थे। भारी परिश्रम एवं दिनभर की तपती धूप में नंगे पैर भटकते रहते। क्षुधा शांत करने के लिये कितने कठिन प्रयास साधारण व्यक्ति को करना पड़ते थे,यह सब मैंने सन्् उन्नीस सौ चांैतीस में देखा-भोगा है।
इसी तरह का श्रम मैंने अपने माता-पिता को भी करते देखा। मेरे पिता साधारण कर्मकांडी पंडित तो थे ही, पर पाक विद्या में उससे कहीं अधिक निपुण थे। इसलिये मँझले ठाकुर की कृृपा दृष्टि उन पर हुई और उन्होंने अपनी पाकशाला में उनकी नियुक्ति कर ली, इसके लिये उन्हें पारिश्रमिक के साथ ही बच्चों के लिये अग्राशन भी मिल जाता था। (बनाये गये व्यंजनों में से थोड़ा सा भाग निकाल कर जब गाय या निर्माता को दे दिया जाये-उसे अग्राशन कहा जाता है) इससे उसके परिवार के एक दो सदस्यों की उदर पूर्ति की समस्या हल हो जाती। अभावों में इस समस्या का हल हो जाना साधारण बात नहीं, बड़ी बात थी।
शिक्षा का औसत बहुत कम था। मध्यम श्रेणी और गरीब तबके के अशिक्षित रहने का कारण केवल सीलोन में ही नहीं थी बल्कि देश भर के लाखों गाँव मंें एक जैसी थी। उद्योग धंधा न के बराबर थे। आवागमन के साधन बहुत कम थे। कुछ नए अविष्कार हो रहे थे, वह शहरों-बड़े कस्बों तक सीमित थे। कुछ इने-गिने साधन सम्पन्न व्यक्तियों तक ही उनकी पहुंॅच थी। जिन्हें नगण्य ही कहना उचित होगा। बिजली का भी यही हाल था। शहरों में भी कुछ क्षेत्रों तक वह प्रकाश फैला पायी थी-अभी अधिकंाश क्षेत्रों में केरोसिन की चिमनियों का या लालटेन का चलन ही था। कुछ शहरों की गलियों और सड़कों में लोहे या लकड़ी के खम्भों में कैरोसिन के लैम्प लटका दिये गये थे। इसके लिये कर्मचारी कंधे या साइकिल में बाँस की सीढ़ी लेकर रात को जलाने और बुझाने हेतु रोज आया करते थे। यह प्रकाश की व्यवस्था केवल क्ृष्ण पक्ष के लिये होती, शुक्ल पक्ष के लिये नहीं। जबलपुर जैसे नगर में कई वार्डों में यह व्यवस्था थी। जो कि 1960 के आसपास तक यही स्थिति बनी रही।
गाँवों में सम्पन्न लोगों के घरों के आसपास भभका की रोशनी या कभी-कभी पेट्रोमेक्स की रोशनी होती थी -प्राथमिक शिक्षा के लिये लकड़ी की पट्टी भर्रू (रामशिर) ही उपयोग में आती थी। शिक्षक भी अनट्रेण्ड रहते थे। चिकित्सा की स्थिति बद से बदतर थी। संक्रामक रोगों के कारण लाखों लोग असामयिक मौत से मर जाते थे। नित्य प्रति की कठिनाइयों और कष्टों को झेलते लोग दब्बू -भीरु प्रकृति के हो गये। कुछ पढ़े-लिखे नवजवानों में शासकीय कर्मचारियों का आतंक एवं भेदभाव का आक्रोश अंदर ही अंदर सुलग रहा था। देश के विभिन्न हिस्सों में आन्दोलन-सत्याग्रह आदि की शुरुआत हो चुकी थी। गोरों का आतंक चरमसीमा पर था। मैंने सुना था, नई गढ़ी में केवल पचास गोरे थे -पर छःः सौ घरों की बस्ती में जब वे प्रवेश करते तो सारी बस्ती ही भयग्रस्त हो जाती थी। उनके रौबीले ठाट-बाट से लोग बहुत डरते थे, वे शासक थे-औेर सब गुलाम-सारे अधिकार उनके पास। लोग आखिर करते भी तो क्या ?
संचार माध्यम की बेहद कमी थी, अतः जन जागरण की कोई भी योजना कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित थी। जमींदार और सेठ साहूकारों का ही बोलबाला था। साधारण व्यक्ति उनके कर्ज के बोझ तले दबे थे। अधिकांश व्यक्ति तो बस एक जून की रोटी ही जुटा पाते थे।
विजया दशमी के दिन मैं पाँच वर्ष का हुआ। पाँच साल की उम्र उस समय अबोध ही मानी जाती थी - आज के समय के पाॅंच साल के बालकों को काफी सांसारिक ज्ञान हो जाता है। शिक्षा का तो यही कमाल है, जो उस समय उपलब्ध नहीं थी।
वह शरद पूर्णिमा का दिन था। मैं वैद्यराज जी के लड़के लोकनाथ उर्फ बड््डे और उन्हीं की विधवा बहिन पुत्ती की लड़की के साथ छोटे ठाकुर की हवेली के पास वाले घाट पर भीड़- भाड़ वाले मेले में सारे दिन रहा। मुझे जानकारी मिल गई थी कि आज मंदिर वाले ठाकुर जी (भगवान) विमान में बैठकर जल विहार करेंगे। घाट के किनारे कमल के फूलों से सुसज्जित एक नाव तैयार थी। वह भीड़ विमान और ठाकुर जी के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी। नाविक भोलू बरऊ था, मैं उसे जानता था - वह नई मिर्जई और पुरानी परदनिया (धोती) पहिने था-सिर में अॅंगोछा लपेटे बैठा था।
मैं अपने नाना का लाया नया कुरता पहने था- कुरता के नीचे वाला भाग कैसे ढका था - मुझे याद नहीं। हम तीनों ही दो चार महीने के फर्क के साथ हम उम्र थे अतः कभी घाट- कभी बाजार के कई चक्कर मेले में लगाये। मेले में कई तरह की पोशाकों में आदमी और औरतों को देखा। महिलायें खूब सजी सँवरी रहती थीं। वे अपने पाँवों में गिलट या चाँदी के पैजना पहने दिखाई दे जाती थीं। कमर में करडोरा पहनती, बाहों में बाजूबंद, गले में हॅंसली पहनती बस बाकी याद नहीं। महिलाओं के उस समय यही आभूषण प्रचलित थे। चाँदी के आभूषण पहने विरली ही महिलायें दिखीं। वैद्यराज का लड़का और उसकी बहन भी साफ सुथरी पोशाक में थे, पर मेरे जैसा नया कुरता उनका नहीं था।
अचानक उस मेले में भगदड़ सी मच गई। दो गोरे गढ़ी से घोड़ों पर सवार छोटे ठाकुर की हवेली की तरफ गये। सब डरकर यहाँ-वहाँ दुबक गये-ये जाने कब क्या कर डालें ? हम तीनों भी घाट की तरफ भाग गये। थोड़ी देर बाद सब शांत हो गया। वे दोनों गोरे, ठाकुर साहब से मिल कर लौट गये थे। वे उन्हीं से मिलने आये थे, हम सब व्यर्थ ही डर गये थे।
थोड़ी देर बाद हम लोगों ने देखा बहुत सारे लोगों के साथ विमान में बैठ कर ठाकुर जी आ रहे हैं। सबसे आगे रमतूला फिर शंख-विजयघंट, झाँझ, मजीरा, ढोलक बजाते लोग। साथ में एक पालकी में हमारे बड़े नाना जी बैठे थे। मैं उनसे बहुत डरता था- इसलिये कि सुन रखा था कि वे बहुत क्रोधी हंैं। पर अभी तक ऐसा मौका नहीं आया था कि उन्होंने मुझे कभी डाँटा या मारा हो। यद्यपि उन्होंने कई बार पिताजी के माध्यम से पाठशाला में पढ़ने के लिये बुलवाया, पर डर की वजह मैं उनका सामना न कर सका। सो उस समय तक निरक्षर ही था - जबकि मेरे साथ वाले दोनों उनकी पाठशाला जाया करते थे। वैसे उस समय लड़कियों की शिक्षा का चलन कम ही था।
विमान सहित ठाकुर जी नाव मंें सवार हुये। साथ में नाना जी भी। घाट पर खड़े सभी नर-नारी ताली बजाने लगे। बोलो बाँके बिहारी जी की ... जय ..। हम तीनों ने भी वैसा ही बोला। और नाव वाला ठाकुर जी को बीच तालाब की तरफ ले गया। एक बात मैं भूल ही गया कि नाव में नाना जी के साथ छोटे ठाकुर भी सवार थे।
एक घंटा ठाकुर जी का जल विहार होता रहा। और सभी लोग किनारे खड़े उनकी वापसी की प्रतीक्षा उत्सुकता से करते रहे - हम तीनों भी। हम तीनों को खूब मजा आया - क्या मजा आया ? उस समय इस अर्थ से संभवतः तीनों अनभिज्ञ थे। बच्चों के मन में तो ऐसी मान्यता थी कि मेला में घूमने का सही आनंद तो तभी आता है, जब तक उसमें कुछ खाना पीना या कुछ खरीद फरोख्त न हो। खरीद फरोख्त तभी हो सकती है, जब जेब गर्म हो। वैद्यराज के लड़के लोकनाथ के अतिरिक्त नीचे के क्रम में पुत्ती नाम की लड़की और मैं। इस मामले में हम दोनों ठनठन गोपाल थे। श्री लोकनाथ के पास पैसा था।
श्री लोकनाथ को उसकी माँ ने यहाँ आते वक्त एक पैसा दिया था,सो वही हम लोगों के बीच साहूकार था-यह बात हम दोनों को भी ज्ञात थी, किन्तु वह अव्वल दर्जे का कंजूस था। काफी समय हो जाने के कारण हमें भूख सता रही थी -शायद उसे भी सता रही हो, पर अपने जेब मंे वह उस रकम को जतन से दबाये था। कब के लिये-नहीं मालूम। मैंने पुत्ती से कहा, पुत्ती ने भैया लोकनाथ से। इस पर भी वह नहीं पसीजा तब हम दोनों ने मेला से घर वापस जाने की जिद की, इसके लिये वह तैयार न हुआ। अकेला वह घूम नहीं सकता था। अंत में वह समझौता के लिये तैयार हो गया और उसने दुकानों से चना लाई खरीदी।
उन दिनों एक पैसे का भी बड़ा महत्व था। उसके बेटे धेला का भी महत्व था, सो चना- लाई खाने के बाद हम तीनों में चैतन्यता आ गयी। अब हम और घूम सकते हैं,ऐसी एक नई स्फूर्ति आ गयी। हाँ, मुझे आज भी स्मरण है कि लोकनाथ ने अपने द्वारा खरीदी चना-लाई का दुगना भाग स्वयं खाया था - क्योंकि रकम उसकी थी-आज सोचकर हँसी आती है, छोटी उम्र में इस बड़ी बुद्वि का ज्ञान कहाँ से आ जाता है ?
हम तीनों अब पुनः तालाब की तरफ चले गये और घाट पर एक कोने में बैठ गये। ठाकुर जी अभी भी जल विहार कर रहे थे-पूरा घाट गाँव वालों से भरा था। ठाकुर जी की वापसी की प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने लोकनाथ से पॅूंछा -
‘‘ बड््डे सच बता, बाबा न पढ़ने वाले को मारते हैं क्या ? (अपने से अधिक उम्र वालों को बड्डे के नाम से पुकारा जाता था) मुझे बाबा की लम्बी दाढ़ी और बड़ी-बड़ी आँखों से बड़ा डर लगता है। मुन्ना मुझसे कह रहा था कि एक दिन पाठशाला में ही एक लड़के ने उनकी लताड़ से लघुशंका तक कर दी थी।’’
‘‘धत् ! मुन्ना झूठा है !!’’और उसने पुत्ती को जैसे आँखों के संकेत में समझाया -‘तू चुप रहना।’ मैंने समझ लिया। यह कुछ छिपा रहा है। पुत्ती मुझे चाहती थी - चाहते तो और भी कई लोग थे-शायद मेरे आकर्षक नाक नक्श के कारण-अथवा भोलेपन के कारण-या और कारण। मुझे नहीं मालुम। वह मुझसे झूठ बोलने की हिम्मत न जुटा पाई - साथ ही अपने बड़े भाई को नाराज नहीं कर सकती थी सो उसने आँखों से जो संकेत दिया, उसका अर्थ था - ‘बाबा मारते भी हैं , डाँटते भी हैं।’
लोकनाथ ने कपटी ढाढस बँधाया।
‘डरता क्यों है रे ? बाबा तो तेरे नाना हैं, तेरी आजी के भाई -तेरे बाप के मामा। डर मत। दूसरों जैसा सलूक तेरे साथ थोड़े ही करेंगे। डरता क्यों ? तेरे तो वे सगे हैं। ’
इस बात से मुझ में हौसला बढ़ा। सही बात है। वे मेरे सगे तो हैं ही - फिर डर किस बात का ? मैं पढ़ने अवश्य जाऊँगा। मन ही मन निश्चय कर लिया। हालाँकि लोकनाथ के कथन का मन्तव्य कुछ और था- उसे जो सजा मिल रही थी - मुझे भी मिले। तभी उसका कलेजा ठंडा होगा।
पर मैंने निश्चय कर ही लिया। मैं पढँ़ूगा-लिखँूगा। जो अपढ़ होते हैं, वे भोंदू और गधा कहलाते हैं। हल-बखर के काम भर के रहते हैं या मेहनत मजदूरी लायक रहते हैं। पढ़ने से आदमी कुछ बनता है। इस बात से पढ़ाई का स्वाद कड़वा होते हुए भी और वह भी ऐसे व्यक्ति के सानिध्य में जो दुर्वासा की तरह क्रोधी है- मैंने मन बना ही लिया कि पढ़ूँगा जरूर।
ठाकुर जी का विमान जल विहार कर वापस लौटने लगा, तो घाट पर शंख, विजय घण्ट के साथ ही साथ जन समुदाय की बोलो बाँके बिहारी की जय ... जय ... की ध्वनि तेज हो गई। यहाॅं मैें बता दॅूं - प्रायः आजकल विमान का सम्बोधन उड़ने वाले जहाज के लिये किया जाता है- पर यहाँ के ग्रामवासी दो फुट चैड़े और तीन फुट ऊँचे -उसके ऊपरी हिस्से में मंदिर नुमा गुम्बद, नाव व पालकी को विमान के नाम से भी संबोधित करते थे। सालों से चली आ रही परम्परा के अनुसार विमान बनाते चले आये हैं-सो ऐसा आज भी बनाते आ रहे हैं। उसको रंग-बिरंगी,सुनहरी चमकीली पन्नियों द्वारा चारों तरफ आकर्षक ढंग से सजा दिया जाता है। किसी राजमहल की तर्ज पर खिड़की दरवाजे महराब आदि बड़े श्रम के साथ बनाये जाते थे। इसी विमान की एक झलक देखकर नर-नारी अपने को कृतार्थ मान लेते हैं मानों इस कलियुग में साक्षात् ईश्वर के दर्शन पा गये हों। उस समय इसी तरह के आयोजन प्रचलित थे।
संध्या हो चली थी, अतः मेले में लालटेन, चिमनी,भभके की रोशनी होने लगी। एक दो जगह मैंने पेट्रोमेक्स जलते हुये देखे। वह मेरे लिये अजूबा जैसा था - पहली बार मैंने देखा था - कितनी तेज रोशनी ... बाप रे बाप...! कैसे जलता है ? समझ के परे था।
मैं अब अपने परिवारिक विवरण को विस्तार से बता दूँ।
मैंने अपने पिता के आजा को देखा था-पंडित श्री फेरन जी शुक्ल उनके पिता पंडित जुड़ावन जी शुक्ल के तीन भाई थे। एक की संतान ग्राम पथरगवाँ जा बसी और एक की रनगवाँ। पंडित जुड़ावन जी की संतान पंडित फेरन जी सीलोन में जा बसे। उनकी दो संतानें हुईं। पंडित ठाकुर प्रसाद और पंडित हीरालाल। उनकी शादी मनकारी में हुई और वे वहीं ससुराल में ही बस गये। पंडित ठाकुर प्रसाद जी के पाँच लड़के हुये-सरमन प्रसाद, परमलाल, बैजनाथ, बद्रीप्रसाद और सूरदास। परमलाल का देहावसान यात्रा पथ पर हो गया था-शादी के एक साल बाद। चार भाई एवं एक बहन काफी समय जीवित रहे। बहन की शादी अजयगढ़ के पास तरोनी ग्राम में हुई।
श्री सरमन प्रसाद की शादी रगोली ग्राम में हरलाल मिश्र की बहन हरबाई के साथ हुई। उस समय बुन्देलखंड में ईसुरी कवि की फागें बहुत गाई जाती थीं। उनकी रचनाओं में जीवन की नश्वरता भरी गम्भीर भावनाओं का बोलवाला था जो कि आज भी वे उतनी ही लोकप्रिय हैं-हरलाल मिश्र को उनकी समस्त रचनायें कण्ठस्थ थीं और आसपास के गाँवों में होने वाले आयोजनों में वे बड़े सम्मान के साथ बुलाये जाते थे-श्रोताओं की भारी भीड़ मंत्रमुग्ध हो उन रचनाओं को सारी रात बैठकर सुनती थी। उनके पास लोकगीतों का इतना विशाल खजाना था - जो कभी खत्म नहीं होता था - ऐसे बिरले ही लोकगीत गायक मिलते हैं। वे बहुत ही सरल प्रकृति के निश्छल, पूर्ण देहाती वेशभूषाधारी व्यक्ति थे - अतः उनके व्यक्तित्व विचारों और उन लोकगीतों की छाप उनकी बहन हरबाई पर भी पड़ी।
हरबाई अपने मायके में अपने भाई के फक्कड़ स्वभाव के बीच अभावों में पली थीं और शादी के बाद ससुराल में भी उसी विकट परिस्थिति से जूझना पड़ा।...गरीब घर से आई बहू को अधिकांशतःतिरस्कार ही मिलता है अतः स्वाभिमान प्रिय इस नारी ने भूखे रह कर जीना अंगीकार कर लिया, पर प्रताड़ित-अपमानित जीवन को जीना हर्गिज नहीं - बिल्कुल नहीं। शादी के साल भर बाद ही सरमन प्रसाद जी परिवार से अलग कर दिये गये। उनकी तीन संतानें हुईं। लड़की कौशल्या। लड़के रामनाथ-दीनानाथ। कौशल्या के बाद एक लड़का हुआ -पर वह इस धरती पर ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सका। समय अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था-और इस तरह वह पन्द्रह साल आगे खिसक गया।
ठाकुर दास की संतानों में बद्रीप्रसाद जी अत्यधिक महत्वाकांक्षी और वाचाल प्रकृति के व्यक्ति थे-उनकी शादी मनकारी में श्री अयोध्या प्रसाद तिवारी की बहन से हुई। बैजनाथ पढ़ाइ्र्र से हमेशा कन्नी काटते रहे अतः उन्हें प्रारम्भ से ही कृषि कार्य और पशुओं का रख रखाव ही पसंद आया। सूरदास जी नेत्रहीन थे - पर विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। ईश्वर मनुष्य के किसी अंग के अभाव की क्षतिपूर्ति के लिये एक अमूल्य प्रतिभा अवश्य प्रदान कर देता है - जिससे वह उस कमी की पूर्ति कर सके, सो नेत्रहीन होते हुये भी उन्हें यह चमत्कार प्राप्त था -उनके सामने कही गयी बातों का तुरंत स्मरण हो जाना। अतः इसी अद्भुत शक्ति के कारण उन्हें कुछ ही समय में राधेश्याम रामायण कण्ठस्थ हो गयी थी। सूरदास, तुलसी दास के अनेक भजन भी। हारमोनियम-तबला-ढोलक बजाने की कला में भी पारंगत हो गये थे। इसी कारण से अपने परिवार में वे नेत्रवानों से कई गुना अधिक प्रतिभा के धनी बन गये। सचमुच प्रभु की यह माया अपरम्पार है !!
सूरदास ने अपनी गम्मत मंडली (भजन मंडली) बना ली थी। चार बेकार व्यक्ति रोजगार से लग गये। पूरन नामदेव -ढोलक तबला बजाते, घंसू पटैल मंजीरा। सूरदास स्वयं हारमोनियम। यह सब संसाधन गम्मत मंडली की आय से जुटते गये। बाद में पूरन नामदेव का लड़का हरी अपने ननिहाल चन्द्रनगर से मिडिल पास कर गाँव में लौटा, तो एक पढ़ा लिखा युवक सूरदास जी को नये-नये भजनों एवं राधेश्याम रामायण को रटाने की दृृष्टि से उसमें शामिल हो गया। मंडली का प्रचार -प्रसार एक गाँव से दूसरे गाँव, दूसरे से तीसरे-चैथे-पाँचवंे दूर-दूर तक बढ़ता गया। आय और बढ़ी तो बैल-गाड़ी भी खरीद ली गयी। दूर की यात्रा के लिये स्वयं का साधन उपयोगी होता है। अब उनके चार-पाँच महीनों के लम्बे टूर प्रोग्राम बनने लगे। इस तरह नेत्रहीन सूरदास अपने परिवार का बोझ नहीं बने, उसके प्रतिपालक बन गये और अपने माता-पिता से सबसे अधिक भरोसा व स्नेह पाया।
पंडित फेरन प्रसाद शुक्ल ज्योतिष शास्त्र के महाज्ञानी थे। उन्हंे अपनी मृत्यु की तिथि का पूर्वाभास हो गया था अतः अपने जीवन के अंतिम पन्द्रह दिन पूर्व अंतिम-क्रिया में लगने वाला सामान घोड़े पर चढ़कर स्वयं लाकर रख दिया। उन्होंने अपने पुत्र ठाकुर दास और नाती सरमनप्रसाद का तीन माह जबलपुर का प्रवास का प्रोग्राम स्थगित करवा दिया - मुझे उनकी धुँधली याद है। वे उस बड़े मकान की परछी मंे।सदा विश्राम करते थे। तालाब के घाट आने जाने वाले व्यक्ति इन देवतुल्य वृृद्ध महापुरुष के दर्शन लाभ से कदापि नहीं चूकते और सभी उनका शुभाशीर्वाद प्राप्त करते। महाप्रयाण की तरफ अग्रसर सांसारिक मोह माया के इस निश्छल अपनत्व भरे सम्मान को देखकर कभी-कभी उनकी आँखें सजल हो जाती और कंठ अवरुद्ध हो जाता। जन्म जन्मान्तर से निर्मित मोह के बंधनों को तोड़ने से कुछ मानसिक पीड़ा तो होगी ना। मानव जीवन के अंतिम समय में ऐसा मौका आता है, जब कंठ अवरुद्ध होने से आंतरिक भावना केवल नेत्र ही व्यक्त करते हैं। बाद में पाँच दिन के लिये उन्होंने एकांत वास का व्रत धारण किया और मृत्यु तक परदे की ओट में रह अपने प्राण त्यागे।
मृत्यु के एक माह उपरान्त जबलपुर जाने का स्थगित कार्यक्रम पुनः बना। उन दिनों यात्रा के प्रमुख साधन बैलगाड़ी अथवा अश्व ही थे। लम्बी दूरी के लिये अश्व ही उपयुक्त माने जाते थे। घर में दो अश्व थे ही अतःइस बार ठाकुर दास जी -सरमन प्रसाद के साथ यात्रा में, मैं भी शामिल था। ठाकुर प्रसाद की यात्रा तो साल में एक बार सुनिश्चित थी किन्तु सरमन प्रसाद जी की यात्रा अपने परिवार के भरण पोषण सम्बंधी भावी उद्देश्य के खोजने के लिये बनी थी। उन्होंने मन ही मन स्थान परिवर्तन का दृढ़ संकल्प बना लिया था। वहाँ के कार्यक्षेत्र के विस्तृत संभावनाओं के स्त्रोतों की जानकारी अपने मामा पंडित रामदयाल जी से प्राप्त कर ही चुके थे। और उनकी सलाह भी थी- स्थान परिवर्तन के लिये ताकि संतानों की उचित शिक्षा- दीक्षा हो सके। जो दुख उन दोनों ने झेले, उनकी काली छाया संतानों को भी प्रभावित न करे - नया कार्य क्षेत्र चुनने का उनका यह साहस भरा कदम था।
प्रस्थान के पूर्व पारिवारिक मंत्रणा हुयी। सर्वसम्मति से निष्कर्ष निकला कि देव उठनी एकादशी के बाद इस बार कौशल्या का विवाह कर दिया जाये। तीसरी पीढ़ी में यह पहला शुभ कार्य था अतः सभी के सहयोग से सम्पन्न होने का फैसला किया गया। कौशल्या के रूप लावण्य से पन्ना के पास स्थित ग्राम पहारी के नम्बरदार मिश्र परिवार बहुत प्रभावित हुये और वे अपनी स्वीकृति दे कर चले गये थे। अतः इस बार यजमानी में जो भी आय होगी, वह कन्या के निमित्त होगी - ठाकुरदास जी ने ऐसा तय कर लिया था।
पिता जी के जबलपुर प्रस्थान के दो दिन बाद ही हमारे ग्राम सीलोन में कुआँ के पानी को लेकर बसोरे सोनी से पंडित बद्रीप्रसाद का विवाद हो गया। कुआँ सार्वजनिक और घर से केवल बीस कदम दूर गली के मोड़ पर था। सोनी का घर एकदम कुआँ के पास था अतः उस पर अपना एकाधिकार समझने लगा था और हर तरह के निस्तार के बाद ही वह कुआँ का पाट खाली करता था। जो कि गलत भी था। पंडित बद्रीप्रसाद को उनकी यह आदत सहन नहीं थी और जबसे काशी से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त कर गाँव आये थे, उनके स्वभाव में भारी परिवर्तन आ गया था। उस समय उन पर पिता जी का भी अंकुश नहीं था।
बसोरे सोनी और बद्रीप्रसाद जी दोनों के बीच काफी कहा सुनी हो गई। हाथापाई की नौबत आये इसके पूर्व माँ उन्हें जबरन बीच बचाव कर ले गयी। सोनी का विष भरा कटाक्ष उनके आत्म सम्मान को भेदता हुआ आर- पार हो गया था। उसने कहा था कि ‘बड़ा पंडित बना फिरता है - अगर कूबत है, तो वैद्यराज जैसा घर में कुआँ क्यों नहीं खुदवा लेता ? साला ! निकम्मा !! भिखमँगा !!!
सोनी की यह बात बरछी जैसी उन्हें लगी ! रात भर वे सो नहीं सके। प्रातः होते ही स्वयं अपने घर के सामने कुआँ खोदने लगे। वहाँ से बीस कदम की दूरी पर वैद्यराज मिश्रा जी का घर था अतः वे तुरंत अड़ंगा लगाते-पर वे अपनी ससुराल दूसरें गाँव गये थे,उनकी अनुपस्थिति से और कोई अड़ंगा नहीं लगायेगा- रात में निर्णय लेते समय उनके मस्तिष्क में यह सब विचार आ गये थे। अन्य और किसी में इतनी कूबत नहीं जो उनसे टक्कर ले सके। यहाँ तक कि बड़े ठाकुर तक उनके बलिष्ठ शरीर से भय खाते थे। दो दिन तक निर्विघ्न रूप से दिन रात खुदाई करते रहे। उनके आने के पूर्व तीन गज तक की खुदाई हो चुकी थी।
तीसरे दिन बड्डे वैद्यराज ससुराल से वापस आ गये। वे ही उनसे मल्लयुद्ध या विवाद कर सकते थे-पर वे थे कूटनीतिज्ञ। वे कुआँ के पास आये। नौ फुट नीचे बद्रीप्रसाद को देखा। ‘‘भैया बद्री, यह क्या कर रहे हो ?’’
बद्रीप्रसाद को खबर हो गयी थी - कि अड़ंगेबाज आ गया है। पर अब कोई भी आ जाये, जब काम शुरु किया है, तो पूरा होने पर ही खत्म होगा अतः सपाट सा उत्तर दिया -
‘‘कुआँ खोद रहा हूँ- वैद्यराज जी ! ’’
‘‘ सो तो देख रहा हॅूं भैया। पर यह काम तुम जैसे पंडित को करना शोभा नहीं देता। अरे, इस गाँव में मजदूरों का क्या टोटा है? एक दो मजदूर रख लेते।’’
‘‘ जरूर रख लेता वैद्यराज जी,पर मजदूरी कौन देता-आप?’’
‘‘ तुम कहते, तो जरूर दे देता ...क्या तुम्हारे सामने रुपया -पैसा की बात कोई बड़ी चीज है ?’’
वैद्यराज जी की रग-रग से बद्री प्रसाद वाकिफ थे। साला ...गाँव में अकेला वैद्यराज है, सो एक छत्र राज है। चूरन की पुड़िया थमा कर लोगों को बेवकूफ बनाता रहता है। सभी उसे जानते हंैं। पर सभी लाचार हैं। कोई दूसरा वैद्य होता तो सवा टके सेर बिकता।इनको कोई पूँ पूँछता तक नहीं...उन्होंने इस तरह मन की आधी भड़ास अपने मन में ही निकाल ली।
बद्रीप्रसाद गड्ढे से ऊपर आ गये। एक तो इस तरह का कभी श्रम किया नहीं था। अधिक श्रम करने से उनका मानसिक संतुलन बिगड़ा था, दूसरे यह विघ्नकारी चोट पर चोट किये जा रहा था। ऐसे यह मानने वाला नहीं ... कहीं लातों के भूत बातों से मानते हैं भला ....? मन ही मन बड़बड़ाते हुये कहा -
‘‘ अच्छा मिसर महाराज ! साफ-साफ कहो , मेरे इस काम से तुम्हें क्या तकलीफ है ? मैं इसे अपने घर के बाहर इसलिये खोद रहूँ कि इसका पानी सबको मिले। मेरे मन में पाप होता तो घर के भीतर खोदता ... सच्ची बात कहो ... किसी ने कुछ कहा है क्या ?’’
बद्रीप्रसाद जी की बड़ी-बड़ी आँखें आग के गोले बरसा रहीं थीं।
मिसिर जी को दूसरे के कन्धे बन्दूक चलाने का मौका मिल गया था - बद्रीप्रसाद के गुस्से को वे जानते थे, सो विनम्रता से बोले -‘‘भैया, तुम्हारे इस परोपकारी काम से जाने क्यों लोग जल रहे हैं। बसोरे सोनी कह रहा था, रास्ते में तुम कुआँ खोद कर जान लेवा काम कर रहे हो। मुन्ना बनिया कह रहा था, तुम बहुत बुरा काम कर रहे हो। बड़े ठाकुर भी कह रहे थे .... पंडित पगला गया है .. और...और.... ’’
बीच में ही बद्रीप्रसाद भभक उठे - उन्हें मालूम था कि इन तीनों को कोई लेना देना नहीं है। वे गुस्से में बोले -
‘‘ वैद्यराज जी, बसोरे सुनार और मुन्ना बनिया की ऐसी की तैसी। और बड़े ठाकुर को क्या कहूँ? वे हमसे किस मुँह से बोलेंगे ?...मिसिर महाराज सुन लो, बद्रीप्रसाद को तो तुम जानते ही हो - उसने पूजा पाठ करके जब काम शुरू किया है, सो वह काम होकर ही रहेगा ....अब जिसके जी में जो आये, वह कर ले।’’
यह वास्तव में उनकी एक तरह से खुली चुनौती थी। मिसिर महाराज ने अब बात बढ़ाना ठीक ना समझा ... वहाँ से खिसकना और दूसरी नीति से काम लेना उचित समझा सो वहाँ से जाते हुये बोले - ‘‘ खोदो भैया..खोदो..., अब यह मिसर महाराज तुमसे कुछ भी नहीं कहेगा ....’’
मिसिर महाराज ने बद्रीप्रसाद की इस तूफानी चुनौती की मुनादी गाँव भर में पीट दी। और उनके मामा श्री रामबक्श दुबे जी को भी बरगला आये - पर किसी ने भी उनके सामने आने की हिम्मत नहीं दिखाई। बद्रीप्रसाद थक गये थे सो उस रात सो गये। दूसरे दिन सबेरे देखते हैं कि कुआँ पट गया है। जानते थे, किसकी कारिस्तानी है। खूब गाली गलौच बकीं ...पर सामने आकर किसी ने भी प्रतिरोध नहीं किया सो अंत में पाटे गये कुआँ से उन्होंने वह मिट्टी पुनः निकाली। मिट्टी पाटने और निकालने का यह क्रम तीन दिन चला। अंत में बद्रीप्रसाद ने वैद्यराज के घर भीतर जाकर उनकी पत्नी से कहा - ‘‘ भौजी ... कह देना ... अब बद्रीप्रसाद बुरी तरह खुनवा गया है ... कल अब या तो बद्रीप्रसाद रहेगा या वह अड़ंगेबाज ....।
वैद्यराज की पत्नी अच्छे संभ्रान्त घर से थीं - समझदार भी थीं और विनम्र भी। सो अपने देवर के खूनी तेवर को अपने नारी सम्मोहन की कला से समझाकर उनका गुस्सा शांत किया। दूसरे दिन गड्डा पाटने का क्रम बंद हो गया और सात दिन तक खुदाई का काम चलता रहा।
अचानक लोंगों ने देखा .. दो दिन से बद्रीप्रसाद का काम बंद है। हितैषियों ने जानकारी ली। मालूम हुआ ... बीस फुट नीचे बड़ी चट््टान आ गयी है। बद्री प्रसाद की संघर्ष शीलता एवं उनके संकल्प क्षमता पर यह करारी चोट थी। इस पराजय के घाव से पाॅंच दिन तक वे गुम-सुम रहे और घर से नहीं निकले। साफ तौर पर उनके प्रतिद्वन्दी की जीत और उनकी हार थी। वे एकदम टूट से गये। अंत में माँ के समझाने पर कुछ शांत हो गये और खोदा कुआँ स्वयं अपने हाथों से पाट दिया। इस चोट से उनका अन्तर्मन बुरी तरह मर्माहत हुआ था और उनने संकल्प लिया कि वे अब इस गाँव में नहीं रहेंगे। पर कौशल्या की शादी सिर पर थी - वहाँ से खबर आ चुकी थी।
बद्री प्रसाद ने जबलपुर चिट्ठी भेज दी कि पत्र पढ़ते ही तुरंत आओ।कौशल्या की शादी की तिथि पक्की हो गयी है। संचार साधन बहुत कम थे अतः इस क्रिया को सम्पन्न होने में पन्द्रह दिन लग गये और विवाह की तैयारी होने लगी।
पन्ना नरेश के कृृपा पात्र और दस गाँवों के इज्जतदार वाला घराना था जिन्हें नम्बरदार भी कहते थे। सो जैसे कौशल्या के भाग्य जग गये। शानदार नम्बरदार की बारात भी शानदार आयी। तीस बैलगाड़ी और बीस घोड़ों की बारात ! सीलोन ग्राम में मेला जैसी चहल-पहल हो गयी। लोग कहते सुने गये - भैया ऐसी बारात कभी नहीं देखी ... यह पंडित के घर की शादी है या किसी राजे महाराजे की ? भईया, कन्या के तो भाग्य जग गये हैं, जब विधाता की कृृपा हो तो उसे कौन बदल सकता है ?
इतनी बड़ी बारात, वह भी किसी गरीब के घर में आ जाये तो उसके क्या हाल होंगे। पर लड़की वालों को वर पक्ष से किसी भी प्रकार की चिन्ता न करने का आश्वासन मिल गया था। उनकी स्वयं अपनी व्यवस्था और समस्त गाँव वालों के आपसी सहयोग से शादी का वह कार्य सानंद एवं निर्विघ्न रूप से निपट गया। बारात तीन दिन तक ठहरी थी। अनेक मनोरंजन कार्यक्रम हुये। बाराती एक छकड़े में। नचैयों की पार्टी लाये थे, सो गाने बजाने के शौकीनों ने खूब आनंद उठाया। तीनों ठाकुरों ने उन पर दिल खोलकर पैसा बरसाया। अच्छा गर्म जोशी का जश्न रहा। नर्तकियाँ मालामाल हो गयी थीं।
कौशल्या की शादी में दूर- दूर तक फैले, नाते-रिश्तेदार एवं कुटुम्बी जन सम्मिलित हुये। बारातियों सहित सबकी आवभगत हुई-खूब स्वागत सत्कार हुआ। दूल्हा हनुमत प्रसाद मिश्रा को अपने अनुरूप दुल्हन मिली। बड़े भाई-एवं पिता पक्ष के पाँचों भाई सेवा सत्कार से काफी प्रभावित हुये। इस शादी में छोटे ठाकुर का सराहनीय योगदान रहा।
बेटी के बिदा की वेला आयी। कौशल्या सभी से लिपट कर खूब रोई। माता -पिता के लिये तो वह विछोह असहनीय था। इसी तरह वैद्यपुरा के रहवासियों के लिये भी वैसा ही कारूणिक क्षण था - जैसे उनके घर की अपनी प्रिय बेटी बिदा हुई हो। हमारे भारतीय संस्कारों में स्नेह अपनत्व के परस्पर बाँटने की यही तो अद्भुत युगों से चली आ रही परम्परा है- जिसमें अपने सभी झगड़ों - भेदभावों को तिरोहित कर ऐसे मौकों पर फिर से सभी प्रेम में बॅंध जाते हैं। कौशल्या की बिदा में उसके साथ उसका छोटा भाई रामनाथ भी साथ गया।
पंडित ठाकुरदास के परिवार का एक संकल्प पूरा हो गया। कौशल्या की पहली बिदा - और दूसरी बिदा की रस्म भी पूरी हुई। समय भी तीन महीने आगे खिसक गया। अब दूसरे विकल्प की तरफ बढ़ने की बारी थी। जीवन का सबसे प्रमुख अब यही शेष कार्य था।
मेरी (रामनाथ) गाँव के बाहर जाने की पहली यात्रा, सूरदास की मंडली के साथ - बैलगाड़ी से चन्द्रनगर की हुई थी। दूसरी यात्रा बमीठा होते हुये उन्हीं के साथ खजुराहो की और तीसरी यात्रा अपनी बड़ी बहन की ससुराल पहारी की। इन यात्राओं की धुँधली यादें ही स्मृृति में शेष हैं अन्य सभी बातें विस्मरण के गर्त में समा गईं हैं।
वैद्यराज मिसिर जी के घर के बाजू से तालाब जाने वाली सँकरी गली, तालाब के पानी से होकर कुछ दूरी पर-पच्चीस तीस फुट लम्बा चैड़ा वह टीला-उसमें लगे रामशिर, कुश के पौधे - तालाब में सिंघाड़े और कमलगटा का फैला जाल। इन सबसे इन आँखों का सैकड़ों हजारों बार सामना हुआ था सो उसका नक्शा जैसे आँखों में उतर सा गया था। वैद्यराज जी के घर के भीतर का आँगन ,उसमें लगे बिही के पेड़ और उनकी पत्नी रायचैरा वाली द्वारा अपने पुत्र लोकनाथ जैसा दिया गया मुझे स्नेह। जिसे मैं आज भी अपनी स्मृति में संजोये हूँ।
वेैद्यराज तीन भाई थे। दूसरे बद्रीप्रसाद जैसे शौकीन - तीसरे साँवले-मंद बुद्धि। वैद्यराज जी अपने छोटे से कमरे के बाहर बैठकर खलबट्टा में जड़ी बूटी कूटते हुये अक्सर दिख जाते। वह पुत्तो का घर था। जो कहती थी - ‘‘ब्याह करूँगी तो तुमसे ’’। अबोध जीवन की कैसी निश्छल परिभाषा है यह। इन सबके ताने बाने हवा के एक ही झोंके से यहाँ-वहाँ बिखर गये। पोर गढ़ी की वह हाथ चक्की। उसके साथ में कितनी बार कोदों कुटकी, गेहूँ को पीसा ...! कितना अच्छा लगता था वह बचपन ...ओ मेरे प्यारे बचपन तू कहाँ खो गया ? .... कहाँ खो गया ....?
हमारे उस सीलोन गाँव में सौ फीट लम्बाई मंें और पच्चीस फीट चैड़ाई में फैला हमारे परिवार ठाकुर प्रसाद जी का वह मकान -परछी - गलियारा, पंडित बद्रीप्रसाद का कमरा- बैजनाथ, सूरदास के कमरे आँगन। आँगन के बाद दो मंजिला ठाकुरप्रसाद एवं उनकी पत्नी का रहवास।
बाहर की परछी से सटा पशुशाला वाला भाग जो सरमन प्रसाद और उनकी पत्नी को दिया गया था। उसी एक कमरे और छोटे से आँगन में ब्याह कर आयी हरबाई ने अपने जीवन के पन्द्रह बसंत काट दिये हैं। इसी घर में उसने पाँच संताने जन्मी - दो अकाल मौत मरीं - तीन शेष। कष्टों की कितनी कठिन तपस्या उसने भोगी है ! उसे अपने शब्दों में, उनकी व्यथाओं का वर्णन करने में- मैं सामथ्र्य नहीं हूँ। अतः उसके साहसिक व्यक्तित्व को मैं बार-बार नमन ही कर सकता हूँ ... ! मुझे अच्छी तरह स्मरण है , विपत्तियों से घबराकर एक बार उसने नदी में कूदकर आत्महत्या करनी चाही - पर किसी अदृश्य शक्ति ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। अभी भविष्य में भी उसे अपनी उसी साहसी प्रवृत्ति की भूमिका जो अदा करनी है।
इन दोनों घरों के सामने पचास फुट लम्बा चैड़ा मैदान। बाँईं तरफ श्री ठाकुरप्रसाद जी की गोशाला। उसके प्रबंधक - पंडित श्री बैजनाथ प्रसाद। आगे गली के तिराहे पर कुआँ, फिर आगे ठाकुर जी का भव्य मंदिर, उसके बाजू में लम्बा चैड़ा बगीचा। उसके बाद बाजार - हलवाई - किराना दुकान - सोनी, पटवारी आदि के मकान।
आगे चलकर इसी मार्ग पर कच्चा -पक्का हवेली नुमा किसी तपस्वी के आश्रम सा पंडित रामबक्श दुबे और इस गाँव के भीष्म पितामह की यह तपोस्थली जिसमें एक कुआँ है, बगीचा और शिक्षार्थियों के लिये लम्बे -चैड़े बरामदे बने हैं। इन्हीं तपस्वी का सान्निध्य छः माह तक रामनाथ को भी प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने समग्र जीवन का अर्जित ज्ञान पूर्णता के साथ मुझे प्रदान किया। बाद में मैं उनका प्रिय शिष्य बना। बहन के नाती के रूप में उनसे भरपूर स्नेह भी प्राप्त किया। इतने बड़े रहवास में वे प्रारंभ से ही एकाकी रहे हैं - साफ सफाई के लिये केवल एक परिचारिका रही है। जिसके बारे में कभी-कभी छींटा कसी भी हुई। यह केवल मैले चरित्र वालों का घटिया आक्षेप था -ओैर कुछ नहीं। इसकी उन्होंने कोई परवाह नहीं की और सदा सात्विक जीवन जीते रहे।
आचार्य पं. रामबक्श दुबे ज्ञानी होने की विशेष प्रतिभा के कारण वे देवतुल्य रहे औेर सदा सभी वर्गों से सम्मान -आदर पाते रहे। धार्मिक ग्रन्थों का उनके पास प्रचुर भंडार था-और खाली समय में अपने हाथों से उनकी हस्त लिखित प्रतियाँ बनाते थे। मर्यादित- सार्थक जीवन जीने वाले ऐसे विरले ही महापुरूष होते हैं।
सरमन प्रसाद जी ने ‘सेवा भाव’अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य बना लिया था। पौराणिक गाथा के श्रवण कुमार के अनुरूप अपने मन को ढाल लिया था। माता-पिता की दैनिक सेवा के भाव और रात में अपने पिता तुल्य मामा जी की सेवा में रहते। अन्य भांजे उनके इस स्वभाव से चिढ़ते थे। निश्छल -समर्पित सेवा भाव की मामा जी को अच्छी परख थी। अतः सबसे अधिक स्नेह भी वे सरमन प्रसाद को करते थे। प्रायः नित्य ही रात के बारह बज जाते और जब जोर देकर कहते ‘अब जा बेटे ’‘‘बस थोड़ी देर और मामा जी।’’ तब मामा जी का वात्सल्य प्रेम आँखों में छलक आता।
उन्हें सरमन प्रसाद की आर्थिक विपन्नता का भी ज्ञान था। जब तब कुछ अप्रत्यक्ष सहायता भी देते रहते थे,पर यह ऊँट के मुँह में जीरा जैसा ही था। उन्होंने सरमन प्रसाद के सिर पर हाथ फेरते हुये पूछा - ‘‘ मेरे कहने पर तू जीजा जी के साथ गया था। ढाई माह वहाँ रहा। तेरे छोटे मामा रामदयाल वहाँ हैं। सच बतला,क्या वहाँ तू अपनी जीविका चला पायेगा ?’’
सरमन प्रसाद के हाथ मामा जी के बाँए पैर पर थे। एक क्षण वे रुके और बोले -
‘‘ मामा जी,मुझे पूरा भरोसा है, वहाँ मैं जम जाऊँगा। मेहनत मसक्कत से मैं नहीं डरता। थोड़ा बहुत आपकी सेवा करते सीखा है -जो आपसे पढ़ा वह वहाँ काम आयेगा। छोटे मामा जी मुझे बहुत चाहते हैं। वे बार-बार कह रहे थे -कौशल्या की शादी के तुरंत बाद सबको लेकर आ जाना। किसी बात की चिन्ता न करना। रहने खाने की सब व्यवस्था हो जायेगी। नई जगह में हर आदमी को अटपटा लगता है - मुझे भी लगा था - पर हम जब किसी को अपना समझंेगे तो वह भी हमें अपना मानेगा। अपनेपन का यही रिश्ता जीवन भर साथ देता है -घर परिवार -समाज में , गाँव में और आन गाँव में भी ....। आदमी अपना कर्म ईमानदारी से करता रहे -फल ईश्वर पर छोड़ दे ...बस।
‘‘ठीक .... बिल्कुल सही कहा तुमने। गीता का भी तो यही ज्ञान है। शास्त्र भी ऐसा ही कहते हैं। फिर तू तो निष्कपट है..ईमानदार है...सेवाभावी है... परिश्रमी है...। ऐसा आदमी हर जगह पूजा जाता है। तेरा भविष्य मेरे ज्ञान चक्षुओं के सामने है। तेरी सहधर्मिणी मेरी बहू -उसने भी तो बहुत कष्ट झेले हैं। वह भरपूर तेरा साथ देगी। तेरे दो आँखों के तारे ‘रामनाथ - दीनानाथ ’ पढ़ लिखकर हम सबका नाम रोशन करेंगे ....। बस अपने पथ पर दृृढ़ता से तुझे बढ़ने भर की देर है।’’
‘‘ मामा जी, मैंने आपका और माता-पिता का आशीर्वाद धन दोैलत से बढ़ कर माना है। बस एक ही चिन्ता सताती रहती है कि मेरे जाने के बाद आपकी सेवा कौन करेगा ?... वृद्धावस्था में ही आदमी अपनों या अपनी संतान का सहारा चाहता है। यही समय है जब आपको, माता-पिता को सहारे की जरूरत है ... और..मुझसे जैसा भी बना मैं सालों से अपने धर्म का पालन करता रहा... और अब समय आने पर विमुख हो जाऊँगा... मेरा व्रत टूट जायेगा... मामा जी यह पीड़ा मुझे दुविधा के भँवर में फँसाये है ... कभी डूबता हूँ.... तो कभी ऊपर आता हूँ .... क्या करूँ ..... समझ में नहीं आता ?
मामा जी दूरदर्शी थे। सरमनप्रसाद का कथन अक्षरशः सत्य था। ममत्व और मोह के बंधन से उनकी आँखें गीली हो गईं ... पर वे शीघ्र संयत हो गये। फँसे तो सब चैपट। प्रगति का मार्ग तो सुखों के त्याग में है। इस समय यही प्राथमिक आवश्यकता है।
‘‘ देखो, बेटे- मैं नहीं चाहूँगा कि तुम मेरी सेवा के खातिर अपना भविष्य बर्बाद करो। वर्तमान में तुम पर चार प्राणियों का उत्तरदायित्व है। आगे यह बढ़ भी सकता है, अतः मैं केवल अपने स्वार्थ के कारण से तुम्हारी प्रगति का मार्ग अवरुद्ध करूँ तो मुझे मेरी आत्मा और मेरा ईश्वर कभी क्षमा नहीं करेंगे। तुम्हारी सेवा भावना में वहाँ भी कोई व्यवधान नहीं आयेगा। वहाँ तुम्हारे छोटे मामा, माता-पिता भी रहेंगे सो तुम्हारी सेवा का क्रम वहाँ भी जारी रहेगा। मन में व्यर्थ के संकल्प - विकल्प मत जगाओ। दृृढ़ता से उनका शमन करो... मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि असक्त होने पर मैं भी जबलपुर तुम्हारे पास आ जाऊँगा।’’
सरमन प्रसाद को कुछ ढाढ़स बँधा। उनके विचलित मन को कुछ सम्बल मिला। जबसे जन्म भूमि छोड़ने का मन में विचार आया था, तभी से अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति के विचारों को सुना और समझा था - उनमें अधिकांश का मत प्रतिकूल था। छोटे ठाकुर तो हर्गिज तैयार नहीं थे। कुछ विशेष प्रलोभन भी दिया। वैद्यराज व अन्य भी इसी पक्ष के थे। पर माता-पिता के बाद जिनसे सबसे अधिक संसर्ग था, वही जब प्रबल हिमायती हैं तब... यही मार्ग अपनाना श्रेयस्कर है। देवतुल्य पुरुष सदा हित की ही बात करते हैं। जो कहते हैं - आशीर्वचन समझ कर उनका पालन करना चाहिये, इसी में कल्याण है। मामाजी ने देखा उनकी बात का असर हुआ है। बोले ‘‘ अब जाओ बेटा। रात बहुत हो गई है। घर में भी सभी से परामर्श कर लेना और जाने की तैयारी करना।’’
दूसरे दिन सरमनप्रसाद ने घर में सभी से विचार-विमर्श किया। निर्णय था, पहले सरमन प्रसाद का परिवार जाय। दूसरी किस्त में बद्रीप्रसाद,तुलसीदास जायें। तीसरी में माता-पिता। इस बीच यहाँ बैजनाथ घर में खेती और पशुओं की देखभाल को रुकें। और बाद में ये जबलपुर जायें।
सरमन प्रसाद एकादशी और प्रदोष का व्रत रखते थे अतः इस व्रत के दूसरे दिन जाना तय हुआ।
सीलोन से जबलपुर के लिए प्रस्थान की घड़ी आ गयी। बैजनाथ ने बैलगाड़ी तेैयार कर ली थी। बमीठा तक इस माध्यम से पहुँचाने की व्यवस्था थी। अपना बसा बसाया घर त्यागने का दुख किसे नहीं होता ? हरबाई अपनी सासू माँ और देवरानी से लिपट कर खूब रोईं। रामनाथ -दीनानाथ भी रोये। पास पड़ोस की महिलायें -आदमी भी कुछ दूर पीछे-पीछे चले जो कि हम लोगों को बिदाई के लिये आये थे। लोकनाथ और पुत्ती भी आये और बार- बार कहा- ‘‘भैया, जल्दी आना।’’
चारों में से किसी को भी ज्ञान न था - अब कब आना होगा ? होगा भी कि नहीं ? पता नहीं ... पराश्रित शिशु क्या कह सकता है ?
गाँव की बस्ती समाप्त होते ही बिदाई की रस्म -अभिवादन के साथ समाप्त हुई। सरमन प्रसाद मौन किसी अपराधी जैसे सिर झुकाये चल रहे थे। गाँव की सीमा पर एक छोटा सा मंदिर था। वहीं खड़े हो गये। बोले - हे जन्म भूमि ! तूने हमें पाला ! पोसा ! तेरी गोदी में सुख- दुख दोनों भोगे। अब तुझे छोड़कर जा रहा हँू। मुझे इन संतानों के भविष्य के निर्माण पथ पर इन्हें आगे बढ़ाना है। शिक्षित करना है, कृृपया मुझे क्षमा कर आशीर्वाद देना। हम सभी की रक्षा करना .....मेरे हर अपराधों को क्षमा करना। और सरमन प्रसाद ने जमीन पर अपना सिर रखकर अपनी मातृभूमि को प्रणाम किया फिर बैलगाड़ी में बैठ गये। सभी ने वैसा ही किया।
जन्म भूमि से बिदा ! सीलोन से बिदा !! अपने बचपन की स्म्ृतियों से बिदा !!! यहाँ का अध्याय समाप्त।
भोला कुम्हार का मंदिर !
जबलपुर में दमोहनाका से कटनी की तरफ जाने वाली सड़क पर स्थित था यह शिव मंदिर। कहते हैं, भोलाप्रसाद जी बहुत ही कर्मठ - धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। धार्मिक आस्था की प्रतिमूर्ति थे। कई एकड़ जमीन और कई मकानों के स्वामी थे। ऐसी आस्था के कारण उन्होंने इस मंदिर का निर्माण करवाया था और साथ में एक छोटी धर्मशाला का भी। बाहर से आने वाले यात्री इसमें निःशुल्क ठहर सकते थे। मंदिर के पीछे एक बगीचा है जिस में तरह तरह के फूलों के पौधे विकसित किये गये थे। फलों के वृक्ष भी लगे थे। यही पुष्प और फल भगवान शिव पर अर्पित होते थे।
इस मंदिर की व्यवस्था हेतु पंडित रामदयाल जी दुबे की नियुक्ति की गई है। वे मंदिर के प्रति पूरी तरह से समर्पित थे। मंदिर के रख रखाव के व्यय का जिम्मा जसोदा बाई करती हैं। वे विधवा हैं। धार्मिक आस्था उन्हें जैसे विरासत में मिली है। दोनों समय की आरती प्रार्थना उनका नित्य का नियम है। वे विदुषी हैं। मृदु भाषी हैं। उस क्षेत्र के छोटे बड़े सभी लोगों से उनको आदर और स्नेह मिलता है।
पंडित सरमन प्रसाद के जबलपुर आने पर यही मंदिर प्रथम शरण स्थली बना - और जसोदा बाई की स्नेहिल छाया मिली। छोटे मामा जी तो अपने थे ही। उन्हीं के ही सतत् आग्रह से यहाँ आना हुआ। इसलिये इस सफलता से सबसे अधिक प्रसन्न वे ही हुये। भनेज बहू और नाती थोड़े ही समय में सबसे हिल मिल गये।
सरमन प्रसाद कर्मकांडी पंडित थे, अतःउन्होंने उसी क्षेत्र में काम करने का मन बनाया। उन्हें आशा थी,अपने मधुर व्यवहार से यजमानों में अपनी पैठ बना लेंगे। अतः संभावनाओं की खोज में दूसरे ही दिन निकल पड़े। पिता जी के साथ पूर्व में आने से उनके कुछ ठिकाने तो बन गये थे, बस उन्हें फिर से संपर्क भर साधना था।
पहला दिन सफल रहा - जिससे उत्साह बढ़ा। मंदिर में उनका परिवार सात दिन रहा। औेर भी रह सकता था। किन्तु बाल बच्चों के साथ किराये के मकान में रहना उचित समझा। पास ही रामनारायण बाजपेई के यहाँ एक कमरा तीन रुपये माह मंे मिल गया सो उसमें चले गये। पर दोनों जून मंदिर आने- जाने का क्रम कभी नहीं टूटा। रामनाथ का दाखिला गोहलपुर प्राथमिक स्कूल में हो गया। इसमें पढ़ाई संतोष जनक नहीं थी। इसलिए वहाँ केवल पन्द्रह दिन अध्ययन कर सका। मामाजी के प्रयास से सूजी मोहल्ला स्कूल में दाखिला मिल गया। जहाँ शिक्षा का क्रम चार साल निरंतर चला। पूर्व में गाँव की शिक्षा यहाँ काम आयी। प्रथम दर्जे में पढ़ाई में अग्रणी होने विशेष विद्यार्थी का दर्जा पाया। चैथी तक हर क्लास में यही क्रम रहा। कुशाग्र बुद्धि के कारण सभी शिक्षक प्रसन्न थे।
तीन माह बीत गये। द्वारिकानाथ का जन्म हुआ। प्रारम्भ में वह श्याम वर्ण था, धीरे- धीरे रंग खुलता गया। समय चक्र आगे बढ़ रहा था। उसके साथ हम सब भी। तीन साल बीत गये। दीनानाथ का दाखिला भी सूजी मुहल्ला स्कूल में हो चुका था। बद्रीप्रसाद पत्नी सहित एवं तुलसीदास भी माता- पिता के साथ आ चुके थे। सभी आगन्तुक बल्देव मालगुजार के बाड़े में किराये से मकान लेकर रुके। सरमन प्रसाद जी अथक श्रम कर रहे थे। प्रायः नित्य ही दस से पन्द्रह किलो मीटर की पद यात्रा का सुफल उन्हें मिल रहा था। उनकी यजमानी का क्षेत्र बढ़ रहा था।
हरबाई अच्छी गृहणी का कर्तव्य निभा रही थी और बच्चों का पालन पोषण कर रही थी। संतानों के व्यक्तित्व के विकास मंें माँ की अहम भूमिका होती है, उसके द्वारा पिलाई अच्छी शिक्षा की घुटी का असर सदा उनके व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती - उसके व्यक्तित्व को निखारती और आलौकित करती है। उसकी इस प्राथमिक शिक्षा के दूरगामी परिणाम किसी ना किसी रूप में उनके आचरण -व्यवहार पर झलकते हैं। उनकेे द्वारा प्रयुक्त श्रम उनकी संघर्ष क्षमता को बढ़ाता है और कठिनाईयों से जूझने की प्रेरणा देता है। केवल माँ ही वह विलक्षण प्रेरणा óोत होती है। जिसकी पाठशाला में शिक्षित शिशु की प्रतिभा का मूल्यांकन जीवन के हर क्षेत्र में किया जा सकता है। वह अपने बच्चों के जीवन को गढ़ती है और बनाती है। माँ का यह तपोनिष्ठ स्वरूप ही उसे पूज्यनीया बनाकर उसे उच्च पदवी प्रदान करता है।
बद्रीप्रसाद ने पहले अपना शहरी जीवन प्रारम्भिक लीक से हटकर, व्यवसाय से किया। डेढ़ दो साल उसी में लगे रहे, पर सफल नहीं हुये। सो उन्होंने अपना पुस्तैनी कर्मकांडी पुरोहिती का कार्य अपना लिया। उसमें वे सफल भी हुये।
तुलसीदास को अपने गायन के क्षेत्र में कोई कठिनाई नहीं हुई। उनका क्षेत्र सबसे लाभकारी सिद्ध हुआ। जिससे उनकी आर्थिक स्थिति सबसे बेहतर बन गई। सबके पिता ठाकुर दास जी का पूर्व से यजमानी का जमा कार्य था। प्रतिष्ठित वर्ग में उनकी यजमानी थी। यजमान उन्हें देववत सम्मान देते थे। ज्योतिष का अच्छा ज्ञान होने से जन्म पत्री का निर्माण उनका प्रमुख कार्य था। उन्हें घर बैठे अच्छी आय हो जाती थी।
जबलपुर आने के समय रुपया -पैसा- धेला- छिदाम का चलन हमारे देश में था, मुद्रा कीमती थी और वस्तुएँ सस्ती। एक रुपया में बीस सेर गेहँू ,पच्चीस-तीस सेर चना, चार-पाँच रुपये सेर शुद्ध घी। इसी तरह अन्य जिन्स भी। बाँटों का चलन छटाक-पौवा-अद्धा-सेर में था। पहनावे में सूती वस्त्रों का चलन ही था। आवागमन के लिये ताँगा जिसे घोड़ा या घोड़ी खींचते। हाथ ताँगा भी था, जिसे घोड़े की जगह आदमी खींचता। आज के समय के प्रचलित वाहनों का उस समय तक आविष्कार नहीं हुआ था। ट्रक, बस ईंधन और कोयले से पीछे भाग में लगी आग की टंकी के सहारे चलते थे। दुपहिया वाहन में सायकिलों का सीमित चलन ही था। रेल गाड़ियाँ पत्थर के कोयले से चलतीं थी।
बिजली का चलन सीमित क्षेत्र में था। अतः रात्रि में कृृष्ण पक्ष में सड़कों,गलियों - घरों में दीपक की रोशनी ही थी। और शुक्ल पक्ष में बस चन्द्रमा की रोशनी। सामथ्र्यवान के घरों -कोर्ट कचहरी में कपड़ों के हाथ के पंखे चलन में थे। जिसे श्रमिक हाथ से हिलाते -डुलाते रहते थे। अविकसित क्षेत्रों की हालत बदतर थी। गलियाँ सड़कें ऊबड़-खाबड़। शहरों में सिनेमा घरों का निर्माण हो गया था और पहले उनमें मूक फिल्मों का चलन था - बाद में ब्लेक एण्ड व्हाइट फिल्में चलने लगीं। सिनेमा घरों में टिकट की दर बहुत कम थी। मनोरंजन के सीमित साधन थे अतः सिनेमा घरों में भीड़ होती थी। मनोरंजन के दूसरे साधन नाटक-नौटंकी, रामलीला मंडली, रासलीला मंडली भी चल रही थीं। जो कि समाज में मनोरंजन के साथ शिक्षाप्रद ज्ञान भी प्रदान कर रहीं थीं।
राजनीतिक क्षेत्र में बड़े-बड़े नेताओं का उदय हो चुका था। जनता को अंग्रेजों के शोषण से मुक्ति दिलाने के लिये सतत प्रयासरत थे। उनके द्वारा किये गये प्रयास के कारण वे जनमानस में स्थापित हो रहे थे। देश की आजादी के लिये आन्दोलन सभी प्रान्तों में चल रहे थे और साथ ही गिरफ्तारियाँ एवं जेल भरो आन्दोलन का क्रम भी चल रहा था। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, डा राजेन्द्र प्रसाद, सरदार बल्लभ भाई पटैल, सुभाष चन्द्र बोस, मोहम्मद अली जिन्ना, मौलाना आजाद सहित अनेक देशभक्त नेता जनमानस को प्रभावित करने में लगे हुए थे। साहित्यिक क्षेत्र में भी धुरंधर साहित्यकारों कवियों की रचनाएँ अपनी प्रभावशाली भूमिका अदा कर रही थीं। उनमें मुंशी प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरदचन्द्र, बकिंम बाबू , सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर,शिवमंगल सिंह सुमन, महादेवी वर्मा आदि अनेक साहित्यिक हस्तियाँ सामाजिक राजनैतिक चेतना जगाने का निरंतर प्रयास कर रही थीं।
उस समय शिक्षा का क्षेत्र सीमित था - निरक्षरों का औसत अधिक था अतः जनसंख्या वृद्धि पर न कोई प्रतिबंध था और न ही उसके दुष्परिणामों का प्रचार -प्रसार। दूर दराज आने जाने के लिये रेलयात्रा को एक उपयोगी साधन माना जाता था। पर यह सुविधा कुछ विशेष क्षेत्रों तक ही उपलब्ध थी।
उस समय गरीबों और साधन हीनों की संख्या अधिक थी अतः वे निरक्षर रह जाते थे और बेचारे अपनी दो जून की रोटी जुटाने में व्यस्त रहते थे। श्रमिकों के श्रम की कीमत न के बतौर थी। हर साल संक्रामक रोगों एवं महामारी से हजारों लोग असमय ही मृत्यु के शिकार बन जाते थे - हैजा -प्लेग- टीवी होना, हर साल आम बात थी - इनसे जो बच गये वे ही भाग्यशाली समझे जाते थे। इन सबमें क्रमिक सुधार और बदलाव के प्रयास आजादी के बाद ही हुये। इसलिये आजादी की मशाल जलाने और शोषण मुक्त समाज के निर्माण के लिये जन मानस व्याकुल हो रहा था। सभी जानते हैं कि कितनी असंख्य जानों की आहुति के उपरान्त आजादी मिली। यह अलग बात है कि जो आजादी हमें मिली वह हमारे देश के दो टुकड़े करने के बाद मिली। जिसका खामियाजा आज भी हमारा देश भुगत रहा है। अनेक युद्धों में जनधन की बर्बादी, सैनिक सुरक्षा का भारी भरकम बजट पर व्यय जिसके कारण अन्य विकास के महत्वपूर्ण योजनाएँ पिछड़ गईं हैं। इसका दुष्परिणाम दोनों देशों को भोगना पड़ रहा है।
सन् उन्नीस सौ इकतालीस !
सरमनप्रसाद के परिवार पर वज्राघात !
उनकी प्रिय पुत्री प्रथम गर्भ धारण के बाद जबलपुर आयी। सीलोन गाँव छोड़ देने के बाद एक लम्बे अरसे से वह अपने परिवार से नहीं मिल पाई थी। अपने माता पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों से मिलकर उसे भारी खुशी हुयी। उसके पति श्री हनुमत प्रसाद मिश्रा, उसे भरे पूरे परिवार में छोड़ कर एक माह बाद पुनः आने की कहकर अपने घर पहारी वापस लौट गये थे। उन्हें क्या पता था,यह उनका अन्तिम मिलन था। क्या पता था कि एक विकराल काल अपनी भूख बुझाने मँुह बाये खड़ा था।
सब कुछ सामान्य था। उन दिनों अधिकांश प्रसव घर पर ही होते थे। सहज भाव से कौशल्या ने अपनी सुन्दरता के अनुरूप एक कन्या रत्न को जन्म दिया। माँ बनने की खुशी में वह प्रसव पीड़ा के सारे कष्ट भूल गई। नवजात आगन्तुका के नाना-नानी भी एक नया ओहदा पाकर फूले ना समाये।
कौशल्या अपने नन्हें अंश के सिर पर ममत्व से हाथ फेरते हुये बोली -
‘‘बाई....’’ (माँ को सभी बच्चे बाई सम्बोधन से पुकारते थे )
‘‘बोल बिटिया ’’ प्यार से माँ बोली।
‘‘वे’’ कह गये थे... जब भी कुछ हो तो तार से खबर दे देना...मैं तुरत जबलपुर आ जाऊँगा ...।
‘‘तार तो हो गया ...लाला (बद्रीप्रसाद) बता गये ... सबको चिन्ता है...तू फिकर मत कर ....
‘‘फिकर नहीं करती ....‘‘वे ’’ बहुत चाहते हैं न ! बार-बार कह रहे थे, सो कह रही हँू... वे आयेंगे ... दस पन्द्रह दिन रहेंगे .... फिर साथ लेकर वापस .... जब यहाँ से चली जाऊँगी ...तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा न बाई ? ’’
बाई की आँखें नम हो गईं। उनका मातृत्व उमड़ पड़ा। जैसे घर से आज ही बेटी की बिदा का दिवस हो। आँचल से आँखें पोंछ कर प्यार से बोली- ‘‘ कौशल्या, कित्ते दिन बाद तू हमसे मिली थी ... खूब याद आती रही .... सीलोन से निकलते समय से ही....और यहाँ पे आने के बाद मैं कितनी परवश थी ... अकेले में तेरी याद कर के खूब रो लेती ... जी हल्का हो जाता ...’’
‘‘बाई,नाहक न रोया करो। वे लोग खूब धनी हैं। सभी खूब चाहते हैं। भैया तो देख आया, कित्ता बड़ा घर है। दूध-दही-घी की नदियाँ बहती हैं। पाँच ससुर हैं। सभी नम्बरदार। हमारे ससुर खूब चाहते हैं। इनको कोई काम नहीं करने देते। एक दो बजे से बस,ठंडाई घोंटने बैठ जाते हैं। खूब मेवा मसाले से घुटा दूध पीते रहते हैं। जबरन एक गिलास मुझे भी देते हैं, खूब मना करती पर मानते ही नहीं ...माल टाल खा कर मोटी न हो जाऊँगी बाई ?’’
बाई अपनी बिटिया की सयानपन की बातें सुन हँस कर कहती है ‘‘चल री ... बड़ी-बड़ी बातें करने लगी है... जियादा चबड़- चबड़ न किया कर ! कभी वे गुस्सा हो गये तो....’’
बीच में ही बात काटकर कौशल्या बोली -
‘‘अररर... ! तुम गुस्सा की बात कहती हो...वहाँ मेरा हुकुम चलता है ... मैं कहती - बैठो ...तो बैठ गये। कहती उठो...तो उठ गये। मजाल है कि...हुकुम न बजायें। मेरी जिठानी कहती है - तू बड़ी जादूगरनी है... हमारे देवर पर कैसा जादू कर दिया... शेर को बछड़ा बना दिया ... कौन सिखाता -यह सब। माँ तो तेरी गऊ है। न किसी के तीन और न तेरह में। मैं कहती ‘दीदी ये ज्ञान पढ़ाई से नहीं -अपने आप आ जाता है। घर में भी ऐसा ही हुकुम चलाती हँू। सब मेरी बात मानते हैं ...बाई ...जब घर जाऊँगी तब पता, मैं क्या करूँगी...?’’
‘‘ क्या करेगी ?’’
‘‘उनकी ठंडाई -बंडाई सब छुड़ा दूँगी। कहूँगी अब आदमी बनो। अब तुम एक लड़की के बाप बन गये हो। निठल्ले मत बैठो ...कुछ काम करो ... हाथ बटाओ .. घर गिरस्ती ऐसे नहीं चलती .. खूब राजकँुवर बने रहे... अब आगे की फिकर करो... अभी एक है- कल दो -परसों तीन...न जाने कितनी फौज होगी... कौन जानता है ? क्यों बाई... ठीक सोचा है न ? .. बस जाने भर की देर है। खूब डाँटूँगी। जी भर के डाँटँूगी ’’
बाई ने हलकी प्यार भरी चपत जड़ दी।
‘‘ अरी बेशरम !....अपनी माँ से अंट-संट बात करते तुझे शरम नहीं आती ? इतनी सयानी हो गई कि कुछ भी कहती रहती है। आखिर लाज शरम भी तो कोई चीज है ? ठहर... आने दे दामाद को ....तेरी दाई गिरी, सब उन्हें बताऊँगी।’’
कौशल्या को अपनी अतिशयोक्ति युक्त कही बातें समझ में आ गई। बाई से न कहने योग्य बात भी कह गई। बुरा तो किया पर जो हो चुका - हो चुका। तरकस से निकला तीर-निकला सो निकल गया। अब बात का रुख बदलना ही ठीक है। उसने सोचा और तुरंत ही कहा -
‘‘ बाई, रामनाथ रोज स्कूल से आकर कहाँ गायब हो जाता है ? कई दिनों से देख रही हूूँ- रात बारह- एक के बाद आता है, उसके हाव- भाव ठीक नहीं दिखते।’’
‘‘ ठीक कह रही है तू। मैंने पता किया , तो मालूम हुआ, बाहर से कोई रामलीला मंडली आयी है। उसके महंत ने उसे फुसला लिया और वह नालायक उसके बहकावे में आ गया है। शायद सीता बनता है। मुझे तो डर है, उनके साथ कहीं घर से वह भाग न जाये। ये मंडली वाले अच्छे लोग नहीं होते। मैं तो कह-कह कर हार गई। तू भी कह देख। वह शायद मान जाये और सुधर जाये। कौशल्या ने गंभीर हो बाई की बात का अनुमोदन किया।
‘‘ बाई, आज रात वह जब आये तब मुझे जगा देना। रात में वैसा ही हुआ। कौशल्या ने पहले प्यार से समझाया। बेअसर होने पर डाँटा। उसने भी अपने तेवर दिखाये। घर से भागने की धमकी दी। पर जब कौशल्या ने अपना एक अमोघ अस्त्र ‘अपनी कसम ’ का चलाया तो वह बँध गया। दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे। अपनी बहन की कसम तोड़ने का साहस उसमें न था। बाई की -बड्डे (पिता)की कसम पच्चीसों बार तोड़ चुका था। पर यदि प्यारी बहन की कसम तोड़ी और उसे कुछ हो गया तो....तो...आगे नहीं मालूम। दूसरे दिन से वह सुधर गया।
कौशल्या ग्रामीण परिवेश में जन्मी थी और उसी परिवेश में ब्याही गई थी। पर उसकी ससुराल का माहौल भिन्न था। उनके सम्पर्क उच्चवर्ग से थे अतः उनके रहन -सहन पर वहाँ की छाप पड़ गयी थी। उसे कौशल्या अपना चुकी थी-माँ का रख-रखाव बेढंगा, अस्त-व्यस्त और बेसलीका सा था, सो उसने उस शैली से माँ को भी दीक्षित कर दिया। थोड़े समय में जैसे वह बहुत कुछ परिवर्तन कर जाने वाली थी।
वह दिसम्बर का महीना था। उस साल ठंड अपनी चरम सीमा पर थी। प्रसव के बाद से ही उसे हल्का बुखार सा आने लगा था। बुखार से कमजोरी बढ़ती जा रही थी। कमजोरी से वह घुटन महसूस करने लगी। उसे लगने लगा कि वह अच्छी होगी भी या नहीं ? अपने पति के आने की नित्य प्रतीक्षा करती और दिन की समाप्ति होते होते वह टूटने सी लगती। दवाई चालू थी - पर बेअसर। भूख तो एकदम मर सी गई थी। उसे विश्वास हो गया था, अब वह बचेगी नहीं। वे आ जाते तो प्राण लौट आते। नहीं आयंेगे तो ... हे राम ! क्या हो गया उन्हें ? क्या तार नहीं मिला ? गाँवों में तार चिट्ठी बन जाता है। आये क्यों नहीं ? ... क्या उन्हें बिना देखे ही वह ...। नहीं... कहीं मेरी जैसी उनकी तबियत भी तो खराब नहीं ... वे तो मुझसे भी ज्यादा नाजुक हैं ... थोड़े में ही तबियत खराब हो जाती है। हे भगवान ! उनकी रक्षा करना। उनका रोग मुझे लग जाये .... वे ठीक हो जायें ... और जल्द ही आ जायें ...
कौशल्या के मन में तरह- तरह की शंकायें -कुशंकायें, संकल्प -विकल्प मन में उमड़ -घुमड़ रहे थे। धीरज टूट रहा था। माता की कोख में भी एक संतान पल रही थी, सो माँ की एक अलग परेशानी थी। बिटिया की बीमारी से माँ अलग चिंतित। नवजात नातिन की फिकर अलग ...। कैसी विपत्ति में डाल रहा था, परमात्मा। एक दिन चढ़े बुखार में कौशल्या ने नहा लिया। उसका शरीर जल रहा था - सोचा जलन शांत हो जायेगी। हुआ उल्टा। ज्वर तेज और तेज हो गया। रात में सन्निपात हो गया। प्रातः होने के पूर्व, काल को मौका मिल गया और उस कोमल कली को जो मुरझा गई थी .... लील लिया। पति से मिलने भी न दिया उसने ...
पूरे परिवार में हाहाकार मच गया। हाय ! यह क्या हो गया। जबलपुर आने की इतनी बड़ी कीमत ... एक लड़की थी सो वह भी छीन ली। विधाता ! तू कितना निर्दयी है !!
दूसरे दिन उसके पति लेने जबलपुर आ गये। पर अब किसे ले जायेंगे ? जिसे लेने आये थे ... उसकी बिदा तो एक दिन पहले ही हो चुकी थी।
उनकी देरी का कारण बाद में पता चला। वे स्वयं भी ज्वर से पीड़ित रहे। अब इस देरी का पश्चाताप उन्हें आजीवन काटता रहेगा। कैसा दुर्योग है यह ?
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इस संसार की विचित्र परंपरा है। भारी से भारी विपत्ति झेलने की शक्ति मनुष्य में स्वयं आ जाती है। कुछ दिन रोते-कलपते हैं, धीरे-धीरे सब सामान्य। माता-पिता के हृदय से घाव की पीड़ा हटने में कई माह लग गये। आखिर विस्मरण का चमत्कार तो ईश्वर प्रदत्त है न ? अपने कर्म पथ पर बढ़ने वह सहयोगी का अभिनय करता है। तेरहीं तक पति रुके। कन्या की माँ को ननिहाल ने छीना है अतः उसके लालन-पालन का जिम्मा भी उसे उठाना होगा।
कौशल्या की मृत्यु साधारण घटना न थी। पास पड़ोस में भी उसकी चर्चा काफी लम्बे अरसे तक जीवित रही। इस संसार में जिसने जन्म लिया - उसका प्रयाण भी तो अवश्यसंभावी है, पर दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करते ही अल्पायु में संसार छोड़ देना, एक मर्मान्तक घटना थी -इसलिये असाधारण थी। वृद्ध आजा-आजी थे, वे मनोैती मना रहे थे कि परमात्मा उन्हें उठा ले - कौशल्या बच जाये। पर क्या ऐसी कामना की पूर्ति कभी हुई है ? सभी छाती पीट कर कहते - तेरे बिना हम कैसे जियेंगे ...? पर इसके विरुद्ध सभी जी रहे हैं, संसार की गति को गतिमान रखने के लिए सभी को जीना पड़ता है। सुख दुख के थपेड़ों को सहता हुआ वह जीवन जीता रहता है।
माँ को छीनने के बाद एक न्याय जरूर परमात्मा ने उस दुर्भाग्य शाली बालिका पर किया। कौशल्या की कोख ने फिर एक बालिका जन्मा था। उसका जन्म उसके जीवन का आधार बना। माँ का न सही, उसकी अपनी माँ का दूध उसके जीवन को सँवारेगा। और कौशल्या का प्रतिरूप अब इस धरा पर बना रहेगा।
सरमन प्रसाद का परिवार इस दर्दनाक हादसे के बाद इस किराये के घर में ज्यादा दिन नहीं टिक पाया। जिस घर ने उनकी प्रिय बेटी छीन ली थी वहाँ रह भी कैसे सकते थे ? घर की दीवारें उन्हें काटने को दौड़तीं। घर के हर कोने - कोने में उसकी दर्द भरी कराहें गँूजतीं। अतः मकान बदलना ही बेहतर समझा सो बदल दिया।
उन दिनों जरा- जरा सी बात पर शहर में - देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठते थे। नया मकान उस खतरे की सीमा पर था। बचाव का सम्बल एक बहता नाला था। नाले के उस पार मुसलमान बस्ती - इस पार हिन्दु बस्ती। खून गरमाता - तो खौल उठता। दोनों तरफ से पत्थर बाजी होती। जब पत्थर मकान के छप्पर पर गिरते तो मकान का छप्पर काँपने लगता और उसके भीतर रहने वाले सहमें से दुबक कर रह जाते। दोनों तरफ से सारी रात रतजगा होता रहता। जाने कब क्या हो जाये ? जब आदमी पिशाच बन जाता है, तब वह कुछ भी कर सकता है। छुरी, चाकू, बल्लम, फरसा, लाठी जिसके पास जो होता है -वह उसे ही चमकाने लगता है। शायद उस पार वाले डर जायें। कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया उस पार वालों की भी थी। उस समय इस रहस्य को समझने की बुद्धि नहीं थी कि हम सब में आदमीयत के अंश एक जैसे ही होते हैं। हम सबको एक ही ईश्वर ने बनाया है, फिर भी क्यों हममें पशु से बदतर आचरण प्रकट हो जाते हैं। प्रकट होते हैं या प्रकट कर दिये जाते हैं। कौन हैं इसका जन्म दाता ? कोई तो है हमारी मानवता की विचार धारा में मर्दानगी भरने वाला। तभी तो हमारा खून खौलने लगता है और हम सब पशु बन जाते हैं। इंसानियत को भुला बैठते हैं।
ठंड जोरों की पड़ रही थी। उस पर पत्थरों के बौछारों का डर। कब कौन सा पत्थर छप्पर फोड़ कर अंदर आ जाये ? अंदर आया तो क्या हम सही सलामत बच पायेंगे ? सब भगवान भरोसे। बचे तो ठीक नहीं बचे तो ठीक। जो किस्मत में होगा - होगा। हम जैसे सैकड़ों निहत्थे हैं और निहत्था कर ही क्या सकता है ? शक्ति तो छुरी तलवार लाठी में होती है और वह हमारे पास नहीं है। कभी ऐसी शक्ति हमें प्राप्त भी नहीं होगी। वह तो केवल विशेष बुद्धि वालों के पास ही होती है। हम तो शांतिवादी हैं मानवता पर विश्वास करते हैं।
बड़ा विचित्र संयोग है। एक तरफ तो जान लेने -देने का यह तमाशा चल रहा था तो दूसरी ओर हिन्दु मुस्लिम सभी मिल कर अंग्रेंजो से लोहा ले रहे थे। अंग्रेजों द्वारा तथा कथित देशद्रोहियों पर दिल्ली के लालकिला में विशेष अदालत में मुकदमा चल रहा था। देश भक्तों पर आरोप था कि उन्होंने आजाद हिन्द फौज बनाकर देश के साथ गद्दारी की है। देश परतंत्र था - इसलिये शासक उन्हें शूली पर लटकाने आतुर थे और देश के बड़े-बड़े वकील उन्हें छुड़ाने को लगे हुये थे।
आजाद हिन्द फौज का गठन टोक्यो में 28मार्च 1942 को हुआ था। जिसके सर्वोच्च सेनापति बने श्री सुभाष चन्द्र बोस। इसे मान्यता देने वाले देश हैं -जापान, जर्मनी, वर्मा,फिलीपीन्स, इटली, चीन, कोरिया, आयरलैन्ड आदि। भारी सैनिकों के साथ इनकी फौज भारत की आजादी के लिये अंगे्रजों से लोहा लेते आगे बढ़ रही थी। 7 अप्रेल 1944 को इम्फाल पर आक्रमण की तैयारी थी ,पर वर्षा के कारण तैयारी विफल हो गयी। दूसरा कारण उस समय जापान से रसद की आपूर्ति समय पर नहीं हो पायी जिससे अन्त में उनकी फौज बहादुरी से लोहा लेते हुये हार गई और इनके दस हजार सैनिक पकड़े गये।
14अगस्त 1945 जापान की पराजय से हमारे सुभाष चंद्र बोस की फोैज अंग्रेजों के हाथ पड़ गई थी। 5 नवम्बर सन् 1945 आजाद हिन्द फौज के तीन अधिकारियों पर मुकदमें चल रहे थे। कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लन, मेजर शाहनवाज खाँ पर। इनकी तरफ से केस लड़ने के लिये जवाहर लाल नेहरू ने 30 वर्षों के बाद बैरिस्टर की पोशाक पहनी -सर तेज बहादुर सप्रू , भूलाभाई देसाई ने पैरवी की। कैलाश नाथ काटजू भी वकील थे।
लालकिले मंे हजारों की भीड़ हुआ करती थी। देश भर में देश प्रेम का उबाल जोरों पर था। जैसा कि पराधीन देश में जो निर्णय होना था, वही हुआ। तीनों अधिकारियों को मृत्यु दंड दिया गया। इससे 19फरवरी 1946 को थल सेना में विद्रोह हो गया। बहुत से सैनिकों ने भारतीय सेना को छोड़ कर, सुभाष की आजाद हिन्द फोैज में शामिल हो गये। उपरोक्त घटना से तत्कालीन सरकार ने कानून का सहारा लिया तब उनके बचाव में प्रसिद्ध वकील श्री भूलाभाई देसाई ने तर्क प्रस्तुत किया कि -‘‘पराधीन देश का यह जन्म सिद्ध अधिकार है कि वह अपनी स्वतंत्रता के लिये विदेशी शासकों के विरुद्ध विद्रोह करे ’’ बाद में भारी जनसमर्थन और बढ़ते दबाव के कारण वाईसराय द्वारा उन तीनों को माफी दे दी गई।
हमारे पिता सरमन प्रसाद में अनूठे व्यक्तित्व का उदय हो चुका था जो संभवतः ईश्वर प्रदत्त था। उन्हें ज्योतिष का अल्प ज्ञान ही था किन्तु हाथ देखकर या मन ही मन गणित कर जो भी बात कहते, सत्य निकलती। इस चमत्कारी गुण से उनकी ख्याति में चार चाँद लग गये। वे अति निरभिमानी -निष्कपट -सीधे सरल, संतोषी पंडित माने जाते थे। शादी-विवाह, सत्यनारायण की कथा, ग्रह नक्षत्रों की पूजा पाठ तक ही उनकी आजीविका सीमित थी। उनका यजमान श्रद्धापूर्वक, जो भी दक्षिणा देता वे उसे स्वीकार कर लेते। हमेशा उनका प्रयास रहता यजमान प्रसन्न रहे -बस। गरीब और निचले वर्ग में उनकी पैठ थी और ऐसा ही जीवन वे भोग चुके थे अतः संतुष्टि के लिये उन्हें वे अपनापन देते और लेते थे।
इसी गरीब श्रेणी के लोगों का विशाल क्षेत्र फूटाताल है, वह उनका प्रमुख कार्य क्षेत्र बन गया। उन्हें कुछ कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। बात यह थी कि उस क्षेत्र में उनके आने के पूर्व से जो पंडित वहाँ स्थापित थे, उनके आचरण व्यवहार से यजमान असंतुष्ट थे। इनके आने से उसकी जीविका प्रभावित हुई सो उनने अपने असामाजिक तत्वों के माध्यम से उन्हें सताना प्रारंभ किया। जब इस प्रयास से उन्हें हताशा हुई, तब एक दिन हद दर्जे की नीचता कर डाली। इन्हें मारा पीटा और इनकी पगड़ी फाड़ डाली। उनके यजमानों को जब पता चला तो इनको ले जाकर कोतवाली में रिपोर्ट लिखवा दी। इस आधार पर उन असामाजिक तत्वों की गिरफ्तारी हुई और शिनाख्त परेड हुई। पर तब तक इनकी अन्तरात्मा अपमान की वह चोट भूल चुकी थी और शिनाख्त परेड में उनको जानते हुये भी उन्हें क्षमा कर दिया।यह उनके हृदय की विशालता थी। इससे उन लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ा और वे सभी उनके भक्त बन गये। विरोधी पंडित ने हार मान कर हटना ही श्रेयस्कर समझा और हट गया।
निःस्वार्थ -निष्कपट भाव उनकी वाणी से प्रस्फुटित होती और उनकी कही गयी बात सच हो जाती। अब इसे ईश्वरीय प्रेरणा - या उनका वरद हस्त समझें या कुछ और। ऐसे चमत्कार हुये अवश्य हैं। वे माँ नर्मदा के अनन्य भक्त थे। अमावस, पूर्णमासी के दिन नर्मदा स्नान करने का नियमित नियम था। पुण्य सलिला नर्मदा के समीप बसकर इनकी भक्ति की गौरव शाली यात्रा से वंचित रहें, उसे वे दुर्भाग्यशाली की संज्ञा दिया करते थे। प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित उनकी महिमा का फल सभी को अवश्य मिलता है। तभी तो लोग संकल्पित भाव से नर्मदा की पूजा अर्चना और उसकी परिक्रमा करते हैं। महा महिमा मयी है, माॅं नर्मदा।
पूर्व में वर्णित साम्प्रदायिक दंगों की चर्चा अधूरी रह गयी थी, उसका पुनः उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है। लोगों में खून बहाने की पिपासा क्यों जाग उठती है ? इसका उत्तर जटिल है। सीधे-सादे व्यक्तियों के मकानों को जलाने से और उनकी ग्ृहस्थी लूटने से कौन सा सुख मिलता है ? दंगों से हमेशा हमारा सामाजिक आर्थिक जीवन प्रभावित होता है। कफ्र्यू लगा दिया तो जन जीवन अवरुद्ध। लोग अपने -अपने घरों में कैद। कोई भूख प्यास से तड़पे किसी को चिन्ता नहीं - बीमारी से मर जाये... बला से। यह बंधन यदि तोड़ते हैं तो गिरफ्तार। जो कसूरवार हैं, सजा वे पायें तो ठीक बात है, किन्तु शांति-प्रिय बेकसूर व्यक्ति भी सजा पाये -यह कैसा पीड़ा दायक नियम है। पर ऐसा करना शासन की मजबूरी भी है। ऐसा नहीं किया जाये तो उत्पाती लोग समग्र मानव संस्कृति को ही भस्म कर डालें।
मेरा एक दोस्त था जुल्फिकार अली। नगर के खेलकूदों के दौरान परिचय हुआ और दोस्ती हो गयी। वह इतनी प्रगाढ़ हुई कि परस्पर एक दूसरे के घर पहँुच गई। उसकी अम्मी और वालिद भी मुझे चाहने लगे। वालिद बहुत ही नेक इंसान थे। फिरका परस्ती की बू उनमें रंचमात्र भी ना थी। मण्डी में वे आलू का थोक व्यापार करते थे। मंडी में दोनों धर्मो को मानने वाले थे। उनके यहाँ एक हिन्दू नौकर था और वे उसे बहुत चाहते थे। उसे अपने घर में आश्रय दिये थे क्योंकि वे उसे अपने ही गाँव से व्यापार में मदद के लिये लाये थे।
उस दिन ईद थी। मैं अपने दोस्त को ईद की मुबारकवाद देने उसके घर गया था। उसकी अम्मी मुझे मेरा नाम न लेकर हमेशा ‘पंडित’ संबोधन से बुलाती थी। उन्हें मालूम था हिन्दुओं में पंडित औरों से कुछ विशिष्ट होते हैं अतः साफ सफाई के साथ सिमैयाँ बनाते वक्त उस की मम्मी ने इस बात का ख्याल रखा था। ईद मिलन हुआ। उसके बाद उन्होंने मुझे मीठी सिमईं एक प्लेट में लाकर दीं। मैं प्लेट थाम, क्षण भर के लिये हिचका। शायद मेरे भाव उसकी अम्मी तुरंत ताड़ गई।
बोली-‘‘ बेटा, मुझे मालूम है, तू पंडित है -इसलिये पाक साफ तौर पर इसे बनाया है। मुझे यकीन था, तू अपने दोस्त से मिलने जरूर आयेगा ये शुद्ध शाकाहारी है। खा ले।’’
मुझे बहुत शर्मिन्दगी का अनुभव हुआ।
बोला -नहीं अम्मी, ऐसी बात नहीं। और बिना देर किये तुरंत वह प्लेट साफ कर दी। कितनी स्वादिष्ट थीं वे सिमैयाँ। उनमें डाले गये मेवों से बढ़कर उसमें अपनत्व के मेवे जो समाहित थे- उस स्वाद से बढ़कर संसार में कोई अन्य स्वाद होता है क्या ?...इतने सालों के बाद , आज तक कभी मैंने वैसी सिमईं नहीं खाईं।
यह सत्य है, जहाँ प्रगाढ़ता हो, वहाँ भेदभाव का अंकुर नहीं ऊगने देना चाहिये। उसे तुरंत काट देना ही प्रगाढ़ता की वास्तविक कसौटी है। इस कसौटी को परखने के जीवन में अनेक अवसर आते हैं। उस अवसर पर वह परखी जाती है। एक अवसर मेरे जीवन में और आया जब काटो-मारो की आवाजें .....
भाईजान के यहाँ मेरा आना-जाना एक दो दिन में होता रहता था। एक दिन सायंकाल जब मैं उनके घर पर था। दंगा भड़क उठा था। वह थोड़े ही समय में आग की तरह फैल गया। लोग अपना कारोबार बंद कर अपने -अपने घरों की तरफ भागने लगे। मंडी से भाईजान के वालिद और उनका नौकर श्यामू भी घर आ गये। उनके द्वारा ही हमें जानकारी मिली। मैं छोटा अवश्य था - पर दंगों में क्या होता है, इसकी जानकारी थी, सो घर जाना ही उचित समझा। पर भाई जान के वालिद ने मुझे ऐसा न करने दिया। कहीं भाग दौड़ में कोई हादसा हो जाये तो यह मासूम बालक मारा जायेगा। आखिर छोटी सी जान ही है। सो हम लोगों को अंदर कर लिया। और फितूर हटते ही उसके घर भेज देंगे - ऐसा उन्होंने सोचा।
दंगों का फैलाव होता गया। सारे शहर में कफ्र्यू लग गया। किसी एक सिरफिरे को भनक लग गई कि उनके घर में दो हिन्दू हैं। चार बदमाश तलवार, छुरा लिये इनके घर आ धमके। दरवाजा खुलवाया। उनमें से एक कसाई जैसी शक्ल का था। कड़ककर बोला -‘‘मामूजान ! तुम्हारे घर दो लड़के हैं , उन्हें निकालो ! ’’
अंदर हम तीनों ने सुना तो होश गुम हो गये। किवाड़ के छिद्रों से देखा तो किसी जल्लाद सा दिखा। अब क्या होगा ? कहाँ फँस गया ? ... राम रक्षा करंे ... ! अल्लाह बचाये...... !!
अली के वालिद की समाज में इज्जत थी। उनकी नेक नियत की सभी कद्र करते थे .... इसी की वजह से कोई शख्स उनके खिलाफ अप्रिय आचरण करेगा-उन्हें भरोसा ही नहीं था। अतः उस तलवार वाले - रोैद्ररूपधारी व्यक्ति से तनिक भी विचलित नहीं हुये। बोले - ‘‘ रमजान बेटे आ बैठ। गुस्सा थूक। फिर कह... ’’
रमजान पर बात बेअसर रही।
वह उसी लहजे में बोला।
‘‘मुझे दोनों लड़के चाहिये।’’
‘‘ क्या करोगे बेटा ? ’’
‘‘ क्या करूँगा, पूछने का तुम्हें हक नहीं। निकालो उन्हें। जल्दी निकालो। ’’
अरे ! इस पर तो शैतान सवार है। और इंसान की भाषा वे समझते नहीं। अब...?
उसी शांति से बोले -‘‘ बेटे। थोड़ा ठंडा होकर बात करो। सबको पता है वे भी मेरे बेटे जैसे ही हैं - अली से भी अधिक अजीज। चाहो तो उसे ले जाओ ... वे दोनों तुम्हें नहीं मिल सकेंगे। ’’
पीछे से रमजान से भी अधिक उद्दण्ड होकर बोला -‘‘ यह मियाँ ऐसे नहीं मानेगा। दरवाजा तोड़ रहमत !!
अब वालिद साहिब से नहीं रहा गया। कड़े स्वर में बोले- ‘‘ खबरदार ! जो कोई आगे बढ़ा। और बिजली की गति से बैठकखाने से जाकर बन्दूक ले आये। पर बंदूक को सामने करने के पूर्व ही रहमत ने छुरा का वार उनके हाथ में कर दिया। जख्म होते ही खून की धार फूट पड़ी। पर वे बंदूक कसकर पकड़े रहे। और नली का मुँह ऊपर कर फायर कर दिया। कहते हैं, मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है।
उसी समय खतरे का सायरन बजाती पुलिस की लारी निकली। जिसे सुन सारे उपद्रवी नौ दो ग्यारह हो गये। पुलिस की लारी रुकी। हालात से अवगत कराया गया। उनमें कुछ पुलिस कर्मी रुके , उतर कर मरहम पट्टी की और फिर वालिद साहब दोनों लड़कों को सुरक्षित स्थान में छोड़ने के लिये लारी में बैठ गये। ... बाद में पता चला वे चारों पकड़ लिये गये ... वालिद साहिब ने प्रगाढ़ता की कसौटी में -खरे उतरने का इतिहास रच दिया। आज भी उनकी इस बेमिशाल त्याग भावना से, उनके सम्मान में हमारा मस्तक नत है। ऐसे उज्जवल चरित्र वाले अल्लाह के नुमाइन्दे विरले ही मिलते हैं।
उसी दंगे में अली के वालिद साहब ने दो लड़कों को बचाने का आदर्श प्रस्तुत किया किन्तु वहीं मंडी में उनकी आलू की दुकान लूटकर जला दी गयी। जिससे उनका कारोबार चैपट हो गया। पर एक घटना से जो मानसिक क्लेश हुआ , वह लूटी गयी -जलाई्र गयी दुकान की नुकसानी से कई गुना बड़ी नुकसानी थी। मंडी में वह नुकसान ओैर मोहल्ले में -समाज में उनके द्वारा किये गये कृत्य का प्रतिकूल प्रभाव हुआ। चारों लड़कों को पकड़वाया उन्होंने शायद यह अच्छा काम नहीं किया था। छूटकर आने पर उन लड़को ने उनके साथ अभद्र व्यवहार किया। धमकी दी। सभी ने अनीति का साथ दिया - यह उनके लिये और भी घातक चोट थी ...। किसी सम्मानित एवं आदर के पात्र समझे जाने वाले व्यक्ति पर यदि झूठे लांछन मढ़ कर उसे दोगला - काफिर कहा जाये। तो क्या इसे उसका साफ सुथरा चरित्र बरदास्त कर सकता है ? .... इस चोट ने उन्हें इकदम तोड़ दिया ....। किन्तु उनके मन में यह गर्व था कि उन्होंने दो अबोध बालकों की प्राण की रक्षा की और उन्होंने सही काम किया।आदमी सब कुछ सह सकता है किन्तु चरित्र हनन का दोष कभी नहीं सह सकता है ...।
उनके हाथ का घाव शुगर की बीमारी के कारण अच्छा न हो सका। अंततः डाॅक्टर ने एक हाथ काट दिया। दुकान नुकसानी का शासन की ओर से कुछ मुआवजा मिला। पर दुबारा स्थापित होने की उनकी इच्छा मर गई थी। अतः मकान बेच कर वे सपरिवार दूसरे शहर में चले गये। एक अच्छे इंसान को अच्छे कर्म का बुरा फल मिला। यह कितना घिनौना प्रतिफल है !! इसे प्रारब्ध के सिवा और क्या कहा जाये ?
सब समाप्त ! जीवन में दुबारा जुल्फिकार अली से मुलाकात न हो सकी ...। जाने वह कहाँ होगा ? होगा भी या ... नहीं मालूम !
मुझे भी नहीं मालूम, मैं भी कब तक रहूँगा ? आज जिन्दा हूँ सो लिख रहा हूँ ... स्मरण शक्ति में जो जीवित है, उसे लिखना ही चाहिये। यह हमारे लिए एवं अगली पीढ़ी के लिए एक इतिहास है, एक सबक है। कल जब नहीं रहूँगा, तब जीवन में घटित अच्छे - बुरे प्रसंग साथ चले जायेंगे। यह मैं चाहता नहीं, अपने पूर्वजों की तरह। उन्होंने यहाँ जो ज्ञान और अनुभव कमाया वे सब साथ ले गये।
यों सभी ने ऐसा नहीं किया -
मेरा प्रसंग तो एकदम तुच्छ है।
ऐसे अनेक महापुरुषों ने यह काम किया है। जो हमें प्रदत्त कर गये हैं, वह सालों साल बाद भी उनके न रहने पर, उनके विचार आज भी जीवित हैं। वह अमूल्यवाणी उनके साहित्य के रूप में आज भी सारे विश्व की प्रेरणा स्रोत हैं। आज भी हम उनके द्वारा दिये गये संस्कारों - आदर्शो से शिक्षा ग्रहण करते आ रहे हैं। उनकी स्मृतियों को चिर स्थायित्व देने के लिये आवश्यक है कि उसे लेखन में समेटना -सहेजना। ताकि समाज में सदा चेतना रहे और जागरूकता बनी रहे।
बारातियों के पंगत की बारी आई। शुरू हुई तो महिलाओं ने प्रत्येक बारातियों को गारियों के माध्यम से खूब गारियों की सौगातें पेश की। पंगत में दूल्हा अड़ा तो धर्म के साले लक्ष्मीप्रसाद ने सायकिल देने की हामी भर दी। यह और बात है, दूल्हा आजीवन उनसे सायकिल प्राप्त करने की प्रतीक्षा करता रहा। पर आशा कभी पूरी नहीं हुई। तीसरे दिन भी बारात रुकी। उस दिन भी खूब खिलाया पिलाया। बस अब चैथे दिन बारात रुकने की उम्मीद न करें। इस तरह ग्रामीण अंचल में शादी की अविस्मरणीय यादें सभी की स्मृृतियों में रची बसी रहती हैं।
लड़की की बिदा की तैयारी हुई। पर बारात की वापसी किस साधन से होगी ? चर्चा का विषय रहा। पड़ा गाड़ी ने तो हर बाराती के दिल में एक दहशत पैदा कर दी थी।- अब तो उसका साथ न रहे तो अच्छा। लक्ष्मी प्रसाद पाण्डे जी ने बहुत प्रयास किये पर सफल न हुये। एक ट्रक मिला तो उसमें किसी तरह से आधे बाराती चले गये। और आधेे जिस साधन से आये थे, उसी साधन से उन्हें रवाना किया-उनमें लड़का और बहू भी साथ थे।
जब हमारे जीवन में विशेष प्रकार की घटना घटित होती है तब उस की याद हमेशा बनी रहती है। मेरे बहनोई के गाँव से पचास साल बाद एक सज्जन आये थे, जो मेरी उस बारात में गये थे। उन्होंने उस शादी का विवरण ऐसे सुनाया जेैसे हाल ही में शादी की घटना हुयी हो।
हमारे देश की आजादी मिलने के बाद देश को चलाने के लिये संविधान बनाने की तैयारी दिल्ली में चल रही थी। उसमें डाॅक्टर अम्बेडकर सहित प्रख्यात विद्वान सम्मलित थे। उसके अध्यक्ष डाॅ राजेन्द्र प्रसाद जी थे। मुस्लिम लीग ने उसका बहिष्कार कर रखा था। जिन्ना के तेवर बड़े खतरनाक थे। देश में पुनः साम्प्रदायिक दंगे उनके इशारे पर चालू हो गये थे। शायद वे सिद्ध करना चाहते थे कि हिन्दू मुसलमान अब एक साथ नहीं रह सकते। जिसका प्रमाण मौजूदा दंगे हैं। यही जिन्ना प्रमाणित करना चाहते थे कि बिना पाकिस्तान बने यह आग ठंडी नहीं होगी। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटैल जिन्ना की माँग के विरूद्ध थे।
दिसम्बर 1946 में लंदन से लार्ड माउण्टबेटेन पत्नी सहित भारत आये। जिन्ना ने उनसे गोपनीय चर्चा की। अंग्रेज तो देश का बटवारा ही चाहते थे। माउण्टबेटेन ने नेहरू- पटैल को साम्प्रदायिक दंगों का कारुणिक खाका खींच देश के बटवारा के लिये राजी कर लिया। गांधी जी तो अंत तक विरोधी रहे। लंदन में प्रधानमंत्री एटली भारत की स्वाधीनता की घोषणा कर चुके थे। अब जून 1948 को दी जाने वाली स्वतंत्रता, 15 अगस्त 1947 को दे दी गई,वह भी पाकिस्तान बनने के बाद। अंग्रेज और मुस्लिम लीग की मिली भगत सफल हो गई।
पाकिस्तान में स्वतंत्रता का जश्न भारत के जश्न से ज्यादा दुगने उत्साह से मनाया गया। आजादी के लगभग दो माह बाद ही पाकिस्तानी सेना ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया। - जिसमें दोंनों पक्षों के हजारों सैनिक शहीद हो गये। विश्व के बड़े देश युद्ध से होने वाली बर्बादी का मजा लेते रहे अन्त में संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रयास से युद्ध बंद हो गया।
देश को आजादी तो मिली,किन्तु भारत माता के लाखों सपूतों के बलिदान के बाद। हजारों बेगुनाह साम्प्रदायिक दंगों की भेंट में चढ़ गये। इसी बटवारे के कारण सिंध प्रान्त से लाखों सिंधी शरणार्थी बनकर अपना सर्वस्व छोड़कर भारत आये और उन्हें बसाने में सरकार को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। पर इन्होंने अपनी प्रतिभा के कारण भारतीय समाज में शीघ्र ही अपना प्रमुख स्थान बना लिया।
हमारे देश की यह आजादी की लड़ाई सन्् अठारह सौे सन्तावन में महारानी लक्ष्मी बाई से आरंभ विद्रोह का प्रतिफल थी - जिस मशाल को देश के बलिदानियों ने अपना खून सींच कर जलाये रखा। मंगल पांडे ने अंग्रेजों की सेना में विद्रोह का बिगुल फूँका। आजादी के लिये शहीद भगतसिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, लाला लाजपतराय, राजगुरू, सुखदेव, यशपाल, चन्द्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, इसमें सिक्खों के सदगुरू महाराज कूका, वासुदेव बलवंत फड़के, चापेकर बन्धु, श्री श्यामजी कृष्णजी वर्मा, विनायक दामोदर राव सावरकर, अशफाकउल्ला खाँ, खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा, गणेशशंकरविद्यार्थी, भाईपरमानंद, सरदारऊधमसिंह, लाला हरदयाल, मैडमकामा, मास्टर अमीर चंद, भाई बालमुकुंद, बसंत कुमार, हनुमत सहाय, विश्वास, बलराज, बागी करतार सिंह, वीरेन्द्रघोष, अरविंदघोष, भूपेन्द्र दत्त, रासबिहारी घोष, शचीन्द्रसन्याल, जैसे अनेक सपूतों ने अपने प्राण न्यौछावर किये। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और आजाद हिन्द फौज की वीरता और उन जैसे अनेक बलिदानियों के बल पर आजादी प्राप्त हुयी थी।
यह आजादी बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटैल, मौलानाअब्दुल कलाम आजाद, दादाभाई नोरोजी, विपिन चन्द्र पाल, गोपाल कृष्ण गोखले, गोविंद बल्लभपंत , पुरषोत्तम दास टंडन, राजगोपालाचारी, डाॅ राजेन्द्र प्रसाद जैसे असंख्य सपूतों के सम्मलित प्रयासों से आयी थी। देश के लाखों करोड़ों गुमनाम शहीद परिवारों के कारण आयी थी जिन्होंने देश के लिये अपना सर्वस्व स्वाहा किया। आजादी लाने के सही योद्धा वे ही हैं,जिन्होंने अपने देश को दिया सब कुछ,और लिया कुछ भी नहीं। इस भारत धरा के हे लाखों हमारे बलिदानियांे ! हम आपके कृतज्ञ हैं !! और अपने इस देशवासियों का अभिवादन को स्वीकार करें।
देश के बटवारे के निर्णय से देश का बहुसंख्यक वर्ग खिन्न था। आक्रोश में था। उनका निर्णय गलत था। उसी गलत निर्णय का फल आज भी हमें भुगतना पड़ रहा है। हमें देश की गरीब जनता का स्तर सुधारने के मद में जो राशि खर्च करना चाहिये थी - वह सैनिक कार्यवाही में खर्च करना पड़ रही है। क्योंकि पाकिस्तान बार- बार हम पर युद्ध थोप रहा है। इस युद्ध के दुष्परिणाम से हमारे देश का सभी वर्ग ग्रसित है और इस आग से वह पड़ोसी भी कुछ ज्यादा ही झुलस रहा है।
हमारी शादी के बाद पुनः जगह की कमी महसूस हुई, अतः पिताजी ने आठ माह बाद पुनःमकान बदला। जो कि बल्देवप्रसाद मालगुजार का एक बाड़ा था। जिसमें अनेक मकान किराये पर चल रहे थे। आजा-आजी, काका-काकी पूर्व से ही उनके मकान में किराये से रहते थे। उसमें आने से सभी लोग करीब हो गये। मालगुजार जी का बहुत सौजन्यता पूर्ण व्यवहार था। लकवा से उनके पैर प्रभावित थे, अतः घर के बाहर जाने के लिये आदमी द्वारा खींचे जाने वाला तांगा रखे हुये थे। हाथ रिक्शा का उस समय तक चलन नहीं था। उनके पाँच लड़के थे। जो कि एक छोटे वाले को छोड़ सभी अलग थे। मकान काफी बड़ा था। इसलिये कई किरायेदार थे। काश्तकारी की भी जमीन थी। यह प्रापर्टी उनकी पत्नी के पिता जी की थी। पत्नी बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति की थी। घर के अंदर एक बड़ा मंदिर बनवाया था। अतः दोनों टाईम पूजा अर्चना करने के बाद ही वे भोजन करती थीं। हर एकादशी की तिथि एवं त्यौहार पर गरीब एवं ब्राम्हणों को भोजन करवाना उनका नियमित कर्म था। किरायेदारों से वे अपनी संतानों सा व्यवहार करती थीं।अपने छोटे लड़के पर उनका स्नेह अधिक था। सभी उनको ‘आजी बऊ’ के नाम से सम्बोधित करते थे और उनके छोटे लड़के को सभी ‘छुट्टन मालगुजार ’ के नाम से पुकारते थे।
पिता जी किराये के मकान में रहते हुये परेशानी महसूस करने लगे थे अतः मकान खरीदने के प्रयास में वे लग गये। कुछ बचत होने पर मनुष्य में पहली लालसा यही रहती हैे कि वह अपनी छाया तले रहे। यदि वह किराये के मकान में है तो अवश्य वह अपनी प्राथमिक आवश्यकता जमीन खरीदने की या मकान बनाने की बनायेगा। अपने श्रम द्वारा अर्जित पूँजी से क्रय किये मकान में रहने का सुख और ही है। इसी सुख की प्राप्ति के लिये पिता जी ने श्रम करके मितव्ययता से कुछ पूँजी जोड़ी थी। पूँजी तभी सार्थक मानी जाती है जब वह किसी उद्देश्य पूर्ण कार्य में व्यय हो।
सरमन प्रसाद भी सालों से अनुभव कर रहे थे कि अचल सम्पत्ति का मूल्य हमेशा बढ़ता ही है - प्रारंभ में उन्हें एक मकान केवल सौ- डेढ़ सौ में मिल रहा था। किन्तु उस समय उनमें अपनी छाया में रहने के सुख की प्रवृत्ति नहीं जगी थी - या उनके बजट का अनुपात उस दायरे में नहीं था- जो भी हो,उस समय की चूक अब महँगी पड़ रही थी। वही मकान अब बढ़ कर दो ढाई हजार में हो गया था। यदि अब चूके तो भविष्य में और अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी फिर संतान भी तो चार है। अभी एक की शादी के उत्तरदायित्व से निपटे, तीन बाकी हैं। पढ़ लिखकर वे भी बड़े होंगे। उनकी भी शादी करनी होगी। फिर जो व्यक्ति अपनी लड़की जिस घर में देता है वह भी तो सामने वाले का घर मकान आर्थिक स्थिति, शिक्षा आदि देखता है।
इन सब बातों के अतिरिक्त संतान के भविष्य निर्माण का प्रमुख उद्देश्य था। उन्होंने पढ़ा था - माता शत्रुः पिता बैरी यो न बालो न पाठितः .... इस उद्देश्य को पूरा करने का उनका संकल्प था। अतः अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिये भी वे जागरूक हो उठे। कहा गया है कि सच्चे मन से किये गये प्रयास निश्चय ही सफल होते हैं। सो उन्होंने प्रयास का प्रथम चरण पूरा किया। समय चक्र की धुरी आगे बढ़ रही थी - निरंतर आगे बढ़ना ही उसका कार्य है। जो छूटा, वह पुराना होता चला गया। जो आया वह नया।
पिताजी अत्यधिक व्यस्त रहते थे। घर वापस आते ही अत्यधिक श्रम की थकावट उनके तनावग्रस्त चेहरे पर स्पष्ट दिखती थी। तनाव कम या दूर करने का एक ही उपाय था, उनके कार्य में सहयोग। सहयोग की औषधि से ही उनका मानसिक क्लेश को आराम मिल सकता है। उनकी चाहना थी कि उनके पंडिताई के कार्य में किसी बालक का सहयोग मिले। मेरी रुचि का वह कार्य न था। दो साल संस्कृत पाठशाला में अध्ययन किया। दो परीक्षायें भी दीं, पर उस पढ़ाई में मेरा मन न लगा।
मैं अपनी कमाई के संसाधन की खोज में लग गया। पिता जी के सहयोगी बनने की भावना ने अधूरी शिक्षा पर ही संतुष्ट हो लिया। शिक्षा का कार्य अधूरा रह गया। आर्थिक स्थिति अनुकूल न होने से मजबूरी भी थी। मैंने संकल्प किया मेरा भरसक प्रयास रहेगा कि मेरे छोटे भाईयों को शिक्षा से विमुख न होना पड़े। मैं व्यापारिक प्रतिष्ठान में नौेकरी करने लगा, परिवार में कुछ आय में वृृद्धि हुई। इसके साथ ही मैं साहित्य आराधना में लगा रहा। पर आर्थिक विपन्नता हमारे जीवन के मार्ग में सदा अवरोधक ही बनी रही।
मैं अपने छोटे भाई दीनानाथ को बहुत चाहता था। उसमें पढ़ाई के प्रति लगाव था। किन्तु संगत के कारण कुछ समय के लिये उस लगाव में व्यवधान आ गया था। इससे मुझे बहुत क्लेश हुआ। क्लेश होने पर उसे प्रताड़ित भी करना पड़ा। प्रताड़ना से उसका भ्रमित लक्ष्य सही मार्ग पर आ गया। मुझे भरोसा था, वह हम सबकी उम्मीदों को जरूर पूरा करेगा। ... उन दिनों सातवीं के बाद शिक्षक बनने के लिये बी टी टेªनिंग सागर में करना पड़ती थी। टेªनिंग के लिये पत्र आ चुका था। अतः वह सागर चला गया। ट्रेनिंग समाप्ति के बाद वापस आने पर उसे शिक्षण कार्य मिल गया। उसने हम सबके विश्वास को फलीभूत किया। शिक्षकीय कार्य करते हुये प्राइवेट परीक्षायें देकर उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किया।
ट्रेनिंग के दौरान श्री हरि शंकर अग्रवाल पाटन वालों से मुलाकात हुई मैत्री सम्बंध इतने प्रगाढ़ रहे कि दोस्ती की मिसाल बन गये। अग्रवाल जी ने भी शिक्षा के क्षेत्र में ऊँचाई को छुआ और सेवानिवृत्ति के बाद अपना जीवन महाकालेश्वर मंदिर उज्जेैन को अर्पित कर दिया। वे उज्जैन में ही स्थायी निवास बना कर रहने लगे, पर हमारे परिवार से स्नेह और सम्बंध सदा बनाये रखा। इसी प्रगाढ़ता के कारण वे हमारे छोटे भाई स्वामी नाथ की पुत्री की शादी में शामिल होने के लिये ज्वर की हालत में जबलपुर आये थे। और वह अस्वस्थता उनके लिये प्राण घातक बनी। उस समय दीनानाथ ने उन्हें उच्च चिकित्सा के लिये -प्रख्यात जबलपुर हास्पिटल में भरती कराया। अथक प्रयासों के बावजूद भी उन्हें बचा नहीं सके और अपने अभिन्न मित्र-भाई को अपने एक मात्र पुत्र की जिम्मेदारी सौंप अपने प्राण त्याग दिये। ऐसी अभिन्न-प्रगाढ़ता के सम्बंध, मानव जीवन में बिरले ही देखने को मिलते हैं। श्री हरिशंकर जी ने अपने संसारिक जीवन के बाद जो जिम्मेदारी दीनानाथ जी को सौंप गये थे -उन्होंने तन-मन-धन से उसकी पूर्ति की। ऐसे अमिट स्नेह को हमारे पूरे परिवार का शत्् शत्््् नमन है।
दीनानाथ जी ने शिक्षक बनने के बाद भी अपनी पढ़ाई की रुचि बराबर जागृृत रखी। प्राइवेट परीक्षा द्वारा मैेट्रिक, बीए,एमए, बीएड के पश्चात एमएड में गोल्ड मेैडल तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के हाथों से प्राप्त किया और सालों राजनीति के प्रख्यात पंडित लौह पुरुष द्वारिका प्रसाद मिश्र का स्नेह पाते रहे। उनकी लगन शीलता, कार्यक्षमता एवं साहित्य साधना निश्चय ही वंदनीय है। बुन्देलखंडी भाषा में एक बेजोड़ काव्य रचना लिखकर उन्होंने अपनी मातृभूमि का नाम उज्जवल किया। वह उनके जीवन की अमूल्य कृति है जो इस संसार में सदा जीवित रहेगी। उनके जीवन की इस तपस्या के वर्णन को सैकड़ों पृष्ठ चाहिये किन्तु यहाँ उसका संक्षिप्त स्वरूप ही प्रस्तुत कर सके हैं।
दीनानाथ जी की तरह मेरे दोनों भाई एक धर्म के क्षेत्र में पंडित द्वारिकानाथ शास्त्री अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे और जबलपुर के अग्रणी विद्वत श्रेणी में स्थापित हुये। पूर्व में द्वारिकानाथ पनागर हाई स्कूल में संस्कृत के शिक्षक के रूप में कार्य किया। कुछ वर्षों बाद पांडित्य के क्षेत्र में पदार्पण किया। दूसरेे छोटे भाई स्वामीनाथ जी केन्द्रीय शासन की गजिटेड पोस्ट पर पहुँच कर अपने परिवार का नाम रोशन किया। भाईयों को अपने-अपने क्षेत्र में महारत हासिल करने की जो पिपासा मेरे अंतःकरण में थी -उसे उन सबने साकार कर दिखाई। इतने कम समय में -साधनों का अभाव होते हुये भी यह सब प्राप्त कर लेना क्या जीवन की कम उपलब्धि है?
व्यक्ति का संघर्ष पूर्ण जीवन उसकी चारित्रिक योग्यता एवं उसकी निरंतर प्रगति का सोपान उसे सदा ऊँचाईयाँ प्रदान कराता रहता है, जिससे उसका नाम उसके जाने के बाद भी जीवित रहता है और इस नश्वर शरीर के नष्ट होने के बाद भी वह सदा अमर रहता है।
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अर्थाभाव, अशिक्षा और अज्ञानता मानव के दुश्मन हैं। इन तीनों के बने रहते मानव समाज कभी नहीं पनपता। यह दीमक की तरह उसकी पनपने की वृत्ति को नष्ट करता रहता है। वृत्ति नष्ट होने से उसके स्वभाव में कर्कशता, अस्थिरता एवं किंकर्तव्यता विमूढ़ता जैसी बुराईयाँ सदा विद्यमान रहती है। जिससे वह आजीवन जीवित रहते हुये भी संवेदन हीन बना रहता है और ऐसे मृत मानव समाज से संवेदनशीलता की आशा करना व्यर्थ है। अतः आरंभ से ही इनका उपचार आवश्यक है। मेरे मन में ज्ञान का अंकुर प्रस्फुटित होते ही मैंने इसका उपचार आरंभ कर दिया था। जिसका प्रतिफल आज सामने है। इन बुराईयों से संघर्ष करते हुये व्यक्ति को कभी हिम्मत नहीं हारना चाहिये। ... जिसके मन में सदा उत्साह एवं सहनशीलता बनी रहती है, उसका परिणाम सुखद ही होता है।
ससुराल जाना- आना कर्तव्य पूर्ति की भावना से होता रहा। तीन साले छोटे थे गौरीशंकर, रमेश एवं शिवशंकर अग्निहो़त्री। बाद में मंेैने इनके अभिभावक की भूमिका का निर्वाह किया। दो मौसी सास के लड़के। नाना-नानी ओैर दोंनों सासों का मुझे स्नेह प्राप्त था। वहाँ जाने पर दो हम उम्रों से मेरी घनिष्ठता बढ़ी। राजाराम शुक्ल जो एस्बस्टस सीमेंट कैमोर में कार्यरत थे, दूसरे सुन्दरलाल दुबे। वे दो भाई दो बहन थे। बड़े भाई जागेश्वर दुबे भी एस्बस्टास सीमेंण्ट में कार्यरत थे और कांग्रेसी विचारधारा के तथा मजदूर यूनियन के प्रसीडेंट थे।
कैमोर के एक और मजदूर नेता थे,शर्मा जी -उनके वे दाँये हाथ कहे जाते थे। उस परिवार का उल्लेख इसलिये आवश्यक है, उनके बड़े भाई की शादी के एक साल बाद उनकी पत्नी स्वर्ग सिधार गईं। उसके कुछ अंतराल के बाद एक- एक कर दोनों बहनें भी विधवा हो गईं। बहनों की संतान की परवरिश की खातिर दूसरी शादी नहीं की और बड़ी बहन की संतान की खातिर अपना जीवन अर्पण कर दिया। यह त्याग कम नहीं आँका जा सकता। बाद में छोटे भाई की शादी हुई पर संतान के रूप में बहन के पुत्र पुत्रियाँ ही हैं। दोंनों भाई अपने जीवन में सक्रिय रहे,सो अच्छी प्रगति की।
कुछ साल बाद नाना-नानी का स्वर्गवास हो गया। और दुर्गादास अग्निहोत्री के भाई के साथ घटित एक अप्रिय कांड के कारण बड़ारी गाँव उन्हें छोड़ना पडा और बाद में जबलपुर के पास कोसमघाट गाँव में बस गये। यहाँ पूर्व से ही बसे श्री लक्ष्मीप्रसाद अवस्थी, उन सबके मौसिया थे। अतः सभी को उनका मार्गदर्शन एवं उनका संरक्षण मिला। उस गाँव की जमीन बेचकर इस गाँव में खरीदी और फिर यहाँ के स्थाई निवासी बन गये।
मेरी शादी के एक साल बाद एक पुत्र का जन्म हुआ। जोकि कुछ ही दिन जीवित रहा। उसके डेढ़ साल बाद दूसरा पुत्र मनोज हुआ।
पत्नी नरबदा,सरल स्वभाव की सद्गृहणी महिला सिद्ध हुईं। पूरे परिवार को एक सूत्र में बाँध कर बिना किसी भेद भाव के चलाती रहीं। प्रारंभिक जीवन में उसने भी कई कष्ट झेले पर वह विचलित नहीं हुई। सेवाभाव के आशीर्वाद का प्रसाद उसे अपने पिता तुल्य ससुर से मिला था। अपने माता-पिता व बड़ों की सेवा की प्रक्रिया उनका नियमित धर्म था,वही प्रक्रिया उसके भी रग-रग में बस गई थी। सेवाभाव का फल परोक्ष-अपरोक्ष रूप से अवश्य मिलता है। यह अटल सत्य है। कथनी-करनी के दृष्टांत मेरे सामने हैं। उनको स्मरण कर अपना मन मैला क्यों करूँ ? जो जैसा करेगा -वह वैसा ही भरेगा। अभी नहीं तो कभी भी भरेगा अवश्य। कहा भी गया है कि विषैला जीव विष ही उगलता है, यह उसका स्वाभाविक गुण है। जब हमें उसके घातक प्रभाव की जानकारी है,तब हम उससे सुधा प्राप्ति की आशा करें ही क्यों ? यह हमारी नादानी होगी कि उसके मोहक मायाजाल में फँस जायें। फँस गये तो उसका दुष्परिणाम भी अवश्य भोगना पड़ेगा। यह नितांत सत्य है।
हमारे जीवन में सन्1950 से 1955 तक के बीच घटित घटनाओं में कुछ दृश्य आज भी जीवित है। मेरी जन्म भूमि सीलोन के समस्त ग्रामवासी आने वाली विपत्ति से भयाक्रंात थे। सारे गा्रमवासी अपनी -अपनी जीविका से बेदखल किये जाने वाले थे।उनकी जन्मभूमि,पैतृक मकान, भूमि-खेत, खलिहान, कुआँ, मंदिर, बाग-बगीचे सब छीने जा रहे थे। जो घर पीढ़ी दर पीढ़ी सुख-दुख का साथी रहा है, वह बाँध की योजना के तहत विनिष्ट होने की कगार में था। कानून के तहत अधिग्रहीत भूमि का मुआवजा शासन को देना लाजिमी था। सो इसकी कार्यवाही जिला मुख्यालय में चल रही थी। अधिकारी वर्ग सर्वेक्षण कर चुके थे और हैसियत के अनुसार उनकी अचल सम्पत्ति का लेखा जोखा चल रहा था। ऊँचे स्तर की पहुँच वाले अपनी -अपनी गोटी बैठाने प्रयास रत थे -और साधारण गरीब व्यक्ति जिसकी पहुँच बाबू चपरासी तक ही सीमित थी, अपनी व्यथा रोकर गिड़गिड़ा कर अर्थहीन प्रयास कर रहे थे। स्नेह और श्रम के रक्त से सिंचित भूमि की भी कभी कीमत आँकी जायेगी - उसने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। सर्वस्व तो स्वाहा हो ही रहा है, अब जो माई-बाप दें, उनकी दया होगी .... यदि कम दें अथवा न भी दें ... तो कौन क्या कर सकता है ?
विपत्ति के मारे को लड़ाई झगड़े की सामथ्र्य कहाँ रहती है। सब कुछ जाने की खबर से वह पहले से टूट चुका है। दर्द से वह छटपटा रहा है। कहाँ जायेगा ? क्या करेगा ? इस दया की भीख से उसका उजड़ा संसार क्या फिर बस सकता है ? नहीं कदापि नहीं ... सुना है ,सरकार न्यायप्रिय है -जनता के प्रति हमदर्दी है, वह आपत्तियों का समयावधि में प्रस्तुत करने पर निबटारा करेगी। किन्तु क्या वह न्यायप्रिय सरकार जिला मुख्यालय की इस जर जर इमारत में आयेगी ? क्या वह इन भोले भाले गरीब -असहाय जख्मी लोगांे के बीच आकर उनके आँसू पोंछेगी ? नहीं ... कदापि नहीं ...।
जो यहाँ बैठे हैं ,वे ही आँसू पोछेंगे।
जो यहाँ बैठे हैं , वे ही आँसू सुखायेंगे।
जो कृत्रिम आँसू बहाने की कला में महारत रखते हों, उदार हों, वह ही बाजी मार सकता है। नहीं तो नाली के कीड़ों से बिलबिलाते रहो जहाँ के तहाँ। मुख्यालय सदा भीड़ से भरा रहता। दलालों की चाँदी है। इसका सुगम रास्ता पाना भी सबके बस की बात नहीं।
‘‘भईया दस दिन हो गये। कुछ नहीं हुआ। ’’एक ने कहा।
‘‘बस केवल दस दिन। मैं तो पन्द्रह दिन से पड़ा हूँ।’’
‘‘कुछ राहत मिली। इसका पलड़ा तो मेरे पलड़े से भारी है।’’
‘‘भईया रहते कहाँ हो ?’’
‘‘इसी संसार में - आसमान तले। ’’
‘‘हाँ, अब यहाँ वही तो सहारा है। ’’
‘‘खाना पीना ?’’
‘‘जो घर से लाया था वह सब साफ !’’
‘‘फिर अब ....?’’
‘‘कोई पहचान का, कभी दया कर देता है।’’
‘‘तो फिर घर क्यों नहीं जाते ?’’
‘‘पेशी पर कौन हाजिर होगा ? यदि पुकार हुई और न हुये तो मुकदमा खारिज।’’
‘‘सो तो है भईया। गरीब की आफत ही आफत है।’’
आदि आदि बातें ... इसी तरह लोगों का वार्तालाप दिन भर चलता रहता। फिर रात आने पर एक खामोशी ...सन्नाटा सा छा जाता ...। सब यहाँ-वहाँ रात काटने की ठाँव खोजने लगते। बड़ा मार्मिक दृश्य प्रतिदिन देखने मिलता वहाॅं।
मुझे मेरे बाबा पंडित रामदयाल दुबे जी अपने साथ ले गये थे। वहाँ पेशी पर उपस्थित होने के लिये उनके बड़े भाई पं.रामबक्श दुबे ने पत्र द्वारा बुलवाया था। मुआवजा की दी जाने वाली राशि के प्रति उनकी सहमति आवश्यक थी और उन्हें अपने बड़े भाई से आवश्यक विचार विमर्श भी करना था। तथा मेरी अविभाजित परिवार की अचल सम्पत्ति का कितना मूल्यांकन किया गया इसकी भी जानकारी लेना थी। बाबा जी ने वहाँ अपनी सहमति की खाना पूर्ति तो कर दी थी। तथा बड़े भाई से अपने गोपनीय मन्तव्य पर सहमति ली।
मुझे वहाँ पता चला कि हमारे परिवार की अचल सम्पत्ति का मुआवजा मेरे काका जी ले जा चुके थे। अतः दी गई राशि का विवरण मुख्यालय से प्राप्त हो गया। चँूकि आपत्ति की समय सीमा समाप्त हो गई थी... अतः कोई अन्य विकल्प इसमें नहीं हो सकता है, आफीसर ने लाचारी प्रकट की। मुआवजा की राशि अचल सम्पत्ति के मूल्यांकन से काफी कम थी फिर भी उन्होंने बिना किसी आपत्ति के जल्दबाजी में वह स्वीकार कर ली थी और अपने तक ही इसे सीमित रखा। क्यों रखा ? अब ये सब बातें बेमानी हैं। खैर सारा विवरण वहाँ से मिल गया और अपना वहाँ का कार्य पूरा कर वापस आ गये।
पिता जी एवं काकाजी को सारी वस्तु स्थिति बताई तो उन्हें दुख हुआ। बैजनाथ जी छतरपुर से मुआवजा लेकर तथा गाँव की अन्य सामग्री एवं पशुधन बेचकर जबलपुर आ गये थे। मुआवजा के सम्बंध में चुप थे। उन्हें विश्वास नहीं था कोई वहाँ जाकर तस्दीक करेगा। मेरे जाने की जानकारी मिली तो लज्जित हुये -पिता जी एवं काका जी से क्षमा माँगी। खर्च काटकर जो राशि उन्होंने बताई वह नगण्य थी। अतः दोनों ने उन्हें क्षमा कर दिया और देय राशि को स्वयं के सदुपयोग करने की छूट दे दी।
पिता जी के मन की जीवन की सबसे प्रमुख आकांक्षा, मकान खरीदने की पूरी हो चुकी थी। मकान कच्चा और जीर्ण शीर्ण था अतः उसके सुधार एवं कुछ हिस्सा के निर्माण में लग गये थे। पिताजी के संकल्प की पूर्ति से प्रेरित हो काका बद्रीप्रसाद ने भी मकान खरीद लिया। वह भी इसी स्थिति का था। अतः दोनों ने साथ -साथ निर्माण कार्य आरंभ कर दिया। तीसरे काकाजी बैजनाथ ने उस राशि से प्लाट खरीद कर मकान बनवाना आरंभ कर दिया। तीनों के मकान एक ही वार्ड में अपने -अपने हो गये थे। बाबा पंडित ठाकुरदास जी आजी सहित काका बैजनाथ जी के मकान में आ गये,उनका मन उन्हीं के साथ रहने का था।
काकी जी की मृत्यु के बाद बद्री काका जी का जीवन अस्त व्यस्त सा हो गया था। उनके एक पुत्री रत्न थी जिसका नाम कमला है। जिसको वे स्वयं पाल पोस रहे थे। मकान होने से प्रतिष्ठा बढ़ी और गोटेगाँव में दूसरी शादी हो गई। इसके बाद बैजनाथ काका जी की शादी हो गई।
यहाँ हमारे परिवार में दीनानाथ की शादी हो गयी थी। उनकी शादी श्री रामकुमार जी दुबे की सुपुत्री से हो गई। दुबे जी रेलवे में कार्यरत थे और मिलनसार परोपकारी व्यक्ति थे। इसी परोपकारी भावना से उन्होंने कई युवकों को रेलवे में भर्ती कराया। साथ ही वे लड़के लड़की की शादी चमत्कारी ढंग से पक्की करवा देते थे। उनके दो बच्चे और थे एक लड़की कांति और दूसरा लड़का शिवकुमार दुबे, जो आगे चलकर होनहार सिद्ध हुआ। एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त कर एक्साईज विभाग में सम्भागीय पोस्ट पर नियुक्त हो गया। साहित्य के प्रति अभिरुचि से उनकी कविताओं की दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं। दीनानाथ के घर में तीन लड़के और एक लड़की हुई। जिसमें मनु,अशोक,सुशील एवं राजेश्वरी जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में अपना नाम कमाया।
हमारी संतान में मनोज के बाद दो पुत्रीयों का जन्म हुआ। पहली ममता दूसरी शैल। परिवार के अन्य सदस्य अपने - अपने कार्य में व्यस्त थे। बच्चे शिक्षा में व्यस्त थे। मनोज प्रारंभ में बहुत कमजोर था। उसे सर्दी खाँसी सदा बनी रहती थी। कभी- कभी उसके हाथ पैर अकड़ जाते थे। उसका उपचार दो साल तक निरंतर चलता रहा। उसकी माँ झाड़ फँूक के अलावा सभी देवी देवताओं से मनोतियाँ करती रहती थी। प्रथम पुत्र था,अतःपरिवार में सभी का लाड़ला दुलारा था। पिताजी,आजा-आजी ,काका-काकी बब्बा एवं छोटे भाई स्वामीनाथ का हम उम्र होने के नाते उससे खूब पटती थी। उसकी माँ उसके साथ अपने छोटे देवर को भी स्तन पान कराने में कोई भेदभाव नहीं करती थी। स्वामी नाथ पढ़ने में प्रारंभ से ही मेधावी छात्र रहा है।
मुझे अच्छी तरह स्मरण है। हमारी आजी गोद में स्वामी नाथ और मनोज को बिठा कर दुलार करतीं। खूब खिलाती एवं लाड़ प्यार करती थीं। कभी -कभी आजी माँ मुझे भी गोद में बिठा लेती और जब दुलार करती तो मैं काफी प्रतिरोध करता और कहता-‘‘ छिः आजी ...मुझे मत चूमो ... तुम्हारा मँुह बसाता है। ’’इस पर वे मेरे कान जोरों से उमेठ देतीं। पास ही जन्म पत्री बनाते आजा मुस्करा देते। मैं भोले पन से कह उठता ‘‘ ऐ बब्बा, अपनी इनको मना कर लो। अब मैं छोटा बच्चा नहीं हँू। बच्चों का .... इसके आगे के शब्द ‘बाप हूँ’ नहीं कह सकता था। यह हमारे कुल की मर्यादा नहीं थी। मेरे पिता जी ने अपने पिता जी के सामने कभी भी मुझे गोद में नहीं लिया। न कभी उनके सामने अपने बच्चों से बात की। प्रारंभ में इस मर्यादा का मैंने भी पालन किया ... पर कालान्तर में कुछ-कुछ तोड़ना भी चालू कर दिया था। इसी तरह पिता जी ने कभी उनके सामने माँ से बात नहीं की - बब्बा बहुत अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। उनके शिष्य उन्हें देवतातुल्य पूजते थे इसलिये उनका उच्च स्तर का चरित्र व स्वभाव बन गया था।
बब्बा जी का मोहक ढँग से मुस्कराना ही मुझे याद हेै। ठहाका मार कर हँसना अभद्र व्यवहार मानते थे। उनकी मिर्जई उनकी तिजोरी थी। अथवा यजमान जन्म पत्री बन जाने के बाद जो दक्षिणा देते वह पंचाँग में या अन्य धार्मिक पुस्तकों के बीच छुपा कर रख देते थे। मुझे यह पता था। हालाँकि जब मंै उनसे पैसे माँगता तो अवश्य दे देते थे। एक दो पैसा अथवा चवन्नी। इससे ज्यादा नहीं।
शहर में मनोरंजन का आकर्षण सिनेमा था। इसने सभी को सम्मोहित कर रखा था। युवा वर्ग को कुछ ज्यादा ही प्रभावित कर रखा था। मेरा सिनेमा की टिकिट के अलावा भी कुछ और खर्च होने लगा था। केण्टीन से लड़के जब हाल में लेकर आते या टोकनी में कुछ लिये सीट के सामने से केण्टीन वाले निकलते थे,तो जीभ कुछ खाने को ललचाने लगती थी। इसी जीभ को शांत करने कभी -कभी उनके पंचाँग में छुपाये नोट चुराने पड़ते थे। बब्बा मुझे मेरे इस कृत्य के लिये क्षमा करें। मेरे पिता जी इस मामले में कुछ सयाने थे। वे या तो अपनी कमाई बाई (माँ)को दे देते थे या खुद अपनी ताला वाली पेटी में रख देते थे। ताला की चाबी सदा जनेऊ में बँधी रहती। और जनेऊ कभी उतारा नहीं जाता। अतः चाबी पाना टेढ़ी खीर ही नहीं असम्भव था। बाई से धेला पाना भी मुश्किल काम था। उनसे सभी बच्चे डरते थे। इस मामले में बब्बा जी की टक्कर का सदाव्रती दानी (यद्यपि दान हाथ से दिया जाता है, चोरी से लिया दान नहीं कहलाता है।) कोई दूसरा नहीं था। एक दफे बब्बा ने मुझे रँगे हाथ पकड़ लिया। मारा पीटा नहीं सिर्फ आँख दिखाई। कहा -‘‘चोरी करना पाप है। मांगने पर कभी मैंने तुझे खाली हाथ लौटाया ?’’
‘‘मैं कान पकड़ कर कहता - नहीं ?’’
‘‘तो फिर चोरी क्यों ?’’
‘‘अब मैं उन्हें कैसे बताऊँ ? अब चवन्नी का जमाना नहीं। इससे ज्यादा तुमने कभी दी नहीं। मजबूरी होने पर अप्रिय काम करना पड़ता है। ’’
उनके संतोष के लिये कह दिया
‘‘अब नहीं करूँगा’’
पर यह काम महीना में एक दो बार होता रहता। उनका नाती था ...नाती का बब्बा की रकम पर अधिकार है। यह काम किसी दूसरे के घर जाकर करूँ तब वह चोरी कहलायेगी। तथाकथित पाप के समाधान का मेरे पास यह अकाट्य तर्क था। अपने श्रम से जब हथेली गर्म होने लगी, तब ऐसा पाप कभी नहीं हुआ। ज्ञान -बोध के अभाव तक ही लड़कपन में इस तरह के अप्रिय कार्य होत े ह ैं। ज्ञान-बोध आ जाने के बाद हम पाप-पुण्य की परिधि में आ जाते हैं और अत्यावश्यक होने पर भी ऐसे अप्रिय कार्य करने से हिचकिचाते हैं। यदि कभी किया भी तो उनकी अंतरात्मा सदा उन्हें धिक्कारती रहती है। रात दिन उन्हें चैन नहीं मिलता। तब लोग क्षमा याचना कर उसका प्रायश्चित भी कर लेते हैं।
वृद्धावस्था के कारण आँख में फुली पड़ने से आजी को कम दिखने लगा था - किन्तु बब्बा की दृष्टि जवानों की दृष्टि से अच्छी थी। उन्हें चश्मा कभी नहीं लगा। बटुआ उनके पास सदा रहता। उसमें उनके व्यसन का सारा सामान रहता। चुनौटी -लोंग कत्था और तम्बाखू। पान सुपाड़ी की उन्हें लत नहीं थी। पिता जी को तो कोई भी व्यसन नहीं था। हाँ जबसे चाय वालों ने मुफ्त की चाय मुहल्ले -मुहल्ले बाँट कर आदमियों को नशीलची बना दिया था,तब से उन्हें भी चाय का चस्का लग गया था-एक गिलास या कभी-कभी आधा लोटा तक। आँखों में चश्मा उन्हें लगने लगा था। किन्तु शरीर से हमेशा हृष्ट पुष्ट थे। रोज मीलों का पैदल सफर उनकी स्वस्थ सेहत का राज था।
हमारी बाई (माता जी)पिता जी के स्वभाव के विपरीत थी। उनकी वाणी कठोर थी - किन्तु अन्तःकरण एकदम निर्मल था। कठोर वाणी होने से कोई भी उन्हें झाँसा नहीं दे सकता था। अच्छे बुरे या बनावटी स्वभाव की अच्छी परख थी। आस पड़ोस की बड़ बोली महिलायें और मोहल्ले के असामाजिक तत्व उनके सामने आने में कतराते थे। इसी तरह उनके लड़के भी उनके चैथे पन में प्रवेश करने के बाद भी उनके निर्णय के विरुद्ध अपील करने का साहस कभी नहीं करते। इसी दबंग स्वभाव के एवं कठोर अनुशासन के रहते चोर लफंगों ने घर में प्रवेश का कभी साहस नहीं किया, न ही घर से सुई तक चोरी गई। बहू के आने के बाद उन्होंने चैंका से एकदम नाता तोड़ दिया था - किसी तीज त्यौहार में लड़के नाती उनके हाथ की कोई चीज खाने की जिद करते तभी चूल्हे के पास जातीं। आग की सिकीं रोटी ही उनके यहाँ बनती थी। गैस का चूल्हा बहुत दिनों के बाद उन्होंने अपने घर में आने दिया।
उनकी साधारण गालियाँ थीं नासमिटे, सत्यानाश हो तेरा, पाखंडी, अधर्मी, तू सात जनम चैन न पाये आदि। पर यह सब उपहार बाहर वाले के लिये। घर वाले सदा इससे वंचित रहे। बहुओं, लड़के, नाती-नातिनों पर यदि बहुत अधिक गुस्सा हुईं, तो इसकी जिम्मदारी मुझे सौंप देतीं थीं। और उनकी आज्ञा का पालन कर मैं उनको दंड देता। मैं शुरू में बहुत गुस्सैल था। पढ़ाई में लापरवाही, बड़े बूढ़ों से असभ्य बर्ताव, मुहल्ले आस पड़ोस में झगड़ा फसाद आदि मुझे कतई पसंद नहीं थे - जिसकी उन्हंे सजा देता था। पर सजा देने के बाद खूब पछताता था। मेरी इस कमजोरी से सभी परिचित हो गये थे, सो मुझे दुखी करने का कभी -कभी षड़यंत्र भी रच देते थे।
पिता जी सहज ओैर गुस्से में दो गालियाँ देते थे। नालायक और ज्यादा हुआ तो नासमिटे बस।
बब्बा और आजी के मुख से कोई गाली नहीं सुनी। मेरे शैशवकाल या पूर्व में देते रहे हांे तो वे जानंे।
गालियों का भी बड़ा असर होता है। कभी-कभी इससे खून खराबा तक हो जाता है पर बाई की गालियों का प्रतिरोध करते, मैंने कभी किसी को नहीं देखा। यह उनके दबंग स्वभाव की खासियत ही कही जायेगी।
हमारे परिवार में काका बद्रीप्रसाद के स्वभाव से सभी डरते थे। किन्तु बाई के बिगड़े मूड में वे भी सामने आने में हिचकते थे। नाती नातिनों के आने के बाद घर के अंदर क्रमशः उनमें नरमी आती गई। किन्तु बाहर वालों के लिये उन्होंने अपना पूर्व का स्वभाव बरकरार रखा। हमारे भाई दीनानाथ के परिवार में प्रथम पुत्र मनु कुमार की प्राप्ति हो चुकी थी।
सन्1950 के पूर्व आजादी मिलने के बाद राजनैतिक क्षेत्र में उस समय, दो महत्वपूर्ण घटनायें हुईं। जूनागढ़ के नवाब ने एक तरफा घोषणा कर दी कि उसकी रियासत का पाकिस्तान में विलय होगा। तब वहाँ की जनता ने विद्रोह कर दिया और नवाब पर तुरंत कार्यवाही की गई और जनवरी 1949 में उसका विलय भारत में हो गया। वहाँ का शासक चुपके से पाकिस्तान भाग गया।
दूसरी घटना हैदराबाद की है। वहाँ के शासक ने घोषणा की कि वह न तो वह भारत में मिलेगा न पाकिस्तान में। वह एक स्वतंत्र देश रहेगा। यह काफी परेशानी वाली घोषणा थी। अतः सरदार बल्लभभाई पटैल ने कठोर कार्यवाही के बाद उसके मंसूबों पर भी पानी फेर दिया।
आजादी के कुछ ही समय बाद पूरे देश को झकझोरने वाली दुखद घटना हुई। महात्मा गांधी बिरला मंदिर में नित्य ही प्रार्थना सभा को सम्बोधित करते थे। 30 जनवरी को जब वे प्रार्थना सभा में जा रहे थे उस समय नाथूराम गोडसे ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी। उस अहिंसा के पुजारी - महान देशभक्त की हत्या से पूरे देश में शोक की लहर फैल गयी और जनता ने इस अमानुषिक कृत्य की कड़े शब्दों में भत्र्सना की। उसके इस कृत्य से सभी राष्ट्रभक्त स्तब्ध हो गये।
सन्1950 में हमारे देश के लौह पुरुष सरदार पटैल का निधन हो गया। भारत के एक जाज्ज्वल्यमान नक्षत्र का अंत था। उन्होंने अखंड भारत के नव निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था। वे कट्टर राष्ट्रभक्त थे एवं राष्ट्रहित में कठोर निर्णय लेने में भी, वे कभी पीछे नहीं हटे।
हमारे देश का संविधान 26जनवरी 1950 को क्रियान्वित हुआ। फरवरी 1952 में भारत में पहला आम चुनाव हुआ। चुनाव के समय चुनाव प्रचार के लिये बड़े -बड़े नेताओं का आना,उनको सुनने के लिये भारी भीड़ का इकट्ठा होना,बड़ा ही कौतूहल एवं सुखद अनुभव सभी भारतवासियों के लिये रहा है। फिर चुनाव के बाद नतीजों के प्रति सभी जनता में उत्सुकता का वातावरण बना रहता। जीतने वालों का ढोल नगाड़ों के साथ विजय जलूस निकलता। बड़ा उत्साह पूर्ण वातावरण बन जाता था। करोड़ों लोंगों की तरह मैंने भी अपने जीवन में पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग बड़े उल्हास के साथ किया। संसार के इतिहास में लोकतन्त्रीय सरकार में यह सबसे बड़ा अनुभव था। इतना बड़ा औेर इतना शांतिपूर्ण चुनाव संसार में कभी भी नहीं हुआ। भारत में पहली बार 21 वर्ष के प्रत्येक नर नारी को जाति धर्म लिंग सम्पत्ति और शिक्षा अशिक्षा के भेदभाव के बिना मताधिकार का अधिकार दिया गया। संसार की आँखें भारत के इस महान चुनाव की ओर लगी हुईं थी परन्तु प्रसन्नता की बात यह है कि चुनाव के नतीजों ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत की जनता अशिक्षित होते हुये भी निष्पक्षता और अपनी योग्यता का प्रमाण दे सकती है। भारत के मतदाताओं ने प्रथम चुनाव में बुद्धि से काम लेकर लोकतंत्र के बीज को बोया। पंडित जवाहर लाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री चुने गये और राष्ट्रपति डाॅक्टर राजेन्द्र प्रसाद बने।
इस चुनाव में सरकार को दो लाख से अधिक पोलिंग स्टेशन स्थापित करना पड़े। साढ़े पाँच लाख से अधिक कर्मचारी चुनाव सम्पन्न कराने तैनात करवाना पड़े। प्रत्येक दल को कोई न कोई निशान दिया गया। उदाहरणार्थ जनसंघ को दीपक, कांग्रेस को बैलों की जोड़ी, साम्यवादी दल -दरौंती, किसान मजदूर प्रजापार्टी -झोपड़ी, अकाली दल -तीर कमान, सोसलिस्ट पार्टी -वृक्ष इत्यादि। विधान सभा के लिये 250 रुपये और लोकसभा के लिये 500 रुपये की जमानत की राशि निर्धारित की गई। जो व्यक्ति चुनाव के एक बटे छःभाग मत प्राप्त न कर सकता तो उसकी जमानत जब्त हो जाती। कांग्रेस को 42.20 प्रतिशत विधान सभा चुनाव में मत प्राप्त हुये।
जनसंघ को बने इस चुनाव में केवल छः माह ही हुये थे। उसने विधान सभाओं के लिये 718 स्थानों पर चुनाव लड़ा और 35 स्थान पर विजयी रहा। प्रतिशत 2.76 रहा। समाजवादी दल ने 1793 स्थानों पर चुनाव लड़ा ओैर 126 स्थान प्राप्त किया। अन्य दलों एवं निर्दलीयों ने 893 स्थान प्राप्त किये। कांग्रेस ने 3192 प्रत्याशी चुनाव में उतारे और 2246 स्थान प्राप्त किये।
लोकसभा के लिये कांग्रेस ने 479 स्थान पर चुनाव लड़ा और 364 स्थान प्राप्त किये। 44.99 प्रतिशत मत मिले। साम्यवादी दल ने 49 स्थान पर अपने प्रत्याशी खड़े किये और 16 सीटें प्राप्त किये। मत 3.29 प्रतिशत मिले। जनसंघ ने 93 स्थानों पर चुनाव लड़ा और 3 स्थान प्राप्त किये। समाज वादी दल ने 295 स्थानों पर चुनाव लड़ा और 12 स्थान प्राप्त किये। सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकारंे बनी। लोकसभा में भी कांग्रेस की सरकार बनी। जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई थी, इसके संस्थापक डाॅक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे।
दिसंम्बर 1953 में नेहरू ने संसद में राज्यपुनर्गठन आयोग की स्थापना की घोषणा की। चेयरमेन -फजल अली। सदस्य हृदय नाथ कंुजरू एवं सरदार पणिक्कर थे। आयोग ने 1955 में 16 राज्यों की स्थापना की सिफारिश की। राज्यों का भाषा के आधार पर बटवारा किया गया। इससे लोगों में अब प्रांत वादी और भाषावादी भावना जागृत होे गयी थी। यह एक महान भूल थी। सन्् 1953 में मद्रास से अलग कर आन्ध्र प्रदेश की स्थापना हुयी।
हमारे समाज और देश में छुआछूत की बीमारी बुरी तरह से फैल गई थी। अतः छुआछूत अधिनियम सन 1955 में पास किया गया। यह समाज को संगठित एवं भेदभाव को मिटाने की दिशा में एक अच्छा कदम था। इससे शोषित एवं पिछड़े वर्ग को समाज में ससम्मान जीने का एक अच्छा अवसर प्रदान करने की एक अच्छी शुरूआत थी।
सन्1955 से 1960 के दरम्यान मेरे जीवन का घटना चक्र कुछ इस प्रकार से रहा। केन्द्रीय सरकार ने भिलाई स्टील प्रोजेक्ट के निर्माण की मंजूरी पूर्व में दे दी थी। उसी के तहत ब्रिक्स सप्लाई काण्ट्रेक्ट के टेन्डर हुये। यह बहुत ही बृहद योजना थी अतः कई कम्पनियों ने इसके लिये टेण्डर भरे। साल भर पहले मुरलीधर पहलवान के छोटे भाई मोहन लाल का विवाह बिलासपुर में छेदीलाल जी की पुत्री से हुआ था। ईंटों के निर्माण का उन्हें वर्षों का अनुभव था। वे भिलाई का यह टेन्डर भरना चाहते थे किन्तु उनके पास इतनी लागत पूँजीं न थी कि वे इस कार्य को कर सकें। अतः उन्होंने जबलपुर आकर श्री तीरथ प्रसाद मालवीय एवं शिखर चंद ड्योड़िया को इस योजना के लाभप्रद स्वरूप के प्रति आकर्षित किया। तीनों के बीच सहमति होने से ‘‘तीरथ प्रसाद शिखरचंद ’’के नाम से एक फर्म बनी जिसमें तीन पार्टनर बने। टेण्डर भरा गया ओैर वह सौभाग्य से स्वीकार हो गया।
मैं उस समय ‘‘वंशीधर शिखरचंद ड्योढ़िया’’ प्रतिष्ठान में कार्यरत था। उनका आढ़त का बड़ा व्यवसाय था तथा साथ में इनके आठ ट्रकांे द्वारा ट्रान्सपोर्ट व्यवसाय भी चल रहा था। उन दोनों ने उस कार्य को चालू करने के पश्चात प्रबंधक का कार्यभार मुझे सौंपा। घर छोड़कर बाहर जाने का मामला था। अतः पहले तो मैं हिचकिचाया क्यांेकि परिवार का भार मुझ पर था। उस समय कच्ची गृहस्थी थी। पर उन दोनों ने मुझे कुछ आर्थिक प्रलोभन दिये - जिससे हमारा जीवन स्तर सुधर सकता था। वेतन वृद्धि, मातहत कर्मचारी,भोजन एवं रहने की व्यवस्था, साथ में कार ट्रक और बहुत बड़ा स्टाफ। कार्य समाप्ति पर मुझे एक मुस्त रकम भी पारितोषिक स्वरूप में मिलेगी। अतः इस झाँसा में मैं फँस गया और अपनी स्वीकृति दे दी।
मुझे उस प्रतिष्ठान में कार्यरत रहने से राजनैतिक पहचान ओैर व्यवसाय की समझ का कुछ फायदा हुआ। नगर के प्रमुख नेताओं का वहाँ निरंतर आना जाना था। सवाईमल जैन, रामेश्वर गुरू, चनपुरिया जी, भवानीप्रसाद तिवारी इत्यादि से परिचय हो चुका था। गोविंदगंज रामलीला से निकट के सम्बंध थे - जिसमें जबलपुर समाज के अग्रणी महानुभाव जुड़े थे। गोविंदगंज रामलीला नगर का सर्वोच्च धर्मप्रचारक संस्थान था , जिसका हर वर्ष क्रमिक विकास होता जा रहा था और प्रांत का अग्रणी उत्सव स्थल बन गया। सालों इन सबसे जुड़े रहने के कारण, इस सबकी अच्छाईयों के संस्कार मेरे जीवन को भी प्रभावित करते रहे।
मेरी साहित्यिक रुचि में अभिवृद्धि ‘प्रहरी ’ द्वारा हुई। उस समय हनुमानताल स्थित बखरी से सेठ गोविंदास जी द्वारा संचालित दैनिक ‘जयहिन्द’ लोक प्रिय था। उसमें प्रधान सम्पादक थे, श्री कालिका प्रसाद दीक्षित ‘कुसुमाकर’ बाद में स्वतंत्रता सेनानी कुंजबिहारी पाठक भी उससे जुड़ गये। उन दोनों से मेरे अच्छे सम्बन्ध थे। ‘जयहिन्द’ में भी कुछ रचनायें प्रकाशित हुईं।
गोविंदगंज(मिलौनीगंज) क्षेत्र प्रतिष्ठित व्यापारिक घरानों से भरा था। इसलिये नगर का अग्रणी व्यापारिक क्षेत्र था ओैर उन सब व्यक्तियों से मेरा निकट का सम्बंध और परिचय था। मिलौनीगंज क्षेत्र में ही पंडित मुन्नीलाल तिवारी और भीमशंकर तिवारी का एक तरफा प्रभाव और बोलबाला था। पूरे क्षेत्र में व्यापारियों द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति थे। उन दोनों का अपार स्नेह मुझ पर था। क्षेत्र के व्यापारिक घरानों में से तीन हम उम्र मेरे दोस्त थे - श्री बसंत कुमार अग्रहरी, श्री नरबदा प्रसाद साहू और श्री तेजी लाल जैन। बसंत भैया का मुझे तन- मन -धन से सहयोग एवं स्नेह प्राप्त था।
उस समय जबलपुर से दुर्ग तक का रेल किराया केवल चार साढ़े चार रुपया था। गोंदिया छोटी लाईन अथवा बड़ी लाईन से कटनी होकर जाना पहले भी था और आज भी है। हाँ कुछ द्रुतगति की ट्रेन दोनों लाईन पर चालू अवश्य हो गईं हैं।
उस समय भिलाई स्टील प्रोजेक्ट का आॅफिस दुर्ग रेलवे स्टेशन के समीप एक छोटे बंगले में था। और केवल आठ दस कर्मचारी थे। यहीं से इस बड़ी योजना का संचालन हो रहा था। उस समय दुर्ग छोटा कस्बा सा था, वीरान सा धूल भरी सड़कंे। किसी वाहन के निकलते ही पूरे वातावरण को धूल से धुँधला बना देता। हर तरफ देहात का माहौल। आॅफिस गये तो यहाँ ईंट बनाने के आवंटित भूमि की जानकारी हम लोगों को मिली। एक स्थान था, कुम्हारी के पास नदी के किनारे वाला भाग और दूसरा सिरसा जेवरा गाँव के पास महाशिवनाथ नदी के किनारे स्थित वाला भू भाग। यह स्थान हम लोगों को पसंद आया। ओैर भट्टा निर्माण के लिये इसी स्थान को उपयुक्त समझा। ईंट बनाने वाली मिट्टी और नदी में प्रचुर मात्रा में रेत थी। इन दोनांे साधनों से कच्ची ईंट का निर्माण होता है।
हमें आशा थी कि मजदूरों की बस्ती होने से बहुत मजदूर भी मिल जायेंगे किन्तु स्थानीय मजदूर सम्पन्न लोगों के यहाँ बँधुआ मजदूर जैसे कार्य कर रहे थे। चार आठ आने नित्य की उनकी मजदूरी थी। अधनंगे से सीधे सरल मेहनती मजदूर, लोग उनकी अज्ञानता का एक ओर शोषण कर रहे थे, दूसरी ओर यह दहशत फैला रखी थी कि ये लोग जादू -टोटका वाले होते हैं। मूठ भी चलाते हैं, जिस पर चलाते हैं वह बच नहीं पाता। पर यह सब हमने झूठा ही पाया। जिन्हें पेट भरने को लाले पड़े हों वे सब ऐसा कृत्य क्यों करेंगे। हमारा कार्य स्थानीय लोगों से ही हो सकता था, बाहर के मजदूर समयाभाव के कारण महँगे पड़ेंगे। यह हम सभी जानते थे, पर कुछ करने में असमर्थ थे।
दाऊ दुलार सिंह अग्रवाल ,सिरसा जेवरा गाँव के जमींदार थे। वे मध्यप्रदेश शासन में स्पीकर श्री घनश्यामदास के रिश्तेदार थे। वे दयालु प्रकृति के सीधे, सरल, शांत व्यक्ति दिखे। परदेशी होने के नाते उन्हें हम लोगों पर दया आ गयी और अपने प्रभाव से हमारे इस दुष्कर कार्य में सहयोग दिया। शुरू में कुछ ही मजदूर मिले किन्तु अच्छी खासी मजदूरी की लालच से संख्या बढ़ती गई।
भट्टा में काम करने उनके श्रम की कीमत बढ़कर इकदम चैगुनी हो गई थी, सौ फुट लम्बा,बीस फुट चैड़ा और जमीन के अंदर दस फीट गहरा गड्ढा खोदा गया। गोलाकार चिमनी का भट्टा लगाया गया। जिसमें एक बार में लाखों ईंट भरी जा सकती थीं। दूसरा कुछ छोटा क्षेत्रफल खोदा गया। बीस पच्चीस एकड़ का बड़ा भू भाग। नदी में पानी -रेत की पूरी व्यवस्था। नदी से अधिक पानी निकालने एक बड़ी मशीन लगाइ्र्र गई और पूरे क्षेत्र में पाईप लाइन से पानी सप्लाई का निर्माण कराया गया।
छेदीलाल जब तक बिलासपुर जिले के शक्ति -बारा द्वार आदि के क्षेत्र से दो सौ के करीब ईंट बनाने वाले मजदूर लेकर आ गये। उन मजदूरांे के लिये झोपड़ी बनाने के लिये बाँस-बल्ली-चटाई बड़ी मात्रा में खरीदी गई। वहीं नदी किनारे बीस बाई सत्तर का आॅफिस भी बनाया गया और अलग से कर्मचारियों के रहवास और भोजन की व्यवस्था का निर्माण भी कराया गया।
इस व्यवस्था में ढाई माह लग गये और कार्य प्रारंभ हो गया। ईंट पकाने के लिये कोयले के परमिट बीएसपी आफिस से प्राप्त हो चुके थे, जो कि प्राईटी तौर पर रेलवे को सप्लाई हेतु दिया गया था।
भिलाई स्टील प्रोजेक्ट को ईंट सप्लाई का पहला ट्रक हमारी कम्पनी द्वारा भेजा गया था। हमने वहाँ जाकर देखा-जो जमीन प्लांट लगाने के लिये अधिग्रहीत की थी, उसे मुआवजा देकर - हजारों एकड़ की-मीलों में फैली थी। खेत, पड़ती जमीन और छेवले के पेड़ों से आच्छादित बियावान क्षेत्र था। दूर-दूर तक आदमियों का कोई नामोनिशान तक दिखाई नहीं दे रहा था। सब खाली कर हट गये थे। शहर से सभी ट्रक आ गये थे - कुछ किराये पर लगे थे और दिन रात ढुलाई कर लाखों ईंटें वहाँ चट्टों के रूप में जमा कर दी गईं थीं। धीरे-धीरे कर्मचारियों की संख्या बढ़ने लगी। वहाँ हजारों मजदूर, सैकड़ों हिन्दुस्तान की बड़ी- बड़ी कान्सट्रक्शन कम्पनी दिन -रात युद्ध स्तर पर कार्य कर रही थीं। मीलों लम्बी सड़कें -सेक्टर के रूप में भारी मात्रा में मकान बनने लगे। प्रत्येक सेक्टर में एक मंजिल, दो मंजिल,तीन मंजिल मकानों का निर्माण होने लगे। अनगिनत सेक्टरों में बंगलों के निर्माण हो रहे थे। अधिकारियों, कर्मचारियों के रहवास के अलावा इस्पात भट्टटी आदि सारे कार्य एक साथ चल रहे थे। कुछ साल में ही वह बियावान क्षेत्र आबाद हो गया।
भिलाई स्टील प्रोजेक्ट के बनने से दुर्ग और रायपुर का काया पलट होना चालू हो गया। बड़े- बड़े व्यवसायी डेरा डालने लगे, हजारों निर्माता अपनी कम्पनियों के साथ स्थापित होते गये। देखते ही देखते वहाँ स्वर्ग सा नजारा दिखने लगा।
मेरा प्रायः नित्य ही भिलाई -दुर्ग आना -जाना होता था। कार की सुविधा थी। टेलीफोन द्वारा जबलपुर के लिये बात करने के लिये दुर्ग आना पड़ता था - बुक करने के बाद कहीं भी टेलीफोन में बात करने में चार छ: घंटे लगना मामूली बात थी। कभी-कभी फोन नहीं भी लगता था। पूरे देश में टेलीफोन लाईन की ऐसी ही स्थिति थी। एक दफे जब मैं हाथरस मजदूर लेने गया था, सो हाथरस से जबलपुर फोन लगाया नहीं लगा। इस पर आगरा गया। वहाँ से भी नहीं लगा। मजबूर हो दिल्ली गया और रात भर टेलीफोन एक्सचैेन्ज में बैठकर प्रतीक्षा करने के बाद दूसरे दिन सबेरे फोन लग पाया। अब बताईये,जहाँ देश की राजधानी हो-वहाँ यह हाल थे। तब अन्य शहरों का पूछना ही क्या ? बड़ी बदतर स्थिति थी। हाँ एक फायदा जरूर मुझे हुआ। इसी बहाने आगरा दिल्ली घूमने मिल गया।
दुर्ग में दो साल बीत गये। निर्माण कार्य निरंतर चल रहे थे। मजदूरांे की आमदनी बढ़ गयी थी। आमदनी बढ़ने से उनके रहन -सहन में भी सुधार हो गया था। प्रारंभ में एक रुपया में काम करने वाला मजदूर अब दस पंद्रह रुपया कमा रहा था। यह स्थिति व्यवसाय के लिये नुकसान पहुँचा रही थी क्योंकि टेंडर उस समय की स्थिति के अनुसार भरा गया था, जो कि अब विषम था सो नुकसान होने लगा। नुकसान होने से काम में ढीलापन आता गया।
दुर्ग में रहते हुये दो ढाई माह में जबलपुर आना-जाना होता रहा। बाकी समय टेलीफोन सम्पर्क से समाचार मिलते रहते। उसी से मालूम हुआ। मेरी दूसरे नम्बर की लड़की शैल का चेचक की बीमारी से निधन हो गया। वह केवल छः साल तक ही इस संसार में रह सकी। मैं रहता तो कुछ प्रयास करता। बहुत सुंदर थी - शैल। शायद मेरे मोहल्ले भर में सर्वश्रेष्ठ। क्या किया जाये ? घर आया पर उसके निधन के चार दिन बाद। उसके निधन से मुझे बहुत चोट लगी। मेरा भिलाई जाने का मन न हुआ पर जो लालच दिया गया था, उसके कारण दुबारा जाना पड़ा और अपने कर्म क्षेत्र में फिर वहीं उतरना पड़ा।
मैं पुनःअपने कार्य क्षेत्र दुर्ग में आ गया था। दुर्ग मंे सम्पर्क एवं मित्रता हुई दाऊ चेतराम ताम्रकार से, बीच बाजार में उनकी सायकल की थोक फुटकर बिक्री की दुकान थी - उनकी मिलन शीलता के कारण बहुत से लोग वहाँ एकत्रित होते थे। सामाजिक एवं राजनैतिक बहस घंटों चलती थी। वहाँ कुछ राजनेता भी आते थे। उन दिनों कांग्रेस के प्रमुख नेता श्री मोतीलाल बोरा हाई स्कूल प्राघ्यापक थे। वे भी आते थे, श्री बोरा जी कालान्तर में चुनाव लड़कर प्रदेश के मुख्यमंत्री और बाद में राज्यपाल भी बने।
मित्रमंडली में और भी बहुत से थे। सभी की भट्टे पर हर माह चाय पार्टी होती थी। उसका व्यय हमारी कम्पनी की ओर से रहता था। कभी- कभी ताम्रकार जी दुर्ग में दावत देते। खासा आनंद आता था। इस दोस्ती का श्रेय श्री चंचल प्रसाद अग्रवाल को जाता है। वे दाऊ दुलार सिंह के भतीजे और हमारी कम्पनी के कर्मचारी थे। वे एक पैर से अपंग थे किन्तु फिर भी सायकल से मीलों का सफर कर लेते थे। वे पढ़े लिखे और समझदार थे। साथ ही राजनेता दाऊ घनश्यामदास अग्रवाल जी के सम्बन्धी थे।
उस समय दुर्ग भिलाई में जमीन बहुत सस्ती थी - एकड़ में पाँच सात सौ रुपये। दुर्ग में चार आना फुट आबादी के पास रेट था। मित्रमंडली ने आठ एकड़ की एक जमीन भिलाई के पास सुपेला में खरीदी, रेट था आठ सौ रुपये एकड़। आज होती तो लाखों की होती पर दुर्भाग्य था। फर्म को नुकसानी के कारण और वहाँ से वापस आने की वजह से मुझे अपना शेयर वापस लेना पड़ा। जीवन सँवारने का ईश्वर ने वहाँ जो एक अवसर दिया था - वह बद किस्मती के कारण चूक गया।
वहाँ के अनेक रोचक वृतांत हैं, पर सभी का समावेश करना सम्भव नहीं है। उसके लिये काफी पृष्ठ लग जायेंगे। दुर्ग रायपुर भिलाई का क्षेत्र गर्मी में अधिक गर्म रहता है। फिर दो चिमनी भट्टों के बीच आॅफिस और आवासी घरों में रहते सभी लोग गर्मी में झुलस जाते थे। बिजली का साधन न होने से पँखा बेमानी था। हाथ ही सहारा था।
आँधी तूफान भी ऐसा आता कि जाने कब क्या हो जाये ? एक अवसर ऐसा भी आया कि भयंकर तूफान का ताँडव हुआ। हमारे आफिस का सत्तर फुट लम्बा छप्पर जो टीनों से ढँका था और ईंटों की दीवारों में खीला गड़ा कर तारों से बल्लियों को कस दिया गया था। आॅफिस -रहवास कक्षों में दरवाजे थे नहीं। अतः पूरा क्षेत्र हवा से प्रभावित था। हम पन्द्रह लोग छप्पर में लगी बल्लियाँ पकड़े हुये थे। अचानक एक तेज हवा का बवंडर आया और सत्तर फुट लम्बा शेड तीस फुट नीचे शिवनाथ नदी में जा गिरा।
हम लोग यदि बल्लियाँ नहीं छोड़ते, तो कह नहीं सकते थे कि हम लोगों का क्या हश्र होता। वहीं से एक किलो मीटर कलकत्ता की एक कम्पनी का आॅफिस था - जिनके पास पचास साठ ट्रक थे, वे भिलाई स्टील प्लांट को रेत सप्लाय करते थे, उनके यहाँ के ढाई सौ टीन हवाओं में ऐसे उड़े जैसे आकाश में पतंग। हमारे यहाँ तक उनके टीन मजदूरों के झोंपड़ों पर गिरे। दो सौ झांेपड़ियों के छप्पर पूर्व में ही उड़ गये। टीन अंदर समा गये जिससे दस लोग बुरी तरह घायल हो गये। कई टीन झाड़ों की ऊपरी शाखाओं पर अटक गये। इस विनाशलीला का तांडव अपनी आँखों से देखा था, भोगा था - यह स्मृति हमारे जीवन में सदा अमिट रहेगी।
द्वारिकानाथ की शादी बड़ारी में तय हुई। वहाँ की हमारी शादी का नजारा सभी के मन में जीवित था - दोबारा फिर बारात जायेगी हे राम ! सभी परेशान थे। पर अबकी बार पिता जी और काकाजी की जगह आर्गनाइजर मैं। बनाया गया था। हमने जबलपुर से ही एक बीस शीटर बस की। बस हमारे प्रतिष्ठान के मालिक के लड़के की थी और वे ही चालक थे। उस बीस सीटर बस में तीस बाराती ठँूसे गये।
पूरे रास्ते का सफर गाते बजाते कब कट गया पता नहीं चला। उनमें कई हँसोड़ प्रकृति के व्यक्ति थे जिन्होनें सबको हँसा- हँसा कर लोट -पोट कर दिया। छुट््टन मालगुजार, हरिशंकर अग्रवाल सहित पिता जी ने भी रास्ते भर गाना बजाना में हिस्सा लिया। झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में ...गाना पिता जी के मुख से सुना था, यह गाना बहुत सालों बाद फिल्मों में सुनाई पड़ा था। उस शादी में अवर्णीय आनंद आया ...स्वागत सत्कार भी खूब हुआ ... अपनी शादी की कठिन यात्रा त्याग तपस्या और संतान के उज्ज्वल भविष्य के प्रति समर्पित निश्छल पिता की उस पीड़ा को कैसे अंकित करूँ। शब्दों में इतनी सामथ्र्य नहीं कि उस पीड़ा की अभिव्यक्ति मैं कर सकँू। इतने शोक संतप्त वे जीवन में कभी नहीं दिखे। हाथ पैर थक गये थे। इच्छा शक्ति मृत सी थी ... फिर भी वे उसे चाबुक मार -मार कर गतिशील बनाये रखने का प्रयास कर रहे थे ..... वह गतिशील रहें तो कैसे ...? जीवन में गतिशीलता की उर्जा क्या सदा एक सी बनी रहती है ? फिर यह तो उनका चैथा पन था ... चलते- चलते उनके पैरों में गाँठंे पड़ गयी थीं ...। कहाँ तक वे गाय बछिया की सेवा कर मन बहलायें ? अब उन्हंे आराम की जरूरत थी। सहयोग की जरूरत थी ... पर उल्टे धमकी ... ‘मैं मर जाऊँगा ’
मैं जानता था, कि यह धमकी थोथी - धमकी है। केवल डराने के लिये है। सीधा सरल व्यक्ति डर जायेगा। और जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिये वह डर भर रहा है, इससे उसकी पूर्ति आसानी से हो जायेगी। सहजभाव से कौन किसे सहयोग देता है ?... पर सामने वाला व्यक्ति आकंठ कर्ज से डूबा हो...राह चलना दूभर हो...यदि वह भावावेश में यह कृत्य कर बैठे - तो क्या भरोसा ?
मैंने कहा - बड्डे एक मौका उसे और देना चाहिये।... तीन सौ मैं देता हँू... बाकी आप .... सब कर्जे दीनानाथ के साथ जाकर चुका देते हैं।’’
उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था। जिस व्यक्ति ने एक पैसा भी व्यर्थ में खर्च न किया हो, उसके लिये एक मुस्त रकम देना कितना पीड़ा दायक है। जो व्यक्ति मामूली रकम लेकर अपने पिता का मकान गिरवी रख दे ... कोरे पेपर पर हस्ताक्षर कर दे ... इसे आप क्या कहेंगे ?
बुद्धिमान व्यक्ति यह कृत्य कभी नहीं कर सकता। और किसी को सम्हलने के लिये उसमें बुद्धि जागृत हो जाने तक प्रतीक्षा करना चाहिये।
मैं उस समय एक किनारे बैठा रो रहा था। ताकि मेरे आँसू और कोई न देख सके। यदि मैं ही अधीर हो गया तो कौन सहारा देगा उन्हें ? अभी तो और भी बहुत से कार्य शेष हैं .... जिन्हें पूरा करना है। उनकी स्मृतियाँ मेरे सामने एक- एक कर सामने आ रही थीं।
मैंने धैर्य रखा। यह छूटा तो सब छूटा।
कहा भी गया है कि धैर्य का परिणाम सुखद ही होता है।
पिता जी मेरी दृष्टि में एक आदर्श पिता थे। उन्होंने अपनी संतानों के सुखद भविष्य का इतिहास रचा और चल दिये। उन्होंने अपना कार्य पूरा किया। जो हैं,वे भी तो कुछ करें... कुछ करेंगे तो पिता जी की
आत्मा को संतोष मिलेगा। वे सुखी होंगे और संतुष्ट होंगे।
लोक सभा का तीसरा आमचुनाव फरवरी 1962 को हुआ। कांग्रेस को 361 स्थान मिले, पिछले में उसे 371 मिले थे। प्रजा सोसलिस्ट दल को 12 स्थान, जनसंघ 14 स्थान, साम्यवादी दल को 29 स्थान स्वतंत्र दल को 18 स्थान, निर्दलीय तथा अन्य को 60 स्थान मिले। इस चुनाव में कांग्रेस की लोकप्रियता घटी। 44 ़73 प्रतिशत मत मिले। साम्यवादी दल को 9 ़94 प्रतिशत स्वतंत्र दल पिछले चुनाव में नहीं था। मत 7 ़89 प्रतिशत मिले। जनसंघ को 6 ़44 प्रतिशत। लोक प्रियता में वृृद्धि हुई। प्रजा समाजवादी दल को 6 ़़़81 प्रतिशत मतों में बढ़ोत्तरी हुई। कुल मिला कर जनता का रूख पलट कर अखिल भारतीय पार्टी की तरफ झुकता नजर आया।
विधान सभा के तीसरे आम चुनाव में कांग्रेस को 1772 स्थान मिले। कांग्रेस की शक्ति पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार में घटी और 125 सीट का नुकसान हुआ। सब राज्यों में चुनाव के बाद कांग्रेस के मंत्रिमंडल बन गये। साम्यवादी दलको 149 स्थान मिले। जनसंघ को 116 स्थान मिले - शक्ति बढ़ी। स्वतंत्र दल 166 स्थान मिले। निर्दलीय तथा अन्य को 440 स्थान मिले। राष्ट्रपति के रूप में डाॅ.राधाकृष्णन जी चुने गये।
26 अक्टूबर 1962 को संसद शुरू होने के बाद पहली बार चीनी आक्रमण से उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिये राष्ट्रपति ने संकट कालीन घोषणा की - प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू की सलाह से। देश में संकटकालीन घोषणा का निर्णय प्रधान मंत्री नेहरू ने केन्द्रीय मंत्रीमंडल की अत्यावश्यक बैठक में लिया गया था और राष्ट्रपति ने उसकी औपचारिक रूप से घोषणा की। इस संकटकाल में सारी शक्तियाँ का प्रयोग प्रधानमंत्री ने ही किया। वे ही प्रतिरक्षा परिषद के प्रधान रहे। राष्ट्रपति के पास तो केवल नाम मात्र की शक्तियाँ रहती हैं।
दिनांक 20 अक्टूबर 1962 मंे चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और 14500 वर्गमील जमीन पर कब्जा कर लिया। उस समय पाकिस्तान का भी आक्रमण करने का इरादा था पर अपनी आन्तरिक कठिनाईयों की वजह वह ऐसा न कर सका। उसकी चीन से साँठ -गाँठ थी। इस युद्ध में देश को काफी आर्थिक क्षति उठानी पड़ी। हम सम्हलने की दिशा में बढ़ रहे थे कि लड़खड़ा गये। हमारे सैनिक भी वीरता से लड़ते -लड़ते शहीद हुये। खाद्यान्य संकट भी देश के सामने आया। दूसरे देशांे से गेहँू और मोटे अनाज भारी मात्रा में आयात करना पड़ा।
दिसम्बर 1962 में नागालैंड की स्थापना हुई।
28 मई 1964 को देश के करोड़ों लोगों के चहेते -महान नेता पं जवाहर लाल नेहरू के निधन ने पूरे देश को शोक संतप्त कर दिया। अब देश का क्या होगा ? सबके मन में यही प्रश्न था। पर श्री लालबहादुर शास्त्री ने देश की बागडोर सम्हाल अपनी काबिलियत सिद्ध कर दी। पं नेहरू इस धरती की गोद में 75 साल रहे। ओैर जनता के सर्व प्रिय नेता रहे। उनकी छवि सभी के दिलों में बसी थी।
इसी बीच हमारे परिवार में हमारे छोटे भाई स्वामीनाथ की शादी श्री रेवाशंकर जी दुबे की सुपुत्री रंजना के साथ 13 जुलाई 1967 को हुयी। रेवाशंकर दुबे जी एक बहुत ही सुसंस्क्ृत एवं धार्मिक परिवार से थे। स्नेही एवं मिलनसार थे। इनके एक छोटे भाई गौरीशंकर दुबे थे। इस तरह उनका बड़ा परिवार था। हमारे छोटे भाई की सर्विस डिफेंस में लग गयी थी। हमारे चाचा पं़ बद्रीप्रसाद जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस परिवार में पुरोहिती का कार्य करते थे। बातचीत हुई और रिश्ता पक्का हो गया। इनका बड़ा परिवार था। सभी परिवार एक बड़े मकान में मिलजुल कर रहते थे। गढ़ा फाटक में रहवासी मकान तो था इसके साथ जबलपुर के पास ही कठौंदा गाँव में काश्तकारी की जमीन एवं आवास हेतु मकान भी था।
सिरसा जेवरा में मैं चार साल रहा। बरसात में काम बंद हो जाता था - केवल बनी हुई ईंटों की सप्लाई का कार्य ही शेष रहता था। बरसात रुकते ही हमें पुनः मजदूरों को लेने के लिये बिलासपुर और हाथरस जाना होता था और उनकी रुकने खाने पीने की व्यवस्था करना पड़ती थी। दाऊ दुलार सिंह जी से हमारे परिवारिक सम्बन्ध बन गये थे। हर तरह का सहयोग उनसे प्राप्त होता था। सप्लाई का बिल प्रस्तुत करने और भुगतान लेने श्री तीरथ प्रसाद मालवीय का भी निरंतर आना जाना था।
काम बंद होने पर मैं वापस आ गया। पर जिस प्रलोभन के कारण कष्ट सहकर अपने परिवार से दूर रहा। उनसे वह पारिश्रिमिक नहीं पा सका। सम्पन्न लोगों में अपने कर्मचारियों का शोषण करने की जो प्रवृत्ति होती है, उसी प्रवृत्ति से वे भी अछूते न रह सके और अनेक लोगों ने उनके इस व्यवहार से धोखा खाया।
ऐसा कहा गया है, कि गरीबों की आह में बहुत असर होता है। उन पर जुल्म ढाने वालों को उसका फल अवश्य मिलता है। संभवतः यही कारण है, वह प्रतिष्ठान आगे चलकर तहस -नहस हो गया और बाजार में कभी जिसकी एक तरफा साख थी, वह कुछ ही सालों में बर्बाद हो गई।
जब पेड़ सूख जाता है, तब पंछी अपना बसेरा बदल देता है। मुझे भी ऐसा ही करना पड़ा। शक्कर उद्योग प्रमुख और बड़ा माना जाता है। अतः कीमतों में भारी उछाल के कारण सरकार ने उसे अपने नियंत्रण में ले लिया और उसका वितरण खाद्य विभाग के अन्तर्गत कर दिया गया था। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिये एक संस्था बनी - ‘‘जिला शक्कर आयात व्यापारी संघ’’। उसके भागीदारों ने मुझे अपनी संस्था में काम के लिये बुला लिया। वह संस्था चार साल चली। चॅूंकि सरकार की ओर सेे उस समय तक अत्यावश्यक सामग्री वितरण व्यवस्था हेतु खाद्य निगम की स्थापना हो चुकी थी। अतः व्यापारिक संस्थाओं से वह प्रणाली छीन ली गई। इसके बाद मैं उसी संस्था के एक भागीदार श्री किशोर चंद अरोड़ा के प्रतिष्ठान से जुड़ गया।
श्री किशोर चंद्र जी अरोड़ा बहुत ही नेकनियत, मिलनसार और परोपकारी व्यक्ति थे। जिसमें ये गुण हों वह समाज में प्रतिष्ठा पाता ही है। जिसमें दूसरों के दुख-दर्द,समझने-जानने की पहचान हो वह सदा पूज्यनीय रहता है। जीवन में पहली बार ऐसे निश्छल व्यक्ति ने मुझे पहचाना और मुझे अपने सामथ्र्य के अनुसार सहयोग भी दिया। उन्हीं के विशेष प्रयास से मेरे बड़े चिरंजीव मनोज को बैंक में नौकरी मिली। जिससे मेरे परिवार को एक तरह से आर्थिक सहयोग मिला। सम्बल मिला। सद्चरित्र परोपकारी व्यक्ति के संस्कार उनकी संतानों में भी आ जाते हैं। मैं देख रहा हँू कि वे सभी फल फूल रहे हैं और अपने निर्मल आचरण की मिठास सारे समाज में फैला रहे हैं।
संघ में पार्टनर श्री सेवाराम जी एवं खूबचंद मुंशी का भी मुझे आशातीत सहयोग प्राप्त हुआ। श्री सेवाराम जी बलेचा अपने मधुर स्वभाव के कारण व्यापारिक क्षेत्र में प्रख्यात रहे हैं। उनके और किशोर चंद्र अरोड़ा के बीच मित्रता की प्रगाढ़ता बेमिसाल रही है। वही संस्कार उनके पुत्र श्री पुरुषोत्तम बलेचा में भी थे। उनके कठिन परिश्रम के कारण उनका प्रतिष्ठान व्यापारिक क्षेत्र में आज अग्रणी है।
हमारे देश में सन्1965 से 1970 के बीच जो घटनायें हुईं उनमें मुख्यतः हमारे देश का लोकसभा का चैथा आम चुनाव फरवरी 1967 में हुआ। उसमें कांग्रेस को 280, स्वतंत्र दल को 44, जनसंघ को 35, डी एम के को 25, संयुक्त समाजवादी दल को 23, साम्यवादी दल दक्षिण पंथी 22, साम्यवादी वामपंथी 19, प्रजासमाजवादी 13 अन्य दल को 22 एवं निर्दलीयों को 28 स्थान मिले। उपरोक्त विवरण 5 मार्च तक के चुनावों का है।
दिल्ली महानगर परिषद में जनसंघ 33, कांग्रेस 19 तथा अन्य को 4 स्थान मिले।
देश की समस्त विधान सभाओं के चुनाव में कांग्रेस 1674, स्वतंत्र दल 265, कम्युनिस्ट दल दक्षिण को 112, कम्युनिस्ट वामपंथी 126, जनसंघ 260, प्रजा शोसलिस्ट दल 106, समाजवादी दल 183, रिपब्लिकन 23, स्थान मिले एवं अन्य दल को 232 स्थान मिले।
इस चुनाव में कांग्रेस की गम्भीर पराजय हुई। विधान सभा में चौथे आम चुनाव में इसकी शक्ति बहुत घट गई और केरल, मद्रास, बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, उड़ीसा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। अतः कई राज्यों में इसके मंत्रीमंडल नहीं बने। जनसंघ का प्राप्त मतों के आधार पर दूसरा नम्बर हो गया।
विरोधी दलों ने शक्तिशाली राष्ट्रपति का नारा देकर भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश को राष्ट्रपति पद के लिये अपना उम्मीदवार बनाया। सुब्बाराव ने इस विषय में कहा था कि यदि वे चुने गये तो वह स्वतंत्र तथा शक्तिशाली राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेंगे। परन्तु चुनाव के परिणाम उनके पक्ष में नहीं निकले और वे चुनाव हार गये। डाॅ. जाकिर हुसैन उस समय प्रधानमंत्री के दल के समर्थन से राष्ट्रपति बने थे। इसलिये वे ऐसा काम नहीं करना चाहते थे जिससे प्रधान मंत्री को कोई परेशानी हो।
11 सितम्बर 1965 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया किन्तु भारतीय सेना ने वीरता पूर्वक सामना कर उसे परास्त किया। लड़ाई 12 घंटे चली और भारतीय सेना ने उसकी सारी शक्ति को नष्ट -भ्रष्ट कर दिया। संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रयास से युद्ध बंद हो गया। इस लड़ाई में पाकिस्तानी सेना के 4802 सैनिक मारे गये, 457 बंदी बनाये गये। जिनमे 22 अफसर भी थे। कई अधिकारियों ने आत्मसर्मपण कर दिया। इस लड़ाई में भारत के 3333 सैनिक शहीद हुये, जिनमें 80 अफसर थे। पाकिस्तान के 471 टैंक बर्बाद हुये। भारत के 128 टेंक नष्ट हुये। पाकिस्तान के आधे विमान नष्ट हुये।
जनवरी 1966 में भारत और पाकिस्तान के बीच रूस में ताशकंद समझौता हुआ और समझौता के बाद वहीं भारत के प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री का हृदय गति रुक जाने से देहावसान हो गया। यह भारत के लिए एक बड़ी क्षति थी। भारत ने शास्त्री जैसे लोकप्रिय नेता को खो दिया।
देश में सन् 1970 से 1975 के बीच काफी उथल पुथल रही। 27 सितम्बर 1970 को प्रधान मंत्री इंदिरागांधी ने राष्ट्रपति बी वी गिरि से सिफारिश की कि लोक सभा भंग कर दी जाये तो लोकसभा भंग कर दी गई। पाँचवी लोक सभा के लिये मध्यावधि चुनाव 1मार्च से 10 मार्च तक हुये। नये चुनाव के परिणाम में सबसे अधिक फायदा नई कांग्रेस को हुआ। नई कांग्रेस को 350, कांग्रेस संगठन को 16, स्वतंत्र दल 8, जनसंध 22, संयुक्त समाजवादी दल को 3, साम्यवादी दल 23, माक्र्सवादी दल 23, प्रजा समाजवादी दल को 2, डी एम के को 23, तेलंगाना प्रजा समिति 10 अन्य दल को 31 स्थान मिले।
तीन विधान सभा के चुनाव मार्च 1971 में हुये। उड़ीसा, तमिलनाडु तथा बंगाल के बाद मार्च 1972 को 16 राज्यों एवं दो केन्द्र शासित क्षेत्रों के चुनाव हुये। जिसमें नई कांग्रेस को मेघालय, मणिपुर, गोवा को छोड़कर सभी राज्यों में सफलता मिली। जोड़ तोड़ की राजनीति का उदय हो गया। आया राम - गया राम की राजनीति शुरू हो चुकी थी।
लोकसभा का एक उपचुनाव जबलपुर में सेठ गोविंदास के निधन के बाद हुआ। सभी दलों ने मिल कर श्री शरदयादव को अपना प्रत्याशी बनाया। परिणाम स्वरूप कांग्रेस के श्री रविमोहन चुनाव हार गये और शरद यादव जनता पार्टी की ओर से चुनाव जीत गये। मतों के ध्रुवीकरण को रोकने कांग्रेस संगठन, जनसंघ, संयुक्त समाजवादी और स्वतंत्र दल ने मिलकर चैगुटा बनाया। जिसे जनता पार्टी नाम दिया गया। इस तरह मतों के ध्रुवीकरण रोकने दलों में चुनावी समझौता होने लगे।
1 नवम्बर1966को पंजाब का बटवारा हुआ। हिन्दी भाषी क्षेत्र को अलग कर हरियाणा राज्य बनाया गया। 1967 में संसद द्वारा राजभाषा सम्बंधी अधिनियम पारित किया गया। चँूकि दक्षिण के राज्यों द्वारा हिन्दी भाषा का विरोध किया जा रहा था। संसद ने यह अधिनियम पारित कर हिन्दी अंग्रेजी दोनों को जारी रखने का आश्वासन दिया गया। इसके प्रत्युत्तर में लगभग पूरे देश में अंगं्रेजी विरोधी आंदोलन भी हुये। उधर दूसरी ओर हिन्दी के विरोध में दक्षिण भारत में भी आन्दोलनकारियों ने काफी तोड़ फोड़ की। केन्द्रिय कार्यालयों, रेलों को भारी क्षति पहुँचाई गयी। यहाँ तक कि आत्मदाह जैसे रास्ते अपना कर इसे प्रतिष्ठा का विषय बना लिया गया। परिणाम स्वरूप देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी के मार्ग में अवरोध पैदा हो गया। मामला अधर में लटक गया। कालान्तर में सभी को क्षेत्रीय भाषाओं और प्रान्तीयवाद के आधार पर त्रिभाषा के फार्मूला को स्वीकार करने को विवश कर दिया गया।
1 अप्रेल 1969 को मेघालय की स्थापना हुई। 18 सितम्बर 1969 को अहमदाबाद में साम्प्रदायिक दंगे भड़के। इस पर भारत में मेहमान के रूप में आये श्री खान अब्दुल गफ्फार खाँ द्वारा तीन दिनों का अनशन किया गया। इन्हें सीमान्त गांधी के नाम से भी जाना जाता था। इन्होंने महात्मा गांधी के साथ मिल कर देश की आजादी के लिये अंग्रेजों से लोहा लिया था। 7 मई 1970 को क्षत्रपति शिवाजी के जन्मोत्सव पर भिवंडी बम्बई में पुनः साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। अगस्त 1970 में जयप्रकाश नारायण द्वारा समाज में भाई चारे की भावना को जगाने के लिये ‘‘इन्सानी बिरादरी’’ की स्थापना की गई।
नेताओं में सत्ता पाने की महत्वाकांक्षा प्रबलता के साथ उभरी। दल बदल का प्रभाव भी बढ़ने लगा। सिद्धान्त आदर्श एवं नीतियाँ सब बेमानी होते जा रहे थे। सत्ता ताकत और पैसा कमाने का जरिया बनता जा रहा था। नवम्बर 1969 में कांग्रेस में फूट पड़ गई, वह दो भागों में विभक्त हो गई। श्रीमति इंदिरागांधी जगजीवन राम की कांग्रेस नई कांग्रेस कहलाई जाने लगी ओैर दूसरी ओर निजलिंगगप्पा - मोरार जी देसाई की संगठन कांग्रेस कहलाई गयी। सत्ता का संघर्ष तेज हो गया था। सत्ता में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व बढ़ने लगा। राष्ट्रीय पार्टियों के आॅंकड़े सिमटने लगे। सत्ता में सौदे बाजी की बाजीगिरी चलने लगी।
26 मार्च 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के शेख मुजीबुररहमान द्वारा स्वतंत्र बंगला देश की स्थापना हेतु संघर्ष छेड़ दिया गया। पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों के कारण हमारे देश में खतरा मँडराने लगा। चँूकि सेना के अत्याचारों के कारण एक करोड़ शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से अपनी जान बचाने भारत में आ गये। भारत को पाकिस्तान ने पुनः इस बड़ी समस्या के गर्त में ढकेल दिया। इस व्यवस्था में सरकार के अरबों खरबों रूपए खर्च हुये। उसकी पूर्ति सरकार ने टैक्स लगा कर जनता से वसूला। जनता ने भी आर्थिक एवं भरपूर सहयोग दिया और बंगलादेश की आजादी का समर्थन भी किया।
3 सितम्बर 1971 को पाकिस्तान ने भारत पर फिर आक्रमण कर दिया। भारत ने उसका डटकर सामना किया उसको इस युद्ध में भी बुरी तरह मुँह की खानी पड़ी। उसके मित्र चीन ने मात्र तीन घंटे के अन्दर ही भारत को आक्रांता देश घोषित कर दिया। युद्ध में पाकिस्तानी सेना के हथियार डालने के बाद 17 दिसंम्बर 1971 को भारत -पाक युद्ध बंद हो गया। अन्ततः बंगला देश स्वतंत्र हो गया। चीन ने धमकी दी थी किन्तु वह धमकी के अतिरिक्त कुछ न कर सका।
भारत ने बंगला देश को मान्यता दी और उसकी आजादी के लिये सहयोग भी दिया था। पाकिस्तान के लिये यह करारी हार थी। उसका एक हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान स्वतंत्र राष्ट्र बंगला देश के नाम से सामने आ गया। इस युद्ध में पाकिस्तान को शर्मनाक हार का मुँह देखना पड़ा। 16 दिसम्बर 1971 को शाम 4 ़31 पर अपने नब्बे हजार से भी अधिक आर्म फोर्स के साथ पाकिस्तानी लेफ्टिनेन्ट ए.ए.के. नियाजी को भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। लेफ्टिनेन्ट जे.एस. अरोड़ा उस ऐतिहासिक विजय के सिरमौर रहे, उस ऐतिहासिक एवं रोमांचक क्षणों के गवाह बने। नब्बे हजार से भी अधिक फौज का आत्म समर्पण करवाना, हमारे देश के सैनिकों के लिये और हमारे लिये बड़े गर्व की बात है। उस समय हमारे भारतीय थल सेना अध्यक्ष जनरल मानेकशा थे। इनके नेतृृत्व में हमारे देश ने अभूत पूर्व विजय पाई।
हमारे देश में 1974 में पहला अणु शक्ति परीक्षण किया गया। एवं 1975 में भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट का प्रेक्षेपण किया गया। इसी वर्ष आपात स्थिति की घोषणा हुई। जब फिर से चुनाव हुये तो जनता ने कांग्रेस को नकार दिया। सर्वोदयी नेता श्री जयप्रकाश नारायण को राजनीति की शुद्धता के लिये मैदान में उतरना पड़ा। राजनीति में काफी उथल पुथल हुये।
पिता जी की मृत्यु के बाद सभी उदास थे। मन को समझाने के लिये बहुत से रास्ते ढँूढ़ लिये जाते हैं, पर चोट का घाव तुरंत कहाँ ठीक होता है ? उसे भरने में समय लगता है। हम लोगों ने तसल्ली कर ली। मार्ग दर्शन के लिये माँ है। पर माँ किस आशा से तसल्ली करे ? संतान के सहारे ? चार हैं कोई तो सहारा बनेंगे। पर उसे क्या पता था, सहारा बनने को भेद की दृष्टि से देखा जायेगा। वह सदा बेसहारा रहीं। इसी में खुशी हैं उफ.... कितनी घिनौनी मनोवृत्ति है। कहाँ से आ जाती है ? क्यों आ जाती है ? दूर दृष्टि के अभाव से ? अथवा निजी स्वार्थ से ? कोई न कोई कारण तो होगा ही। हर घर में कुछ ऐसे तत्व होते हैं। विघ्न ही उनका आदर्श है। उसके दुष्परिणाम की चिन्ता उन्हें नहीं होती है ?
माँ का मौन रुदन मैं देख रहा था।
क्या वह किसी के सामने प्रकट कर सकती है ?
नहीं।...
पिता जी के रहते अपमानित हुई। अब भी होना है। खेती के लिये गाँव भाग कर कितने दिन बचेगी ? आखिर जीवन मरण की गति तो इसी चहार दीवारी में भोगनी है।
पिता जी ने झेली है - माँ झेलेगी - और मैं भी झेलूँगा। शायद कभी धैर्य का फल मीठा मिले।
हमारे काका श्री बैजनाथ जी पैदल बेलपत्री लेने गये थे। सड़क पर स्कूटर से उनका एक्सीडेंण्ट हो गया। सिर में चोट थी, बेहोशी छा गई थी और चल बसे। उनकी मृत्यु सिर की नस फट जाने से हुई। उनकी मृत्यु के कुछ माह पूर्व आजी का भी स्वर्ग वास हो गया था। शोक का यह सिलसिला थम नहीं रहा था। सभी अपने एक एक कर बिछुड़ रहे थे।
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सीलोन से मुआवजा मिलने के बाद गाँव वासियों में अपनी छाया बनाने की धुन थी। अतः व्यवस्थित रूप से नई सीलोन पुनः बस गयी। अधिकांश उजड़े गाँव वासियों ने अपने पुराने गाँव वासियों के साथ ही रहने का फैसला लिया। कुछ ने साथ छोड़ अपनी मन पसंद जगह चुनी। हमारे बाबा पंडित रामबक्श जी पटना ने नई सीलोन में बसना पसंद किया। किन्तु अपने अन्तिम समय का पूर्वाभास होने पर अपने भाई पंडित रामदयाल जी के पास जबलपुर में आ गये और उनके समीप रहकर प्राण त्यागे। इसी तरह अपने जीवन की पूरी आयु भोगकर, उस महान विद्धान त्यागी तपस्वी ऋषि सा व्यक्तित्व वाले संत ने अपना भौतिक शरीर त्यागा।
गाँव की अपनी अचल सम्पत्ति वहाँ सेवा करने वाले श्री ललिता प्रसाद अवस्थी को दे गये थे। यहाँ की अचल सम्पत्ति के सम्बन्ध में श्री रामदयाल जी पटना ने अपनी हार्दिक इच्छा प्रकट कर दी थी कि वह रामनाथ के पुत्र मनोज-विनोद के नाम वसीयत करंेगे। क्योंकि रामनाथ एवं बहू नरबद बाई ने निष्कपट भाव से उनका इलाज एवं सेवा कर रहे हैं। नाती मनोज ने भी मंदिर में रहकर रात दिन वृद्धावस्था के समय उनकी काफी सेवा की। वे बिस्तर से उठने बैठने को लाचार हो गये थे।
उनकी सेवा भाव में कभी कमी नहीं आने दी। वह सबसे अधिक हमारे परिवार को ही चाहते रहे हैं। दूसरी ओर उनकी यह सोच भी रही है कि इनकी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर है। इनको अपना परिवार चलाने में कुछ इससे मदद मिलेगी। अन्य कोई भी सदस्य न मुझसे सरोकार रखता है और न खैर खबर लेने आता है। यह उनका दृढ़ संकल्प था। पंडित रामदयाल जी ने मृत्यु के कुछ माह पूर्व रजिस्ट्रार को बुलाकर वसीयत कर दी। औेर अपने मन का संकल्प पूरा किया। जो आगे चल कर हमारे परिवार के लिए एक संबल के रूप में साबित हुआ। कालान्तर में मनोज ने बैंक से लोन लेकर यहाँ एक मकान निर्मित किया। जो हम लोगों के रहने के काम आया।
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पिता जी ने एक खेत लिया जिसकी रजिस्ट्री वे मेरे नाम से करना चाहते थे किन्तु मैं इसके लिये सहमत नहीं था। कोसमघाट में श्री लक्ष्मीप्रसाद अवस्थी जो मेरे मौसेरे ससुर थे और मुझे अपने सगे दामाद सा स्नेह करते थे। कोसमघाट के वे सम्पन्न किसान थे। वे भी ऐसा चाहते थे। किन्तु मैं राजी न हुआ। मैंने उनसे कहा भविष्य में इससे मेरे भाईयों में मतभेद होगा। मैंने उनसे विनम्र प्रार्थना की कि वे खेत की जुताई - बुवाई - कटाई में आप अपना सहयोग वैसा ही दें, जैसे यह जमीन आपके दामाद की हो। मेरी मौसी सास भी मेरी पत्नी को अपनी बेटी सा स्नेह करती थी। और छोटी उम्र से ही बुलाकर अपने यहाँ रखती थी। उन्हें भी मेरी पत्नी और मेरे भविष्य की चिन्ता थी। अपनों को कौन नहीं चाहता ? उनकी यह सोच और लगाव उचित था। खेत की रजिस्ट्री पिता जी के नाम से ही हुई और मौसिया की तरफ से हर साल उसकी जुताई-बुवाई-कटाई में सहयोग मिलता रहा। यह काम माँ कभी -कभी कोसमघाट जाकर देखती थी जो कि उनकी समधिन लगती थीं।
सन्् 1969 के अंत में मुझे विश्वस्थ सूत्रों से पता चला कि वह खेत छोटे मौसिया के नाम से था और वे बड़े मौसिया पर दबाव बना रहे थे वह उन्हें लौटा दिया जाये। बड़े मौसिया के सामने उन्होंने एक विकल्प रखा था कि हम लोगों वाला खेत उन्हें दे दिया जाये और उसकी एवज में उतनी जगह गाँव में कहीं दे दी जाये। इस विवाद की भनक लगते ही मैं सतर्क हो गया। वैसे ही मुझे वहाँ माँ का कष्ट नहीं देखा जा रहा था। और जबसे पिता जी की मृत्यु हुई तबसे दिल और फट गया था। उसके प्रति काफी दिल में सहानुभूति उठने लगी थी। पिता जी की मृत्यु के समय माँ वहीं गाँव में थी।
दूसरी बात यह थी भाईयों का एवं मेरा परिवार बढ़ता जा रहा था। कमरों की कमी होती जा रही थी। जगह तो थी, पर इस पर आवासीय निर्माण कैसे हो ? भविष्य में बच्चों की शादी विवाह भी करने हैं - शायद ईश्वर ने इसी कारण मौसिया जी के यहाँ अचानक इस तरह का विवाद खड़ा किया है। जो भी हो,सभी को एक धुन सवार हुई कि खेत को निकाल दिया जाये..। बात गोपनीय रहे और अवस्थी परिवार में इसकी भनक न पड़े यदि भनक पड़ी तो संभवतः विवाद के कारण कुछ परेशानी का सामना भी करना पड़ सकता है। खरीददार विवाद ग्रस्त प्रापर्टी लेने में जोखिम नहीं उठाते। और लोग मोैके का फायदा भी उठाने की फिराक में रहते है। दो की चीज एक में मिल जाये, इस गुणा भाग में लग जाते हैं।
ईश्वर ने फिर सहायता की। वह सूत्र मिल गया। सरदार राजेन्द्र सिंह नामी वकील थे। उनके यहाँ के मुंशी जी अपने विश्वास पात्र थे। उन्हें अपने पक्ष में किया और एक बारगी में रजिस्ट्री हो गई। खेत बिक्री की राशि मिलते ही उसके उपयोग की बात उठी। एक का विचार था चारों में बराबर बांट दी जाये। किन्तु मैने संकल्प लिया था मकान बनेगा, उस दिशा में कार्य आगे बढ़ा। उसके पूर्ण होते- होते कई प्रकार के अडं़गे आये किन्तु हम भाईयों एवं घर के सभी बच्चों के उत्साह एवं सामूहिक श्रम दान से मकान बन गया।
वैसे मेरी कल्पना थी कि सामने वाले मकान के दो ब्लाक बनाये जायंे और पीछे वाली जगह में दो मकान बनायें जाँयें। उसी कल्पना के आधार पर नक्शा भी पास कराया गया। किन्तु दीनानाथ ने हमारी कल्पना को साकार नहीं होने दिया। और दूसरी मंजिल का काम माँ की सहयोग राशि से चालू होकर खत्म हो गया। मकान में मैं उधार राशि लेकर एवं अपने छोटे से वेतन में से राशि बचाकर बड़ी मुश्किल से लगाता रहा। अधिकांश खर्च दीनानाथ को ही वहन करना पड़ा। क्यांेकि अब निर्माण कार्य पैसे की आवक पर निर्भर था। देर लगी - पर दूसरी मंजिल भी बन गई।
परिवार में धीरे-धीरे अभिवृद्धि होती जा रही थी। कमरांे की कमी होती जा रही थी। कालान्तर में और कमरांे का निर्माण कराया गया जिसमें श्री दीनानाथ और स्वामी नाथ ने ऊपरी मंजिल का निर्माण अपने पैसों से कराया।
मकान - निर्माण आरंभ के कुछ समय पूर्व हम तीनों भाईयों ने मिलकर करमेता मे एक खेत भविष्य में प्लाट बनाकर बेचने की दृष्टि से खरीद लिया था- जिसमें सालों से मधुर सम्बंध रखे, एक सज्जन ने भी बिना लागत के एक शेयर हम लोगों की राशि में से अपने नाम करा लिया था। बाहर वाला व्यक्ति कैसा भी धोखा दे जाये सह लिया जाता है। हम सभी कुछ जानकर भी खामोश रहे। उन परम हितैषी से हमारे भाई साहब का साले बहनोई का रिश्ता था,सो उनके कारण सब चुप रहे। बाद में मुझे अपने बच्चों की शादी-विवाह के कारण अपने हिस्से का शेयर बेचना पड़ा। उस समय यदि परिवार के किसी सदस्य ने सहयोग दिया होता तो आज दोनों भाईयों के पास जो जगह है वह मेरे पास भी होती। मैं अपनी नौकरी की बचत राशि अपने परिवार के निमित्त खर्च करता रहा। पर मुझे तो एक ही धुन सवार थी कि हम सबका मकान बने -हमारी प्रतिष्ठा बने।
मेरे इस आदर्श को आज अपने ही लोग ढोंग समझते हैं। वर्तमान समय में जो व्यक्ति जितना अधिक झूठ बोले वह ही पूजा जाता है। झूठ बोलने वालों में सभी तरह के अभिनय करने की क्षमता भी होती हैे। अतः उनको दूसरों को प्रभावित करने में देर नहीं लगती। लोग उनको सपोर्ट भी देते हैं। हालाँकि एक दिन पर्दा अवश्य उटता है और फिर लोग अपने निर्णय पर मन ही मन पछताते भी हैं। यही संसार की रीति है।
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मानव का स्वभाव होता है ,वह दूसरों से कुछ ज्यादा अपेक्षायें रखता है इसीलिये वह सारा जीवन दूसरों से अपेक्षाओं की आशा में ही गुजार देता है। वह उसका एक स्थाई जीवन का चऱित्र बन जाता है। वह अपने कर्तव्य को तो पूरी तरह से विस्मृृत कर देता है। यही जीवन का एक पक्षीय दृृष्टिकोण उसके जीवन में विसंगतियों और विषमताओं का पहाड़ खड़ा कर देता हेै। उसका मन जीवन भर अपने को सही ठहराता रहता है। अपने दोषों को सदा अनदेखा करता रहता है। ताली सदा दोनांे हाथ से ही बजती हेै, यह एक सत्य है। इसे कभी नहीं भूलना चाहिये। यदि ताली बजाना है, तो आपको भी सभी वर्जनाओं के चक्रव्यूह को तोड़कर सत्य के धरातल पर उतरना होगा,आगे बढ़ना होगा। तब हमारा जीवन हर्षोल्लास से तरंगित हो उठेगा और आसपास का वातावरण भी खुशियों से भर उठेगा। इसके लिये हमें अपने मन के अहं को निकाल बाहर करना पड़ेगा। जीवन के सत्य से साक्षात्कार करना होगा। जीवन में दोनों से तालमेल बना कर ही जीना होगा। तभी जीने की सार्थकता सिद्ध होगी।
हमारे जीवन में अनेक ऐसे कटु संस्मरण भी उपस्थित हुये। सत्य सदा कड़वा होता है पर सत्य, सत्य ही होता है। यह प्रसंगवश ही लिखा गया हेै, किसी के मान अपमान के संदर्भ में कतई नहीं। श्री गोस्वामी तुलसी दास जी की सीख की मैंने सदा अवज्ञा की है। जिसका परिणाम भी मुझे बार बार भोगना भी पड़ा है। उनका उपदेश है कि -
आवत ही हरषेे नहीं ,नयनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाॅं न जाइये, कंचन बरखे मेह।।
मैं उनके इस उपदेश के सदा विपरीत चला। अपने बड़प्पन का चोला उतार कर सदा छोटा बना रहा। और वहीं जाता रहा जहाँ स्नेह का अभाव रहा है। तुलसी दास जी ने सत्य कहा है। मैं उनके उपदेश को न मानने के लिए क्षमा भी माँगता हूँ। साथ ही उन महानुभावों से भी हाथ जोड़कर क्षमा माँगता हँू जिनके करण मैंने अपने आपको अपमानित होने की श्रेणी में पाया।
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हमारे परिवार में सर्वप्रथम सन् 1970 में बेटी ममता की शादी सिवनी निवासी श्री दुर्गा प्रसाद मिश्रा जी के परिवार में उनके पुत्र श्री जुगल किशोर मिश्रा के साथ हुई। उक्त परिवार काफी मिलनसार रहा है। उनके पिता जी का अपना व्यवसाय रहा है। उनके यह चिरंजीव शिक्षक रहे। इनके माता जी एवं पिता जी की मधुर स्मृतियाँ सदैव हमारे साथ हैं।
इसके बाद हमारे घर में बड़े बेटे मनोज की शादी 19जून1974 में श्री विश्वम्भर प्रसाद मिश्र जी की बड़ी लड़की ममता के साथ हुई। इस तरह हमारे घर से एक ममता गई तो दूसरी ममता आ गई।
कहा जाता है शादी एक लड़के लड़की का बंधन मात्र नहीं होता , यह दो परिवारों का भी मिलन होता है। एक परिवार दूसरे परिवार से जुड़ता है। यही एक छोटा रिश्ता एक बड़ा व्यापक रूप लेता है। इस कथन को हमारे समधी श्री विश्वम्भर प्रसाद मिश्रा जी ने साबित कर दिखाया। परोपकारी की भावना और किसी की भी सहायता के लिए वे सदैव तत्पर रहा करते थे। इससे समाज में उनकी बड़ी प्रसिद्धि थी।
कर्मठता के बड़े धनी थे। उन्होंने सदा गीता के उपदेश का ही पालन किया। कितने घरों को रोशन किया। हमारे दिलों के तार उनसे सदा जुड़े रहे। शादी विवाह से लेकर किसी भी व्यापार के बारे में उनकी पकड़ व सलाह बड़ी सही रहती थी। सभी को निःस्वार्थभाव से अपनी सेवाएँ बड़ी तन्मयता से दिया करते थे।
मकान निर्माण में भी न जाने कितनों के मकान बनवा दिये थे जो आज भी उनको सदा याद करते रहते हैं, उनकी गिनती नहीं। हमारे परिवार में भी उनका योगदान अभूतपूर्व रहा है। आज भी वही संस्कार उनके चारों पु़त्रों राजकुमार, सुशील, सुनील एवं सुधीर में परिलक्षित होते हैं।
मनोज के तीन संतानें हुयीं। मनीष, सपना और गौरव जो कि अपने पिता के अनुरूप निकले। कालान्तर में सपना की शादी चन्द्रपुर में श्री मती सरोज दुबे के चिंरजीव प्रत्यूष दुबे के साथ एवं मनीष की शादी जबलपुर में श्री राजेन्द्र उपाध्याय की लड़की वंदना के साथ सम्पन्न हुयी।
हमारी दूसरी बेटी सुधा की शादी दुर्ग में श्री नरबदा प्रसाद दुबे आबकारी विभाग अधिकारी के सुपुत्र श्री कमलेश दुबे के साथ 29जून 1980 में सम्पन्न हुई जो कि वर्तमान में भारतीय स्टेट बैंक में उच्च
अधिकारी हैं। यह परिवार एक सम्पन्न परिवार है। हमारी आर्थिक स्थिति के विपरीत ऐसा अच्छा परिवार मिला। तो इसे बेटी का अच्छा भाग्य ही कहा जायेगा या हमारे परिवार के अच्छे संस्कारों की सुगंध। इनके भी चारों पुत्रों में डा. कामता प्रसाद दुबे,कमलेश दुबे,कैलाश एवं केशव ने अपने -अपने क्षेत्रों में खूब नाम कमाया है। इनके दामाद श्री कृष्ण कुमार शुक्ल की आत्मीयता को विस्मृत करना,हमारे लिये सरासर बेमानी होगी। हमारे परिवार से इनकी आत्मीयता सदा अधिक रही है।
चैथी संतान विनोद की शादी डाॅ. नरेन्द्र कुमार बाजपेयी रायपुर की सुपुत्री संगीता के साथ 1989 में सम्पन्न हुयी। बाजपेयी जी पेशे से एक डाक्टर रहे हैं। बड़े सीधे सादे सरल व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति रहे हैं। सादगी पूर्ण जीवन उनकी विशेषता रही है। उनके दो पुत्र हैं, सुनीत एवं विनीत बाजपेयी।
इसी तरह पाँचवी संतान प्रमोद की शादी बैतूल में श्री इन्द्र मोहन बाजपेयी परिवार में 13 अप्रैल 1993 को उनकी बेटी अनिता के साथ हुई। बाजपेयी जी रेलवे में कार्यरत रहे हैं और रेलवे की यूनियन में काफी एक्टिव रहे हैं। इनका सरल स्वभाव, मिलनसार एवं मृदुभाषी हंै। इनके दोनों पुत्रों में अविनाश एवं अनुपम ने अपने क्षेत्र में अच्छा यश कमाया। बैतूल में इनका एक बहुत बड़ा इंजीनिरिंग काॅलेज है।
छटवीं संतान के रूप में देवेन्द्र की शादी जबलपुर में महेन्द्र तिवारी की पुत्री अंजू के साथ 5 अगस्त 1994 में हुयी। तिवारी जी सीधे सरल स्वभाव के हैं। यह हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात है हमारे सभी सम्बन्धी जो बने हैं, वे एक विशाल वट वृक्ष की भांति सिद्ध हुये हैं।
दीनानाथ के छोटे बेटे सुशील ने अपने जीवन में काफी संघर्ष किया। परिणाम स्वरूप उसका प्रतिफल भी उसे मिला। संघर्ष की राह मंे उसको रेडीमेड गारमेंट ने एक नई दिशा दिखाई। उसके जीवन में एक नया प्रकाश उभरा,प्रकाश जैन के रूप में। प्रकाश की इस नई रोशनी में सुशील ने चाहा कि हम कुटुम्ब के सभी सदस्यों को लेकर एक बड़ा काम करेंगे। इस नई सोच के साथ वह आगे बढ़ा। सलवार सूट के अलावा उन्होंने जबलपुर में एक रेडीमेड शर्ट का कारखाना भी खड़ा किया औरउसमें सभी को जोड़ा किन्तु उस कार्य में उनकोे मार्केटिंग में आशातीत सफलता नहीं मिल पाई। किन्तु यह सोच ही अपने आप में उनके मन की छिपी उदात्त भावना को प्रस्तुत करती है। समाज के सामने एक नया आदर्श प्रस्तुत करती है, जो कि प्रशंसनीय है। दीनानाथ के दूसरे पुत्र अशोक शुक्ल ने भी अपने पिता की साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ाया हिन्दी में कहानियाँ लिखी और उसे देश के विख्यात साहित्कार श्री ज्ञानरंजन जी के सानिध्य का सौभाग्य मिला।
समय सदा एक सा नहीं होता। सभी के जीवन में उतार चढ़ाव आते रहते हैं। हर संघर्ष के बाद एक नई भोर जीवन में आती ही है। मानव को हताश एवं निराश नहीं होना चाहिये। अपने कर्तव्य पथ पर सदा आगे बढ़ते ही रहना चाहिये। संघर्ष ही जीवन का दूसरा नाम है। ईश्वर सदा न्याय ही करता है। इसमें देर सबेर हो सकती है। आशा और विश्वास ही जीवन का आधार है। जिस पर हम सभी जिन्दगी की गाड़ी को हाँकते जाते हैं और अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ते जाते हैं। यही पथ सही एवं निष्कंटक है।
साहित्य शब्द का आंतरिक भाव भी यही होता कि सभी का हित संवर्धन हो। किसी का भी अहित न हो। यही जीवन का आदर्श होना चाहिये। इसी से व्यक्ति, परिवार,समाज, देश विकास एवं प्रगति करता है और खुशहाली आती है।
यादों के झरोखे में झाँकने एवं अपनी कलम से लेखन कार्य करना परनिंदा नहीं और न ही आत्म प्रशंसा है। यह तो एक प्रकार से आत्म चिंतन है। आत्म विवेचना का एक सुअवसर है। ताकि हम सभी जीवन में एक नई सोच, एक नई दिशा पा सकें और मिल जुल कर आगे बढ़ सकें। इसी से हमारा एवं हमारे परिवार, समाज और देश का हित हो सकता है। और हम सभी जीवन की राहों पर आसानी से चल सकते हैं।
इति श्री......
(साहित्यकार श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्री नाथ’ के द्वारा अपनी नातिन को लिखे पत्रों की कुछ बानगी .....)
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श्री
जबलपुर
8-11-92
प्रिय डालू ,(सपना)
हार्दिक प्यार !
तुम्हारा दीपावली बधाई -संदेश मिला। तुमने उसमें मुझे ‘‘तनाव -मुक्त’’ रहने की कामना की है। मेरे लिये इतने सटीक भाव व्यक्त करने का साहस तुम्हारी जैसी स्वाभिमान प्रिय लड़की ही कर सकती है। उस कामना के बाद मैंने अपने में कुछ खोजा -विस्मरण की गर्द पोंछी तो साफ नजर आने लगा।
मेरी प्यारी बच्ची जब जीवन का तीन चैथाई भाग निकल जाता है, तब शेष बचे हुये काल में मन , सभी आकांक्षाओं की पूर्ति शीघ्र देखना पसंद करता है और जब किन्हीं विवशताओं के कारण उसमें अवरोध आ जाता है ,तब उस ‘साथी’ को अच्छा मित्र समझ कर बुला लेते हैं। हालाँकि कालान्तर में होता उसके प्रतिकूल ही है।
कहाँ की बेकार बात लिखने मैं बैठ गया।
तुमने लिखा था, जब तक तुम्हारे नाम से पत्र नहीं आएगा, तब तक पत्र नहीं लिखोगी -अतः अब पत्र लिखना। इस वर्ष की - कालोनी की रंगोली प्रतियोगिता, दीपावली में चिन्टू महोदय की धमा चैकड़ी और उल्लेखनीय जो भी बात हो लिखना। मनीष - चिन्टू के पत्र तो मोनू - मिन्टू के नाम आते ही रहते हैं। तुम तो सिर्फ ‘दादा-अम्मा ’(दादी) को लिखती हो - सो लिखना।
वहाँ रायपुर में क्रम से किसी न किसी के पहँुचते रहने से तुम सभी का समय अच्छा बीता होगा। विनोद चाचा, संगीता चाची और रिंकी। सुधा बुआ, निवी - नवनीत। राजेश सुन्दर अंकल। प्रमोद चाचा। सुशील मामा - रचना मामी। डाक्टर अंकल-आंटी, सुनीत -विनीत। लोकल मेहमानों के आवभगत में कुछ अधिक कार्य तुम सबको करना पड़ता होगा। राजेश तो आते जाते रहते हैं।
और एक अधिक नाम होता - दादा जी का। यदि विनोद चाचा के साथ वाला प्रोग्राम रद्द न होता। वह भविष्य के लिये सुरक्षित है।
मम्मी - पापा को हार्दिक प्यार।
और मनीष- चिन्टू को ढेर सा दुलार। मेरी ओर से और तुम्हारी अम्मा की ओर से।
नव वर्ष तुम सबको मंगलमय हो।
सिंघारे अंकल आंटी एवं श्री सिंह साहब परिवार को भी ....
तुम्हारा दादा
(रामनाथ शुक्ल)
पुनश्च:-
1 यह पत्र पूर्णतः पत्थर विहीन है न। नहीं, अन्त में तो लिखना ही पड़ा।
2 तुम्हारा यह पत्र प्रातः 5 बजे से 6.30 तक लिखा। डेढ़ घंटा। बड़ा सतर्क रहा।
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श्री
जबलपुर
2-12-92
हम सबकी प्यारी सपना ,
हार्दिक प्यार !
तुम्हारा परिपक्व विचारों युक्त, रोचक -मनभावन शैली का यात्रा विवरण दिनांक (13-11-92 से 19-11-92) मिला। उसे सूर्योदय की आभा के साथ पढ़ा। सावधानी से एक- एक शब्द पढ़ा लगा, पत्र थोड़ा और बड़ा होता ... थोड़ा और अनेक बार पढ़ते-पढ़ते आनंदित हुआ। हँसा, गर्व मिश्रित हँसी। हमारी डालू इतनी मोहक शैली में भी पत्र लिख सकती है !!!
अब बोलो ? इसमें ऊब कहाँ से आयेगी ? नींद कहाँ आयेगी ? ऊब उससे आती है, जब लिखावट समझ न आये (पापा की नहीं समझना )तुम्हारे पत्र के मोती से दाने, एक एक, अलग अलग।
चश्मा महोदय की अनुपस्थिति कुछ खल रही थी। पिछले पत्र में उनका जिक्र किया था। कुछ दिन पूर्व अचानक उनने साथ छोड़ दिया। पुरानी दुकान - नई दुकान के बीच ऐसे गायब हुये कि बस गायब। आज भी गायब। अब नये आयें - तब काम बने।
इतनी लम्बी दूरी की अकेले पहली यात्रा थी तुम्हारी। मम्मी-पापा से बिछुड़ते थोड़े समय के लिये तुम्हारे मन में आत्मीयता की टीस उठी होगी और बस के प्रस्थान के साथ हम जोलियों के साथ - स्वावलम्बन के विचार। स्वावलम्बन की भावना आत्मशक्ति के प्रादुर्भाव का द्योतक है। पत्र पढ़ते समय , जो मैं हँसा , गर्व मिश्रित हँसी -उसका कारण यही था कि वस्तुतः तुम विलक्षण -प्रतिभा की धनी हो। मुझे .. तुम्हारे दादा को तुम पर गर्व है।
इसी उपलक्ष में जाने क्यों मुझे अपनी आजी (दादी) की स्मृति हो आयी। बड़े नाती के नाते वे मुझे खूब चाहतीं थीं। इस चाहत के प्रतियुत्तर में मैं भी अपने स्नेह को न सम्हाल पाता था और (शादी शुदा के बाद भी ) उनकी ममतामयी गोद में नन्हें बालकों जैसे बैठ जाता और वे अपने पोपले मँुह से मुझे बार- बार चूमती। उनका दुलार पाता, उनका प्यार पाता। पर उनके पोपले मँुह से निकली वह बास मुझे अब भी याद है। कैसी अनूठी थी - निश्चल -प्यार उड़ेलने की ममता मयी भावना। आज वे नहीं हैं। पर मेरे समक्ष उनकी ममता आज भी विद्यमान है.... क्यों उदय हुये ये विचार - पत्र पढ़ते समय यँू ही। जैसे और भी असंख्य विचार उदय - अस्त होते हैं।
एक बात और मुझे बड़ी भली लगी। तुम्हारे प्रस्थान के समय मम्मी- पापा बस स्टेंड आये और वापसी के समय भी आये। इससे मुझे आत्मीय सुख मिला।
पत्र पढ़ने के बाद जानती हो मैंने क्या किया। तुम्हारे दिब्बू चाचा के पास गया। बोला- पढ़ो, डालू का पत्र। यात्रा विवरण की शैली- कितनी प्यारी है। प्रमोद चाचा चँूकि बाहर गया, नहीं तो उसे भी पढ़ाता। वह तो आने पर पढ़ ही लेगा और दस लोगों से इस बात की तारीफ करेगा।
मन ही मन तुम कह रही होगी -क्या दादा,अब बस भी करो।मुस्कराते हुये भावावेश में अचानक विचार आये हैं न ?
तुम्हारा वह पत्र मनीष ने भी पढ़ा होगा और चिण्टू को भी पढ़ना चाहिये।
वहाँ तुमने प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाया है, मेरी हार्दिक शुभकामनायें हैं। भविष्य में भी इसी तरह सफल होती रहो - प्रगतिपथ पर बढ़ती रहो। हम सबकी यही कामना है .. बहुत ...बहुत शुभकामनायें ..
लिखावट पूर्वापेक्षा कुछ खराब लग रही है। पढ़ने में अवश्य समय लगेगा... बस ... अब बाद में, अगले पत्र में.... सबको हार्दिक प्यार ... स्नेह.... दुलार .... पिंकू चिण्टू को।
दिनांक 2-12-1992 तुम्हारा दादा
जबलपुर (रामनाथ शुक्ल)
(उपरोक्त पत्र दादा जी ने अपनी नातिन सपना को मध्य प्रदेश स्तरीय बाल दिवस पर रीवा में आयोजित बाल मेला में सम्पूर्ण म प्र से आये संभागीय स्तर पर आयोजित चित्रकला प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार से पुरस्कृत होने पर लिखा था )
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श्री
जबलपुर
दिनांक 24-8-1993
प्रिय डालू (सपना )
मेेरा और ‘अम्मा जी ’(दादी)का तुमको ढेर सारा प्यार।
लगातार चार पाँच दिनों से मन केन्द्रित करने का प्रयास कर रहा हूँ , तुम्हें पत्र लिखने। पर न जाने क्यों मन वह साधारण घटना से विचलित हो जाता है। यह दुर्गुण संभवतः ‘तथाकथित ’ बीमारी से आ गया हो। मेरी कोशिश यही रहती है, सब कुछ आँख मूँद कर, कान बंद कर न कुछ देखँू, न कुछ सुनँू। पर लाख प्रयत्न के बावजूद कभी कभी यह स्थिति तो आ ही जाती है, मैं देखूँ और सुनँू।
परिवर्तन। अभी और परिवर्तन लाना है, अपने अन्दर।
अस्तु।
अनिता के आने के पूर्व हम लोगों (मैं और तुम्हारी अम्मा जी) ने विचार बनाया था , रायपुर आने के लिये। रायपुर प्रवास के समय भी कुछ इसी तरह सोचा था। हम लोग रायपुर एक माह रहेंगे। और ममता की इच्छा जबलपुर आने की होगी सो आ जायेंगी। पर अम्मा जी की एवं अनिता की अस्वस्थता के कारण वे विचार अधर में लटक गये। दस बारह दिन तो अनिता की ऐसी स्थिति रही कि वह कुछ समय के लिये उठती थी। ऐसी स्थिति में घर का सब काम - काज अम्मा जी को ही करना पड़ता। अलबत्ता पानी भरने का सहयोग मुझसे मिला। अब धीरे -धीरे सभी सामान्य स्थिति में लौट रहे हैं। अम्मा जी भी और अनिता भी।
अम्मा जी प्रायः नित्य ही तुम्हारी - मनीष की - चिन्टू की याद करती रहती है। कोई भी विषय आने पर हमारी डालू, हमारा मनीष, हमारा नटखट चिण्टू और चैथी हमारी रिंकी। यह याद किसी उपमा को लेकर - पढ़ाई का विषय, कामकाज का विषय और धमाचैकड़ी को लेकर होती है। कभी- कभी भाव विभोर होकर सिर्फ नातियों-नातिनों की याद ही नहीं - बहुओं की प्रशंसा का क्रम भी आता रहता है। हमारी ममता , हमारी संगीता, हमारी अनिता। हमारे मुन्ना भैया (मनोज), हमारा विनोद। यही सब तो हमसे दूर हैं।
पर वह दूरी मेरे लिये दूरी नहीं। हर क्षण, सभी को अपने पास समझता हँू , इकदम निकट। मेरे लिये, पत्र और संचार साधन जो उपलब्ध हैं।
सभी बच्चे अपने मम्मी - पापा का ध्यान रखा करो। खासकर चिन्टू , सभी मन लगाकर पढ़ना। हम सभी को बहुत खुशी होती है। हम सभी की ओर से तुम सभी को ढेर सारा प्यार। फिर और कभी लिखेंगे , तुम्हारे पत्र के उपलक्ष में।
तुम्हारा
‘‘दादा’’
रामनाथ शुक्ल
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श्री
जबलपुर
दिनांक 24-10 -1994
ओ विलक्षण और लगन की धनी हम सबकी प्यारी /दुलारी / डालू ! मेरी सपना ! !
प्यार /स्नेहाशीष / मंगल कामनायें /
तुम्हारे अथक श्रम-प्रयास और लगन द्वारा अर्जित अविस्मरणीय उपलब्धि की इस शुभ बेला में शुभ आशीष के किन शब्दों द्वारा तुम्हें अभिनंदित करूँ... आज तुम्हारे दादा जी को भी भाव विभोरता के कारण सूझ नहीं पड़ रहा है। तुमने प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाकर अपनी इस पीढ़ी के साथ ही अपने पुरखों की मान - मर्यादा भी बढ़ायी। निश्चय ही अपने वंश की सन्तान की इस अनूठी उपलब्धि पर उनका स्नेहासिक्त आशीष मिला होगा।
काश ! मैं भी तुम्हें मिलने वाले इतने भव्य सम्मान के अवसर पर , वहाँ होता !!
तुम भविष्य में भी ऐसी ही लगन के साथ अपने माता -पिता /दादा - दादी का नाम उज्जवल करती रहो, हमारी हार्दिक शुभकामना है।
एक बार फिर तुम्हें , तुम्हारे दादा के ढेर सारे आशीष ! !
तुम्हारा
‘दादा जी ’
रामनाथ शुक्ल
(उपरोक्त पत्र देैनिक भास्कर रायपुर द्वारा आयोजित भास्कर उत्सव के अन्तर्गत चित्रकला प्रतियोगिता में 18 से 25 वर्ष की आयु वर्ग में प्रथम पुरस्कार सपना को मिला। विशेष बात यह भी थी कि 19 अक्टूबर 1994 के समाचार पत्र में पुरस्कार ग्रहण करते हुये प्रथम पृष्ठ में एक बड़ी फोटो छपी थी। कार्यक्रम का आयोजन भी बड़ा भव्य था।)