हाथों में श्रम के हैं छाले
कुछ मैं खाऊँ कुछ तू खाले
जीवन में उलझन हैं भारी
चिलचिलाती धूप भी
सालों पर साल गुजरते
मिट्टी में ही फूल
बजा रहे कुछ गाल
दोस्त देखकर आँखें चुराने लगे
आंँधियों से जूझ कर
समझाने पर नहीं समझता
प्रजातंत्र की इस बगिया में
कट्टरता का ओढ़ लबादा
समझ न आती उनकी माया
है तिरंगा फिर निहारे
भ्रष्टाचारी कभी न डरता
मेघ कहीं दिखते नहीं
नारी ही नारी की दुश्मन
नैतिकता की हुई धुनाई
श्रमिक-रोज शंका में जीते
जाँगर-तोड़ी करी कमाई
मानव हर युग दले गए
राजनीति में बड़ा झमेला
कैसी यह लाचारी है
सब बिछुड़ते जा रहे मनमीत
याद आती है कभी मनमीत की
जीवन में जब आते गम
खोई रौनक बाजारों की
राह हरियाली निहारे
पढ़ा सुदामा-कृष्ण चरित्र
प्रश्न कर रहा फिर बेताल
वे कहते हैं बड़ा धरम है
रोती आँखें सबको गम है
पथ में काँटे जो बोते हैं
सागर को जब पार किया है
बहुत पुरानी यह दुनिया है
जन्म मरण का सिलसिला