हमने अपने जीवन काल में भारत के अनेक शहरों एवं पर्यटन स्थलों का भ्रमण ट्रेन व बस माध्यम से किया। पर विदेश यात्रा जाने का यह पहला अवसर था वह भी हवाई जहाज से। हमारी यह उड़ान हवाई जहाज द्वारा दिल्ली से कनाडा के शहर टोरेन्टो के लिए थी, वह भी पूरे पाँच माह के लिए। यात्रा सप्ताह दो सप्ताह की होती तो कोई परेशानी न थी। किन्तु पूरे पाँच माह के लिए, वह भी विदेश यात्रा, मेरे लिए रोमांच से भरपूर साथ ही साथ हर्ष और चिन्ता का विषय तो था ही। एक तो विदेश यात्रा तो दूसरी ओर एक अनजान देश के लिए रवानगी वह भी हवाई जहाज से।
हमारे छोटे चिरंजीव गौरव कुमार ने पूर्व में ही इन्टरनेट से तत्काल पासपोर्ट बनवाने के लिये मेरा आवेदन पत्र सम्मिट कर दिया था। जब मैं बैंक में जाब करता था तो पासपोर्ट के बारे में आने वाली ढेर सारी समस्याओं परेशानी के बारे में सुन रखा था बड़ा हौवा था। एक एजेंट पासपोर्ट का काम करता था जो कि समय और पैसा लेकर बनवाया करता था। जिसमें नाना प्रकार की परेशानी आती थी। वही छवि आज भी मेरे दिमाग में थी, किंतु हम लोगों का कुछ ही दिनों बाद जल्द ही पासपोर्ट भोपाल कार्यालय से पेपर वेरीफिकेशन के लिए बुलावा आ गया फिर भी मन में काफी टेंशन था।
नियत समय में श्रीमती को साथ लेकर पासपोर्ट भोपाल कार्यालय जा पहुँचा। अंदर जाकर इतना सुखद अनुभव हुआ कि मुझे सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। हमारी समस्त फार्मेल्टी लगभग एक घंटे में कम्पलीट हो गयी। और कार्यालय से बाहर निकलते ही हमारे मोबाईल में पुलिस वेरीफिकेशन का मैसेज भी आ गया। जीवन में पहली बार मुझे यहाँ रामराज्य का अनुभव हुआ। मात्र कारण यह था कि पासपोर्ट कार्यालय को निजि कम्पनी के युवा कर्मचारियों के हाथों से कार्य का निष्पादन किया जाना। अर्थात कार्यालय से दलालों एवं भ्रष्टाचारियों का पलायन होना। पास पोर्ट एवं वीजा बन जाने के बाद यात्रा का प्रथम चरण पूरा हुआ। लगभग एक माह तक सामान ले जाने की लम्बी चैड़ी फेहरिस्त की बहस चलती रही।
2015 जनवरी माह में मैं अपने छोटे बेटे गौरव के नवजात शिशु का दादा जो बन गया था। टोरेन्टो सपत्नीक जाने का कार्यक्रम बना। अपने बहू-बेटे और नवजात पोते से मिलने की तीव्र उत्कंठा और एक उमंग के साथ अंततः हमारी टिकिट बुक हो गयी। श्रीमती तो अपने किसी ज्योत्षी की विदेश यात्रा की भविष्यवाणी को याद कर बड़ी खुशी जाहिर कर रहीं थीं। अपने भाग्य को सराह रहीं थीं।
पत्नी अगर साथ में हो तो स्वाभाविक है कि यात्रा में सामान की फेहरिस्त भी बड़ी ही होगी और बहस भी। वो तो अच्छा हुआ मेरी बेटी सपना नागपूर से आ गई थी, वह आई तो थी अपनी गर्मी की छुट्यिों को मनाने, पर वह उलझ गयी, हम लोगों की यात्रा की तैयारी में। पति- पत्नी के विरोधाभाषी समानों की लिस्ट में काँट-छाँट कर के उसने उचित सामान ले जाने की राह दिखाई। इस मामले में बेटियाँ राम बाण औषधि की तरह होती हैं। इससे माँ-बाप का सारा सिर दर्द दूर हो जाता है।
हमारी टिकिट बुक होने के बाद से ही यात्रा की क्लास लगना चालू हो गयी थी। अपने जीवन के चैंसठ वर्ष के पड़ाव पार करने के बाद आज मैं अपने छोटे बेटे गौरव से विदेश यात्रा की पहली क्लास में पढ़ रहा था। किसी स्कूल के मास्टर की तरह बताए गये होम वर्क को अच्छी तरह से कराने का काम काफी दिनों तक चलता रहा। उसकी नजर में तो अभी भी मैं अबोध कमजोर विद्यार्थी साबित हो रहा था। उसे कम ही विश्वास था, अपने पिता पर कि ये परीक्षा पर खरे उतरेगें । जीवन की इस संध्या बेला में मुझे अपना बचपना याद आ रहा था, जब मास्टर के हाथ में बेंत और उनकी घूरती निगाहें सपनों में भी पीछा करती नजर आ रहीं होती थीं। स्कूल में न पढ़ने वाले बच्चों को भी सही राह पर ले जातीं थीं। उसी तरह से उसके हर इंस्ट्रक्शन बस मेरे लिए ही थे,अपनी माँ के लिए नहीं।शायद उसकी नजरों में वो मुझसे ज्यादा बुद्धिवान थी।
इसी बीच हवाई यात्रा के लिए सावधानियाँ, जानकारियाँ के साथ ही मित्रों, रिश्तेदारों से अनेक सलाह मशविरे फ्री में मिलते रहे। लगभग बीस से चैबीस घंटे हवाई यात्रा के लम्बे सफर के लिये लोगों के बताये अनुदेशों को बड़े ध्यान से ग्रहण करना। मेरे लिए हर एक का अनुदेश किसी पूजा के मंत्र को कंठस्थ करने के समान था।
कभी लोग दूसरों से सुनी सुनाई बातों को सुनाने की उत्कंठा में मुझे झंझवातों में उलझा कर चले जाते, तो कभी- कभी अपने अधूरे ज्ञान को बाँट कर वे ऐसे संतुष्ट हो जाते कि भाई साहब हमारा फर्ज है, आपको बताना, मानना न मानना आप पर है। आप अब ऐसे मित्रों, स्नेहियों की सलाह को कैसे अनसुना कर सकते हैं। इनका काम तो बस किसी तरह अपना ज्ञान बघार देना होता है और आपको भ्रम के चैराहों में खड़े करके धीरे से चले जाना। उनका मकसद ही यही होता है। तब कहीं जाकर मैं इस तरह के समुद्र मंथन के बाद कुछ निश्चय के कगार पर पहुँच पाया।
हमारी विदेश यात्रा की खबर हमारे साहित्यकार मित्रों तक जा पहुँची थी। हमारे अत्यधिक आत्मीय मित्र श्री विजय तिवारी ‘किसलय’ जी ने अपने घर पर ‘साहित्य संगम’ संस्था के बैनर तले एक कार्यक्रम रख लिया। इस कार्यक्रम में मशहूर कवि शायर श्री इरफान झांसवी, श्री विजय तिवारी ‘किसलय’, बुंदेली कवि श्री द्वारका गुप्त ‘गुप्तेश्वर’, कुशल मंच संचालक श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’, श्री विजय नेमा ‘अनुज’ एवं श्री सुरेश सोनी ‘दर्पण’ आदि उपस्थित थे।
सभी ने अपने अंर्तमन भावों से काव्य सुमनों की माला को गूंथकर हमारे गले में पहनायी। इस अविस्मरणीय याद को सहेज पाना हमारे लिए बड़ा कठिन कार्य था। कृतज्ञता से गला भर आया था। सभी ने मुझे फूलों से लाद दिया। इस परिवारिक काव्यगोष्ठी में सभी ने एक से बढ़कर एक रचनाएं सुनाईं। श्री विजय तिवारी ‘किसलय’ एवं श्रीमती सुमन तिवारी के आतिथ्य सत्कार को देखकर हम कृतज्ञ हो गये। श्री द्वारका गुप्त ‘गुप्तेश्वर’ जी ने बुंदेली में एक रचना जो कि मेरे बारे में कुछ आशा और अपेक्षाओं के साथ लिखी थी वह पढ़ी और पढ़ने के बाद मुझे भेंट की जिसे में प्रस्तुत कर रहा हूँ।
सुप्रसिद्ध बुंदेली साहित्य के कवि: श्री गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त द्वारा
कवि मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’ के कनाडा प्रवास के सम्मान में प्रस्तुत कविता
माँ सरसुति सें चावना.......
माँ सरसुति सें चावना, इत्ती मोरी आज।
ढार सुरत में छंद खों, राखें रइये लाज।।
कविता के छंदन गसौ,ऐसौ मन कौ ओज।
उछल-कंूद सुर में भरै,कविवर उतै मनोज।।
जाव कनाडा इतै सें, फूँकत कविता शंख।
लय में ढार सुनाइयौ,तकतई रअें मनंख।।
बगरा कें अइयौ उतै,ऐंसी कविता गंध।
सबखों नोंनें ज्यों लगे,मोदी के अनुबंध।।
बांद गांठ रइयौ उतै,लोक रुची ब्योहार।
आन बान उर शान सें, सबके हीकें यार।।
राग में पढ़ कें गीत खों,खेंचै लय की चाप।
वाह वाह सब कर उठें,एैसी छोड़ौ छाप।।
देस काल की नबज तक, करतई चलनें कर्म।
गुप्तेश्वर तुमसें कहत,समजौ जीवन-धर्म।।
श्री गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त
अंततः वह दिन भी आ गया जब मैं जबलपुर से देहली के लिए ट्रेन से रवाना हुआ। जब देहली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म में उतरा और बाहर निकला तो मेरे पास लगेज ज्यादा देखकर होटल के दलालों ने घेरना शुरू कर दिया। किसी तरह जान बचाई और कहा कि मेरा तो होटल इंटरनेशनल हवाई अड्डे के पास रिजर्व है भाई। किन्तु जब रेलवे स्टेशन से इंटरनेशनल हवाई अड्डे के पास रिजर्व होटल को फोन लगाया तो निराशा हाथ लगी। किन्हीं कारणों से उन्होंने मना कर दिया। किंकतव्र्य विमूढ़ हो भारी लगेज के कारण आखिर उन दलालों के हाथों में अपने आप को सुपुर्द कर दिया। जिसका उन्होंने भरपूर दोहन भी किया।
कहीं तो रुकना था, तो रुक ही गया। पर रास्ते मैं उनसे रेट के बारे में जो बात स्पष्ट कर दी थी, वहाँ जाकर उलटा ही हुआ। फिर मँहगे होटल में ही हम दोनों ने दो दिन विश्राम किया। देहली के स्टेशन के आसपास का बाजार श्रीमती को घुमाता रहा। दो दिनी विश्राम के बाद इंदिरा गांधी इंटरनेशनल हवाई अड्डे पर रात्रि के दस बजे टैक्सी से जा पहुँचा। नियत समय से दो घंटे पूर्व लगेज बुकिंग व अन्य फारमिल्टी के लिए हवाई अड्डे में उपस्थित होने का निर्देश मिला था। होटल से हवाई अड्डा लगभग डेढ़ घंटे की दूरी पर था।
रात्रि के लगभग 2.40 को मेरे प्लेन की उड़ान थी। लम्बी इंक्वारी कई जगह से गुजरने के बाद समय तो भागता ही नजर आ रहा था। अपना बड़ा लगेज तो जमा कर दिया। अब विभिन्न काउन्टरों पर चेकिंग का काम शेष रह गया था जिसमें काफी समय व भागदौड़ करनी पड़ रही थी। वरिष्ठजनों एवं रोगग्रस्त लोगों के लिए व्हील चेयर की सुविधा रहती है। इस सुविधा को प्राप्त करने के लिए पूर्व सूचना और कुछ चार्ज भी देना पड़ता है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि विभिन्न काउन्टर पर लगने वाली लम्बी लाइन से छुटकारा मिल जाता हैं। चेकिंग काम भी जल्द ही निपट जाता है।
गौरव द्वारा श्रीमती और मेरे लिए व्हील चेयर की व्यवस्था करने के बावजूद उसकी उपलब्धता नहीं हो पा रही थी। किसी तरह काफी मान मनौवल करने के बाद एक व्हील चेयर की व्यवस्था हुई। श्रीमती के लिये जरूरी भी था, चूँकि उनकी रीड़ का आपरेशन हो चुका था। अतः मैंने निर्णय लिया मैं पैदल ही चलूँगा। व्हील चेयर में श्रीमती जी को बिठाया और अपना छोटा बैग लेकर मैं पैदल ही चल पड़ा। प्लेन तक पहुँचने और एयर पोर्ट के लम्बे रास्ते को पार करने में मुझे तो पसीना छूट गया। मैंने तो सपने भी नहीं सोचा था कि इतना लम्बा रास्ता होगा। जबकि लगेज के नाम पर साथ में एक छोटा ही बैग था, सभी बड़े बैग जमा कर दिये गये थे।
रात्रि के दो से ज्यादा बज गये थे। समय खिसकता जा रहा था। अभी दो तीन जगह और चेकिंग की लम्बी लाईनों से गुजरना था। व्हील चेयर के होने से सामान्य लोगों की लम्बी लाईनों में लगने से तो मुझको मुक्ति मिल चुकी थी। सीनियर सिटीजन के लिए चैकिंग के लिए लाइनें तो थीं, पर उतनी लम्बी नहीं थीं, जितनी सामान्य जनों के लिए थीं। इसके बाद चालू हुआ लम्बे चैड़े बरामदों को पार करना। वह भी लगभग दो फर्लांग से भी ज्यादा की दूरी थी। जिसे पहली बार एक अनजान व्यक्ति को कम समय में पार कर पाना असंभव था।
लगभग दौड़ते हुए पाँच मिनिट पूर्व ही विमान की सीट तक पहुँच पाया था। मेरी तो दिल की धड़कनें बढ़ गयीं थीं। पर समय पर अपनी सीट पा लेने पर खुशी भी हो रही थी। व्हील चेयर वाले उस लड़के को कुछ इनाम भी दिया, वह भी खुश हो गया। व्हील चेयर का फायदा कई बाधाओं को पार करने में मददगार साबित हुआ। व्हील चेयर पर ले जाने वाले उस लड़के का योगदान सचमुच मेरे लिए अविस्मरणीय रहा।
अब हम लोग अपनी सीट पर बैठ चुके थे। कमर में सीट बेल्ट बाँधने का आदेश हो चुका था। विमान अपने निर्धारित समय पर अपनी उड़ान भरने जा रहा था। ऊपर उठते विमान से पहले अंदर कुछ सिहरन सी हुयी। हमें अपने बचपन के उन दिनों की याद आ गयी जब मेला में लगे हवाई झूले में बैठकर आनंद उठाया करते थे। जब झूला ऊपर की ओर जाता तो शरीर में अजीब सी सिरहन होती।कानों में अजीब सी सन् सन् की आवाज आ रही थी। थोड़ी ही देर में विमान अपने निर्धारित ऊँचाई पर पहुँच चुका तो फिर सब कुछ सामान्य, घर में बैठे आराम-कुर्सी जैसा आराम था। विमान के उद्घोषक द्वारा कमरबेल्ट खोलने के संकेत मिलते ही विमान में लोगों का आना जाना होने लगा।
अस्सी प्रतिशत यात्री हमारे देश के विभिन्न प्रान्तों के ही थे। कुछ पंजाबी ज्यादा नजर आ रहे थे। जो परदेश में अपनों से मेरी तरह मिलने या स्वदेश में मिलकर वापस हो रहे थे। कुछ विदेशी भारत भ्रमण कर स्वदेश की वापसी में थे। कुछ यात्री अपने सामने हर सीट के पीछे लगे टीवी स्क्रीन में फिल्म या मनोरंजक कार्यक्रम देखने का मजा ले रहे थे। कुछ बाथरूम आ जा रहे थे, तो कुछ आधे एक घंटे उड़ान के बाद से ही गहरी नींद में डूब चुके थे। चूँकि जीवन में यह मेरी पहली यात्रा थी इसलिए मेरी आँखों में नींद नहीं एक कौतूहल और विस्मय था।
विमान यात्रा के हर पल को अपने में समेटने का एक अजीब सा उत्साह और उमंग अंदर मचल रहा था। मेरी जहाँ तक नजर जाती लोगों के चेहरों, हाव भाव, क्रियाकलापों और विमान के अंदर की बनावट के साथ ही विमान परिचायकों के सेवा कार्यों को निहार रहा था। जब थक जाता तो खिड़की के बाहर झांकता घुप अंधेरे में कुछ खोजने का प्रयास करता। कभी कभी नीचे जब अपनी नजरों को डालता तो मुझे लाखों जुगनुओं की भाँति टिमटिमाते किसी छोटे बड़े शहर का अहसास करा जाता।
कुछ समय के बाद सूर्योदय हो चुका था। खिड़की से झाँक कर बाहर देखा अद्भुत नजारा था। किसी स्वर्गलोक की परिकल्पना का दृष्य सामने नजर आ रहा था। लगता था, अभी कहीं से नारद हाथ में वीणा बजाते हुए नारायण...नारायण कहते हुए प्रगट होंगे। श्वेत धवल बादलों का नजारा। चारों ओर फैली हुई रुई के विशालकाय उड़ते पहाड़ों का दृष्य जहाँ भी नजर दौड़ाओ, चारों ओर सफेद पहाड़ सा दिखाई पड़ रहा था। इन सबके ऊपर विशालकाय नीला आकाश इन दोनों के बीच में हमारा विमान स्थिर खड़ा होकर हमें किसी स्वर्ग लोक का सिंहावलोकन सा करा रहा था। सामने लगी स्क्रीन में विमान की तीव्रगति हमारी सोच को एकदम झुठला रही थी, सच्चाई से रूबरू कराती नजर आ रही थी।
विमान आकाश में अपनी निरंतर तीव्रगति से उड़ान भर रहा था। हमारे ऊपर वही साफ सुथरा नीला आकाश जो कभी पृथ्वी पर खड़े होकर हमें दिखाई देता है। यहाँ भी वैसा ही नजारा नजर आ रहा था। लगता था जैसे हम सभी को बादलों के ऊपर भी किसी दूसरे लोक में पहुँचा दिया हो। हर सीट के पीछे लगी स्क्रीन में लिखा आ जाता था कि हम जमीन से कितनी ऊँचाई पर एवं किस गति पर हैं। सफर के अभ्यस्त मुसाफिर तो इस खबर से बेपरवाह अपनी पसंदीदा फिल्म देखने में ही व्यस्त थे। तो कुछ मेरे जैसे लोग कल्पनालोक के इस रोमांचभरी दुनिया में अपने आप को खोया सा पा रहे थे।
अनवरत आठ घंटे अपनी सीट पर बैठने से बोर और पंगुपन से मुक्ति के लिये कुछ यात्रीगण क्रमशः उठकर टहलते हुये नजर आते या दैनिक क्रियाओं के लिये लोगों का आना जाना लगा रहता। बीच बीच में विमान के सजे संवरे, सूटेट बूटेट कर्मचारियों द्वारा सीटों की कतार के बीच से स्टील की पहियों वाली गाड़ी में खाने पीने की व्यवस्थाओं को करते हुए देखना एवं हवाई सफर में खाने का लुत्फ उठाना सचमुच बड़ा अनोखा सा लग रहा था। फिल्मों में तो अनेक बार देखने का अवसर मिला था पर वास्तविक दुनियाँ में हमारे जीवन में यह प्रथम अवसर था। तो स्वाभाविक था हमारे लिए अद्भुत और रोमांचक होना।
विमान में बैठते ही मेरे पास खिड़की वाली सीट बदलने के लिए एक महिला ने आकर आग्रह भी किया था। पर मैंने भी एक बच्चे की तरह उनके अनुरोध को ठुकरा दिया था। मेरी आँखें बाहर देखते देखते थक जातीं थीं, पर मन नहीं भरता था। वह कहता कि देखो बादलों के उपर की इस दुनिया को यहाँ भी वही पृथ्वी से दिखने वाला नीला आकाश है, इस विशाल आकाश में कितने पृथ्वी जैसे अनेक ग्रह और भी यत्र तत्र अधर में लटके होंगे और इस सौर्यमंडल में यत्र तत्र चक्कर लगा रहे होंगे.... कितना विचित्र है, हमारा यह सौर्यमंडल और हमारे उस प्रभु की जगत संरचना ...
विमान के उद्घोषणा कक्ष से सूचना प्राप्त हुई कि हमारा विमान बेल्जियम के ब्रसल्स हवाई अड्डे पर लेंडिग करने वाला है। आप सभी यात्री अपनी कमर में सीट बेल्ट को पुनः बाँध लें। यहाँ के समय के हिसाब से 7.55 सुबह के हो गये थे। यहाँ सभी यात्रियों की पुनः चेकिंग एवं ढाई घंटे का हाल्ट था। सभी यात्री विमान से उतर कर आवश्यक खाना पूर्ति में लग गये। यहाँ भी अपने पासपार्ट एवं छोटे बैग में रखे सामान की चेकिंग कराने के बाद बरामदे में आकर बैठ गये। समयावधि के बाद पुनः 10.15 पर विमान ब्रसल्स से कनाडा के टोरेन्टो शहर के लिए उड़ान भरने को तैयार हो गया। यहाँ से टोरेन्टो शहर तक के लिए शेष लगभग आठ घंटे की उड़ान थी।
आठ घंटे के पश्चात् हमारा विमान कनाडा के टोरेन्टो शहर के ऊपर लेंडिग के लिए चक्कर काट रहा था। नीचे पूरा शहर नजर आ रहा था। उँची-उँची इमारतों के बीच सड़कें, हरियाली, पेड़-पौधे, झीलें, नदी, तालाब, पहाड़ किसी बड़े केनवास पर किसी चित्रकार द्वारा बनाई सुन्दर पेंटिग की भाँति दृष्टिगोचर हो रहे थे। हरे रंग की कालीन जैसे यहाँ के लोगों ने धरा में जगह जगह बिछा दी हो। लगता था कि यह दुर्लभ दृष्य अपनी आँखों में समेट लूँ। बड़ा ही मनोहारी दृष्य लग रहा था।
अब टोरेन्टो शहर में हमारा विमान लेंडिग करने वाला था। शहर के ऊपर से नजदीक विमान गुजर रहा था। पूरी भूगोलिक स्थिति का एक क्षण अवलोकन हो गया था कि शहर कितना सुंदर होगा। घनी हरियाली के बीच बड़ी-बड़ी ऊँची विशाल इमारतों, मकानों के साथ सड़कों का बिछा जाल, नदियों और विशाल क्षेत्र में फैला जल उसकी विशाल जल समृद्धता का बखान कर रहा था।
अंततः विमान कनाडा के टोरेन्टो शहर के चक्कर लगाता हुआ, हवाई पट्टी पर लेंडिग कर खड़ा हो गया। अब मुझे इस समय अपनी मंजिल पाने के बाद जो खुशी होती है, वह हो रही थी। एक अनजाने शहर, एक अनजान देश, एक अनजाने परिवेश में, मैं अपने आपको अब अकेला खड़ा पा रहा था। मुझे बड़ा रोमांच का अहसास हो रहा था। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि कैनेडा की यात्रा करने का ऐसा कभी सौभाग्य मुझे मिलेगा। दूसरी ओर बाहर प्रतीक्षारत अपने बेटे और अपने परिवार से मिलने की खुशी से मन आल्हादित हो रहा था। लगभग डेढ़ दो घंटे में सारी औपचारिकताएँ निभाने के बाद अपना सामान ले मैं बाहर निकला।
गेट के बाहर हमारा बेटा गौरव हमारी प्रतीक्षा करते दिखा। जितना हमारे मन में बेटे से मिलने की उत्सुकता और उत्साह की हिलोरें उठ रही थीं। उतना ही सामने खड़े गौरव के चेहरे के भाव को देख कर अहसास हो रहा था। उसके मन का भी वही हाल था। आज छोटे बेटे गौरव ने हमारी इस यात्रा के गौरव पूर्ण क्षणों को हमारे अंतस मन में संजोने का इस अकल्पनीय सपने को साकार कर दिखाया था। वह भी हमारे विदेश में पाँच माह के लम्बे प्रवास की योजना के साथ। मैं उसके साथ टैक्सी में घर जाने के लिए निकल पड़ा था, अपनी बहू रोशी और नवजात अंश से मिलने।
रास्ते में मेरे सामने लम्बी चैड़ी सड़कों के साथ ही बड़ी ऊँची-ऊँची चमचमाती दमकती गगन चुम्बकीय बहुमंजिला इमारतें नजर आ रहीं थीं। जिन्हें गौरव किसी को चालीस मंजिला बता रहा था, तो किसी को सत्तर मंजिला। मैं तो उन्हें किसी चित्रकार के बनाए चित्र की भांति देखने में ही खोया सा था। उनकी ऊँचाई को देख कल्पना ही करता रह गया कि क्या इतनी भी ऊँचाई में भी लोग रहते होंगे ? कैसा लगता होगा ऊपर से नीचे का दृष्य। सड़क के दोनों किनारों पर लगे पेड़ पौधे और फूलों की क्यारियों का तो कहना ही क्या था। ऐसा लगता था कि मेरे आने की खुशी में शहर को जैसे किसी दुल्हन की तरह से सजाया गया हो।
गौरव ने बतलाया अभी गर्मियों में नगर निगम और यहाँ के निवासी मिलकर बड़े चाव से सारा शहर सजाते सवाँरते हैं। जब नवम्बर-दिसम्बर में बर्फ पड़ती है, तो चारों ओर बर्फ ही बर्फ छा जाती है। झीलों का पानी जम जाता है। छोटे फूलों वाले पौधे बर्फ के नीचे दब कर नष्ट हो जाते हैं किन्तु लोग फिर इस मौसम के आते ही घर शहर सजाने संवारने में जुट जाते हैं। प्रकृति और सौन्दर्य के उपासक यहाँ के लोगों ने हार मानना सीखा ही नहीं।
सड़कें फुटपाथ सभी साफ सुथरे दिख रहे थे। धरा की कोई ऐसी जगह नहीं दिख रही थी, जो वस्त्र विहीन हो, जहाँ हरियाली न हो। यहाँ ऊँची-ऊँची इमारतों की तरह चारों ओर लम्बे ऊँचे हरे-भरे विशाल वृक्ष लहलहाते नजर आ रहे थे। मेपिल वृक्ष यहाँ के लिए वरदान है। विशाल मोटे ठोस तने वाले इस वृक्ष का कहना ही क्या है। जो हर सीजन में हरा भरा सदा मुस्कराता ही नजर आता रहता है। इससे कुछ औषधि भी बनाते हैं। इसीलिए लगता है, कनाडा की सरकार ने अपने राष्ट्रीय झंडे में उसकी पत्ती को उकेर रखा है।
काफी लम्बी दूरी तय करने के बाद शहर में हमारी टैक्सी आकर एक बत्तीस मंजिला इमारत के सामने रुक गयी। शायद हम लोग अपनी मंजिल पर पहुँच गये थे। सामान टैक्सी से उतार कर लिफ्ट से अपने फ्लैट पर जा पहँुचे। थोड़े ही समय में अपने फ्लैट के हाल में बैठ कर हम सभी आपस में मिलकर एक दूसरे से खुशियाँ बाँटने में लग गये थे। हमारे और श्रीमती के बीच अपने-अपने यात्रा संस्मरणों को याद कर के सुनाने की मानो होड़ सी मच गयी थी।
श्रीमती को सुनाने में बेहद खुशी हो रही थी, उसकी खुशी को मैं कम नहीं करना चाहता था। पलंग पर सामने नवजात अंश सो रहा था, हम लोगों का शोरगुल सुनकर उसने आँखें खोल दीं। जिसे दंखकर हम सभी खुश हो गये। अब अंश को गोदी में लेने की होड़ सी मच गयी थी। उसे गोदी में उठाकर हम सभी झूम रहे थे। वह भी हम लोगों को देखकर खुशी से उत्साहित नजर आ रहा था। उसको गोद में उठाने और खिलाने उसके दादा-दादी जो आ चुके थे।...
यहाँ जब रात्रि होती तो भारत में सुबह होती। यहाँ जून माह में रात्रि साढ़े नौ बजे भी इस मौसम में उजियारा रहता और सुबह चार बजे फिर प्रकाश झांकने लगता है। एक सप्ताह तक तो हमारा शरीर और मनः स्थिति असमान्य सा महसूस करता रहा फिर धीरे धीरे अपने आप को एडजेस्ट कर लिया। तब जाकर यहाँ के अनुकूल वातावरण में अपने आप को ढाल पाया। गौरव ने बताया ऐसा सभी के साथ होता है।
मैं जबलपुर से जो फोन नम्बर लाया था, उन सभी को फोन करके मैंने अपने आगमन की सूचना दे दी, हमसे मिलने वालों में प्रथम श्री गोपाल बघेल ‘मधु’ पधारे। पहले कभी जबलपुर में वर्तिका संस्था के एक साहत्यिक कार्यक्रम में इनसे मुलाकात हुई थी। आप कनाडा में ‘‘अखिल विश्व हिन्दी समिति’’ के अध्यक्ष हैं। बहुत खुशी हुई कि परदेश में हिन्दी की ध्वज पताका फहराने वाले एक यहाँ के हिन्दी साहित्यकार से मुलाकात हुई, आप मथुरा के रहने वाले हैं, अब यहीं पर अपना मकान लेकर बस गये हैं। बीच बीच में अपनी मातृभूमि जाते आते रहते हैं। घर पर उनसे लगभग तीन घंटे साहित्यिक परिचर्चा हुई।विदेश के इस शहर में मुझे आये लगभग दो सप्ताह हो गए थे। मैं इस शहर को कुछ जानने समझने की कोशिश कर रहा था।
कनाडा के टेरेन्टो शहर में टाउन डाउन एरिया के बत्तीस मंजिला बिल्डिंग में दूसरी मंजिल में ही हमारा फ्लैट था। हमारी इमारत में हर मंजिल में अठारह फ्लैट थे। इस तरह पूरी इमारत में 576 फ्लैट थे। इन फ्लैटों में सभी अपने परिवार सहित निवास कर रहे थे। इस इमारत में जमीन के अंदर भी तीन चार तल थे जिसमें कार पार्किंग की व्यवस्था के साथ ही एक मंजिल में कपड़े धोने एवं सुखाने की मशीनें ढेर सारी लगीं हुईं थीं। जिसमें कोई आपरेटर नहीं होता था। अपने कपड़ों को धोने के लिए सोप पावडर लेकर खुद जाना होता। वहाँ जाकर गंदे कपड़े मशीन में डाल दीजिए और आधा घंटे बाद जाइए कपड़े धुले मिल जाएँगे। बाद में उन्हें निकाल कर कपड़े सुखाने वाली मशीन में डालना होता है इस तरह से कपड़ों की सुखाई भी हो जाती है। एक मशीन में धुलने वाले कपड़ों की एक सीमा होती है। पैमेन्ट कार्ड मशीन में स्वीप कर पेमेंट करना होता है। ऐसी सुविधा हर बहुमंजिला इमारतों में रहती है। इस डाउन-टाउन एरिया में सैकड़ों बहुमंजिला इमारतें इसी तरह से खड़ी थीं।
यहाँ गर्मी को छोड़कर अन्य सभी मौसम में बर्फ गिरती है। गर्मी का मौसम तो इनके लिए उत्सव जैसा होता है। लोग स्वीमिंग पुल का व धूप सेंकने के लिए घंटों खुले स्थानों में लेटकर आनंद उठाते रहते हैं। यहाँ की गर्मी में भी ठंडक रहती है।घूमने फिरने वालों के लिए यह मौसम अनुकूल रहता है।सैलानियों की संख्या बढ़ जाती है।
बहुमंजिला इमारतों से निकलने वाले कचरे को ठिकाने लगाने के लिए बड़ी अच्छी व्यवस्था कर रखी है। हर बहुमंजिला इमारत के हर फ्लोर में कचरे के लिए एक छोटा बाथरूम टाईप कमरा बनाया गया है। इसे कचरा केबिन कहते हैं। इसमें दरवाजे लगे रहते हैं। यह होल पाईप सीधे नीचे की मंजिल में जहाँ कचरा कंटेनर रखा होता है, तक जाता है। इस तरह कचरा पाईप के जरिए नीचे की मंजिल में रखे स्टील के बड़े कंटेनर तक जुड़ा रहता है, इसमें प्रत्येक मंजिल के लोग घरों का कचरा छोटे पोलिथिन में भर भर कर डालते रहते हैं। उसमें सभी मंजिलों से डाला जाने वाला कचरा एक जगह इकट्ठा हो जाता है। कंटेनर भर जाने के बादे कंटेनर को बदल दिया जाता है।
ये कंटेनर दो रंग के होते हैं। नीले रंग के कंटेनर में रिसाइकिलिंग के लिए पेपर पुट्ठे आदि एवं लाल के कंटेनर में अन्य कचरा डालने के लिए होता है। दर्जनों कंटेनर हर कचरा बहुमंजिला इमारतों के ओपन यार्ड में रखे होते हैं। तीन चार इमारतों के बीच एक चारों ओर दीवार से घिरा हुआ एक ओपन यार्ड होता है। जो दिनभर एक कर्मचारी ट्राली खींचने वाले पैट्रोल वाहन के जरिए भरे हुये कंटेनरों को ला लाकर ओपन यार्ड में उनको इकट्ठा करता रहता है। दूसरे दिन सुबह दस ग्यारह के बीच एक बड़ा ट्रक आता है और वह ट्रक में लगे अपने सिस्टम के माध्यम से कंटेनर को उठाकर अपने ट्रक में भर कर ले जाता है।
एक कर्मचारी के माध्यम से दो तीन हजार परिवारों का कचरा आसानी से ठिकाने लग जाता है। इसलिए यहाँ सड़कें कालोनियाँ पूरी तरह साफ सुथरी नजर आती हैं। लोगों की जागरूकता, कम से कम कर्मचारी के द्वारा और सीसीटीवी के माध्यम से सभी काम सुव्यवस्थित होता रहता है। इस तरह इस क्षेत्र में सैकड़ों बहु मंजिला इमारतें हैं। हर जगह यही व्यवस्था काम करती है। उनमें रहने वालों की संख्या भी लाखों में होती है। लोगों में संस्कार, जागरूकता और दंड विधान का भय कचरा को अव्यवस्थित नहीं होने देता। मैंने देखा कि एक छोटा बच्चा जो कि अबोध ही था, वह खा रहे आईसक्रीम के रैपर को अपने हाथों से डस्टबीन में ही डालता है।जहाँ बचपन से ही ऐसे संस्कार डाल दिए जाते हैं तब भला कचरा कैसे फैल सकता है।
मेरा मकान दूसरे मंजिल पर था। सुबह शाम बालकनी में खड़़े होकर यह नजारा रोज देखने में आता। लाल रंग के कंटेनर में संग्रहीत कचरा को उठाने वाला ट्रक रोज आता है और उसे खाली कर चला जाता है। रिसाइकिलिंग वाले नीले रंग के कंटेनर में स्वतः नीचे आकर लोग सामान वगैरह डाल जाते थे। कुछ खोजी व्यक्ति पैदल या साइकिल में आते और उस कंटेनर में एक लकड़ी की छड़ी के माध्यम से खोजबीन करते दिखते और अपनी मन चाही वस्तु झोली में डालकर चल देते।
इनको देखकर मुझे अपने देश के गरीब तबके के उन कचरे बीनने वालों की याद आ जाती। कई नौनिहालों के पीठ में लदे बोरे जिनमें पनी,प्लास्टिक बाटल, लोहा लंगड़ आदि बीनते रहते। ये कभी कभी संग्रह करते हुए आपस में ही लड़ पड़ते हैं। पर यहाँ वहाँ में काफी अंतर था। वहाँ बहुत ही गरीब तबके के लोग प्लास्टिक ही बटोरते नजर आते हैं। पर यहाँ पर साबूत टेबिल फैन आदि इलेक्ट्रानिक्स आइटम यार्ड में पड़े रहते हैं या कंटेनर में पड़े रहते हैं। लोग साईकल या मेटाडोर में आते हैं और उनको उठाकर चलते बनते हैं।
कुछ लोग यह सब नहीं उठाते केवल उसके प्लग समेत वायर काट कर ले जाते हैं। इलेक्ट्रानिक्स आइटम को तोड़ कर उसका या तो कापर वायर या चिप्स निकाल कर झोले के हवाले करते हैं। कितना ऐसा समान है जो पड़ा रहता है उसमें उनकी रुचि कम ही रहती है। कभी-कभी कार में भी लोग आते और अपनी डिक्की में सामान रखकर ले जाते। इन सामानों को उठाने के लिए माल वाहक जीपें भी अक्सर चक्कर लगाती रहतीं हैं। लोहे के सामानों को बुरी तरह से तोड़ मरोड़ कर ले जाते।
लकड़ी के नए पुराने सामान पलंग, सोफे कुर्सीयाँ आदि फर्नीचर भी होते थे। जिन्हें ये लोग हाथ भी नहीं लगातेे नहीं उठाते, इसे कचरा समझते होंगे।
इस क्षेत्र में अधिकांश किराएदार के रूप में बाहरी लोग ही रहते हैं। किराएदार अपने लिए लग्जरी पलंग-सोफे, मोटे-मोटे फोम के कद्दे, वुडन आलमारी तरह-तरह के फर्नीचर खरीद कर उपयोग करते हैं और जब खाली करके जाने लगते हैं तो उसे यूं ही छोड़कर चले जाते है। तब रेंटल आफिस वाला नए किराएदार को मकान दिखाता है। अगर उसको वह रखना होता है, तो रख लेता है अन्यथा उसे निकाल कर ओपन यार्ड में डाल दिया जाता है। मैं प्रतिदिन देखता हूँ कि नया फर्नीचर यार्ड में पड़ा रहता है। जिसको आवश्यकता होती है, वह उठा ले जाता है। नहीं तो एक विशेष प्रकार का ट्रक आता है, वह राक्षस की भांति अपने अंदर फर्नीचर गद्दे आदि को एक मिनिट में चबा डालता है। फिर दूसरे क्षेत्र में जाकर इस तरह छोड़े फैंके अनावश्यक सामानों को ठिकाने लगाता रहता है। उसका यह क्रम चलता रहता है। कभी कभी तो ऐसा सामान देखने में आता हैं जिनकी पेंकिग तक भी नहीं खुली दिखती।
एक दिन मैंने देखा कि सामने ओपन यार्ड में एक महिला कार से उतरी, कार में उसके साथ एक बड़ा कुत्ता बैठा था। वह महिला जींस पहने थी। पिंक कलर की शार्टकट कमीज के साथ ही काला रंग का गागल पहिने थी। बाल सफाचट थे। ऊँची हील की सेंडिल के साथ बड़ी स्मार्ट दिख रही थी। उसने अपनी कार से एक प्लास्टिक की फोल्डिंग नसैनी निकाली और कंटेनर में लगा कर अंदर तलाशना शुरू कर दिया। थोड़ी ही देर में उसने उस कचरे के ढेर से अनेक सामान तलाश डाले। अपने कार की डिग्गी खोली और उसमें सभी सामानों को अच्छी तरह से जमाया। तेज धूप से वह झुलस रही थी, गला सूख रहा था। कार से डिस्टिल वाटर निकाली, कुछ घूंट पीकर अपने गले को तर किया फिर शेष पानी अपने सिर पर डाला, जिससे उसे कुछ ठंडक मिली। फिर मेरी इमारत के सामने आकर रखे कंटेनर से अपने मतलब का सामान तलाशा और उसे कार में जमाया और चल दी।
अमीर गरीब सभी देशों में होते हैं। यह विश्व की समस्या है। यहाँ भी मैंने कई वृद्ध एवं युवकों को कचरे से अपने उपयोग का सामान बीनते हुए देखा है। यह सामान उनके लिए उपयोगी या उनकी बेरोजगारी को दूर करने के लिए भी हो सकता है, मुझे तो मालूम नहीं। किन्तु मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि इस संपन्न राष्ट्र में अधिकांश सम्पन्न है। हमारे भारत देश और यहाँ तो जमीन आसमान का अंतर है। हमारे देश में कचरा बीनने वालों की इतनी दयनीय चिन्तनीय स्थिति है कि कुछ कहा ही नहीं जा सकता है। हमारे यहाँ तो मध्यमवर्ग बड़ी मुश्किल से अपनी आय से कुछ सुख सुविधाओं को जुटापाता है। जो उसके जीवन भर ही नहीं उसकी दूसरी पीढ़ियों के भी काम आ जाता है। कचरा के रूप में बाहर सामान फैंकने का सवाल ही नहीं उठता। तब हमारे यहाँ का कचरा कचरा ही होता है। उस कचरे से जो कचरा बीनने वाले उठा कर ले जाते हैं। उससे उनकी किस्मत नहीं बदलती जैसे तैसे बड़ी मुश्किल से एक जून खाने की ही व्यवस्था हो पाती होगी।
यहाँ पर भी मैंने शाॅप या माल के बाहर बैठकर लोगों से मदद की याचना करते हुए देखा है। रास्ते में कभी एक दो दिखे जो सड़क किनारे मग या डब्बा रख कर बैठे रहते हैं। पर लोगों के पीछे नहीं लगते, कुछ दयावान स्वतः मदद कर दिया करते हैं। कुछ कलाकार विशेष वेशभूषा धरकर, या कुछ करतब दिखाकर अपने रोजगार की तलाश करते नजर आते हैं। कुछ संगीत के वाद्य बजाकर, चित्रकारी, स्टेचू मुद्रा में खड़े होकर, डांस आदि के माध्यम से लोगों का ध्यान आकृष्ट करके अपने जीवन के संसाधनों को जुटाते दिखे। पर यहाँ सम्पन्नता है इसमें कोई दो मत नहीं। यहाँ की मुद्रा एक डालर बराबर भारत के 55-60 रुपये के बराबर है। हालाकि यहाँ के हिसाब से खर्च भी होते होंगे।
यहाँ पर भी पाश्चात्य देशों का प्रभाव अधिक पड़ा है। मैं इसीलिए यह कह रहा हूँ कि मैंने डेन्टास में 1 जुलाई को कनाडा डे पर उनके परंम्परागत डान्स की एक झलक देखी है जिसमें सिर से लेकर पाँव तक वस्त्र से ढके हुये और नर नारी दोनों मिलकर युगल बंदी करके डान्स करते दिखे। स्टेज में सिर पर कैप, बंद गले के कपड़े, पैरों में जूते मोजे पहने पारंपरिक पहनावे को देखा। समूहों में संगीत के लय के साथ पैरों को पटकते हुए डान्स देखा। तो दूसरी ओर भीड़ में पाश्चात्य डान्स के नाम से नशे में डूबी मात्र जाॅंघिया पहने हुए एक महिला को भी थिरकते हुए देखा। पर स्टेज पर जो चल रहा था वही सत्य है। कभी कभी सड़कों को ब्लाक करके मेले की शक्ल में भी लोगों का जमावड़ा देखा। खाने पीने की दुकानों के साथ फुटबाल के खेल या मनोरंजन के अन्य आयोजन देखने को मिले। पैसा जब जेब में होता है तो होटलिंग मस्ती भी ज्यादा सूझती है। स्ट्रांगकाफी, बीयर, जिन वगैरह पीने का यहाँ के लोगों में ज्यादा शौक है। शायद ठंडा मौसम होना एक वजह हो सकती है। हरियाली और रंग बिरंगे फूलों के सभी दीवाने नजर आए। विभिन्न पौधों की नरसरी दुकानें जगह जगह देखने को मिलीं। फूलों की छटा तो देखते ही बनती है।
यहाँ हर क्षेत्र में आपको लाईब्रेरी मिल जायेगी। जहाँ पुस्तकों के भंडार के अलावा कम्प्यूटर में ई बुकों को भी पढ़ सकते हैं। हमारे फ्लैट के पास ही एक बड़ी लाईब्रेरी थी। यह दो मंजिला भवन इतना विशाल था कि उसके अंदर ही बड़े-बड़े हॉलों में बैडमिंटन, टेबिल टेनिस, बालीबाल के छोटे मोटे आयोजन के साथ ही अन्य कार्यक्रम भी मैं अक्सर देखा करता था।
कम्युनिटी सेंटर द्वारा आयोजित कार्यक्रम में एक बार मैं योगा के लिए गया था। कम्युनिटी सेंटर सरकार के अनुदान से चलने वाला एक प्रायोजित कार्यक्रम है। हर क्षेत्र में इनकी शाखाएँ हैं। इसमें कुछ क्षेत्रीय पदाधिकारियों का मनोनयन होता है। सरकार द्वारा भेजे गए अपनी कला में महारत लोग इन कम्युनिटी सेंटर में जाकर अपनी सेवाएँ निः शुल्क दिया करते हैं। क्षेत्रीय कम्युनिटी पदाधिकारी गण सभी को सूचना देकर एकत्रित करते हैं और उन्हें लाभान्वित करवाते हैं। सीनियर सिटीजन एवं सभी को माह में एक बार बस से पर्यटन टूर पर ले जाते हैं, नास्ता भोजन की व्यवस्था भी करते हैं। वहाँ आपस में छोटे मोटे कार्यक्रम करके उनका मनोरंजन भी करते हैं। दो बार इनके साथ मैं भी सपत्नीक गया, बड़ा आनंद आया। क्षेत्रीय कम्युनिटी पदाधिकारियों के बीच संस्थागत आपस में प्रतिस्पर्धा हो, उसके लिए वर्ष में एक बार मूल्यांकन करके उनको पारितोषिक से नवाजा जाता है। एक पत्रिका निकलती है जिसमें उनकी फोटो सहित उनकी उपलब्धियों का बखान भी किया जाता है। इस तरह निरंतर अच्छे काम करने पर उनकी पदोन्नति भी होती रहती है।
पढ़ने और खेलने की अभिरुचि भी लोगों में ज्यादा नजर आयी। यह व्यवस्था हर वार्ड में नगर निगम की ओर से होती है। छोटे मोटे पार्क तो आपको हर जगह मिल जाएँगे। बड़े बड़े पार्क ऐसे हैं कि आप एक दिन में पूरा घूम ही नहीं सकते। एक हाई पार्क तो मीलों के एरिया में फैला है। पाँच छै डिब्बों वाली सड़क पर चलने वाली मोटर-गाड़ी भी उसे पूरा नहीं घुमा पाती। मैन रोड से गुजरते हुये आप उसे बस निहार ही सकते हैं। मीलों लम्बे फैले पार्क की बराबर घास कटाई और उसको सुंदर रखने का प्रयास निरंतर होते रहते हैं।बड़े बड़े माल हैं जहाँ सभी प्रकार के सामान मिलते हैं। बाॅलमार्ट जैसे कई मार्ट हैं। जिसमें खाने पीने के सामान से लेकर इलेक्ट्रानिक्स, कपड़े, किराना सहित अनकों आयटम एक ही छत के नीचे मिल जाते हैं।
जब मैं यहाँ आने की तैयारी कर रहा था, तब टेलीविजन के किसी कार्यक्रम में एक दिन हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने अपने उद्बोधन में कहा था कि आप जब विदेश जाते हैं, तो अपने यात्रा संस्मरणों को अवश्य लिखें। इससे एक देश दूसरे देश के बारे में अधिक से अधिक पढ़कर जानने समझने की कोशिश करता है इससे आपस में एक दूसरे से नजदीकियाँ बढ़तीं हैं। विश्वबंधुत्व की भावना बढ़ती है। लोगों के द्वारा लिखे अपने संस्मरण भावनात्मक रूप से एक दूसरे के दिलों को स्पर्श करेंगे। इससे हमारे देश में और समाज में भी बदलाव आयेगा। तभी से मैंने निश्चय किया कि मैं कुछ संस्मरण अवश्य लिखूँगा। एक साहित्यकार के नाते हमारा भी फर्ज बनता है कि हम यहाँ की अच्छी बातों को अपने देश के जन मानस तक कैसे पहुँचायें ताकि हम भी उस तरक्की के रास्ते में पहुँच सकें जिसमें आज ये खड़े हैं। इस तरह का मन में विचार आया और लिखने बैठ गया।
विदेश यात्रा जो हमेशा अपने किसी काम के सिलसिले में आते जाते रहते हैं। उनके लिए एक सामान्य बात हो सकती है, पर मुझ जैसे और कितने करोड़ों लोग होगें जिनको यह अवसर जीवन में शायद कभी कभार नसीब होता है। यह उन सभी लोगों के लिए है जो इसमें से कुछ हासिल कर सकें। कुछ चिन्तन कर सकें, कुछ रचनात्मक कदम उठा कर देश के नव निर्माण में अपना भी योगदान दे सकें। मैं भी अपने साहित्यकी धर्म का निर्वाहन करके अपना एक छोटा सा फर्ज निभाने की कोशिश कर रहा हूँ। अपनी लेखनी से यहाँ की अच्छी बातें लिखकर अपने समाज तक पहुँचाने का प्रयास कर रहा हूँ , इस आशा से कि शायद कुछ परिवर्तन आ सके।
यह भी एक संयोग है, जब आज मैं अपने संस्मरण को लिखने कम्प्यूटर में बैठा, तो 19 जून 2015 की तारीख थी। जो कि हमारी शादी की 41 वीं साल गिरह होती है। यहाँ आने के कौतूहल और खुशी में हम लोग भूल गये थे, जिसे जबलपुर से बड़े बेटे मनीष के फोन पर बधाई देने पर याद आया। यहाँ छोटे बेटे गौरव को भी पता लग चुका था। वह चुपचाप शाम को एक बड़ा केक लेकर आया और बहू बेटे ने हमारी शादी की साल गिरह को केक काट कर मनवाया। खैर मैं बात कर रहा था, अपने संस्मरणों के लेखन के बारे में, सचमुच मुझे पहले तो यह दुरूह कार्य लग ही रहा था। किन्तु जब पिता जी के जीवन संस्मरण डायरी की याद आई तो मेरे मन में एक संकल्प उभरा कि लिखना तो चालू किया जाए सफलता या असफलता तो भविष्य की बात है। यह भी एक संयोग था कि हमारे पिताजी श्री रामनाथ शुक्ल‘ श्रीनाथ’ ने अपनी डायरी ‘यादों के झरोखों से ’ में उन्होंने अपने सीलोन गाँव से शहर जबलपुर और जीवन के विभिन्न पड़ावों, देश के परिवर्तनों को रेखांकित किया तो मैं भी क्यों न अपने जबलपुर शहर से विदेश यात्रा को लिखूं। खैर......
मैंने यहाँ के बारे में जानने के लिये खोजबीन चालू की और गूगल से जानने की कोशिश की, जो आपको बताना चाहता हूँ कि कनाडा उत्तरी अमेरिका का एक देश है, जिसमें दस प्रान्त और तीन केन्द्र शासित प्रदेश हैं। यह महाद्वीप के उत्तरी भाग में स्थित है, जो अटलांटिक से प्रशान्त महासागर तक और उत्तर में आर्कटिक महासागर तक फैला हुआ है। इसका कुल क्षेत्रफल 99.8 लाख वर्ग किलोमीटर है और कनाडा कुल क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व का दूसरा और भूमि क्षेत्रफल की दृष्टि से चैथा सबसे बड़ा देश है। इसकी संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अन्तर्राष्ट्रीय सीमा विश्व की सबसे बड़ी भू-सीमा है।
शब्द कनाडा सेंट लॉरेंस इरोक्वॉयाई शब्द कनाटा से बना हुआ है जिसका अर्थ गाँव अथवा बसावट होता है। सन् 1535 में वर्तमान क्यूबेक नगर क्षेत्र के स्टैडकोना गाँव की खोज जाक कार्तिए, ने की थी। कार्तिए ने बाद में डोंनकना (स्टैडकोना के मुखिया) से सम्बंधित पूर्ण क्षेत्र को कनाडा शब्द से उल्लिखित किया, इसके बाद सन् 1545 से यूरोपीय पुस्तकों और मानचित्रों में इस क्षेत्र को कनाडा नाम से उल्लिखित किया जाने गया।
इस क्षेत्र में सर्वप्रथम लोग साइबेरिया से आए थे, जो बेरिंग की खाड़ी को पार करके यहाँ पहुँचे थे और इनके कुछ समय बाद एशिया से अन्तिम इनूइट (एस्किमो) यहाँ आए थे। यहाँ आने वाले सर्वप्रथम यूरोपीय फ्रांसीसी थे। अठारहवीं सदी में फ्रांस और इंग्लैण्ड के मध्य चल रहा विवाद यहाँ इस क्षेत्र के उपनिवेशों तक आ पहुँचा और अंग्रेजों और फ्रांसीसीयों के बीच घमासान युद्ध छिड़ गया और अंत में अंग्रेजों की विजय हुई। 1763 की पैरिस संधि के बाद न्यू फ्रांस या वर्तमान कनाडा एक ब्रिटिश का उपनिवेश बन गया। इसके कुछ वर्षों बाद, ब्रिटेन ने औपचारिक रूप से फ्रांसीसी नागरिक कानून को मान्यता प्रदान की और कनाडा की फ्रांसीसी भाषी जनसंख्या की धार्मिक और भाषाई स्वतन्त्रता भी स्वीकार की।
१९८२ में, कनाडियाई संविधान में बहुत बड़े सुधार किए गए ब्रिटिश उत्तर अमेरिकी अधिनियम १८६७ और इसमें हुए बहुत से संशोधन के पश्चात् १९८२ में, संविधान अधिनियम बना और इस तरह कनाडा का संविधान बना। हाल के वर्षों में क्यूबेक (कनाडा का फ्रांसीसी भाषी बहुल प्रान्त) के लोगों ने राष्ट्रीय एकीकरण के मुद्दे पर बहुत कुछ बोला है। १९८० और १९९५ में हुए जनमत संग्रहों में इस प्रान्त के लोगों ने प्रान्त की सम्प्रभुता पर मत दिया और अधिकांश मतदान क्यूबैक के कनाडा में बने रहने के पक्ष में ही हुआ है
वर्ष १९०३ में भारतीयों का पहला दल कनाडा के वैंकुअर शहर में बसने के उद्देश्य से आया था। इसमें कुल दस सिख थे। ये लोग पंजाब से आये थे। इनमें कुछ खेतिहर थे और कुछ सेना से अवकाश प्राप्त सैनिक थे। इन लोगों की शिक्षा नहीं के बराबर थी। ये लोग हाँगकांग से होते हुए प्रशांत महासागर से होकर आये थे। यद्यपि ये लोग सिख धर्म के थे, परंतु इन्हें भारत का हिंदू ही कहा जाता था। उस समय यह शब्द बहुत प्रचलित था, भारत से आये किसी भी व्यक्ति को भारत का हिंदू ही कहते थे। अब ऐसा नहीं हैं। आजकल लोग गुजराती, मद्रासी, सिख या मुसलमान कहकर पुकारते हैं। यह परिवर्तन इसलिए हुआ है कि भारतीयों की संख्या अब बहुत ज्यादा हो गई है और यहाँ के लोगों को उनके बारे में जानकारी भी अच्छी हो गई है।
इसके बाद वर्ष १९०४ में देवीचंद्र नाम के एक ब्राह्मण जो पंजाब के रहनेवाले थे, अपनी पत्नी के साथ अमेरिका होते हुए कनाडा के वैंकुअर शहर पहुँचे थे। कनाडा का पश्चिमी तट जहाँ वैंकुअर शहर है वहाँ ठंड कम पड़ती है, क्योंकि जापान से गरम पानी की एक धारा प्रशांत महासागर से होकर यहाँ आती है, जो इस भाग को गरम रखती है। श्री देवीचंद्र ने एक यात्री सेवा का व्यवसाय करके दो साल के अंदर ४३२ भारतीयों को कनाडा बुला लिया था। इतने कम समय में इतने ज्यादा भारतीय चेहरे गोरों की नजरों में खटकने लगे थे। सरकार ने श्री देवी चंद्र को गिरफ्तार कर लिया। क्योंकि ये धनी व्यक्ति थे, इसलिए इन्होंने अपनी जमानत करवा ली। वर्ष १९०७ के जुलाई महीने में इन्हें कनाडा छोड़कर भारत जाना पड़ा। उस समय की सरकार चाहती थी कि कनाडा गोरे लोगों का ही देश बना रहे। भारतीय मूल के अप्रवासी जो प्रारंभ में कनाडा आये थे, वे अधिकतर साक्षर नहीं थे। इसलिए ये लोग लकड़ी की मिलों में, सड़क बनाने के काम में या रेलवे लाइन बिछाने के काम में नौकरी करते थे। इनका एक मात्र उद्देश्य कुछ पैसे बचाकर हिंदुस्तान अपने घर भेजना था।
वर्ष १९०७ में कनाडा में पहली बार भारतीय मूल के लोगों की एक संस्था रजिस्टर्ड हुई जिसका नाम ‘वैंकुअर खालसा दीवान’ सभा था। प्रारंभ में इस सभा का कार्य क्षेत्र धार्मिक था, परंतु कुछ समय के बाद अपने समुदाय के लोगों पर हो रहे अत्याचार का विरोध करना भी इनके कार्यक्रम में शामिल हो गया। इसी साल संयुक्त राज्य अमेरिका से होकर एक क्रांतिकारी बंगाली सज्जन वैंकुअर पहुँचे जिनका नाम तारक नाथ था। इन्होंने ‘हिंदुस्तानी एसोसिएशन’ का गठन किया और एक समाचार पत्र ‘आजाद भारत’ के नाम से निकाला था। ये एक समर्पित स्वतंत्रता सेनानी थे। इनका मुख्य उद्देश्य भारतीयों को देश की आजादी के लिए संगठित करना था।
वर्ष १९१० में कनाडा सरकार ने ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत की सलाह पर एक कानून बनाया। जिसमें कहा गया था कि भारत का वही व्यक्ति कनाडा में प्रवेश कर सकता है, जो सीधे भारत से कनाडा तक की यात्रा करके आया होगा, इसे ‘अविछिन्न यात्रा’ कानून कहते थे। इसके साथ ही उन्हें प्रति व्यक्ति २०० डॉलर की अप्रवासी फीस देनी होगी। कानून बनाने वाले यह भली भाँति जानते थे कि कोई भी जहाज सीधे भारत से कनाडा नहीं आता। इस कानून के कारण वे लोग भी कनाडा वापस नहीं आ सके जो कुछ समय के लिए भारत गये थे। जिन लोगों की पत्नियाँ और बच्चे भारत में थे वे परिवार भी कनाडा नहीं आ सकते थे। इस प्रकार भारतीय लोगों का कनाडा में आना करीब-करीब समाप्त हो गया। यह कानून १९२४ तक यथावत बना रहा। १२ जनवरी वर्ष १९११ का दिन कनाडा में बसने वाले भारतीयों के लिए एक ऐतिहासिक दिन था। इसी दिन एक भारतीय नारी ने कनाडा की धरती पर एक भारतीय शिशु को जन्म दिया। श्री उदयराम एक पंसारी की दुकान चलाते थे। इनकी धर्मपत्नी श्रीमती उदयराम भी इनके काम में हाथ बटाती थीं। ये लोग अमेरिका से सीमा पार करके कनाडा पहुँचे थे।
जब बच्चे के जन्म का समाचार अधिकारियों तक पहुँचा तो ये लोग बहुत सक्रिय हो उठे और तत्काल जाँच-पड़ताल शुरू हुई कि इस दंपत्ति ने कैसे कनाडा में प्रवेश पाया। श्री उदयराम एक चतुर व्यापारी थे। उन्होंने हापकिन्स नामक एक अधिकारी को कुछ खिला-पिला कर अपना केस दुरुस्त करवा लिया।
वर्ष १९१४ में एक जहाज में सवार होकर भारतीय यात्री कनाडा आने के लिए वैंकुअर पहुँचे। ये लोग जिस जहाज में सवार होकर आये थे, उस जहाज का नाम ‘कामा गाटा मारू’ था। मारू शब्द का मतलब जापानी भाषा में जहाज होता है। इस ‘कामा गाटा मारू’ की कहानी डॉ. डी. पांडिया ने १९६० में वैंकुअर में सुनायी थी। डॉ. पांडिया दक्षिण भारत से आये एक प्रसिद्ध वकील व सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने इस मामले में भारतीय समुदाय की काफी मदद की। इस मामले को लेकर वे कई बार वैंकुअर से ओटवा आये-गये थे। जब डॉ. पांडिया ने यह कहानी समाप्त की तो सुनानेवाले और सुननेवाले दोनों की आंखें नम थीं। इस कहानी को ‘कामा गाटा मारू’ की दर्दनाक घटना के नाम से जाना जाता है।
पंजाब का एक सिख जो कनाडा से आठ साल कमाकर पंजाब लौटा था, उसके बारे में लोगों को मालूम हुआ कि वह आठ साल में १५ हजार रुपया बचाकर लाया है। यह खबर पंजाब के गाँव-गाँव में फैल गई। इसके बाद वहाँ का नवयुवक वर्ग कनाडा आने के लिए व्यग्र हो उठा। क्योंकि भारत से कनाडा कोई पानी का जहाज सीधे नहीं आता था, इसलिए ये नवयुवक हाँगकाँग में आकर कनाडा आने का माध्यम ढूँढ रहे थे। हाँगकांग की कोई जहाज की कंपनी भारतीयों को कनाडा का टिकट नहीं बेच रही थी, क्योंकि कनाडा सरकार का ऐसा आदेश था। ये नवयुवक हाँगकांग के गुरूद्वारे में और उसके आसपास ठहरे हुए थे।
इसी समय गुरूदीत सिंह नाम का एक सरदार हाँगकांग पहुँचा, जो मलेशिया में मजदूर भेजने का ठेकेदार था। जब उसने इन नवयुवकों की कहानी सुनी तो उसने तय किया कि वह इन नवयुवकों और अन्य यात्रियों को लेकर कनाडा पहुँचाएगा। ऐसा करने के पीछे उसके दो उद्देश्य थे। एक उद्देश्य था पैसा कमाना और दूसरा था इन नवयुवकों की मदद करना। गुरूदीत सिंह एक कुशल व्यवसायी और बातचीत करने में बहुत ही निपुण व्यक्ति था। उसने हाँगकांग में ही एक जापानी यात्री जहाज भाड़े पर तय किया। इसी जहाज का नाम ‘कामा गाटा मारू’ था। यह जहाज पुराना था और काफी दिनों से हाँगकांग के बंदरगाह में पड़ा हुआ था। गुरूदीत सिंह ने जहाज की कंपनी से कहा कि वह कुछ पैसा अभी देगा और शेष २७००० डॉलर कनाडा पहुँचने पर अदा करेगा। इस पर कंपनी जहाज देने को तैयार हो गई। कंपनी ने जहाज और जहाज के कर्मचारी दिये। खाने की सामग्री, ईंधन तथा पानी गुरूदीत सिंह को जुटाना था।
श्री गुरूदीत ने सोचा कि कनाडा पहुँचने पर प्रति यात्री २०० डॉलर की अप्रवासी फीस वहाँ के भारतीयों से लेकर अदा की जाएगी। जहाज का किराया भी यदि कम हुआ तो उन लोगों से लेकर दिया जाएगा। ऐसी योजना बनाकर उसने पैसे लेकर यात्रा टिकट बेचने शुरू किये। शीघ्र ही उसे हाँगकांग से १६५ यात्री मिल गये। उसने एक भारतीय गदर पार्टी के व्यक्ति को अपना सचिव नियुक्त किया। एक सिख डॉक्टर को भी यात्रियों में रखा और एक ग्रंथी (पुजारी) और दो गाना गानेवालों को यात्रियों में लिया।
यह जहाज ५ अप्रैल वर्ष १९१४ को १६५ यात्रियों को लेकर शंघाई के लिए रवाना हुआ। शंघाई में उसको १११ यात्री मिले, वहाँ से जहाज मोजी के बंदरगाह पर गया, जहाँ ८६ यात्री सवार हुए। उसके बाद जहाज याकोहामा के बंदरगाह पर गया। जहाँ पर १४ यात्री और जहाज पर सवार हुए। इस प्रकार जहाज पर कुल ३७६ यात्री सवार हुए। जहाज की हालत बहुत जर्जर थी। उसमें केवल पांच शौचालय थे, जो टूटे-फूटे हाल में थे। कमरों की हालत भी दयनीय थी। अधिकतर यात्री जहाज के ऊपरी हिस्से पर (डेक) खाना बनाते थे और सोते भी थे। इस जहाज को याकोहामा से कनाडा के वैंकुअर बंदरगाह पहुँचने में करीब सात हफ्ते लगे। यह जहाज २९ मई को कनाडा के वैंकुअर बंदरगाह पर पहुँचा। जब जहाज वैंकुअर के बंदरगाह पर पहुँचा तो कनाडा के अप्रवासी अधिकारियों ने उसे बंदरगाह से कुछ दूर पर ही रोक दिया और जहाज के ऊपर एक बंदूकधारी सिपाही को तैनात कर दिया। जिससे जहाज के यात्री किसी बाहरी व्यक्ति से संपर्क न कर सकें। सवारियों को नीचे उतरने से मना कर दिया गया। गुरूदीत सिंह ने अधिकारियों से कहा कि वह एक ब्रिटिश राज्य का नागरिक है और उसे किसी भी ब्रिटिश राज्य के बंदरगाह पर उतरने का हक है। परंतु उसकी बात का अधिकारियों पर कोई असर नहीं हुआ।
इसके पश्चात कनाडा के अप्रवासी अधिकारी जहाज पर गये और सब यात्रियों के कागजात देखने के बाद केवल २२ यात्रियों को उतरने की अनुमति दी। ये यात्री कनाडा वापस आ रहे थे, इसलिए इनको उतरने दिया गया। शेष यात्रियों को जहाज पर ही रहने को कहा गया। उनको यह भी कहा गया कि उन्हें ज्यों ही इस देश से निर्वासित करने का हुक्म मिलेगा, उन्हें तुरंत वापस जाना होगा। अधिकारियों ने अपना इरादा बना लिया था कि इन यात्रियों को वापस जाना ही होगा तथा किसी भी कीमत पर इन्हें उतरने नहीं दिया जाएगा।
श्री गुरूदीत सिंह ने बहुत होशियारी से एक पत्र जहाज के जापानी कर्मचारी के द्वारा गुरूद्वारा के सचिव मीत सिंह तक भिजवा दिया। पत्र में कहा गया था कि कृपया एक वकील करके हम लोगों की तरफ से न्यायालय में एक याचिका दाखिल करवा दें। गुरूद्वारा के लोगों ने बहुत तत्परता दिखायी और शीघ्र ही २०,००० डॉलर इन लोगों की भलाई के लिए इकठ्ठा किये और एक मशहूर वकील श्री एडवर्ड जे.बर्ड को तय किया।
सरकारी वकील ने सोचा कि यदि एक-एक यात्री को बुलाकर कचहरी में पेश कियागया तो बहुत लंबा समय लगेगा, इसलिए यात्रियों से कहा गया कि वे अपना एक प्रतिनिधि भेज दें, जिसके माध्यम से उनका मुकदमा सुना जाएगा। यात्रियों ने मुंशी सिंह नामक एक नवयुवक को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया।
अब तक जहाज में गंदगी बहुत फैल चुकी थी। अधिकारियों ने जहाज का कूड़ा बाहर डालने से मना कर दिया। पीने का पानी समाप्त हो रहा था और खाने की सामग्री भी घटती जा रही थी। कई यात्री बीमार हो गये और उन्हें किसी प्रकार की चिकित्सा सुविधा नहीं प्रदान की गई, जिसके फलस्वरूप एक यात्री की मौत हो गई।
उस समय वैंकुअर से जो पार्लियामेंट का सदस्य था, उसका नाम स्टीफेंस था। वह एशिया से आनेवाले अप्रवासियों का घोर विरोधी था। स्टीफेंस इस प्रयास में लगा था कि ये यात्री किसी हालत में यहाँ उतरने न पाये और इन्हें वापस भेज दिया जाए।
बचे भारतीयों को निकालने का निर्देश
श्री मुंशी सिंह २३ जून को जांच करनेवाली कमेटी के सामने पेश हुआ। इस कमेटी ने उसी दिन अपना फैसला सुना दिया कि मुंशी सिंह और अन्य यात्रियों को निर्वासित किया जाए। इसके बाद फिर तुरंत विक्टोरिया शहर के न्यायालय में ५ जजों के सामने अपील की गई। जजों का भी यही फैसला रहा। अधिकारियों का ध्यान जब इस बात की ओर दिलाया गया कि जहाज पर पानी और खाने की सामग्री समाप्त हो गई है तो उन्होंने कुछ भी देने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि जब जहाज समुद्र के अंदर अंतर्राष्ट्रीय सीमा में चला जाएगा, तब इन चीजों की पूर्ति की जा सकती है, परंतु गुरूदीत सिंह इस पर अड़ा रहा कि जब तक ये चीजें उसे नहीं मिल जातीं, तब तक वह जहाज को अपनी जगह से हटने नहीं देगा। इस विवाद में जहाज १९ जुलाई तक बंदरगाह के पास खड़ा रहा।
१९ जुलाई को एक अप्रवासी अधिकारी जिसका नाम मालकम रीड था, पुलिस और सेना के सशस्त्र जवानों को साथ लेकर एक टगबोट (जहाज को ढकेलने वाली नौका) लेकर जहाज को बंदरगाह से बाहर निकालने के लिए आया। टगवोट जिसका नाम सी लायन था, जहाज से १० फुट नीचा था। ज्यों ही टगवोट ने जहाज को ढकेलना शुरू किया त्योंही जहाज के यात्रियों ने ऊपर से ईंट-पत्थर मारने शुरू किये। इस संघर्ष में २० पुलिस अधिकारी घायल हुए और टगबोट जान बचाते हुए भागे। इस घटना से सरकार में तहलका मच गया। यह समाचार आटवा में कनाडा के प्रधानमंत्री के पास पहुँचा तो उन्होंने तुरंत कृषि मंत्री को वैंकुअर इस सलाह के साथ भेजा कि ऐसा कोई काम न किया जाए जिससे विदेश के अखबारों में इसकी कोई चर्चा हो।
कृषि मंत्री ने अधिकारियों से बातचीत करके यह तय किया कि कनाडा की नौ सेना का लड़ाकू जहाज जिसका नाम रेनबो था, उसकी मदद से कामा गाटा मारू को बंदरगाह से बाहर कर दिया जाए। यह नौ सेना कनाडा की आधी नौ सेना थी। २२ जुलाई को अधिकारियों ने दवाइयाँ और खाने-पीने की सामग्री देने की इजाजत दे दी। खालसा दीवान सभा के कुछ पदाधिकारियों को भी जहाज पर जाने की छूट दे दी गई।
इस प्रकार २३ जुलाई को यह जहाज दो माह कनाडा के बंदरगाह में लंगर डाले रहने के बाद पुनः वापस भारत की तरफ चला। जब जहाज को नौ सेना की देखरेख में बंदरगाह के बाहर ढकेला जाने लगा, उस समय यात्रियों का मनोबल ऊँचा रखने के लिए गुरूदीत सिंह ने जोर-जोर से गुरूग्रंथ साहब का पाठ करवाना प्रारंभ किया। साथ में और यात्री भी बाजों के साथ देशभक्ति का गाना गाने लगे। इस प्रकार से निर्भीक यात्री अपने ऊँचे मनोबल का प्रदर्शन करते हुए मातृभूमि भारत की ओर चले। समुद्र तट के किनारे बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग खड़े थे। जिनकी आँखों में आँसू थे और हाथ हिलाकर अलविदा कह रहे थे। इस घटना का विवरण देते हुए एक इतिहासकार ने लिखा है कि ब्रिटिश देश के नागरिकों को एक ब्रिटिश देश की नौ सेना के द्वारा शक्ति प्रयोग करके सीमा से बाहर कर रही थी, इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा!
इन ‘कामा गाटा मारू’ के यात्रियों के दुःख का अंत यहीं नहीं होता है। इन्हें आगे अभी बहुत कुछ झेलना पड़ा।२९ सितंबर वर्ष १९१४ को यह जहाज कलकत्ता के बजबज बंदरगाह पर पहुँचा। वहाँ के अधिकारियों को इस जहाज के बारे में पूरी सूचना मिल चुकी थी। अधिकारियों ने तय किया कि यहाँ से सब सवारियों को उतारकर रेल द्वारा पंजाब भेजा जाए और वहाँ पर यह तय किया जाएगा कि किसको छोड़ा जाएगा और किसे जेल भेजा जाएगा। अधिकारियों ने यात्रियों से तुरंत जहाज खाली करने को कहा और यात्रियों को पुलिस की निगरानी में रेलवे स्टेशन ले जाया जाने लगा। स्टेशन से कुछ पहले ही इन यात्रियों ने आगे जाने से इन्कार कर दिया और सड़क पर बैठकर गुरूग्रंथ साहब का जोर-जोर से पाठ करने लगे। जो पुलिसवाले इनके साथ थे, उन्होंने इनको चारों ओर से घेर लिया। कुछ ही देर के अंदर ३० ब्रिटिश सिपाहियों की एक टुकड़ी और आ गई। गुरूदीत सिंह भीड़ के बीच में था।
एक गोरा अधिकारी जिसका नाम इस्टवुड था, गुरूदीत सिंह को गिरफ्तार करने के लिए भीड़ में घुसा, इतने में कहीं से गोली चली और इस्टवुड बुरी तरह घायल होकर गिर पड़ा। गुरूदीत सिंह का कहना था कि गोली पुलिसवालों की तरफ से चलायी गई थी। फिर पुलिस की गोलियाँ धुआँधार चलने लगीं और भगदड़ मच गई। इस कांड में २० सिख मारे गये, दो गोरे सिपाही, दो भारतीय सिपाही और दो राहगीर भी गोली के शिकार हुए। २८ यात्री भाग निकले और शेष गिरफ्तार किये गये। गुरूदीत सिंह भी भाग निकला था और सात साल तक फरार रहने के बाद उसने अपने आप को कानून के हाथों में सौंप दिया। उसको लाहौर में पांच साल की सजा हुई। पुलिस के इस अमानुषिक बर्बर व्यवहार से पंजाब, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध वातावरण बना और इस कांड की चारों ओर भर्त्स्ना हुई। हमारी आजादी की लड़ाई में इस घटना ने भी अपना बड़ा योगदान दिया।
भारत वर्ष के आजाद होने के बाद १९५१ में भारत सरकार के अनुरोध पर कनाडा की सरकार ने भारत से आने वाले अप्रवासियों के लिए १५० की संख्या निर्धारित की। इसके अलावा कनाडा में रह रहे अप्रवासियों को अपनी पत्नी और बच्चों को बुलाने की छूट मिली फिर यह संख्या बढ़ती चली गई। वर्ष १९७१ से वर्ष १९८२ के बीच में करीब १,७०,००० भारतीय अप्रवासी के रूप में कनाडा आये। अब यह संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है।
आज जो भारतीय अप्रवासी कनाडा में हैं उनमें डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, व्यवसायी, नौकरीपेशा वाले लोगों के अलावा खेतिहर भी हैं। आगे भी दक्षिण एशिया के लोग कनाडा आते रहेंगे, क्योंकि कनाडा की अपनी आबादी स्थिर है। कल-कारखाने बढ़ते जा रहे हैं तो उनमें काम करने के लिए इन्हें अप्रवासियों की जरूरत बनी रहेगी।
एक रोचक बात यहाँ यह है कि जब आप ऐसा चेहरा देखते हैं जो भारतीयों जैसा दिख रहा है तो आप ऐसा न सोच लें कि यह व्यक्ति भारत वर्ष से आया होगा। वह व्यक्ति युगांडा से आया हो सकता है या कीनिया से आया हुआ होगा। हो सकता है वह कभी भारत वर्ष गया भी नहीं हो। हाँ उसके पूर्वज भारत वर्ष से जरूर आये रहे होंगे। हमारे देश के लोग विश्व के कोने-कोने में फैले हुए हैं, यह भी एक गौरव की बात है। यदि आप किसी विष्णु मंदिर में जाएं और किसी हिंदू को पूजा करते देखें और जब उससे बातचीत करना प्रारंभ करेंगे तो ज्ञात होगा कि वह व्यक्ति गियाना या सूरीनाम का है। वह हिंदी बोल भी सकता है या नहीं भी बोल सकता है। एक बार ट्रीनीडाड के एक नवयुवक को मंदिर में भजन गाते हुए सुना। जब उससे बात शुरू की तो उस नवयुवक ने बतलाया कि वह हिंदी नहीं जानता है। यह भजन उसने रोमन लिपि में लिखकर याद किया है। इस भजन का अर्थ उसकी दादी ने उसे बताया था। ऐसे इन सब लोगों को दक्षिण एशिया के मूल के निवासी कहते हैं। कनाडा में दक्षिण एशिया के नाम से टी.वी. स्टेशन है, जो इन लोगों के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत करता है।
कनाडा में भारतीय मूल के लोगों का आना और समय के साथ-साथ यहाँ के वातावरण में घुल-मिलकर रहते हुए अपने धर्म, संस्कृति और सभ्यता को जिंदा रखना प्रशंसनीय है। एक सौ साल में भारतीय मूल के लोगों ने यहाँ अपनी एक पहचान बना ली है। जिस गार्डन में मैं अक्सर घूमने जाया करता था वहाँ एक अजनबी व्यक्ति ने दूर से पहचान कर दोनों हाथ जोड़कर मुझसे कहा ‘‘ओ इंडियन, नमस्ते... नमस्कार... ’’ तब मुझे इसका अहसास हुआ। उस समय तक हमारे श्री मोदी जी ने भी भारतीय छवि में इजाफा कर दिया था। यहाँ भारतीय लोग शांतिप्रिय नागरिक माने जाते हैं। कनाडा के विकास में हर क्षेत्र में इनका योगदान है। इनके रहन-सहन का स्तर सबके बराबर या कुछ ऊँचा ही है। इन लोगों ने कनाडा के अन्य नागरिकों से बहुत कुछ सीखा है तो उन्हें नृत्य, संगीत इत्यादि बहुत कुछ सिखाया भी है।
कनाडा की राजधानी ओटावा है। अंटारियो कनाडा देश का एक प्रदेश है, इस प्रदेश में टोरेन्टो एक बड़ा शहर है। मोन्टेरियल भी एक चर्चित शहर है। हम लोग टोरेन्टो शहर के जिस हिस्से में रुके थे। वह वेल्सिली कहलाता है, यह उस शहर का डाउन टाउन ऐरिया है। इसका आशय मुख्य शहर के उस हिस्से से होता है, जहाँ सरकारी-गैर सरकारी आफिस, मुख्य व्यापारिक केन्द्र, बड़ी दुकानें और उँची भव्य इमारतें सभी नजदीक होती हैं।
आज जन्माष्टमी का दिन है। गौरव एक दिन पूर्व से कागज को गोल गोल बेंत का आकार देकर झूला बनाने की कोशिश कर रहा था। पुटठे को मोड़कर पालकी बनाई गई फिर उसमें कलर पेपर को चिपकाया गया। काफी सुंदर कृष्ण झूला बन कर तैयार हो गया। शाम को हम सभी पूजन करने वाले थे। कुछ पूजन का सामान श्रीमती जी जबलपुर से ले आयीं थीं। फूल की आवश्यकता थी, इस फूल की नगरी में फूल तोड़ना वर्जित था। आसपास फूल की दुकानें भी नहीं दिखीं। बेटे ने मना किया फूल तोड़ने को, पर श्रीमती के आदेश की अवहेलना कैसे कर सकता था। आठ-दस फूल तोड़ कर ले ही आया।
अपने यहाँ तो सुबह की सैर करने वाले हर नर-नारी हर जगह लगे फूलों पर अपना जन्म सिद्ध अधिकार ही समझते हैं। वे प्रतिदिन भारी मात्रा में फूल तोड़ कर भगवान को चढ़ाते हैं कि आज तो वे खुश होकर दर्शन दे ही देंगे। मजाल है कि कोई मकान मालिक फूल तोड़ने को मना कर दे। खैर ... जन्माष्टमी पर पूजन पाठ किया। हवन कर नहीं सकते थे तो अगरबत्ती जला कर काम चलाया। हलुआ पकवान घर में ही बन गये थे। बहू रोशी ने अंश को कृष्ण बनाया, उसके नटखट बालपन की भावी-भंगिमा को देखकर हम सभी खुश हो रहे थे। फेसबुक पर उसकी और झूले की फोटो डाली गई।
कुछ दिन बात ही हरितालिका जिसे तीजा का त्यौहार भी कहते हैं, आया। आसपास की इमारतों से सात आठ भारतीय महिलाओं को बहू रोशी ने अपने घर में बुला लिया था। सभी भारतीय परिधान साड़ी में आईं। माटी के शंकर-पार्वती बनाए गये, पूजन पाठ हुआ। काफी दिनों के बाद एक जगह भारतीय महिलाओं से मिलकर श्रीमती बहुत खुश हुईं। सावन- भादों का महीना तो तीज त्यौहार वाला महीना होता है। हरछठ, संतान सप्तमी गणेश स्थापना आदि। हमारे गौरव के एक मराठी मित्र ने गणेश स्थापना की थी उनके यहाँ हम सभी दर्शन करने गये। विसर्जन पर उन्होंने कुछ मित्रों को परिवार सहित खाने पर बुलाया। गणेश मूर्ति को देख मैं आश्चर्य में जब पड़ा तो गौरव ने बतलाया कि एक दक्षिण भारतीय की जो बड़ी शाप है, उसमें वह भारत से मंगवा लेता है। यहाँ विसर्जन करना मुश्किल होता है,इसके लिए जब भारत में जाते हैं तो साथ ले जाते हैं। नदी तालाब झीलों में कुछ भी डालना वर्जित है। इसलिए यहाँ का पानी कंचन जैसा साफ सुथरा दिखता है। हालाकि प्रायःहिन्दू बाहुल क्षेत्रों में जो मंदिर हैं, वहाँ ही जाकर अपने तीज-त्यौहार मनाते और पूजनपाठ करते हैं।
31 अक्टूबर को क्रिश्चिन देशों में ‘हैलोविन डे’ मनाया जाता हैं यहाँ पर भी विशेष उत्सव जैसा मनाते हैं। इसे भूत प्रेतों का दिन कहा जाता है। हमारे यहाँ भय टोटकों से अपने आपको बचाने के लिए लोग घरों के बाहर नहीं निकलते पर यहाँ तो दिन में जलूस के रूप में अधिकांश लोग स्वयं भूत प्रेतों के स्वांग वेश धारण कर निकलते हैं।मैं भी देखने गया दिन में तो मुझे दो प्रेतों ने घेर लिया। उस दिन फिर रात में बच्चों औरतों के साथ लोग घरघर जाकर उनकी डरावनी झाँकियों को देखने के लिए जाते हैं, बदले में बच्चों को ढेर सारी टाफियाँ भी मिलती हैं। इस उत्सव में टाफियाँ इतनी मिलती हैं कि लोग कई माह तक उसका स्वाद लेते रहते हैं। मार्केट में टाफियाँ की बिक्री रिकार्ड तोड़ होती है।
मैं एक दिन जब अकेले घूमने निकला तो रेलवे स्टेशन के बाहर सड़क के किनारे हमारे यहाँ पोस्ट बाक्स जैसे कुछ स्टील के बाक्स दिखे। जिनमें यहाँ के अंग्रेजी अखबार और पत्रिकाएँ रखी हुयीं थीं। जिनको पढ़ना होता है, वे फ्री में ले जा सकते हैं। ये विज्ञापन के माध्यम से अपनी लागत-प्राफिट निकाल कर इस तरह रख दिया करते हैं। चिकने ग्लैज्ड पेपर में निकली पत्रिकाएँ तो सौ पृष्ठों से भी अधिक की होती हैं और अखबार पैतींस चालीस पृष्ठों तक के होते हैं। मैंने भी दो तीन पत्रिकायें उठाईं और ले आया ताकि घर में। कुछ पलट कर, शहर के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकूँ। एक पत्रिका में तो पूरे शहर में बिकाऊ मकानों फ्लैटों का विज्ञापन था। दूसरी पत्रिका में शहर के पर्यटक विभागों के विज्ञापन थे। यह पत्रिका एक जुलाई कनाडा डे पर प्रकाशित हुई थी। जिसमें यहाँ के अधिकांश पर्यटन स्थल की संक्षिप्त जानकारियाँ दी गईं थीं। उसमें मेरे लिए विशेष बात यह थी कि घर बैठे मुझे बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो गई। एक पत्रिका में मुझे चार पाँच नक्शे भी दिखे, जो यहाँ के रेल-सड़क मार्ग व अन्य शहरों को दर्शा रहे थे। उसी में मुझे ब्राम्टन भी दिखा। यह यहाँ का भारतीय बाहुल्य क्षेत्र माना जाता है।
यहाँ टोरेन्टों में हिन्दी के साप्ताहिक समाचार पत्र भी निकलते है जो कि भारतीय बाहुल क्षेत्र में वहाँ की दुकानों, होटलों में अक्सर मुफ्त में रखे मिल जाते हैं। ये समाचार पत्र 40से 50 पेज तक के निकलते हैं।एक बाजार हमारे निवास से 10-12 किलो मीटर की दूरी पर था। एक रविवार को हम सभी वहाँ घूमने के लिए गये। यहाँ परदेश में अपने देश का नजारा देखकर बड़ा अच्छा लगा। अनेक भारतीय रेस्ट्रारेंटों में पंजाबी, गुजराती, दक्षिण व्यंजनों की भरमार नजर आ रही थी। भुट्टे, पोहा, छोले- भटूरे, पुड़ी-सब्जी, समोसे, आलूबंडे, मगोड़े, भजिया आदि बिकते दिखे। पूरा वातावरण ठेट भारतीय बाजार जैसा दिखा। हम लोगों ने एक होटल में जाकर कुछ नास्ता किया। जब बाहर निकल रहा था तो मेरी इन हिन्दी के अखबारों पर नजर पड़ी, उठा लाया। ‘हिन्दी एबराॅड’ जिसके सम्पादक जयाश्री एवं फिरोजखान और दूसरा ‘समय इंडो-कैनेडियन’ जिसके सम्पादक गगनदीप कँवल थे। हिन्दी अखबार देखकर बड़ी प्रसन्नता हुयी। हालाकि घर पर इंटरनेट के माध्यम से जबलपुर के अखबार हम यहाँ नित्य ही पढ़ते थे। पर यहाँ के समाचार पढ़ना वह भी हिन्दी में कुछ अलग ही था।
इस क्षेत्र में भारतीय पाकिस्तानी और चीनियों की दुकानें ज्यादा थीं। कई दुकानों से दिलीप कुमार, अशोक कुमार के जमाने के हिन्दी गानों की सुमधुर आवाजें गूँज रहीं थीं। भारत के बाजारों जैसी चहल पहल नजर आ रही थी। पंजाबियों की दुकानें काफी दिखीं, कपड़ों की दुकानों में भारतीयों की परम्परागत पोषाकों और परिधानों की भरमार थी। हमारी श्रीमती भारत से साड़ियाँ ही ले गयीं थीं जिसका प्रचलन बाजारों सड़कों पर कम ही देखने मिलता था तो उनके लिए सलवारसूट के कपड़े खरीदे गये। हलाकि यहाँ रेडीमेड मिल रहे थे किंतु खाली समय के उपयोग खातिर उन्होंने कपड़े ही खरीदे ताकि अपने हाथों से घर में ले जाकर सिला जा सके। दुकानों में शो रूम और अंदर दुकान मालिकों के साथ कई बम्बई फिल्मी कलाकारों के फोटोग्राफ टंगे दिखे। कभी न कभी ये कलाकार यहाँ आये होंगे तब इन्होंने ये फोटो खिचवाये होंगे।
एक रविवार हम लोग सुबह घूमने के लिए निकले, सड़क के किनारे बाएँ और दाएँ दोनों ओर जगह-जगह फाइवर के चार चके वाले कन्टेनर रखे हुये थे। कौतुहल वश बेटे से पूँछा तो मालूम पड़ा कि यह घरों से निकलने वाले मकान मालिको के कचरे के कन्टेनर हैं। यहाँ पर घरों का कोई कचरा सड़कों में नहीं फेंकते। सभी इसमें ही डालते हैं। भर जाने पर सुबह मकान मालिक इन्हें सड़क के किनारे रख देते हैं नियमानुसार कारपोरेशन की बड़ी गाड़ी आती है और यह कचरा ले जाती है। खाली होने पर मकान मालिक इसे अपने घर पर फिर रख लेते हैं। इसीलिए कहीं भी कचरा नजर नहीं आता। यह कन्टेनर नगर निगम द्वारा मकान मालिकों को दिया जाता है, बकायदा इसमें नम्बर पड़े रहते हैं।
जहाँ पार्किंग की व्यवस्था है, वहाँ सड़क के किनारे ही अनेक पार्किंग पेड मशीनें कारपोरेशन की लगी रहतीं हैं। कार चालक उसमें नियमानुसार राशि डालते हैं और कूपन लेकर कार में अंदर पारदर्शी काँच के पास रख देते हैं। यह व्यवस्था प्रायः सभी सड़कों में भी लागू हैं। इसके लिए कोई कर्मचारी नहीं रखा जाता, न ही कोई वाहन स्टैंड की ठेकदारी व्यवस्था होती है। वाहन मालिकों से सीधे पार्किंग पेड मशीन के माध्यम से कारपोरेशन को आय हो जाती है। जुर्माने की रकम ज्यादा होने से सभी दिशा निर्देशों का पालन करते हैं। यहाँ की पुलिस चुस्त-दुरूस्त, फुर्तीले, ईमानदार और कानून के बड़े हिमायती वाले रहते हैं,सभी उनसे डरते हैं इसलिए लोग सरकारी कानूनों एवं नियमों का स्वतः ही पालन करते हैं।
साईकिलें रखना या चलाना यहाँ गुरबत की निशानी नहीं मानी जाती। मैंने देखा कि कुछ कार मालिक कार के पीछे साईकिल को हुक में फँसा कर लेकर चलते हैं। उपयुक्त स्थानों पर वे कार को पार्किंग में खड़ी करके साईकिल भी चलाते दिखे। साईकिल सुविधा और आने जाने का सुगम साधन है। अमीर गरीब सभी उसका उपयोग करते हैं। बसों और ट्रेनों के अंदर लोगों को साईकिल ले जाते देखा है। साईकिल वालों को चलने के लिए हर सड़कों में अलग से पथ बनाया गया है। जो कि सुरक्षित एवं निर्धारित जगह है। फुटपाथों के किनारों एवं पार्कों में साईकिल सुरक्षा के लिए गोलचक्रनुमा लोहे के पाईप से बने सुंदर साईकिल स्टैंड अक्सर दिखते हैं, जिनमें वे अपनी साईकिलों को लाक करके सुरक्षित रख सकते हैं। इसके लिए उन्हें कोई शुल्क नहीं चुकाना पड़ता है। साईकिलें नगर निगम द्वारा किरायेपर उपलब्ध दिखीं। मशीनों में शुल्क अदा कीजिए फिर आप उसका उपयोग कर सकते हैं। काम हो जाने के बाद किसी अन्य जगह में भी जमा कर सकते हैं।
फुटपाथों पर लोगों का पूर्णतः सुरक्षित और बेफिक्री से आना जाना चलता रहता है। हर गली कूचे में सड़कों के दोनों ओर फुटपाथ अवश्य बने हुए हैं। इस पर लोग अपने छोटे बच्चों की चार पहियों वाली ट्राली एवं सामान लाने ले जाने के लिए दो पहियों की हाथ ट्रालियों का उपयोग करते नजर आते हैं। इसके लिए हर क्रासिंग पर फुटपाथों को इस तरह बनाया जाता है कि वे अपनी ट्रालियों को आसानी से चढ़ा व चला सकें। वृद्धजन या दिव्यांग बेटरी व्हील चेयर पर इन फुटपाथों पर आते जाते अक्सर दिखते नजर आते हैं। ट्रैफिक नियमों का पालन लोग स्वतः करते हैं। मुझे ट्रैफिक के सिपाही इक्कें दुक्के ही कहीं नजर आये। जो सीटी बजाते हुए लोगों को ट्रैफिक नियमों का पालन करने को विवश कर रहे हों। दूसरी सबसे विचित्र बात यह लगी कि दो पहिया,चार पहिया मालिकों के हार्न का शोरगुल भी व्यस्त सड़कों, बाजारों में भी सुनाई नहीं दिया। केवल दमकल, पुलिस या एम्बुलेंस की गाड़ियाँ अपने सायरन बजाते हुए जरूर दिखीं। जब ये निकलती हैं, तो आने जाने वाली सभी दिशाओं की गाड़ियाँ स्वतः रुक कर इनको पहले निकल जाने देतीं हैं। अगर आप पैदल सड़क क्रास कर रहे हैं और वहाँ सिगनल की व्यवस्था नहीं है, तो कार चालक आपके लिए गाड़ी स्वयं ही रोक देगा। जब तक आप सड़क पार नहीं कर लेते वह आगे नहीं बढ़ता। कई बार मेरे साथ पहिले आप, पहिले आप की स्थिति बनते दिखी है।नेशनल हाईवे में तीव्र गति से भागते वाहनों को देखा तो दुसरी ओर समानान्तर में उन पथों को भी देखा जो पैदल आने जाने के लिये भी बनाए गए थे।
ब्राम्टन के बारे में मैंने सुन रखा था कि यह हमारे भारतीयों का एक मिनी भारत है। जिसे देखने की मुझे बड़ी उत्सुकता थी। डा. विजय तिवारी किशलय जी ने टोरेन्टो शहर के कुछ मुझे मोबाइल नम्बर नोट करवाए थे। यहाँ आकर मैंने उन महानुभावों से फोन पर बातचीत की। उनसे मिलने की भी इच्छा जाहिर की थी। तो उन्होंने वेलकम किया और मुझे अपने घर के पते नोट करवाये। उन पतों के बारे में जब बेटे से जानकारी ली तो मालूम पड़ा। सभी पते हमारे निवास से ट्रेन से डेढ़ से दो घंटे की दूरी पर हैं। जिसमें मैंने तो उनसे मिलने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। यहाँ पर रेल और बस का सफर बहुत ही अच्छा सुगम है। पर जब तक आपको सही जानकारी न हो, तो आपको यह सफर मुश्किल में भी डाल सकता है। सच बात यह है कि मैं गुमशुदा की तलाश में अपना नाम नहीं लिखवाना चाहता था। इससे मेरे बेटे की परेशानी बढ़ सकती थी।
डा. विजय तिवारी जी ने आते समय प्रोफेसर सरन घई जी का फोन नम्बर दिया था, उनकी संस्था ‘‘विश्व हिन्दी संस्थान’’ संस्था के द्वारा यहाँ 28 जून को कवि सम्मेलन की जानकारी मुझे थी। मैंने ई मेल भेजकर टोरेन्टो में अपनी उपस्थिति की जानकारी दी तो उन्होंने खुशी जाहिर की, सहर्ष ही उनका आमंत्रण ई मेल से मुझे मिल गया था। यह मेरे जैसे व्यक्ति के लिए कनाडा के टोरेन्टो शहर में हिन्दी कवि सम्मेलन में जाना एक तीर्थ स्थल में जाने के समान था। जहाँ एक ओर विदशों में बसे हमारे हिन्दी साहित्यकारों से मन में एक मुलाकात की जिज्ञासा थी, वहीं दूसरी ओर एक प्रकार से उनके साहित्य से हमें वाकिफ होना था। वे क्या लिखते हैं, क्या सोचते हैं। वे सब यहाँ वर्षों से इसकी माटी में रचे बसे थे। वे भारत के बारे अब क्या सोचते हैं। क्या उनकी संस्कृति में अब भी भारतीय संस्कृति रची बसी है। वे यहाँ पर कैसा महसूस करते हैं। यहाँ बसने से घर परिवार के रहन -सहन में क्या बदलाव आया है। वे क्या पहिनते हैं, क्या खाते पीते हैं। ढेर सारे प्रश्नों के जवाब की चाहत मन में दबी हुई थी।
मैं एक विजीटर के रूप में अपने बेटे के पास पाँच माह के लिए आया जरूर था। पिता के नाते मुझे बेटे-बहू और नवजात नाती से मिलने की चाहत तो थी ही दूसरी ओर एक साहित्यकार होने के नाते हमारे मन में सबसे बड़ी जो चाहत थी, वह यहाँ के साहित्यकारों से मिलना और यहाँ पर उनकी सभ्यता संस्कृति को नजदीक से देखना भी प्रमुख था। अपनी यात्रा के पूर्व मेरे मन में इन ढेर सारे सवालों के जवाब ढूढ़ने की तीव्र लालसा थी।
भारत आने के पूर्व हमारे देश के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के विदेशी यात्राओं में टोरेन्टो शहर का नाम भी शामिल था। जिस वजह से हमारे देश के टीवी चैनलों ने अपने अपने ढंग से जानकारियाँ देश के सामने परोस रहे थे। मैं उनको बड़े ध्यान से सुनता और देखता था। चाहे वह अमेरिका हो या कनाडा, सभी देशों से एक लगाव सा जुड़ गया था। मैं जीवन में कहीं गया तो नहीं, पर मुझे ऐसा लगता कि मैं जैसे यहाँ घूम के आ गया हूँ। यह वर्तमान में मोदी जी की विदेश यात्रा और टेलीविजन की नई टेकनिक द्वारा संभव हो सका है। हम घर बैठे सारे विश्व की संस्कृति का दर्शन कर सके। वहाँ की सभ्यता संस्कृतियों से मीडिया भाइयों ने काफी कुछ रूबरू करवा दिया था।
जब अचानक यहाँ आने का संयोग बना तो फिर जबलपुर से ही मन में संकल्पित भाव बना लिया था कि कम से कम यहाँ के साहित्यकारों से मिलने का जब भी सुखद संयोग हमें मिलेगा। उसे मैं हर हालत में नहीं चूकूँगा। दूसरी बात यह थी कि टोरेन्टो के ब्राम्टन में उस, मिनी भारत को देखने का एक अवसर जो हमें मिलने जा रहा था। मैं यह सोच कर ही बड़ा रोमांचित हो रहा था।
मैं मध्यम श्रेणी का हिन्दी मीडियम से पढ़ने वाला एक विद्यार्थी रहा हूँ । सन् 1967 में मैट्रिक पढ़ते समय ‘अंग्रेजी विरोधी’ आंदोलन के समय मेरी पढ़ाई हुई थी। तो उस समय के वातावरण का आप सहजता से अंदाजा लगा सकते हैं। टूटी फूटी अंग्रेजी से बैंक में सारी उम्र भारत में नौकरी कर ली थी। रिटायर भी हो गया था। मध्यम श्रेणी के अभावग्रस्त परिवेष में पढ़ा लिखा, मेरे जैसे व्यक्ति के लिए, वह भी कनाडा में अकेले घूमना, बगैर भूगोलिक जानकारी के लगभग असम्भव ही था। इसलिए मुझे बगैर वैशाखी के दूर आना जाना मुश्किल लग रहा था। प्रतिदिन चार- पाँच कलोमीटर आसपास के क्षेत्रों में तो अकेले ही घूमने की कोशिश कर रहा था पर दूर घूमने जाना मेरे बस की बात नहीं थी। यहाँ पर मेरी बैशाखी के रूप में तो गौरव ही था। प्रोफेसर सरन घई जी के जन्म दिन एवं रिटायरमेंट पर आयोजित कार्यक्रम के दिन संयोग से रविवार था और बेटे के आफिस की छुट्टी शनिवार और रविवार की रहती है। पर वह मेरे साथ चलने के लिए तैयार हो तब बात बने। मैंने आशा और विश्वास के साथ अपने टोरेन्टों पहुँचते ही बेटे को फुसलाना शुरू कर दिया था। उसको भी शायद मेरे ऊपर दया आ गयी, अंततः सहमति बनी।
आजकल लोग पता नहीं क्यों साहित्य से कटने से लगे हैं। मैं अभी तक यह बात नहीं समझ पाया, लगता है समाज में चुटकुले बाजों ने अपने चुटकुलों के माध्यम से कुछ अलग ही धारणा साहित्यकार और कवियों के बारे में बना दी है। हो सकता है कुछ निरुउद्देश्य लिखार टाईप के कवियों के कारण यह स्थिति निर्मित हुयी हो। खैर अपने जाॅब में व्यस्त बेटे ने पिता की अभिलाषा को पूर्ण करने का संकल्प तो ले लिया था। लेकिन मेरा वहाँ समय कैसे गुजरेगा ? एक प्रश्न मेरी ओर उछाल ही दिया। मैंने कहा भाई साहब, चलिए तो सही। आप जब कहेंगेे वहाँ से हम धीरे से खिसक लेगें। उसे मेरी यह बात उचित लगी। मैंने दबी जबान में पूँछा वहाँ आने-जाने का कितना खर्च होगा। हर भारतीय शायद मेरी तरह से ही सोचता है। वह मेरे ऊपर मुस्करा उठा और बोला यह सब छोड़िए। आप तो फोन करके उनको अपने आने का समाचार भर दे दीजिए।
जब दोबारा फोन करके प्रोफेसर सरन घई जी को पहुँचने की खबर दी तो बहुत ही खुश हुए। उन्होंने स्थान परिवर्तन की सूचना ई मेल से देने का आश्वासन दिया। ई मेल से ज्ञात हुआ कि यह कार्यक्रम उन्होंने अपने पैसठवें जन्म दिवस एवं रिटायरमेंट पर रखा था। स्वाभाविक है उनके सभी स्नेही मित्र, परिजन आदि होंगे। इसीलिए शायद कार्यक्रम में काफी लोगों की वजह से घर की जगह एक सिद्धि विनायक मंदिर के नीचे हाल में सुनिश्चित किया था। उन्होंने यह भी खुश खबरी दी कि यह स्थान उनके घर से दूर है, पर आपके आने के लिए लगभग सीधा रहेगा। ट्रेन के बाद एक बस पकड़िए आधा घंटे के बाद, कुछ पैदल चलकर आप कार्यक्रम स्थल तक आ सकते हैं।
कार्यक्रम के लिए अभी 4 दिन शेष थे। बेटे ने कम्प्यूटर में टोरेन्टो शहर का नक्शा देखा। उसमें आप घर से किस साधन से और किस दिशा में निकलेंगे। किस ट्रेन में बैठेगें, कहाँ उतरेगें फिर वहाँ बस कहाँ से मिलेगी, पैदल कितना-किस दिशा में चलना है आदि सभी जानकारी अपने मोबाईल से ली। मैं तो हैरान हो गया कि उसमें एक एक मिनिट का केलुकेशन दिखा रहा था। उसमें पैदल रेल बस का पूरा खाका खींच कर बताया गया था। कार्यक्रम बना सुबह 11 बजे निकलने का ताकि दोपहर 1 बजे के पूर्व वहाँ पहुँचा जा सके। उसने आगामी दिनों के मौसम की जानकारी ली तो बतलाया पापाजी, शनिवार को तो मौसम भारी बारिश वाला बतला रहा है। उससे कुछ कम बारिश रविवार को है, पर होगी अवश्य। यहाँ बारिश में निकलना संभव नहीं होगा।
मैंने हँस कर कहा कि मेरे यहाँ भी मौसम विभाग अपनी जानकारी देता है। जिस दिन भारी बारिश की घोषणा होगी उस दिन पानी तो गिरता ही नहीं, सूखा ही रहता है। और जिस दिन आज आसमान खुला रहेगा कहा जाता है, उस दिन झमाझम बारिश होती है। मौसम विभाग कुछ भी कहता रहता है। वह हँसने लगा, इसके आगे बोला कुछ नहीं। मुझे लगा यह मुझे हतोत्साहित कर रहा है। मैंने कहा चलो उस समय देखा जाएगा। पर दूसरे दिन शनिवार की बारिश के साथ तेज हवा को देखा तो उसकी बात में भी दम नजर आ रहा था।
जिसे देख मुझे मेरे बचपन के बारिश के दिनों की याद आने लगी। जब सावन-भादों तेजी से बारिश होती थी। मैनें उससे कहा छाता लेकर चलेंगे दरवाजे के सामने ही तो बस स्टाप है, सीधे बस में बैठना है और बस भी रेलवे के पोर्च में ही खड़ी करती है। वहाँ जाकर ज्यादा होगा तो घई साहब से गाड़ी मंगवा लेंगे जहाँ से पैदल चलना था। मैं हारने के मूड में बिल्कुल भी नहीं था। मैंने कहा कि बेटे मेरा मानना है कि ‘जहाँ चाह है, वहाँ राह है’ ईश्वर अवश्य कोई रास्ता निकालेगा।
शनिवार की बारिश देख कर मन निराश हो गया था। रविवार की सुबह भी लक्षण ठीक नजर नहीं आ रहे थे। किन्तु ‘जहाँ चाह है, वहाँ राह है’ के कहावत को मन में बिठा लिया था। अब कदम पीछे हटाने का सवाल ही नहीं उठता था। घर से एक छाता और फुल जैकेट से लैस हो कर निकल ही पड़े।
बेटे ने घर से निकलने के पूर्व बस स्टाप पर बस आने का समय देखा तो बतलाया कि दो मिनिट में बस आने वाली है। देखा तो सचमुच दो मिनिट के बाद ही बस आ गयी। बस स्टाप काँच का पूर्णतः बना था। बस आयी देखकर दंग रह गया। पास खड़े एक वृद्ध महाशय के लिए चढ़ने के लिए बस का पायदान फुटपाथ पर आकर तुरंत सट गया था। जिससे वह बगैर किसी सहारे के आसानी से बस में चढ़ गये। एक बच्चा ट्राली को लिए महिला आयी, वह भी उस ट्राली समेत उस पर सवार हो गयी।
हम लोग भी खाली सीट पर बैठ गये। बस में कोई कंडक्ट्रर नहीं था। बस ड्राइवर अपनी सीट पर बैठा था, वही टिकिट दे रहा था। कई यात्रियों के पास बने थे, वे ड्राइवर के पास लगी मशीन में अपना कार्ड खुद स्केन करते और सीट में जाकर बैठ जाते। बगैर टिकिट के कोई यात्री नहीं था। ना ही धक्कम धक्का, न ही लेट लतीफ। बेटे ने बतलाया कि यह लोकल रेल विभाग से जुड़ी बस सेवा है। इस रेल सेवा को ‘सबवे’ भी कहते हैं। पूरे शहर के कोनों को जोड़ती है। यह टोरेन्टो शहर में चलती है। इसे यहाँ टोरेन्टो ट्रांजिस्ट कमीशन या शार्ट में ‘टीटीसी’ कहते हैं। जिसका काम यात्रियों को गंतव्य स्थान तक पहुँचाने के साथ ही नजदीक लोकल-रेलवे प्लेटफार्म तक पहुँचाना होता है। आप एक बार कहीं से भी टिकिट लेकर बस या रेल दोनों से एक ही दिशा में सफर कर सकते हैं।
लोकल रेलवे स्टेशन पर जाकर देखता हूँ कि गेट पर एक किनारे एक काँच के केबिन के अंदर दो स्टाफ बैठा है, एक टिकिट दे रहा और दूसरा केवल नजर रख रहा है। उसके सामने रखे बाक्स में सफर करने वाले यात्री अपनी टिकिट डालकर प्लेटफार्म की ओर बढ़ जाते हैं फिर अंदर जाकर यात्री प्लेटफार्म में अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा करता है। घनी आबादी वाले शहर में जमीन के अंदर से ट्रेनें धड़ाधड़ दौड़ती हैं । देखने में रेल की पातें तो हमारे भारतीय रेलों के समान है। अंतर यह है कि पटरियों के इर्द गिर्द इतनी साफ सफाई है कि एक कागज का टुकड़ा भी नजर नहीं आता। न मल मूत्र विसर्जन की बास। प्लेट फार्म का तो कहना ही क्या। समय होते ही ट्रेन आ जाती है। चमचमाती धड़धड़ाती, खुलजा सिमसिम की तर्ज पर अपने आप दरवाजा खुलता और बंद होता है। लोग अंदर जाते हैं, बाहर निकलते हैं। कोई धक्का मुक्की नहीं, सब शांति से चढ़ते और उतरते हैं।
ट्रेन के अंदर साफ सुथरी चमचमाती कुर्सियाँ, फर्श और उसकी दीवारें। कैसे सम्भव होता होगा। कोई बाथरूम नहीं कोई लेट्रिन नहीं, पाँतों के इर्द गिर्द कोई गंदगी नहीं। बाथरूम की व्यवस्था कुछ चुनी हुई स्टेशनों में ही की गई है। गाड़ी यात्रियों के लिए रुकती और आगे बढ़ जाती है, एंजिन का और यात्रियों का काई शोर शराबा नहीं। दरवाजा बंद होता और फिर अपनी मंजिल की ओर बढ़ जाती। बड़ा अद्भुत लगा। स्वर्गीय आनंद की अनुभूति हुयी। हलाकि भारत में भी इसी तरह से देहली में मेट्रो लोकल ट्रेनें चल रही हैं पर यहाँ और वहाँ कुछ तो अंतर स्पष्ट दिखाई्र दे रहा था।
हमारा स्टेशन मिसिसौगा आ चुका था। हम लोग प्लेटफार्म से निकलकर बाहर सड़क पर आए, देखा मौसम की बूँदा-बाँदी चल रही थी। एक ही छोटे छाते में गौरव के साथ बारिश से बचता हुआ बस स्टाफ पहुँचा। वहाँ बस से कोथरारोड फिर डन्टास स्ट्रीट से हेन्सल सर्किल के लिए रवाना हुआ। आधा घंटे बाद उतरने के बाद लगभग दो फर्लांग पैदल चले बारिश लगभग रुक गयी थी। ‘‘जहाँ चाह, वहाँ राह है’’ कहावत सफल होती दिख रही थी, मंजिल तक पहुँच चुके थे।
सिद्धी विनायक मंदिर में यह कार्यक्रम था। वहाँ हम लोग निर्धारित अवधि से पन्द्रह मिनिट पूर्व ही पहुँच चुके थे। कार्यक्र्रम स्थल के बाहर व्यवस्थापकों की दो गाड़ियाँ ही नजर आयीं। हम दोनों आसपास आधा घंटे घूमने के बाद पुनः आए तो देखा बाहर गाड़ियों की कतारें लग गयीं थीं। समय की पाबंदी यहाँ देखने को मिली। आमंत्रित सभी लोग प्रायःआ गये थे। यह मंदिर दो मंजिला था ऊपर के तल में भव्य मंदिर था और नीचे तल में कार्यक्रम रखा गया था। हम दोनों कार्यक्रम चालू होने की हड़बड़ाहट में सीधे नीचे तल में चले गये जहाँ काफी लोग आ चुके थे।
भीड़ में घिरे सामने श्री सरन घई जी नजर आये,फ्रेंच कट सफेद डाढ़ी,लम्बी शेरवानी, चूड़ीदार पैजामा के साथ ही गले में मफलर पड़ा था। फेस बुक की फोटो ने एक दूसरे को पहिचाना। गले लगाकर स्वागत हुआ। अब हमारे सामने कनाडा में एक लघु भारत दिखाई दे रहा था। कोई पंजाब, यूपी, राजस्थान, हरियाणा, चंडीगढ़, गुजरात, बिहार, दक्षिण भारत, देहली आदि विभिन्न प्रान्तों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। विभिन्न भाषा भाषी होते हुए भी यहाँ सभी की हिन्दी भाषा ही थी। एक दूसरे से नमस्कार का चमत्कार चल रहा था। हलो हाय पूर्ण रूप से गायब था। सभी में कोई भाषाई मतभेद नहीं दिखाई दे रहा था। सभी खुलकर एक दूसरे से मिल रहे थे। नई पीढ़ी देखने में अंग्रेज जैसे लग रहे थे, पर जब उनकी जबान से शुद्ध हिन्दी के बोल फूटते तो अपना पन का सुखद आश्चर्य होता। सभी के मुख से ‘‘हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दुस्ताँ हमारा’’ का स्वर मानों गूँजता सुनाई पड़ रहा था। लगता था टोरन्टो में आज गाँधी का सच्चा भारत इकट्ठा हो गया है।
तभी माईक पर कार्यक्रम प्रारम्भ होने के पूर्व सभी लोगों को भोजन करने के लिए आमंत्रित किया गया। सभी एक लाईन में लग कर अपनी अपनी प्लेटों को लेकर खाने के व्यंजन परोसने लगे। खाने के व्यंजनों में वही हमारे भारतीय शाकाहारी व्यंजनों की बहार थी। केवल सलाद कुछ अलग हटकर दिखाई दे रही थी। भोजन के उपरान्त कार्यक्रम की शुरुआत हुई। मुंबई फिल्म नगरी से श्री संदीप नागपाल जी आए हुये थे। चूँकि उन्हें मंबई के लिए निकलना था, स्वागत सत्कार के बाद उन्हीं से कार्यक्रम की शुरुआत हुई।
कार्यक्रम में स्थानीय कवियों को सुनने की हमारी इच्छा पूरी हुई। उनकी रचनाओं में वही भारतीयता की सुगंध, सुख दुख , हमारी भारतीय संवेदनाएँ उभर कर आ रहीं थीं। अतिथि कवि होने से मुझे बड़े ही सम्मान से मंच पर आमंत्रित किया गया। करतल ध्वनि से सभी ने स्वागत किया और हमारे मुक्तक एवं दोहों को बड़े मनोयोग से सुना। मैं सरन जी के जन्म दिन व रिटायरमेन्ट पर लिखा एक काव्य अभिनंदन पत्र ले गया था उसे पढ़ा और उनको भेंट किया।
शहर टोरेंटो ब्राम्टन.........
शहर टोरेंटो ब्राम्टन, भारत का परिवेश।
हमको यह अनुभव हुआ, नहीं लगा परदेश।।
अनजाने इस देश में, अनजानी थी राह।
मिले आपसे खुश हुये, वर्षों की थी चाह।।
मैं परदेशी था यहाँ, अब अपनों के बीच।
गले मिले हमसे सभी,दिया प्रेम को सींच।।
प्रभु की कृपा अपार है, यहाँ दिखे भगवान।
अपनेपन की चाह से, यहाँ बनेे मेहमान।।
अनुरागी हैं सरन घई, खुशी हुयी भरपूर।
रिद्धि सिद्धि गणपति यहाँ, करें कष्ट सब दूर।।
पंद्रह जून की शुभ घड़ी, आती है हर बार।
जन्म दिवस पर आपको, खुशियाँ मिलें अपार।।
कलम हाथ में आपके, हरें जगत संताप।
हिन्दी की सेवा करें,सृजन शील हैं आप।।
विश्व हिन्दी संस्थान की, थाम रखी है डोर।
मोदी सूरज है उगा, अब हिन्दी का शोर।।
जीवन में यश आपका, बिखरे चारों ओर।
दिक् दिगन्त में आपको, मिले सफलता और।।
जीवन मंगलमय रहे, आनंदित परिवार।
करते मंगल कामना, हर कोने उजियार।।
चिन्ताओं से मुक्त हों, दुख हों सारे दूर।
सबकी मंगल कामना, सुख पायें भरपूर।।
जीवन के इस पर्व पर, नव जीवन की भोर।
हर्षित होते मित्र सब, हँसी खुशी का शोर।।
प्रभु से माँगें हम सदा, मिल जुल कर वरदान।
जीवन भर मिलता रहे, कीर्ति विजय सम्मान।।13
मनोज कुमार शुक्ल ‘‘मनोज’’
इस तरह सुनने सुनाने का कार्यक्रम लगभग पाँच घंटे तक चला। इसके अलावा मैंने कुछ और मुक्तक सुनाये। पन्द्रह बीस कवियों ने गजल, गीत, छंदों एवं मुक्त छंदों से कार्यक्रम में समां बांधा। कवियों में श्री भारतेन्दु श्रीवास्तव,श्री देवेन्द्र मिश्रा,श्री असर अकबर कुरेशी इलाहाबादी, श्रीमती सविता अग्रवाल, श्रीभगवतशरण श्रीवास्तव, श्री कुलदीप, श्रीमती सुधा मिश्रा, श्री राजमाहेश्वरी, श्रीनिर्मल लाल, श्री सुरेन्द्र पाठक, श्री पाराशर गौड़, श्रीमती मीना चैपड़ा, श्रीमती सरोजनी जौहर, श्रीमती राजकुमारी शर्मा, आदि कविगण थे। सभी अतिथि श्रेाताओं ने विभिन्न भावों की कविताओं का रसास्वादन किया गया। कार्यक्रम का संचालन स्वयं श्री सरन घई जी कर रहे थे। वातावरण को बोझिलता से बचाने वे बीच-बीच में हास्य परिहास से सबका मनोरंजन भी करते जा रहे थे।
उक्त कार्यक्रम के बीच मैंने अपने बेटे गौरव से दो बार चलने को पूँछा किन्तु रोचक कार्यक्रम को देखकर समापन के बाद ही चलने की इच्छा प्रगट की। सरन घई के आभार के बाद कार्यक्रम के समापन की घोषणा हुई। वहाँ पर श्री रिजवी जो कि एक सरकारी लायब्रेरी के इंचार्ज थे, उनसे मुलाकात हुई। श्री रिजवी जी यहाँ की सरकार द्वारा आयोजित वर्ष में एक मुशायरा एवं एक कविसम्मेलन के संयोजक हुआ करते हैं। उनको मैंने अपनी एक पुस्तक ‘संवेदनाओं के स्वर’पुस्तकालय के लिए भेंट की उन्होंने मुझे कार्यक्रम में आने का आमंत्रण दिया। यहीं पर हमारी भेंट टोरेन्टो के हिन्दी साहित्य सभा के अध्यक्ष श्री भगवत शरण श्रीवास्तव एवं कैलाश भटनागर जी से हुयी। इनकी संस्था का भी कार्यक्रम आमंत्रण मिला। इस सुखद मिलन एवं आत्मीय कार्यक्रम के समापन के पश्चात् हमने बिदाई ली।
यहाँ से रवानगी के पूर्व सिद्धी विनायक मंदिर के ऊपरी तल पर जाकर हम लोगों ने भगवान के दर्शन किये। मंदिर में राम, कृष्ण, विष्णु, लक्ष्मी, शिव, गणेश आदि सभी देवताओं की संगमरमरी भव्य एवं आकर्षक मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित की गईं थीं। हमारे धर्म संस्कृति में जिन तीज त्यौहारों पर जिन देवता का पूजनपाठ का विधान हैं, उनका उस समय यहाँ धूम-धाम से पूजन अर्चन का कार्यक्रम रखा जाता है ऐसा मंदिर पुजारी जी ने बताया। हम लोग जब दर्शनकर बाहर निकले तो मौसम की बूंदाबांदी हो रही थी। घई जी को जब मंदिर परिसर में आभार देकर, हम लोग चलने लगे तो उन्होंने बस स्टाप तक छोड़ने के लिए कहा किन्तु उनकी व्यस्तता देखते हुए हम दोनों ही पैदल बरसात का आनंद लेते हुए चल पड़े।
अभी कुछ दूर आगे बढ़े ही थे कि पानी की तेज बारिश देख घबरा गए। रास्ते में घई साहब के एक मित्र कार में बैठे हुए दिखे, सोचा उनसे बस स्टाप तक लिफ्ट माँग लँू। मैं गौरव के मना करने के बाद भी जा पहुँचा, तो उन्होंने पीछे की ओर इशारा करते हुए मुझसे कहा, कि ये छोड़ें तो मैं आपको बस स्टाप तक छोड़ सकता हूँ। देखा तो कुछ फासले पर पुलिस की कार खड़ी थी। उन्होंने उन्हें रोक रखा था।
मैं जब लौट कर बेटे के पास आया तो वह नाराज होकर बोला कि आप को मना किया था पर आप माने नहीं। पुलिस आपको को भी पकड़ सकती थी, उनका साथी समझकर। यहाँ कार चालक को यदि रोका जाता है तो वह अपनी सीट पर बैठा रहता है, गाड़ी को आगे पीछे मूव भी नहीं कर सकता। जब तक उसे जाने के लिए न कहा जाये। न वह बाहर उतर सकता है, न ही वह फोन करके किसी को बुला सकता है। यदि कोई पास आता है, तो उसे उसका मददगार समझ कर उसे अरेस्ट भी कर सकती है। तब मुझे उसके मना करने का सच समझ में आया। उसने कहा कि यहाँ की पुलिस ट्रेफिक नियम व कानून फाॅलो करवाने के लिए बहुत स्ट्रिक्ट है। हम लोग कार्यक्रम की यादों को याद करते हुए पैदल ही चल पड़े बस और ट्रेन का सफर करते हुए रात्रि घर वापसी हुयी।
7जुलाई 15 को हम सभी विश्व प्रसिद्व सी एन टावर को देखने गये। इसे कनेडियन नेशनल टावर भी कह सकते हैं। यह 533.33 मीटर ऊँचाई अर्थात् 1815.4 फीट है। कांकरीट से बना 1973-76 में रेलवे की भूमि में बना है। यह विश्व का 3 ऊँचाई वाला टावर है। टोरेन्टो शहर के दक्षिणी हिस्से में एक बड़ी झील के पास है। लगभग 114 फ्लोर हैं। वस्तुतः टीवी, रेडियो की संदेश वाहक तरंगों के प्रेषण हेतु इसका निर्माण कराया गया था। इसमें पर्यटकों के लिए ऊपर विशाल रेस्ट्रारेन्ट है, एलीवेटर के द्वारा ऊपर लोग जाते हैं।
काँच की गैलरी से मीलों दूरी तक शहर की खूबसूरती को निहारा जा सकता है। हार्ट पेशेंट व कमजोर दिल वालों के लिए इतनी ऊँचाई पर जाना खतरनाक हो सकता है। अतः श्री मती के मना करने पर हम बाहर से ही देख कर संतुष्ट हुए।1 जुलाई को कनाडा-डे पर और विभिन्न अवसरों पर जो इससे रंगीन मनमोहकआतिशबाजी की जाती है, वह देखने लायक होती है। वैसे भी यह सी.एन. टावर प्रतिदिन रात्रि के समय रंगीन रोशनी से नहाया रहता है।
रिप्लीज ऐक्यूरियम आफ कनाडा जिसे हम अपनी भाषा में मछलीघर कह सकते हैं। यह कनाडा का विशाल मछलीघर है। यह अभी 2013 में बन कर तैयार हुआ है। इस मछलीघर की यह विशेषता है कि यह विशाल क्षेत्रफल में फैला हुआ है। लगभग सोलह हजार से भी ज्यादा समुद्री प्रणियों को इसमें रखा गया है। विशाल पानी के टैंक को सामुद्रिक वातावरण स्थिति में परिवर्तित करने लिए आक्सीजन जल संशोधन सयंत्र को एक बड़े एरिया में स्थापित किया गया है। इसमें समुद्र में रहने वाली विभिन्न प्रजातियों की रंग बिरंगी मछलियों को उनको नैसर्गिक वातावरण में रखा गया है।
जैल प्रजाति की छोटी बड़ी मछलियों से लेकर बड़ी प्रजाति की व्हेल मछलियों तक को रखा गया है। व्हेल मछलियाँ काफी विशाल एवं खतरनाक होती हैं। यहाँ एक दो नहीं सैकड़ों की तादात में रखा गया है। लम्बे चैड़े काँच के सुरंग से गुजरते हुये आप इन्हें बड़े ही नजदीक से देख सकते हैं। जो कि अपने आप में बड़ा रोमांचकारी एवं विस्मयकारी होता है। समुद्र में पाई जाने वाली सैकड़ों अन्य मछलियों की दुर्लभ प्रजातियाँ भी रखी गईं हैं। यह विश्व का अनूठा मछलीघर है। जिसे देखने को दूर दूर से लोग आते हैं। एक व्यक्ति की टिकिट तीस डालर है। सीनियर सिटीजन के लिए 20 डालर की टिकिट है। मछलीघर देखने के लिए रिजर्वेशन पहले से करवाना होता है। उसमें प्रवेश का समय एवं तिथि का उल्लेख होता है।
मैं मछलीघर में इतनी प्रकार की मछलियों को देखकर तो दंग रह गया। रंग बिरंगी मछलियों को देखते ही बनता था। जैल मछली के तों कहना ही क्या हर समय में अपना रंग बदलतीं थीं। बारीक कपड़े सी महीन हम उसमें मांसलता की खोज ही नहीं कर सकते। कहते हैं कि इतनी पारदर्शी बारीक यह मछली उतनी ही खतरनाक होती है, मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। उसके सपर्श मात्र से छाले पड़ जाते हैं व जलन होने लगती है। सभी काँच की विशालकाय लगभग 30-35 फीट की दीवारों के अंदर स्वतंत्र रूप से विचरण करती हुईं दिख रहीं थीं। घोड़े जैसी दिखने वाली मछली तो अपने आप में विचित्र थी। समुद्र में पानी के अंदर उगने वाले पौधों की तरह दिखने वाली विचित्र मछलियों को भी देखने का अवसर मिला।
18 जुलाई 2015 को ‘‘फेस्टिवल आफ इंडिया’’ में भाग लेने का एक सुनहरा अवसर मिला। हम लोग सपरिवार कार्यक्रम बना चुके थे। नन्हें वेदांश को चार चके की ट्राली में बैठालकर सभी बस व ट्रेन की सफर करते हुए वहाँ जा पहुँचे। बताया गया कि यह उत्सव प्रति वर्ष ‘हरे कृष्णा सेंटर’ द्वारा दो दिवसीय आयोजित होता है। ‘लेक ओंटोरियो’ के बीचों बीच चारों ओर पानी से घिरे एक बड़े टापू में आयोजित होता है। पानी-जहाज की टिकिट के लिए लोगों की लम्बी लम्बी कतारें नजर आ रहीं थीं। भारी संख्या में भारतीयों और विदेशियों का जमावड़ा हो रहा था। अठारह एवं उन्नीस को यह दो दिवसीय कार्यक्रम था। ‘जगन्नाथ रथ यात्रा उत्सव’ के नाम से उस टापू में अनेक स्वयं सेवी संस्थाएँ खाने पीने की फ्री सेवा उपलब्ध करा रहीं थीं। आपसी सद्भाव व सहयोग की भावना बेमिसाल देखने को मिली। पंजाबी, गुजराती, दक्षिण भारतीय संस्थाएँ बड़े स्नेह प्यार से सबको खिला पिला रहे थे। मानों लगता था कि उन सभी में पुण्य लूटने की होड़ मची है, किसी भी हालत में यह मौका नहीं गवाना चाहते थे। इसमें लगता था काफी होटल व्यवसाय से जुड़े लोग थे, तभी तो उनके पास बड़े बड़े गंज कढ़ाहे बर्तन दिखाइ्र्र दे रहे थे।
जगह-जगह कृष्ण की नृत्य नाटिकाएँ चल रहीं थीं। विदेशी सैलानियों की उपस्थिति भी ज्यादा थी, इस वजह से कार्यक्रम में अंग्रेजी कामेन्ट्री द्वारा उन्हें हमारी संस्कृति, अध्यात्म और धर्म दर्शन से अवगत कराया जा रहा था। लोग बड़े ही इंट्रेस्ट के साथ ये सब देख रहे थे। धार्मिक साहित्य के स्टाल लगे थे। अंग्रेजी में लिखी गीता भागवत किसी न किसी देशी विदेशी के हाथों में अवश्य दिखलाई पड़ जाती थी। हम लोगों ने भी वहाँ जाकर सपरिवार खूब इंन्जवाय किया। भगवान जगन्नाथ स्वामी के दर्शन किये। उस टापू पर बने विशाल गार्डन और जगह जगह रंगीन फवारे को देख कर आनंद उठाया। हरियाली ही हरियाली थी। समुद्र के किनारे रेत में घर बनाने का आनंद उठाया। श्री कृष्ण की नृत्य नाटिकायें देखीं, जिसमें देशी विदेशी कलाकारों का दल प्रदर्शन कर रहा था। उनकी भाव भंगिमा, मेकअप,डायलाक डिलेवरी को देखकर तीव्र उत्सुकता मन में मचल रही थी। यहाँ पर पूर्व में मिल चुके वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. देवेन्द्र मिश्र जी का फोन आया उन्होंने हनुमान मंदिर में स्वामी मोहनदास सेवा समिति द्वारा ब्राम्टन में एक कविसम्मेलन के आयोजन के बारे में बताया और आने का निमंत्रण भी दिया।
वापसी में पानी के जहाज से टोरेन्टों शहर का भव्य नजारा देख रहा था। यह झील समुद्र के समान विशाल नजर आ रही थी। सामने भव्य बहुमंजिला इमारतों की शंखला नजर आ रही थी। उसके साथ ही सामने टोरेन्टो का विशाल गगन चुंबी टावर जो कि 533.33 मीटर ऊँचा कंक्रीट से बना कम्युनिकेशन एवं आॅब्जर्वेशन के लिये स्थापित किया गया था, नजर आ रहा था। 1976 में बना यह टावर लगातार 32 सालों तक अर्थात 2007 तक दुनिया का सबसे ऊँचा फ्री -स्टैन्डिग स्ट्रक्चर था जो कि अब विश्व में तीसरे स्थान पर गिना जाने लगा है। इसे देखने के लिए हर साल बीस लाख से अधिक लोग आते हैं। सी.ए. का अभिप्राय कैनेडियन नेशनल टावर से है जो कि रेलवे ने बनवाया था। अब यह एक स्वतंत्र संस्था संचालित करती है। शाम को जहाज से सम्पूर्ण तट का मनोहारी दृश्य नजर आ रहा था। यहाँ से तट पर विशाल मछलीघर भी दिखाई दे रहा था। रात्रि को काफी समय के बाद घर वापसी हुयी।
इंटरनेट की एक साहित्यक पत्रिका वसुधा यहाँ से निकलती है। जिसे स्नेहा ठाकुर निकालती हैं एक बार जानकी रमण कालेज जबलपुर में उनसे मुलाकात हुयी थी उनका जबलपुर मायका था तो स्वाभाविक है कि उनकी शिक्षा दीक्षा यहीं की रही। श्री मती साधना उपाध्याय ने उन्हे पढ़ाया था। संयोग से उनका कार्ड मेरे पास था। फोन किया तो बहुत ही खुश हुयीं गौरव व मेरे से आधे घंटे तक बातचीत हुयी और घर पर आने का आमंत्रण मिला। उसी क्रम में श्री सुमन घई साहब से बातचीत हुयी इनकी इंटरनेट पत्रिका ‘साहित्य सुधा’ लोकप्रिय है जिसमें सैकड़ों साहित्यकार लेखकों को शामिल किया गया है उसमें मेरी भी रचनाएँ हैं। दूर होने के कारण मिलना कठिन लग रहा था। भविष्य में किसी कार्यक्रम में आकस्मिक मुलाकात ही आशा का विकल्प रह गया था। श्री समीर लाल जी से बातचीत हुयी जो कि जबलपुर के ही थे, अब वहाँ बस चुके हैं।
कल पन्द्रह अगस्त था, गौरव ने कहा पापाजी आपको कल यहाँ का पंद्रह अगस्त दिखाने के लिए ले चलेंगे। सुबह से डेन्टास इस्क्वायर में यह कार्यक्रम होता है काफी भारतीय समुदाय के लोग इकट्ठे होते हैं। सभी मिलकर पहले रैली निकालते हैं फिर स्टेज पर कलाकार अच्छा रंगारंग कार्यक्रम करते हैं। मेरा डेन्टास इस्क्वायर तक घूमना प्रायः होता ही रहता था। यह बाजार के बीचों बीच एक बड़ा खुला एरिया था। चारों ओर बड़ी ऊँची-ऊँची बहुमंजिला इमारतें और उन इमारतों में बड़े-बड़े विज्ञापन की फिल्म प्रदर्शन के लिए स्क्रीनें लगीं हुयीं थीं। उनमें दिनभर कुछ न कुछ दिखाया जाता था। जिससे वहाँ चहल-पहल और रौनक बनी रहती थी। पाँच दिशाओं की ओर जाती साफ-सुथरी सड़कें, सामने पाँच छै मंजिलों का विशाल माल सेन्टर पास ही लोकल रेलवे स्टेशन और बस स्टाप का साधन था।
इस खुले एरिया में एक ओर ओपन स्टेज बना था। यहाँ कुछ न कुछ कार्यक्रम होते ही रहते थे , कभी नृत्य,संगीत तो कभी गानों के। दर्शकों के आस पास रंगीन फुहारों के बीच यह सब देखना बड़ा आनंद दायक लगता था। मैं बेसब्री से आने वाली सुबह का इंतजार करता रहा। दूसरे दिन सुबह उठकर श्रीमती जी एवं बहू रोशी ने नाश्ता तैयार कर लिया था। नहा धोकर नास्ता किया और फिर सभी जा पहुँचे वहाँ, डेंटास चैराहे में।
चारों दिशाओं से भारतीय लोगों के आने का निरंतर क्रम चल रहा था। तिरंगे कलर में ‘‘इंडिया डे फेस्टिवल 2015 ’’के बैनर चारों ओर सजे हुए थे। बीच बीच में स्टेज से हिन्दी-अंग्रजी में इनाउन्समेंट हो रहा था। रैली के लिए लोग इकट्ठा हो रहे थे, अपने-अपने प्रदेश की पारंपरिक पोषाकों के साथ। भारत सरकार के प्रधान कौंसल जनरल श्री अखिलेश मिश्रा सपत्नीक उपस्थित थे। वहाँ के मेयर जाॅन टाॅरी और सांसद आदि देशी विदेशी मेहमान भी थे। बैंन्ड बाजे के साथ ही कई महिलाएँ मंगल कलश लिए खड़ीं थीं। दस पन्द्रह हजार से भी ज्यादा नर नारी और बच्चों का जन सैलाब उमड़ पड़ा था,
अपने-अपने हाथों में तिरंगा लिए हुए। पतांजलि योग पीठ, ब्रम्हाकुमारी आश्रम, जम्मू एंड कश्मीर शारिका फाउन्डेशन, तेलंगा-कनाडा एशोसिएशन, पंजाब, उत्तर प्रदेश, नृत्यकला मंदिर, मयूर कला डाॅन्स एकादमी, केरला एशोसिएशन, गुजराती गरबा टीम, नूपुर म्यूजिकल एवं डान्स स्कूल, कानन भट्ट ग्रुप, रामा डान्स एकेडमी, अफसाना डान्स ग्रुप, हरियाणा डान्स ग्रुप, स्पदंन कला आदि अपने-अपने बैनरों के साथ काफी संख्या में बाल-बच्चे, नर-नारी आ गये थे। भारत के किसी राजधानी में होने वाले हमारे इस राष्ट्रीय त्यौहार का अहसास करा रहे थे। जगह-जगह तिरंगे झंडे,टोपी की दुकानें तो कहीं कहीं नास्ते के स्टाल लगे हुए थे। जलूस तैयार था लोगों के हाथों में संस्थाओं के बैनर नजर आ रहे थे। अपने बैनर लिए बैंड बाजों के साथ अपनी पारंपारिक परिधानों में सभी उत्साह और जोश से लबरेज थे। छः सात हजार लोगों का जलूस तीन चार किलोमीटर का चक्कर लगा कर पुनः उसी स्थान पर लौट आया।
विदेशी अतिथियों ने मंच से अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में भाषण दिया तो सबने दिल खोलकर तालियाँ बजाईं। कार्यक्रम में योगा का प्रदर्शन, देश भक्ति के हिन्दी गाने और भारतीय लोक-नृत्य एक से बढ़कर एक कार्यक्रम देखने सुनने को मिले। जिसे देखकर हर हिन्दुस्तानी का सीना गर्व से फूल गया। विदेशी मेहमानों को भी हिन्दी राष्ट्रीय गानों में थिरकते हुये देखा। उक्त अवसर पर एक सोवेनियर का भी विमोचन हुआ ओर बटी, जिसमें हमारे अप्रवासी भारतीयों की उपलब्धियाँ एवं योगदान का उल्लेख किया गया था। इस तरह हम लोग भाव विभोर हो शाम तक पंद्रह अगस्त के कार्यक्रम का आनंद लेते रहे।
बस इस कार्यक्रम में एक बात कचोटती रही कि स्थल के उस पार किनारे दस बीस मुसलमान भाई व सिक्ख भाई विरोध के नाम पर हाथों में बैनर लिए जो कि कश्मीरी आजादी और खालिस्तानी समर्थक गद्दार दिखाई दे रहे थे, वे मनहूस नारे लगाते दिख रहे थे। लोग इनको एक बार सरसरी तौर पर उपेक्षा भरी नजरों से देखते फिर अपने उत्सव में खो जाते। यहाँ कनाडा पुलिस बड़ी चैकस दिख रही थी।
‘अखिल विश्व हिन्दी समिति’ का वार्षिक कार्यक्रम 17 अक्टूबर 2015 को ‘विश्व कवि सम्मेलन’ के नाम से सिंधी गुर मंदिर क्वीन पलाटे ड्राइव में था। यह संस्था विश्व के अनेको देशों में है। कनाडा में इसके अध्यक्ष श्री गोपाल बघेल मधु जी हैं, उनका सादर आमंत्रण मिला। हम सपत्नीक बेटे गौरव के साथ उक्त कार्यक्रम में गये। वहाँ अनेक साहित्यकारों से मुलाकात हुयी।
वहाँ भोजनोपरांत हमारा विशेष रूप से लखनउ से पधारे मुख्य अतिथि डा. दाउ गुप्त एवं आगरा से डा. भगवान दास जी से सुखद मुलाकात हुयीं। डा. दाउ गुप्त उन विभूतियों में से हैं जो अखिल विश्व हिन्दी समिति एवं अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति नई देहली के प्रमुख अध्यक्ष हैं। वे काफी वरिष्ठ हैं फिर भी प्रतिवर्ष विदेशों में जा जाकर हिन्दी की अलख जगाने का काम कर रहे हैं।आप लखनउ के मेयर भी रह चुके हैं। साहित्य एवं मानस मर्मज्ञ हैं । अभी तक जितने भी विश्व हिन्दी सम्मेलन हुये हैं,उनमें आप की सभी में उद्बोधन, सुझाव की भागेदारी अवश्य रही है।
एक बार तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 28 अक्टूबर 1983 जिसका उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्द्रागांधी जी ने किया था। उसमें कुछ विवाद हो जाने पर सम्मेलन से असन्तुष्ट देशी-विदेशी प्रतिनिधियों के आग्रह पर इन्होंने ही समानान्तर विश्व हिन्दी सम्मेलन की अघ्यक्षता भी की थी। गुप्त परिवार हिन्दी के प्रति समर्पित है,यू.के.में पद्मेश गुप्ता,नई देहली से प्रवीण गुप्ता तो उत्तर प्रदेश से रत्नेश गुप्त सौरभ की कमान सम्हाले हुये हैं।
इनकी सौरभ ऐसी पत्रिका है कि जो भारत एवं न्यूयार्क से भी निकलती है। न्यूयार्क से यह अनेकों देशों तक अपनी हिन्दी की सुगंध निरंतर पहुँचाती आ रही है। उन्होंने वह पत्रिका के दो अंक मुझे भेंट किए। इस कार्यक्रम में उनका उद्बोधन वाकई गजब का था। सभी मंत्रमुग्ध हो सुनते रहे। कार्यक्रम का संचालन डा.गोपाल बघेल जी ने किया। कनाडा से एकत्रित हुए सभी साहित्यकारों ने भाग लिया। कार्यक्रम में कनाडा की सांसद क्रिस्टी मुख्य अतिथि रहीं और भारत सरकार के कौंशल कार्यालय से उप कौंशल अधिकारी आये हुये थे। सभी रचनाकारों ने अपनी सुंदर सुंदर रचनायें सुनाईं। मैंने कार्यक्रम में पधारे सभी मुख्य अतिथि महानुभावों का स्वागत भाषण पद्य में सुनाया तो सभी ने वाह वाही की और प्रसंशा की।
अखिल विश्व हिन्दी समिति एवं अन्तर्राष्टीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के टोरेन्टो कनाडा में कार्यक्रम संयोजक श्री गोपाल बघेल मधु द्वारा विश्व हिन्दी कवि सम्मेलन का आयोजन मुख्य अतिथि भारतीय कोंसिलाधीश श्री राजेन्द्र कुमार रैना एवं कनाडा सांसद श्री किष्टी डंकन एवं विशेष अतिथि डाॅ. दाउजी गुप्त लखनउ एवं डाॅ भगवान शर्मा आगरा के आतिथ्य में दिनांक 17अक्टूबर 2015 को सम्पन्न हुआ। मैंने उक्त अवसर पर एक कविता कार्यक्रम पर बनाकर सुनाई जिसे सभी ने सराही।
अखिल विश्व हिंदी समिति......
अखिल विश्व हिंदी समिति,उसका वंदन आज।
कवि सम्मलेन कर रहा, हिन्दी पर है नाज।।
टोरेन्टो इस शहर में, हिन्दी का यशगान।
वतन दूर फिर भी बसा, दिल में हिंदुस्तान।।
नौ रात्रि का पर्व है, सजा है वंदनवार।
नत मस्तक हैं हम सभी, स्वागत बारम्बार।।
गुरु मंदिर में है लगा, कवियों का दरबार।
सभी अतिथि श्रोताओं का, करते हैं सत्कार।।
मुख्य अतिथि राजेन्द्र जी, ज्ञानवान सरताज।
सांसद क्रिस्टी डंकन जी, पर है सबको नाज।।
लखनउ शहर से दाउ जी, हम सबकी हैं शान।
आगरा से भी आये, डाॅ शर्मा भगवान।।
विशेष अतिथि के रूप में, सभी बने मेहमान।
उनको पा कर हम सभी, पुलकित हैं श्रीमान।।
हाथ जोड़ स्वागत करें , फूलों से सत्कार।
दूर दूर से अतिथिगण, आये हैं इस बार।।
संयोजक गोपाल मधु, आयोजन की जान।
जिनकी मेहनत से हुआ, हिन्दी का जयगान।।
आत्मीयता से हर घड़ी, मिलते सदा जनाब।
मृदुभाषी गोपाल जी, जिनका नहीं जवाब।।
आभारी हैं आपके, उत्सव रचा कमाल।
आमंत्रित हम कविगण, हुए सभी खुशहाल।।
विश्व क्षितिज में छा गयी, हिन्दी अब तो आज।
मोदी ने भी रख दिया, उसके सिर पर ताज।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’
17 अक्टूबर 2015
बाद में कवि सम्मेलन में भी भाग लेने का सुखद अवसर मिला। इस कार्यक्रम में शैलजा सक्सेना से जो कि हिन्दी राइटर गिल्ड की संस्थापिका एवं निर्देशिका हैं, उनसे भी मुलाकात हुई। उन्होंने 12 सितम्बर 15 को हिन्दी दिवस पर आने का निमंत्रण दिया।
जगन्नाथ यात्रा फेस्टिवल में मुझे श्री देवेन्द्र मिश्रा जी के द्वारा फोन पर एक बृहद कवि सम्मेलन की जानकारी एवं आमंत्रण मिल चुका था। श्री देवेन्द्र मिश्रा जी यहाँ के एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं,इस कार्यक्रम के संयोजक एवं संचालन कर्ता थे। हनुमान मंदिर में स्वामी मोहनदास सेवा समिति द्वारा कवि सम्मेलन रखा गया था। ट्रेन एवं दो बसों को बदल कर लगभग छै घंटे की यात्रा के बाद ब्राम्टन के उस हनुमान मंदिर में पहुँचा। उसमें श्री सरन घई,भगवत शरण श्रीवास्तव, श्रीमती सुधा मिश्रा, हर भगवान शर्मा, संदीप त्यागी,श्रीमती राजकश्यप, सुरेन्द्र पाठक,अनिल पुरोहित, पाराशर गौर, राकेश तिवारी, सम्पादक हिन्दी टाईम्स, गोपाल बघेल मधु, श्री मती तारावाष्णेय, ग्यानेश पालीवाल, निर्मल सिद्वू, रवि पाहूजा, श्रीमती दीपिका धरमेला आदि से मुलाकात का सुखद संयोग पुनः मिला।
इस कार्यक्रम की विशेष बात यह थी कि वहाँ के साहित्य जगत के वरिष्ठ भीष्मपितामह श्री श्याम त्रिपाठी जी से मेरी मुलाकात हुयी। आप हिन्दी चेतना पत्रिका के संरक्षक एवं प्रधान संपादक हैं जो कि यहाँ से तो निकलती है कई देशों तक जाती है। दूसरी बात यह है कि भारत में सिहोर भोपाल से सम्पादक श्री पंकज सुबीर जी कमान सम्हाले हुये हैं। भारत में भी इस पत्रिका की काफी चर्चा है।
हिन्दी प्रचारणी सभा कैनेडा की त्रैमासिक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका काफी चर्चित है। सुंदर आकर्षक मुद्रण, देशी विदेशी लेखकों एवं उत्कृष्ट पेपर में छपी लगभग 80 पृष्ठीय यह पत्रिका बरबस अपना ध्यान खींच लेती है। इसमें हमारे जबलपुर नगर के श्री संजीव सलिल जी की रचना दिखी। यह पत्रिका अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका के रूप में अपनी बड़ी पहचान बना चुकी है। यहाँ का कार्यक्रम हमारे लिए एक यादगार रहेगा। भोजनोपरांत कवि सम्मेलन हुआ। कार्यक्रम बड़ा सुखद एवं अच्छा रहा। सभी आमंत्रित कवियों को गिफ्ट दिया गया था। शाम काफी हो चुकी थी और कई घंटे का सफर था। उक्त कार्यक्रम के मुख्य अतिथि महोदय अपने कार से मुझे टोरेन्टों के बस स्टाप तक छोड़ गये थे जो कि कार्यक्रम स्थल से आधे घंटे का सफर था। अंधेरा छा चुका था वहाँ से मुझे तुरत बस मिल गयी। बस से रेल का सफर किया फिर बस से घर देर रात्रि को पहुँचा।
उस कार्यक्रम में श्रीमती राजकश्यप से मेरी एवं श्रीमती की मुलाकात हुयी। उनकी ‘‘काव्य संगम ’’पुस्तक का विमोचन गांधी जयन्ती पर 10 अक्टूबर15 को लक्ष्मी नारायण मंदिर में होने वाला था। इस तरह एक और कार्यक्रम का आमंत्रण मिल गया था। इस तरह एक अवसर और मिला। इस कार्यक्रम में काफी लोग पधारे थे।
कनाडा के कौंसलाधीश भी पधारे थें उन्होंने हिन्दी में भाषण देकर सभी की तालियाँ बटोरीं। मंदिर बड़ा स्वतंत्र एरिया में बना था। बड़ा हाल था। श्रीमती राजकश्यपजी को बधाई देते हुये मैंने उनके सम्मान में एक रचना पढ़ी। बाद में एक रचना और सुनाने का अवसर मिला। यहाँ पर हमने अपनी पुस्तके भी राज जी को भेंट की कहानी संग्रह ‘‘एक पाव की जिंदगी’’ और काव्य संग्रह ‘‘संवेदनाओं के स्वर’’श्री मति राजकश्यप जी को सादर समर्पित की फिर उनके सम्मान में कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत कीं जो इस प्रकार थीं।
टोरेन्टो में फिर बढ़ा.....
टोरेन्टो में फिर बढ़ा, हिन्दुस्ताँ का मान।
इस मंदिर में गूँजता, हिन्दी का यशगान।।
हिन्दी का यह कुम्भ है, देख रहा हॅँू आज।
गंगा में स्नान का, पुण्य लूटतीं राज।।
अतिथि महोदय का सभी,हम करते सत्कार।
प्रभु के चरणों में लगा, कवियों का दरबार।।
काव्य विमोचन हो रहा, कवियत्री हैं राज।
मंगलमय शुभकामना, देते हैं हम आज।।
सृजन शील हैं राजजी, संवेदित मन साथ।
स्मृतियाँ मन में संजो, थामे प्रिय का हाथ।।
सरल हृदय की हैं धनी, माँ वीणा का साथ।
प्रभु चरणों में है लगन, झुका हुआ है माथ।।
मृदुभाषी हैं राज जी, जो मिलते कम आज।
आमंत्रण पर हम सभी, आभारी हैं राज।।
श्रीमती राजकश्यप की पुस्तक ‘काव्य संगम’ का विमोचन कार्यक्रम भी बड़ा था। यह कार्यक्रम हिन्दू सांस्कृतिक संस्था स्कारबरो एवं लक्ष्मी नारायण गोल्डन ग्रुप के द्वारा आयोजित था। मंदिर के भूमिगत कक्ष में कार्यक्रम रखा गया था। उस कार्यक्रम में हम सपरिवार उपस्थित हुये। गांधी जयन्ती पर पहले गांधी की प्रार्थना सभा में गाये जाने वाले भजनों को प्रस्तुत किया गया। यहाँ काफी लोगों की उपस्थिति रही कार्यक्रम ‘हिन्दी साहित्य समिति ’ के बैनर तले रखा गया था। जिसके अध्यक्ष श्री भगवत शरण श्रीवास्तव थे। यहाँ डा.भारतेन्दु श्रीवास्तव एक जाना पहचाना नाम है काफी कुछ लिखा है।
भारत में ‘साहित्य क्रांति’ गुना मध्यप्रदेश से निकलने वाली एक साहित्यक पत्रिका है। कनाडा में डा.भारतेन्दु श्रीवास्तव एवं दीप्ती कुमार देखते हैं। अमरीका, इंग्लैंड,जर्मनी,त्रिनाड,अबूधाबी,नेपाल,मारीशस में यह अपनी पहचान बना चुकी है। यह पत्रिका पुस्तक प्रकाशन का कार्य भी कर रही है। जिसमें डा.भारतेन्दु श्रीवास्तव की अनेक प्रकाशित पुस्तकांे का उल्लेख दिया गया था। इस पत्रिका में मुझे नगर के गार्गीशरण मिश्र एवं आचार्य भगवत दुबे की रचनाएँ छपी दिखीं। एक विशेष बात यहाँ देखने को आयी कि यहाँ के रचनाकारों में आज भी हमारे गौरव पूर्ण इतिहास के चक्रवर्ती राजा चन्द्रगुप्त मौर्य मुख्य रूप से रचनाकारों के बीच में छाए हुए हैं जबकि भारत में तो आज वह इतिहास के पन्नों में दब कर रह गए हंै।
लक्ष्मी नारायण मंदिर एक बड़ा मंदिर है। यहाँ बराबर कार्यक्रम चलते रहते हैं। हिन्दुओं के हर उत्सव को बड़े घूम धाम से मनाया जाता है। उत्सव में संगीत और गायकी का बराबर ध्यान रखा जाता है। यहाँ पर श्री महेश नंदा जी से मेरी मुलाकात हुयी। ये चंडीगढ़ के रहने वाले गजल लिखते हैं, इन्होंने जबलपुर में आदिवासी मिशन का उल्लेख किया। शायद उनका परिवार ही इस सेवा कार्य को कर रहा है।बनवासी आश्रम चलाने वाली संत ज्ञानेश्वरी दीदी को याद करते हुये बताया कि आप उनसे अवश्य मिलियेगा।
न्याग्राफाॅल जो कि विश्व का विशाल जलप्रपात माना जाता है। एक रविवार सपरिवार हम लोगों ने कार्यक्रम बनाया। विभिन्न बसों फिर एक विशेष डबल डेकर ट्रेन में सवार होकर नवजात को चाईल्ड ट्राली में लेकर रवाना हुए। रास्ते में अनेक सुंदर स्टेशनांे, प्राकृतिक दृश्यों को निहारते, रास्ते में अंगूर की खेती को देखते हुए न्याग्राफाॅल जा पँहुचे। यह न्याग्रा नदी अमेरिका और कनाडा की जीवन दायनी नदी है। नदी की दूसरी ओर अमेरिका देश की बार्डर है तो इस पार कनाडा की। दोनों के बीच में एक पुल है जो कि सेतु का काम करता है। दोनों देश वासियों के आने जाने के रूप में उपयोग होता है। आने जाने के लिए बीसा तो जरूरी है। न्याग्राफाॅल पर्यटन स्थल के रूप में दोनों देशों ने अपने अपने भूमि पर विकसित किया है। न्याग्राफाॅल कनाडा की भूमि में है और दो अन्य जलप्रपात अमेरिका की भूमि पर है। अनेकों होटल, रेस्ट्रारेंट और विशाल लम्बे क्षेत्र में फैला पार्क बरबस सबको अपनी ओर खींच लेता है।
न्याग्रा नदी के चौड़े पाट में दोनों देश अपने-अपने बड़े-बड़े पानी जहाजों के साथ अपने-अपने पर्यटकों को घुमाते नजर आते हैं। और लाल, हरे प्लास्टिक बरसाती पहनाकर जलप्रपात के पास तक ले जाते हैं। जलप्रपात से हवा में उड़ते पानी के कण सबको भारी वर्षा का अहसास करा जाता है। आसमान में उभरे बड़े इन्द्रधनुष वर्षा ऋतु के आगमन का संकेत देते दिखाई पड़ जाते हैं। आकाश में थोड़ी ही देर में बादलों का आकार उभरता है और बारिस करके सबको भिगो जाता है। बारिस से बचने पर्यटक लोग यहाँ वहाँ भागते नजर आते हैं।कई पर्यटक रंग बिरंगी छतरियों के साथ या फिर बेमौसम बरसात का लुत्फ उठाते नजर आते हैं। जलप्रपात की विशालता और भव्यता इसी बात से आँकी जा सकती है।
पानी के जहाज पर जाने के लिए या यों कहें नदी के सतह तक जाने के लिए लिफ्ट,घुमावदार स्लोप के द्वारा जाया जाता है। कनाडा और अमेरिका दोनों देशों का आपसी सामन्जस्य देखकर बड़ी खुशी हुयी। दोनों देशों के पर्यटकों से न्याग्राफाॅल हमेशा गुलजार रहता है। कनाडा के पर्यटकों का रंग लाल बरसाती तो अमेरिका के पर्यटकों का रंग हरा इससे दोनों देशों के पर्यटकों एवं नावों की पहचान आसानी से हो जाती है। जहाज जब जलप्रपात तक जाता है तो वे क्षण कितने रोमांचकारी और अविस्मरणीय होते हैं उसका वर्णन करना असंभव है। यहाँ भी सी.एन टावर की तर्ज पर स्काईलोन टावर है। हरी भरी हरियाली के साथ रंग बिरंगे फूलों की बहार चारों ओर दिखलाई पड़ती है।
रैलिंग का सहारा लेकर मैं सोच रहा था कि पड़ोसी देश हो तो ऐसा। आपसी सौहार्द और सामंजस्य का इससे बड़ा और क्या उदाहरण हो सकता है। एक जमाने में दोनों उपनिवेशवाद के शिकंजे में पराधीन थे। अंगे्रजों से मुक्त होते ही आपसी सौहार्द से सीमाओं का बटवारा हो गया। अपनी अपनी विरासत,संस्कृति, सभ्यता और अस्मिता को लेकर प्रगति और विकास के पथ पर चल पड़े। शोषण और शोषकों से मुक्ति पाकर उन्मुक्त भाव से आजादी के मूल भाव में तिरोहित होकर एक संकल्प ले चल पड़े और निरंतर आगे बढ़ते रहे। तब जाकर आज इस मुकाम पर पहुँचे हैं
एक हमारा भारत है जो आजादी के बाद हमारे ही देश के एक वर्ग की अलगावादी सोच के आगे हमने घुटने टेके और बटवारा कर देने के बाद भी उनको संतुष्ट नहीं कर पाए हैं। उनकी बस सत्ता लोलुपता विस्तारवादी धर्मान्धता ने शांति प्रिय भारत के विकास में सदा रोड़े ही अटकाए हैं। आजादी के सत्तर वर्षों के बाद भीे लगातार युद्ध, घुसपैठ, आतंकवाद, विस्तारवादी नीति के दंश को लगातार झेलते आ रहे हैं। उनके अंदर की दुश्मनी और धर्मान्धता ने ऐसे पैर पसारे कि हमारे ही देश में आस्तीनों के साँप अब फन उठाकर आज हमीं को फुफकारने लगे हैं। वहीं दूसरी ओर हमारे देश को अपनीे सीमाओं की सुरक्षा करना एक चुनौती भरा कार्य लगने लगा है। तभी हमारे बेटे गौरव ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर हमारी विचार तंद्रा पर विराम लगा दिया। फिर हम इन दो देशों आपसी सामन्जस्य और विकास की हरी भरी कहानियों में खो गये। शाम का धुंधलका गहराने लगा था, यहाँ रुकने का कतई विचार नहीं था। अतःसुनहरी यादों को संजोये घर वापसी की ओर हम सभी चल पड़े।
हमारे देश के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की स्मार्ट सिटी योजना का श्री गणेश हो चुका था। यहाँ के जागरूक नागदिक और चुस्त प्रशासन को देखते हुये हमें अपने देश की याद आ गई। क्या दोनों देशों को देखते हुए यह संभव है?क्या प्रशासन और नागरिकों में इतनी जागरूगता नजर आती है? तब लगा प्रशासन की भागेदारी के साथ साथ नागरिको की जागरूकता भी जरूरी है। मेरे मन में जो स्मार्ट सिटी के बारे में विचार आये उन्हे काव्यात्मक शैली में यहाँ दे रहा हूँ।
स्मार्ट सिटी स्मार्ट से....
स्मार्ट सिटी स्मार्ट से, बनती है श्री मान।
जागरूक जनता उसे, देती है पहिचान।।
नगर निकायें सुस्त जब, जनता होती त्रस्त।
घर बाहर की स्वच्छता, सभी दिशा में ध्वस्त।।
जनादेश कुछ भी रहे, इनकी पकती दाल।
जन हित के हर काज में, यही खींचते खाल।।
कूड़ा करकट फेंककर, रखा स्वच्छ घर द्वार।
बाहर की किसको फिकर, लगा रखा अम्बार।।
पीट ढिढोंरा हर गली, सिर पर पहने ताज।
बंद कमरों में कर रहे, सभी घिनौने काज।।
राजनीति रग रग बसी,जनहित कारज भूल।
यही हमारे देश का, बना हुआ है शूल।।
अधिकारों के वास्ते, लड़ते हैं नित लोग।
कर्तव्यों को भूलकर, चाहें मोहन भोग।।
प्रदूषण संकट है बढ़ा, जल थल नभ आकाश।
जीवन मुश्किल में हुआ, वातावरण हताश।।
हरी भरी हो वसुंधरा, गिरि वन नदी तलाब।
पशु पक्षी कलरव करें, झूमे प्रकृति शवाब।।
स्वच्छ रहेगी यदि धरा, हरा भरा संसार।
स्वस्थ सभी होंगे सदा, खुशियों का भंडार।।
भ्रष्टाचार से मुक्त हों, पुख्ता हों हर काम।
कर्तव्यों के प्रति सजग, मिलता तभी मुकाम।।
सच्चे मन सहयोग दें, तभी सिटी स्मार्ट।
सबकी हो सहभागिता, तब निखरेगा आर्ट।।
कनाडा शहर की सुंदरता का राज ही यह है कि यहाँ की सरकार तो जागरूक है ही साथ में यहाँ की जनता भी उतनी ही जागरूक है। दोनों के तालमेल से ही यह संभव हो सका है। जलवायु की अनुकूलता यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा को हरियाली से आच्छादित किये रहती है। वृक्षों की सघनता वातावरण को अनुकूल बनाने में प्रभावशाली भूमिका अदा करती है। लोगों का प्रकृति से अगाध प्रेम है। लोगों की जीवटता का राज भी यही है। विकास के उच्च शिखर पर पहुंचने के साथ वन सम्पदा का संरक्षण का सदा ध्यान रखा है। साफ स्वच्छ झीलों की समृद्धता ने उनकी विकास यात्रा को सुगम बनाया। सभी लोग अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति भी उतने ही जागरूक दिखे। टोरेण्टो शहर के छह माह के प्रवास में मैंने जो अनुभव किया उसे काव्य में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।
देख कनाडा खुश हुये, सुन्दर लगते छोर।
ऊँची भव्य इमारतें, दिखतीं हैं चहुँ ओर।।
सुंदर टोरेण्टो शहर, बड़ी झील के पास।
स्वच्छ नगर आदर्श यह ,जो शहरों में खास।।
जनता के सहयोग से, चला रखा अभियान।
साफ सफाई का यहाँ, रखते हैं सब ध्यान।।
बाग बगीचे सड़क घर, लगा रखे हैं फूल।
वन उपवन को देखकर, मन हो जाता कूल।।
धरा हरितिमा से भरी, कहीं न दिखती धूल।
तन मन खुश होता यहाँ, स्वर्ग धरा अनुकूल।।
भूतल ट्रेनें दौड़ती, नाम मात्र स्टाॅफ।
सभी टिकिट लेकर चलें, सब करते इंसाफ।।
टिकिट नहीं तो दीजिए, डालर में चालान।
या फिर जाओ जेल में, लागू यहाँ विधान।।
प्लेट फार्म पहुँचा सकें, हर बस में है होड़।
लोकल ट्रेनें चल रहीं, सड़कों पर ना दोड़।।
बस के हाल न पूछिये, बस तो इनकी शान।
बाल वृद्ध सबके लिये, रखा गया है ध्यान।।
सड़क किनारे बाक्स में, ताजा फ्री अखबार।
विज्ञापन सँग में सजे, समाचार भंडार।।
बीच सड़क क्यारी बनीं, अद्भुत है परिदृश्य।
कीचड़,रज से मुक्त हैं, घर आँगन-सा दृश्य।।
होड़ मची रहती यहाँ, सुंदर दिखें मकान।
अच्छी पेंटिग से सजें, घर औ गली दुकान।।
चलने को पथ हैं बनेे, ट्रेफिक के हैं रूल।
अनुशासन रखते सभी, करते कभी न भूल।।
खम्बों में गमले टँगे, बिजली संग में फूल।
मार्ग सजावट देखकर, मन हो जाता कूल।।
जनता का सहयोग है, नगर निगम के साथ।
दोनों मिलकर चल रहे, हाथों में ले हाथ।।
चुस्त यहाँ की टीम है, सुनती है अविराम।
फोन सूचना पर तुरत, हो जाता है काम।।
बाधित पथ करते नहीं, नहीं कार्य में देर।
सड़क खोदते इस तरह, कहीं न दिखता ढेर।।
कूड़ा करकट के लिये, रखे हुए हैं बाक्स।
सब उसमें ही डालते, नहीं गन्दगी रास।।
पार्किंग का ठेका नहीं, होता नहीं यकीन।
नगर निगम की हैं लगीं, पार्किंग-पेड मशीन।।
सड़क किनारे पर अगर, रखना चाहें कार।
पैसा खुद प्री पेड कर, नहीं बढ़ाते रार।।
कोई ठेका है नहीं, खड़ा न चौकीदार।
सब अनुशासन में चलें, सब करते सहकार।।
संस्कारों में बस गया, इनके अंदर ज्ञान।
साफ-सफाई के लिये, रखते हैं सब ध्यान।।
श्वानों को तो पालते, एक नहीं दो चार।
चिन्ता इनकी भी करें, हर क्षण पालनहार।।
लेकर सँग में घूमते, रोज सुबह ओ शाम।
पाॅटी करते ही तुरत, साफ करें खुद आम।।
सड़क बनाते हैं यहाँ, उसमें लगती सील।
समय,कम्पनी नाम की, ठुक जाती है कील।।
गारन्टी पक्की रहे, रखते हैं सब ध्यान।
गुणवत्ता को देखकर, हम सचमुच हैरान।।
सबकी अपनी रोड है,साइकलें या कार।
पैदल भी निर्भय चलें , दुर्घटना बेकार।।
पुलिस प्रशासन चुस्त है, भ्रष्ट नीति से मुक्त।
गुंडों, चोरों के लिए, रहती है वह चुस्त।।
कर्तव्यों के प्रति सजग, रहें न लापरवाह।
दिखते चुस्त दुरुस्त सब, जनता करती वाह।।
नगर सजावट देखने, लाखों आते लोग।
बाग बगीचे देखकर, भगते दिल के रोग।।
झीलों के इस देश में, हरियाली चहुँ ओर।
प्रकृति छटा मन भावनी, मन में उठे हिलोर।।
होता मन हर्षित यहाँ, नहीं व्यर्थ का शोर।
जीवन जीने के लिए, सुखद शांति चहुँ ओर।।
न्याग्रा वाटर फाल की,जग में नहीं मिसाल।
एक बार जो देख ले, होता वही निहाल।।
नीर धवल अठखेलियाँ, उछल कूद दिन रात।
उछली बूँदें मेघ बन, कर देतीं बरसात।।
न्याग्रा के तट पर बसा, अमरीका सा यार।
दो देशों के बीच से ,बहती अमरित धार।।
जीवन रक्षा के लिये,सरिता होती खास।
निर्मल सी बहती सदा, हर लेती संत्रास।।
सेतु बनाया बीच में, कभी न सिलवट माथ।
ताल मेल ऐसा बना, राम-लखन सा साथ।।
पर्यटकों की भीर है, हाट सजे चहुँ ओर।
प्रकृति नजारा देख कर, होते भाव विभोर।।
मनोज कुमार शुक्ल मनोज
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विश्व में करोना संकट ने सभी देशों को प्रभावित किया। जो जहाँ था, वहीं थम गया था। विश्व भर में मानव जीवन और मौत से संघर्ष कर रहा था। दो तीन वर्षों में वह संकट धीरे-धीरे खत्म होता गया। भारत ने भी अपने देश में करोना टीके का अविष्कार करके एक इतिहास रचा और अपने देश को ही नही वरन विश्व के अनेक देशों को इस संकट से उबारा। ऐसे विषम संकट से उबरने के पश्चात हमारा कनाडा में सात वर्षों के बाद पुनः आने का कार्यक्रम बना। 20 मई 2022 को दुबारा कनाडा जाने का जब कार्यक्रम बना तो इस बार बेटे गौरव शुक्ल बहू रोशी शुक्ला अपने बेटे वेदांश एवं विहान के साथ भारत में घर पर आए हुए थे। उनके साथ पुनः जाने का मौका मिला। हमारे चिंरजीव गौरव टोरेन्टों से ब्राम्टन में आकर रहने लगे थे। जहाँ भारतीय समाज भी ज्यादा निवास करता है। यहाँ प्रकृति को बहुत ही नजदीक से देखने का अवसर मिला और भारतीय प्रवासियों से मिलने का मौका मिला। भिन्न भिन्न प्रांतों से आये लोगों को आपस में हिन्दी बोलते देखा। हाँ जब वे अपने प्रान्तीय लोगों से मिलते तो अवश्य अपनी मातृ-भाषा में बोलते नजर आते। टोरेन्टों से ब्राम्टन की दूरी 40-45 किलोमीटर की दूरी है। पहले डाउन टाउन एरिया में रहने को मिला जहाँ बहुमंजिला इमारतें थीं उनमें एक फलैट में रहकर हमने वहाँ की संस्कृति के दर्शन किये थे। अब यहाँ कालोनी में रहने का अवसर मिला।
यहाँ आने के बाद कहीं न कहीं आसपास पार्कों दर्शनीय स्थलों को देखने का कार्यक्रम बनाया जाने लगा। पहले रेल व बस का सहारा था। अब गौरव की निजि कार थी, उससे ही आना जाना चालू हुआ। बस कार में पाँच लोग ही सफर कर सकते थे। हर बार एक मेम्बर घर पर ही रह जाता। हम टोटल छः हो रहे थे। आप दो साल के बच्चे को भी गोद में नहीं बैठा सकते हैं। भारत में तो पाँच सीटर कार में सात लोग एइजस्ट हो जाते कोई पूछने वाला नहीं, पर यहाँ पर ऐसा नहीं। नियम सभी फालो करते हैं अन्यथा भारी भरकम जुरमाना भरना पड़ता है।
30 जुलाई को ब्राम्टन से लगभग 100 किलोमीटर दूर बटरफलाई संग्रहालय को देखने गए। चैड़ी सीधी सपाट साफ सुथरी सड़कों पर कार में बैठे रास्ते भर छाई हरियाली, जंगल, खेतों को निहारते हुए उस संग्रहालय में पहुँचे जहाँ तितलियों के लिए वातानुकूलित वातावरण बना कर उनको रखा गया था। कई रंगबिरंगी आकर्षक तितलियाँ यहाँ से वहाँ उड़ती नजर आ रहीं थीं। कभी पर्यटकों के सिर पर आकर बैठ जातीं तो कभी उनके कांधों पर सवार हो जातीं। कई प्रजातियों को वहाँ बोर्ड-प्रदर्शिनी के माध्यम से कई हाल में दर्शाया गया है। साथ में महाराष्ट्र का एक परिवार सौरभ पटवर्धन भी साथ में था। उनके सास-ससुर श्री अनंत मुल्गी जी बाम्बे थाना से आना हुआ था। अपने-अपने घरों से कुछ खाने का सामान बनाकर ले गए थे, मिलजुलकर बैठ कर खाना खाया। उनके साथ वेदांश एडजस्ट था। उनकी कार बड़ी थी। बड़ा मजा आया।
यहाँ आए हुए लगभग एक माह होने को आए थे। ब्राम्टन में एक साफ सुथरी कालोनी का रहने का एहसास हो रहा था। भारत की तरह जगह जगह-छोटी-मोटी दुकानें तो नहीं देखने को मिलीं। किन्तु कालोनी के पास ही एक बड़े क्षेत्रफल में गोलाकार दुकानें दिखीं। जिसमें दो तीन बड़े-बड़े माल जिसमें वालमार्ट जैसे भव्य मार्ट के साथ कटिंग सैलून, काफी हाउस, बरगर पीजा की होटलें खोने-पीने की वस्तुएं देखने को मिलीं। यहाँ पालतू जानवरों के लिए भी खाने के शाप दिखे। यहाँ फल-सब्जी, फूल-पौधों की दुकानें काफी हैं। जबकि इन सबका सीजन कुछ ही टाईम रहता है। इसके बाद प्रति वर्ष आपको फिर से पौघे बर्फ गिरने की वजह से लगाने पड़ते हैं। नए वर्ष में सीजन का फिर इंतजार रहता है। रंग बिरंगी पत्तियों फूल पौधों का प्रचलन हर घरों के अंदर बाहर रोपण दिखा। घर सुंदर दिखे, शहर सुंदर दिखे यही भावना के कारण सड़कों के किनारे किनारे भी सुंदर दृश्य देखने को मिल जाते हैं। ब्राम्टन को फ्लावर सिटी भी कहा जाता है। अपने घर से सड़क की दूरी तक मकान मालिक स्वयं के खर्चे से हरी-भरी घास को लगाने से लेकर उसे लगभग दो-तीन इंच तक मशीन से काटकर रखना फिर उसमें फूल पौधों के लालन-पालन का उत्तरदायित्व का निर्वाहन भी उनको करना होता है। यहाँ तक की बर्फ के मौसम में उसे हटाने का भी काम स्वयं ही करना होता है। मालिक और नौकर के बीच कोई अंतर नहीं है। अगर बहुत ही आपके पास पैसा है तो आप 15 डालर प्रति घंटे के हिसाब से यह काम करवा सकते हैं, यह आप पर डिपेंड करता है।
भारत से आए हुए बहुत से विद्यार्थी अपने खर्चों को चलाने के लिए माल होटल रेस्ट्रारेन्ट में पार्ट टाइम काम करते अक्सर नजर आ जाएंगे। यहाँ काम छोटा बड़ा नहीं होता, यही यहाँ की विशेषता है। सफाई कर्मचारी भी एक इंजीनियर के बराबर अपना रुतबा रखता है। कोई भी काम बुरा नहीं माना जाता है। छोटे से लेकर बड़ा काम करवाने के लिए कई एजेन्सियाँ भी कार्यरत हैं । मैने घरों में कार पार्किग वाले हाल में भरे सभी सामानों को देखा। जिसे बड़े करीने से सजाया गया था जिसमें फावड़ा तसला, रिपेरिंग के सभी सामान भरे हुए थे। एक मकान वाला अकेले घर से सड़क तक, एक बेल्ट में कांकरीट डाल रहा था। कोई लेबर नहीं। सामने खुले हुए स्थान में आप पूरे में कंकरीट नहीं डाल सकते हैं। हरियाली तो होना ही चाहिए। इस तरह सभी कुछ न कुछ अपना काम करते नजर आ जाते हैं।
पास में ही एक ट्रेल है जो कि अनेक कालानी को टच करते हुए लगभग 55 किलोमीटर हो कर गुजरती है। यह एक पट्टिका में लिखा हुआ है। यह शायद ब्राम्टन का छोटा सा हिस्सा होगा जिसमें यह जंगल होकर गुजरता है। कई वृक्षों से आच्छादित है कहीं-कहीं तो सेवफल, ब्लैकचैरी के व्क्ष भी दिखे किन्तु सही देखभाल न होने से उनमें कीड़े लग जाते हैं। इन वृक्षों के लिए यहाँ की जलवायु अनुकूल है। वृक्ष संपदा के बीच बकायदा अंदर सड़कों का जाल बिछा है। सड़कों के दोनों किनारे घास लगी है वह भी दो तीन इंच जिसका मेंटनेंस यहाँ की नगर पालिका करती है। कभी-कभी तो पहाड़ जैसा टीला भी घास के मुंडन से हरे कालीन तरह आकर्षक बिछा नजर आता है। कचरे के डिब्बे के साथ ही बैन्चें थोड़ी-थोड़ी दूर पर रखीं हुईं हैं ताकि राहगीर विश्राम भी कर सकें। खा पीकर कचरे को डिब्बों में डाल सकें। घूमने वाले के हाथों में एक नही तीन-चार तो पालतू कुत्तों की चैनें सहज ही देखने को मिल जातीं हैं। किंतु आवारा कुत्ते एक भी नहीं दिखे। कुत्तों के मालिक उनकी पाटी को जेब में रखे खाली-पोलिथिन को निकाल कर, तत्काल उठा कर कचरे डिब्बे के हवाले करते हैं। वैसे यहाँ कोई देखने वाले भी नहीं हैं किन्तु यह अपना कर्तव्य समझ कर वे निभाते हैं ताकि शहर साफ-सुथरा स्वच्छ रहे। मुझे अपने भारत की याद आ गई जो सबके सामने ही पाटी करवाते नजर आ जाते हैं। और उपर से कुछ बोलने वालों की तो खैर नहीं, पर यहाँ ऐसा कुछ नहीं दिखा। कई बार मैंने छिपकर भी वाच किया। पर कर्तव्य बोध का भाव उनके नस नस में भरा दिखा।
हाँ कुछ मायनों में जो अपवाद देखने को मिले वह शायद हमारे कुछ भारतवंशी ही रहे होंगे या फिर पाकिस्तानी। जैसे माल में खरीदी करने के लिए ट्राली मिलती है ताकि आप अपनी चाहत की वस्तुएं उसमें चुनकर रख सकें और फिर अपने कार पार्किंग में जाकर कार में सामान रख अपने घर ले जाएं। किन्तु लोग उन ट्रालियों को सीघे अपने घर ले जाकर उसे यहाँ-वहाँ लावारिस छोड़ देते हैं। जिससे उन्हें काफी नुकसान होता है, मैंने ट्रेल में झुरमुटों के बीच पड़ी उन टालियों को देखा।
आँधी तूफान बारिस तो कभी भी हो जाती है। मौसम में अचानक कभी भी बदलाव होता रहता है। कभी मौसम में ठंडक आती है तो कभी गर्मी पर यहाँ ज्यादातर कड़ाके की ठंडक ही रहती है। वह भी इतनी कि आपकी हड्डियाँ काँप जाएं। आँधी में जंगल के विशाल वृक्ष भी धराशाही हो जाते हैं। जब मै यहाँ आया था तब मैंने अपनी आँखों से देखा ट्रैल में दूसरे दिन काफी वृक्ष गिरे पड़े थे। बाद में देख रेख कर्मी वहाँ आये होगें, उन्होंने उन झाड़ों में निशान लगा कर और झुके हुई डगालों के टूटने के खतरे को भांप कर काटने का आदेश फरमाया होगा। कुछ समय के बाद देखा पूरी सफाई हो चुकी थी, वहाँ फिर घास की परत ही दिखाई दे रही थी, उनका नामोनिशान भी नहीं था। सड़कांे की दरारों को तुरत भर दिया जाता है। फुटपाथ बनते है, पर मिट्टी धूल का कहीं नामोनिशान नहीं दिखता। मुख्य रोड आठ-दस लाईन की होती हैं जिसको क्रास करना मना है। अगर आप पैदल क्रास करना चाहते हैं, तो चैराहे पर जाकर ट्रेफिक के नियम को ही फालो करना पड़ेगा। कार चालकांे को तो बेहद सतर्क रहना होता है अन्यथा सड़कों पर लगे कैमरे आपके घर में भारी भरकम चालान तत्काल भेज देंगे।
मेरे पड़ोसी की कार एक्सीडेंट में क्षतिग्रस्त हो गई। पुलिस जाँच अपनी करती रहेगी। पुलिस टोकन कर उसे घर में छोड़ गई। ज्यादा क्षति तो मुझे नहीं दिखी किन्तु उसे उसके मुवावजे में इन्शोरेन्स की ओर से नई कार का चैक अवश्य मिल गया। यहाँ छतिग्रस्त कार नहीं चला सकते। इसलिये उनका प्रीमियम भी ज्यादा है।
नगर निगम की अगर बात करें तो हमारे नगर निगम और यहाँ के निगमों में जमीन आसमान का अंतर दिखा। मेरे बेटे गौरव के पास नगर निगम का मकान टैक्स बिल आया था, जिसमें देयक के पीछे आपके ़द्वारा दिए गए इन पैसों का किन-किन मदों में किस अनुपात में उपयोग किया जाएगा। उसका पाई-पाई का पूरा ब्यौरा दिया गया था। पारदर्शिता का यह कार्य मैंने आज तक अपने जीवन काल में कभी देखा ही नहीं।
भारत की तरह यहाँ भी अंग्रेजों का शासन रहा है। आज भी इनकी मुद्राओं में महारानी विक्टोरिया की फोटो रहती है। मूल रूप से कनाडा वासी बहुत ही संस्कारी भोले-भाले कहे जाते हैं। यह मैने इस 2022 की या़त्रा में अनुभव किया। भारतीयों के प्रति उनकी उदारता सहृदयता ही देखने को मिली। सभी से चर्चा करने पर यह बात सोलह आने लगी। हमने यहाँ आकर देखा कि जनता और सरकार के दोनों पक्षों के सहयोग से ही किसी भी देश का र्निमाण सही ढंग से हो सकता है। सरकार ही उसके लिए जुम्मेदार नहीं हो सकती।
उसको समझने के लिए मुझे यहाँ की बच्चों की शिक्षा नीति काफी पसंद आयी। स्कूलों में कोई किताबों का बोझ नहीं। फिर भी सब बच्चें होशियार समझदार कैसे? मैंने देखा कि घर में ही मेरे बेटे गौरव के दो बेटे हैं जो कि एक दो वर्ष का दूसरा सात वर्ष का दोनों बेटे टीवी अवश्य देखते हैं। पर टीवी में बच्चों के कार्टून इतने सारे भरे पड़े हैं जो कि केवल वे मनोरंजन भर के ही नहीं हैं। एक जागरूक नागरिक बनाने की शुरूआत जैसी है। उनमें बचपन से ही संस्कारों, अच्छे व्यवहारों का बीजारोपण कर दिया जाता है। पहली दूसरी तीसरी क्लास के बच्चों के कार्टून में टेडीवियर, पशु पक्षियों या अन्य प्राणियों के माध्यम से जो उनके प्रिय पात्र बन सकते हैं , उन्हें आकर्षित कर सकते हैं, और उन्हें बरबस लुभाते हैं, उनको हीरो बना कर छोटी छोटी फिल्में के माध्यम से शिक्षित किया जाता है। सभी बच्चे उन्हें भरपूर खूब देखते हंै। चाहे वह छः माह का बच्चा हो या बड़ा उनको शब्दों से परिचय गिनती, जोड़ घटाना सीखना, हँसना, सोना, पाटी करने से लेकर सड़कों पर चलना, कैसे रहना, कैसे खाना-पीना, बात करना, स्वच्छता को समझना और भी अच्छी आदतों और अच्छे संस्कारों की छोटी से लेकर बड़ी चीज सहज भाव से अंकुरित कर दी जाती हैं। हमारे यहाँ दो साल के बच्चे ने एक से पचास तक की गिनती और एबीसीडी रट डाली है जब कि वह स्कूल नहीं गया।
यही बच्चे आगे चलकर देश के नागरिक बनते हैं, अनुशासन की डोर में हमेशा के लिए बंध जाते हैं , और ताउम्र एक अच्छे नागरिक बन जाते हैं। सुबह जब मैं घूमने कोे जाता था तो यहाँ के लोग जब पास से निकलते तो अपरिचित होते हुए भी गुडमार्निग हलो हाय करते ही मिलते। उनका जवाब भी लोग सहज भाव से देते। यही मानवता की पहचान होती है जो स्वयं आपसी सौहार्द का निर्माण करने में सहायक होती है। सम्य समाज की पहचान भी है। अगर आप गलत साईड से चल रहे हैं या आपने पीछे आने वाले को साइड दे दिया तो वह थैंक्यू जैसे शब्द तो उनकी जबान में रखे हुए प्रतीत होते हैं, और गल्ती पर सारी।
देश कनाडा में सभी......
देश कनाडा में सभी, सभ्य सुसंस्कृत लोग ।
सद्गुण से परिपूर्ण हैं, करें सभी सहयोग।।
हाय हलो करते सभी, जो भी मिलता राह।
अधरों में मुस्कान ले, मन में दिखती चाह।।
कर्मनिष्ठ व्यवहार से, अनुशासित सब लोग।
नियम और कानून सँग, परिपालन का योग।।
झाँकी पर्यावरण की, मिलकर समझा देख।
संरक्षित कैसे करें, समझी श्रम की रेख।।
फूलों की बिखरी छटा, गुलदस्तों में फूल।
घर बाहर पौधे लगे, पहने खड़े दुकूल।।
हरियाली बिखरी पड़ी, कहीं न उड़ती धूल।
दिखी प्रकृति उपहार में, मौसम के अनुकूल।।
मखमल सी दूबा बिछी, हरित क्रांति चहुँ ओर।
शीतल गंध बिखेरती, नित होती शुभ भोर।।
प्राण वायु बहती सदा, बड़ा अनोखा देश।
जल वृक्षों की संपदा, आच्छादित परिवेश।।
प्रबंधन में सब निपुण, जनता सँग सरकार।
आपस में सहयोग से, आया बड़ा निखार।।
साफ स्वच्छ सड़कें यहाँ, दिखते दिल के साफ।
भूल-चूक यदि हो गई, कर देते सब माफ।।
तोड़ा यदि कानून जब, जाना होगा जेल।
कहीं नहीं फरियाद तब, कहीं न मिलती बेल।।
शासन के अनुकूल घर, रखते हैं सब लोग।
फूलों की क्यारी लगा, फल सब्जी उपभोग।।
रखें प्रकृति से निकटता,जागरूक सब लोग।
बाग-बगीचे पार्क का, करें सभी उपयोग।।
सड़कें अरु फुटपाथ में, नियम कायदा जोर।
दुर्घटना से सब बचें, शासन का यह शोर।।
भव्य-दुकानों में यहाँ, मिलता सभी समान।
ग्राहक अपनी चाह का,रखता है बस ध्यान।।
दिखे शराफत है यहाँ, हर दिल में ईमान ।
ग्राहक खुद बिल को बना, कर देते भुगतान।।
वाहन में पैट्रोल सब, भरते अपने हाथ।
नहीं कर्मचारी दिखें, चुक जाता बिल साथ।।
बाहर पड़ा समान पर, नजर न आए चोर।
लूट-पाट, हिंसा नहीं, राम राज्य की भोर ।।
फूलों सा सुंदर लगा, बर्फीला परिवेश।
न्याग्रा वाटर फाल से, बहुचर्चित यह देश।।
मनोज कुमार शुक्ल मनोज
26 जून 2022 को (रायल ओन्टोरियो म्यूजियम) जिसे रोम संग्रहालय भी कहते हैं। जहाँ विश्व के अनेक देशों की सभ्यता संस्कृति, मूर्तियाँ, डायनासोर, क्रिस्टल, मानव विकास सभ्यता, पहनावा, शिल्पकला जैसी अनेक वस्तुओं का संग्रह करके उन देशों की प्राचीन वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है। हमने यहाँ भारत की अनेक विरासतों को देखा, उनकी प्रतिकृतियों को देखा स्वर्णमंदिर, ताजमहल, दरवाजों पर नक्काशियों के साथ कई मूर्तियों का देखा जो भारत की सम्यता और संस्कृति को दर्शा रहीं थीं। चीन, जापान, एशिया यूरोप आदि देशों की अपनी अपनी विरासतें बहुत ही करीने से सजा कर रखी हुईं थी। यह विशाल क्षेत्रफल में तीन मंजिला भवन में संग्रहित किया गया है।
2 जुलाई 2022 को आईलैंड ओल्ड टोरेन्टो जाना हुआ। यह वोट या बड़ी जहाज से टोरेन्टो शहर से एक छोटे से द्वीप पर जाना होता है। चारों ओर पानी से घिरा हुआ यह एक आईलैंड है, वहाँ खूबसूरत चारों ओर नजारा देखने मिलता है। लोग पिकनिक, भ्रमण, नौकाविहार करते, खेलते, एवं मौज-मस्ती करते नजर आते हैं। कई तरह के पशु पक्षियों को भी रखा गया है। झूले खेलकूद के अनेकों मनोरंजन-साधन हैं। तरह-तरह के फब्बारो का लोग भरपूर आनंद उठाते नजर आते हैं। हरी-भरी रंगबिरंगे फूलों की क्यारियाँ सहज ही मन को आकर्षित करती हैं।
17 जुलाई 2022 को सीएनटावर को देखा जो कि विश्व का सबसे ऊँचा टावर कहा जाता है। उसी के बगल में ही एक्योरिम को देखने के लिए गए। यह जिसे हम मछलीघर भी कह सकते हैं जहाँ अद्भुत दुर्लभ छोटी से छोटी मछलियों के साथ ही समुद्र में पाई जाने वाली खतरनाक बड़ी व्हेल मछलियों को रखा गया है। काँच की गुफा से गुजरते हुए उनका नजदीक से दीदार कर सकते हैं। विशालकाय समुद्र जैसा वातावरण बना कर उनको रखा गया है। विशद वर्णन पिछले यात्रा संस्मरण में कर चुके हैं।
विश्व हिन्दी संस्थान (कनाडा) के अध्यक्ष एवं लोकप्रिय साहित्यिक ई पत्रिका ‘प्रयास’ के सम्पादक श्री सरन घई जी द्वारा शनिवार, दिनांक 31 जुलाई 22 को दोपहर तीन बजे से उनके निवास स्थान पर भारत से पधारे समाचार पत्र जनसत्ता के पूर्व सम्पादक श्री शंभूनाथ शुक्ला जी के मुख्य आतिथ्य एवं मनोजकुमार शुक्ल ‘मनोज’ जबलपुर, श्री दिनेश रघुवंशी, श्रीमती सरोजिनी जौहर, के विशिष्ट आतिथ्य एवं कनाडा के योगाचार्य, लोकप्रिय कवि श्री संदीप त्यागी जी के कुशल संचालन में कनाडा के चुनिंदा कवियों का एक मिनि द्वि-राष्ट्रीय कवि गोष्ठी का आयोजन सम्पन्न हुआ। उन्होंने बताया कि मई के मध्य में उनकी संस्था ने एक बड़ा कार्यक्रम कर चुके थे। पर हमारे आगमन का समाचार सुन पुनः एक कार्यक्रम का संयोजन कर लिया। यह उनकी साहित्य के प्रति विशेष अनुरक्ति ही कहेंगे।
कनाडा के मुख्य कविश्री भगवत शरण श्री वास्तव, डॉ विनोद भल्ला, श्री पाराशर गौड़, श्री युक्ता लाल, श्री श्याम सिंह, श्रीमती साधना जोशी, श्रीमती मीना चोपड़ा, श्री भूपेंद्र विरदी, डॉक्टर संतोष वैद, श्री रविंद्र लाल, श्री गौरव, श्री उत्कर्ष तिवारी, श्री राम भल्ला, कीर्ति शुक्ला एवं सरोज शुक्ला आदि कवियों ने अपनी एक से बढ़कर एक रचनाएं प्रस्तुत की इसके पश्चात कार्यक्रम में भारत से पधारे हुए कवियों का श्री सरन घई जी ने अंग वस्त्र, संस्था-स्मृति चिन्ह एवं अभिनंदन पत्र देकर सम्मानित किया। सभी ने आदरणीय सरन घई जी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। सरल सहज दिल के धनी श्री घई जी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। सभी तीस पैतींस मेहमानों को भोजन भी कराया गया।
उनकी हिंदी के प्रति अगाध प्रेम निष्ठा और लगन को देखते हुए मैंने उन्हें मंथन संस्था की ओर से एक प्रशस्ति पत्र भी भेंट किया गया। लगभग 50 पुस्तकों के रचयिता श्री सरन घई कनाडा के काफी लोकप्रिय हिन्दी साहित्यकार हैं। सात वर्ष पूर्व भी उनके रिटायरमेंट एवं जन्मदिन के अवसर पर आयोजित बृहद कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर मिला था।
कार्यक्रम की सभी ने सराहना की जनसत्ता के पूर्व संपादक श्री शंभूनाथ शुक्ल जी ने अपने अतिथि भाषण में श्री सरन घई जी की और सभी कवियों की प्रशंसा की। उनकी रचना को सराहा। रोचक कार्यक्रम काफी समय तक चलता रहा। यह कार्यक्रम का टेलीकास्ट विश्व पटल पर प्रस्तुत हुआ।
‘विश्व हिन्दी संस्थान’, अनुपम इसकी शान।
परचम है लहरा रहा, भारत का सम्मान।।
धन्य हुए हम आज हैं, मिला सुखद संजोग।
फिर अवसर है आ गया, कवि सम्मेलन योग।।
सात बरस के बाद का, लम्बा था वैराग्य।
पाया है सानिध्य अब, मुझे मिला सौभाग्य।।
मातृभूमि से दूर पर, है हिंदी से प्यार।
सरन घई की नाव है, खेते हैं पतवार।।
केनेडा की धरा में, अद्भुत बड़ा ‘प्रयास’।
हिन्दी दिल में है बसी, सुखद हुआ अहसास ।।
देश प्रेम की यह छटा, राष्ट्र भक्ति उद्गार ।
दिल में दीपक है जला, फैल रहा उजियार ।।
मोदी की सरकार ने, हिन्दी का सम्मान।
राष्ट्रवाद की गूँज से, बनी जगत पहचान।।
आओ मिल वंदन करें, हिंदी का हम आज।
विश्व पटल पर छा गयी, भारत को है नाज।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’
संस्थापक
‘मंथन’ संस्था
जबलपुर म. प्र. (भारत)
15 अगस्त 2022 को कनाडा में कान्हा किसली की तरह ’’लायन सफारी’’ हेमल्टन अंटोरियो में एक बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। जहाँ आप बंद कार या उनकी बस में जंगल में पाए जाने वाले गेंड़े, शेर, जिराफ, आदि खतरनाक जानवरों के पास से गुजर कर देख सकते हैं। यहाँ देश विदेशों से लाए गए जानवरों पशु पक्षियों को रखा गया है। साथ ही यहाँ दर्शक दीर्घा बना कर कई खुले मंचों पर उनके साथ प्रदर्शन भी चलता ही रहता है। जो कि अपने आप में देखना रोमांचक एवं साहस भरा कार्यक्रम होता है। वहाँ सपरिवार घूमने का दिन भर आनंद लिया। फिर बच्चों के लिए एक बने पार्क में गए जहाँ सभी लोग विभिन्न फुहारों में भींग कर आनंद उठाते हैं, विशेषकर बच्चों को काफी मजा आता है।
कनाडा, टोरंटो में पन्द्रह अगस्त आजादी का अमृत महोत्सव पर्व धूमधाम से 22 अगस्त 22 को नाथन फिलिप स्कवायर से एक विशाल झाकियों का जलूस निकाला गया। जलूस में भारत के विभिन्न प्रांतों की मन मोहक झलक उनके वेशभूषा और ढोल नगाड़ों के साथ देखने का अवसर मिला। उनके संग 35 से 40 फीट झाकियों की मन मोहक छटा चल रही थी, जिसे देख कर आनंद की अनुभूति हुई।
चल समारोह में ‘विश्व हिन्दी संस्थान’ की भी झाँकी श्री सरन घई जी के संयोजन में कवियों के काव्य पाठ के साथ प्रदर्शित की गई थी। जिसका सुअवसर मुझे भी मिला। विश्व हिंदी संस्थान के द्वारा जलेबी, समोसे का वितरण सारे मार्ग में किया जाता रहा, यह उनके देश प्रेम एवं हिन्दी के प्रति अनुराग निष्ठावान का परिचायक था। राह चलते सभी लोग उसका लुत्फ उठा रहे थे। मंच पर सरन घई जी के साथ मनोजकुमार शुक्ल, समीर लाल, संदीप त्यागी, भल्ला, मीना और अनेक कनाडा के कवियों ने देश भक्ति की रचनाओं का काव्य पाठ किया।
प्रवासी भारतीयों का उत्साह आनंद सचमुच देखने लायक था। जिसे देख कर अन्य देशों के लोग भी जोशो-खरोस के साथ नारे लगाने का प्रयास कर रहे थे। सड़कों के दोनों ओर भारत माता की जय, वंदेमातरम् , जय हिंद के उद्घोष बराबर सुनाई पड़ रहे थे। कनाडा की धरती में उनकी हिस्सेदारी एवं सहभागिता का परिचायक है।
झाँकियाँ में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, जम्मू काश्मीर, पंजाब, हरियाणा आदि अनेक प्रांतों का नेतृत्व महाराष्ट्र की परंपरागत झंडे, वेशभूषा एवं ढोल के साथ जिसमें दो फिल्मी कलाकार राहुल देव और एक अभिनेत्री दिख रही थी। यह कोई सरकारी आयोजन नहीं था। पैनोरेमा इंडिया एवं प्रवासी भारतीयों के मेहनत का परिणाम था जिसमें उनका आर्थिक सहयोग उत्साह के साथ ही देश प्रेम के प्रति समर्पण भाव छिपा स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
भारतीयों की यही विशेषता उन्हें अन्य लोगों से हटकर अपना स्थान बनाने के लिए सहायक सिद्ध होती है। यह सब देख कर मेरा मन रोमांचित हो उठा, गौरव से भर उठा। साथ में आजादी के अमृत महोत्सव के दुर्लभ कुछ चित्र आप सभी के लिए अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है आपको अच्छे लगेंगे।
ओंटारियो शहर के रिचमंड हिल सिटी में बने विष्णु मंदिर में दर्शन के लिए ३ सितम्बर २२ को गए। बड़े क्षेत्रफल में बना तीन मंजिला मंदिर, बाहर विशाल सुंदर हनुमान जी की मूर्ति स्थापित है। अंदर पहुँचते ही बरगद की आकृति उभार कर सनातन धर्म का वृक्षों के प्रति निष्ठा प्रदर्शित किया गया है। वहीं दूसरी ओर सर्व धर्म सद्भाव भी देखने को मिला। जहाँ संगमरमर में स्लाम, बौद्ध, क्रिश्चियन, जैन आदि के स्तम्भ धर्म को भी विष्णु मंदिर में स्थान दिया गया है। यही हमारे सनातनधर्म की विशेषता है।
यही हमारी हिन्दू संस्कृति की विशेषता है। हमारे मंदिरों में विश्व के आदर्श पुरुषों की मूर्तियाँ महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर, आदि की मूर्तियाँ स्थापित हैं। विभिन्न विष्णु अवतारों के साथ ही सभी देवी देवताओं के दर्शन हुए। यहाँ पार्क में महात्मा गांधी की प्रतिमा है। जिसे कि सुनने में आया था कि यहाँ खलिस्तानि समर्थकों ने क्षति पहुँचाने की कोशिश की थी।
1 अक्टूबर 22 को नव रात्रि के छठवें दिन में अपनी श्रीमती के साथ गौरव की कार में तीन मंदिरों में गए। साथ में बेदांश भी था। जिसमें यहाँ राम मंदिर की चर्चा करना चाहूँगा। बहुत ही सुंदर मंदिर बना है, विशाल हाल में आकर्षक मूर्तियाँ स्थापित थीं। मंदिर बने कुछ ही साल हुए होंगे। पुजारी जी ने बताया कि दशहरा में यहाँ रावण दहन होता है। काफी लोग यहाँ आते हैं। एक बड़े हाल में पार्टी चल रही थी शायद शादी की पार्टी होगी। पहले हम लोग चिंतपूर्ति मंदिर गए फिर राम मंदिर इसके बाद भारत माता मंदिर में जाकर माँदुर्गा के दर्शन किए।
4 अक्टूबर को दशहरा मनाने के लिए ब्राम्टन में हिन्दू महासभा मंदिर के विशाल प्रांगण में जाना तय हुआ। वहाँ जाकर देखा एक ओर विशालकाय रावण का पुतला खड़ा किया गया था। सामने ही एक मंच बना था, जहाँ रामलीला चल रही थी। राम के बचपन से लेकर संक्षिप्त मे रामलीला का मंचन हो रहा था। दर्शको की सुविधा के लिए कई जगह ग्राउंड में स्क्रीने लगीं हुईं थीं।लगभग पचास हजार से भी अधिक प्रवासी भारतीयों की भीड़ दशहरा उत्सव मनाने के लिए इकट्ठी थी।
एक ओर पंडाल में एक बड़ी लम्बी लाईन भी लगी थी भंडारे के रूप में सभी को पैकेट में पैक खाने का सामान दिया जा रहा था। तो दूसरी ओर एक स्टाल भी चल रहा था जहाँ चाय वितरित की जा रही थी। बच्चों को बिस्किट के पैकिट भी वितरित किये जा रहे थे। अनुशासन की इतनी बड़ी लम्बी लाईन देखकर स्तब्ध रह गया। कोई घक्का मुक्की नहीं सभी लाईन में भंडारे का प्रसाद पाने को ललायत थे। मंदिर को असंख्य बिजली के झालरों और लाईट से सजाया गया था। लोंगों में काफी उत्साह उत्सुकता दिखाई दे रही थी। जो पहले आ गए थे उनकी कार तो मंदिर कैम्पस मे ही पार्क थीं किन्तु जा लेट आए उनको कारों की पार्किग के लिए काफी दूर तक जाना पड रहा था।
गौरव को एक किलोमीटर दूर पर जाना पड़ा। उसका इंतजार करता रहा। उसी बीच गोपाल बघेल मधु जो कि अखिल विश्व हिन्दी साहित्य संस्था कनाडा की इकाई के अध्यक्ष हैं , उनसे आकस्मिक मुलाकात हुई जिसका मैने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। वे काफी समय से अस्वस्थ चल रहे थे, उनके बारे में सरनघई जी ने बतलाया था कि वे हास्पिटल में भरती हैं। देखते ही हम दोनों की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। एक दूसरे के गले लग कर स्वागत किया। तभी गौरव भी आ गए परिचय का दौर चला। बघेल जी ने बताया कि किडनी में प्राबलम था। थोड़ी ही देर में सरनघई जी से भी मुलाकात हो गई। अच्छा लगा दशहरे दोस्तों से मुलाकात हो गई। सरन घई साहब ने बताया कि इस तरह और भी मंदिर हैं जिनमें आज दशहरे का कार्यक्रम चल रहा है वहाँ भी इसी तरह की भीड़ है। घई साहब का मकान भी यहाँ से नजदीक रहा है।
रामलीला में राम रावण का युद्ध चलने लगा और राम ने रावण पर अपना अतिम बाण लक्ष्य साधकर चलाया । असत्य पर सत्य की विजय हुई। बुराई पर अच्छाई की जीत हुई। रावण धराशाही हो गया। विशालकाय रावण का पुतला भी धू-धू कर जलने लगा आकाश में रंगविरंगी आतिशबाजी देख सभी जय श्री राम का उद्घोष करने लगे। चारों ओर हँसी- खुशी, हर्ष-उल्लास का वातावरण छा गया। इस कार्यक्रम के साथ-साथ कनाडा के कुछ नेता गणों के भाषण भी चल रहे थे। रात्रि 10 बजे घर वापसी हुई। बहू रोशी घर पर ही अपने नन्हें विहान के साथ टी वी पर डायरेक्ट टेलीकास्ट कार्यक्रम को देख रही थी।
दिनांक 16 अक्टूबर को विश्व हिन्दी संस्थान कनाडा के संस्थापक श्री सरन घई जी हमारे घर पर अपनी श्रीमती रीता घई जी के साथ घर पर लंच के लिए पधारे तीन घंटे तक उनसे यहाँ की साहित्यक गतिविधियों के बारे में चर्चा हुई और पुराने साहित्यकारों के बारे में जानकारी के साथ उनके साहित्य लेखन के बारे में चर्चा हुई। दोनों को बहुत खुशी हुई। उन्होंने बताया कि हमारा प्रतिवर्ष भारत भ्रमण का कार्यक्रम रहता है इस वर्ष जनवरी फरवरी में जाने का कार्यक्रम बना है तब मैंने उन्हें जबलपुर आने का आमंत्रण दिया। उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
17 अक्टूबर 22 को गौरव के साथ मैं ममता एवं वेदांश भी थे। हम लोगों का हैरीटैज रोड ब्राम्टन स्थित केनेल्स फार्म में जाना हुआ। जिसमे पहाड़ी एरिया में विशाल क्षेत्र में जहाँ एक ओर 1500 मील से बहती आ रही नदी की कल-कल ध्वनि आ रही थी तो वही दूसरी और उँचे पहाड़़ से घिरे हुए रंग बिरंगे वृक्षों की पत्तियों से आच्छादित दृश्य बड़ा ही मनोहारी लग रहा था। लगता था कि किसी चित्रकार ने अपनी तूलिका से रंग बिरंगे प्रकृति में रंग भर दिए हों। वस्तुतः यहाँ आना हुआ था, सेवफल फार्म हाउस को देखने के लिए। कनाडा में यहाँ का मौसम सेव फल के अनुकूल है यहाँ सेव अंगूर चैरी जैसे फलांे की पैदावार ज्यादा होती है। काश्मीर जैसा मौसम हमेशा रहता है। घर से 12-14 किलोमीटर पर था। ऐसे कई फार्म हैं।
इसमें टिकिट भी लगी। बाहर कारों का हुजूम लगा था। अंदर जाना हुआ । सेव के वृक्ष अनेकों कतारों में लगे हुए थे। हर एरिया में सेव की वेरायटी का उल्लेख किया गया था। बोन साइज के वृक्षों में ज्यादा से ज्यादा 4-5 फुट के सभी वृक्ष थे। उनमें बड़े-बड़े लाल पीले हरे सेव लटके हुए नजर आ रहे थे अनेकों जमीन पर बिखरे पड़े थे। कई लोग अपने मन पसंद सेव स्वयं तोड़कर खाने का आनंद उठा रहे थे। हमने भी भरपूर आनंद उठाया। इतनी वेरायटी के सेव तो हमने भी नहीं देखे थे। गेट पर एक पालीथिन भी मिल रही थी 20 डालर में यदि आपको अपने मनपसंद सेव लेना है तो उसमें भरकर जितने आते हैं भरकर ले लीजिये। खाने की तो पूरी छूट थी, शायद जो टिकिट ली गई है वह इसीलिए थी। टैक्टर से सैर भी करवाने की व्यवस्था कर रखी थी टाली की जगह लकड़ी की सिटिंग सीट, चार लाइन वाली जिसमें 40-50 लोग एक साथ बैट सकते हैं। चंूकि एरिया बहुत बड़ा था। एक ओर उन्होंने स्वीट कार्न और हाट डाग का भी स्टाल लगाया था । लोग पिकनिक का आनंद उठा रहे थे। अपने हाथ से सेंक कर खा रहे थे नीचे चाय नास्ते का भी स्टाल लगा हुआ था।
इसके साथ ही एक ओर मक्का के खेत भी थे, जो कि पक कट चुके थे । एक ओर कद्दू के खेत थे। जिनमें हरे कद्दू की जगह अब पीले पके कद्दू 10-15 किलो के नजर आ रहे थे। जिन्हें यहाँ के लोग हैलाविन त्यौहार में करीने से काटकर दरवाजे में टांगते हैं। 4 डालर में मनचाहा कद्दू ले लीजिए। बच्चों के लिए एक शेड में मक्के के दाने भरे हुए थे तो दूसरे शेड में गेंहू बच्चे उसमें खेल रहे थे शायद उन्हें बताने के लिए था।
एक दिन गौरव मेरे को पीआर के लिए मना रहा था। अर्थात् परमानेंट वीसा के लिए यहीं साथ में रहने के लिए। किन्तु यहाँ स्थाई निवास करना मेरे जैसे व्यक्ति वह भी साहित्यानुरागी अभिरुचि वाले के लिए बड़ा ही मुश्किल भरा कदम था । वृद्धावस्था में ठंड में बड़ी कठिनाई होती है, जोड़ों में दर्द बढ़ जाता है। घर में बंद होकर रहना यह किसी जेल से कम न था। जबलपुर में माह में पन्द्रह दिन साहित्यिक गोष्ठियां संवाद परिचर्चा होती रहतीं है। यही इस उम्र में समय का सदुपयोग है। हम और हमारी स्कूटर स्वतंत्र हैं, कहीं भी आने जाने के लिए।
अक्टूबर-नवंबर में ठंड बढ़ने लगती है। जंगल में वृक्षों के पत्तों ने अपना रंग बदलना चालू कर दिया। हरे से लाल पीले रंगों की अद्भुत छटा नजर आने लगी। धरा को वे वृक्ष हरी भरी घास के उपर रंग बिरंगी पत्तीयों की चादर को उढ़ा रहे थे ताकि उसकी हरियाली सुरक्षित रहे। वस्तुतः यह काल यहाँ पतझर का काल होता है। सूखी झरती रंग बिरंगी पत्तियों को देखने पर्यटकों की संख्या भी बढ़ जाती है। बच्चे आकर पत्तियों के ढेर में खेलते हैं। नौ जवान पेयर आकर फोठोग्राफी सेल्फी लेते नजर आते हैं। मैं प्रायः सुबह शाम टेल में आये दिन देखता। एक दिन रात में बर्फ गिर गई, वृक्षों की पत्तियाँ अधिकांशतः धाराशाही हो गईं। वृक्षों में डगालें ही अब दिखाई देने लगीं थीं। पर गिरे हुए रंग बिरंगी पत्तियाँ धरती को रंगीन बनातीं नजर आ रहीं थीं। यह देखते देखते 24 अक्टूबर का दिन अर्थात दीवाली पास आ गई।
ब्राम्टन कनाडा की यह दीवाली देखने का पहला अवसर था। पिछली बार की या़त्रा में दीवाली दिल्ली में मनाई थी। मन में उत्सुकता भी थी, रह-रह कर भारत की दिवाली की याद आ रही थी। रूप चैदस को अर्थात दीवाली के एक दिन पूर्व एक गुजराती परिवार अहमदाबाद के श्री दामजी भाई बावरिया जी ने अपने घर पर दीपावाली कार्यक्रम रखा। जिसमें चार-पाँच परिवारों को बुलाया। जिसमें सौरभ का परिवार जो कि स्थाई रूप से दो चार मकान बाद रह रहे थे। यह परिवार महाराष्ट से था एवं श्री सुरेन्द्र जोकि आन्ध्रा के निजामाबाद से आए हुए थे। सभी परिवार अपने-अपने घर से कुछ न कुछ खाना बनाकर ले आये। सभी ने उनके घर में सहभोज किया। विभिन्न स्वादों का रसास्वादन किया। बच्चों ने अपने-अपने ढंग से कार्यक्रम प्रस्तुत किया। गाना गाकर संगीत-नृत्य कर के मन को बहलाया। वेदांश ने भी संगीत मय प्रस्तुति दी मैंने भी दो कविताएं सुनाई सभी ने दीवाली का आनंद उठाया।
दीपावली के दिन शाम को घर पर पूजन किया। बाहर बच्चों ने पटाखे फुलझरियाँ जलाईं। जितनी रात गहराती गई रंग बिरंगी आतिशबाजी के नजारे आकाश में अपनी छटा बिखेरने लगे। आतिशबाजी, बमों के धमाकों की आवाज से दीवाली की अद्भुत छटा आकाश में दिखाई देने लगी और भारतीयों की उपस्थिति दर्ज कराने लगी। पर्यावरण को किसी प्रकार से नुकसान न पहुँचे सभी सतर्क थे। पतझर की वजह से पत्तियों के जगह जगह ढेर लगे थे। अग्नि कांड की दुर्घटना से बचा कर सभी दीवाली मना रहे थे। सभी को मालूम था कि यदि कोई दुर्घटना होती है तो फाईन भी भरना होगा। मुझे तो बस सभी के जागरूक होने का अंतर ही समझ में आया। भारत की दीवाली और कनाडा की दीवाली में खास अंतर नजर नहीं आया। वही हर्षोउल्लास का वातावरण। घरों में बिजली के रंग बिंरगी झालरों से दमकते घर, अपनी खुशियाँ बिखेरते नजर आ रहे थे।
कनाडावासियों के लिए हमारी दीवाली के बाद ही एक उनका त्यौहार आता है जिसे पाश्चात्य सभी देशों में हेलोविन के रूप में मनाते आ रहे हैं। जैसे सनातन धर्म में हमारा एक सम्प्रदाय जादू टोटकों को मानता और विश्वास करता है। दीवाली के आसपास वह भूतप्रेतों को सिद्ध करने के प्रयास में लगा रहता है। उसी तरह यहाँ भी हैलाविन के समय देखने को मिलता है। झाड़ू भूत पे्रतों के पुतले और कद्दूओं से बाजार-माल भरे पड़े हैं। यहाँ शहरों की संस्कृति में उसे किसी भी अहित या नुकसान पहुँचाने की दृष्टि से नहीं बल्कि त्यौहार के रूप में मनाते हैं। घरों के बाहर पके हुए बड़े-बड़े सूखे कद्दूओं में अंदर काट कर प्रेतों की आकृतियाँ बनाकर अंदर बल्व लगाकर लटकाया या रखा जाता है। फिर लोग अपने अपने बच्चों को ले जाकर दिखाते हैं और आयोजकगण उन्हें टाफियाँ, चाकलेट देते हैं। बच्चों में इस त्यौहार की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा रहती है। बाजारों में लोग विशेष मेकअप व कपड़े में वीभत्स रूप धारण कर धूमते नजर आते हैं उनके साथ सैल्फी लेते नजर आ जाएंगें। 2015 में यह त्यौहार मैंने देखा था पर इस बार का त्यौहार मुझे देखने नहीं मिलेगा। हाँ घरों में एक माह से ही तैयारी चलने लगी है वह मैंने देखी है। 28 अक्टूबर को गौरव के साथ हैप्पी हैलोविन लाईट शो देखने को गया। एक बड़े समतल मैदान में लाईट की झालरों से आकृतियाँ उभार कर भूत, प्रेतों, चमगादड़ों उल्लुओं महलों आदि को बनाया गया था कार में ही बैठ कर दर्शकगण रोमांचित, और आनंदित हो रहे थे। आधे घंटे से अधिक हम लोग कार से भ्रमण करते रहे। मैं गौरव वेदांश ,एवं ममता के साथ कार में घूमते रहे आनंद आया।
आज जबकि मै अपनी संस्मरण यात्रा को लिख रहा हूँ या यूँ कहूँ समेट रहा हूँ, 28 अक्टूबर का दिन है। आज से ठीक दो दिन बाद अपने स्वदेश की वापसी का दिन अर्थात 30 अक्टूबर को सीधे कनाडा एयरलाईन्स से दिल्ली के लिए उड़ान और 1 नवम्बर 22 को जेट एयरलाईंस के द्वारा दिल्ली से सुबह 6 बजे जबलपुर की उड़ान जो कि आठ बजे सुबह जबलपुर में पहुँचा देगा।
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