भाग - 1
हाथों में श्रम के हैं छाले
कुछ मैं खाऊँ कुछ तू खाले
जीवन में उलझन हैं भारी
चिलचिलाती धूप भी
सालों पर साल गुजरते
मिट्टी में ही फूल
बजा रहे कुछ गाल
दोस्त देखकर आँखें चुराने लगे
आंँधियों से जूझ कर
समझाने पर नहीं समझता
प्रजातंत्र की इस बगिया में
कट्टरता का ओढ़ लबादा
समझ न आती उनकी माया
है तिरंगा फिर निहारे
भ्रष्टाचारी कभी न डरता
मेघ कहीं दिखते नहीं
नारी ही नारी की दुश्मन
नैतिकता की हुई धुनाई
श्रमिक-रोज शंका में जीते
जाँगर-तोड़ी करी कमाई
मानव हर युग दले गए
राजनीति में बड़ा झमेला
कैसी यह लाचारी है
सब बिछुड़ते जा रहे मनमीत
याद आती है कभी मनमीत की
जीवन में जब आते गम
खोई रौनक बाजारों की
राह हरियाली निहारे
पढ़ा सुदामा-कृष्ण चरित्र
प्रश्न कर रहा फिर बेताल
वे कहते हैं बड़ा धरम है
रोती आँखें सबको गम है
पथ में काँटे जो बोते हैं
सागर को जब पार किया है
बहुत पुरानी यह दुनिया है
जन्म मरण का सिलसिला
भाग - 2
होगी जय-जयकार, संभलकर चलना सीखो
आपके जन्म-दिन पर, गुनगुनाने लगे
जब से प्रिय के, अधर मुस्कराने लगे
रुको नहीं थको नहीं, तीव्र गति बढ़े चलो
बाॅंटोगे यदि प्यार, प्यार फिर तुम पाओगे
कभी न मानें हार, मिले जयकार तभी है
दुखिया है संसार, कभी विचलित मत होना
टूटी नदिया धार, बड़ा बदलाव हुआ है
धरती का उपकार, भूल मत जाना भाई
धरा करे शृंगार, वसंती बेला आई
घट-घट भ्रष्टाचार, आजकल इस दुनिया में
बदला है संसार, समय की बलिहारी है
हो गईं आँखें सजल, फिर याद तेरी आ गई
कृष्ण की धुन को सजाने,बाँसुरी ही चाहिए
जीवन बड़ा सरल, दिखता है
आतंकी को पालता, सनकी पाकिस्तान
सूखे-वृक्ष टहनियाँ देखो
कविता सर्जक बहुत व्यस्त हैं
स्वाभिमान अब बहुत घना है
मन में उठे उमंग सुनो जी
सावन की यह घटा नहीं है
भारत की धरती ने ढाले
अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ
अपनों से अब डर लगता है
कष्टों का अंबार लगा है।
जीजा जिज्जी को ले जाता
बेटी घर की भाग्य विधाता
नव-पीढ़ी तो खुलकर कहती
आँख से आँसू छलकते
दिल में छिपा दुष्ट रावण है
बहुत याद आते हैं हमको, मेरे प्यारे पापा जी
सदा याद आती है हँसती, मेरी प्यारी मम्मी जी
मौन छा गया घर-आँगन में
चलो ढूँढ़ते मोती उजले
कुछ तो सदा बवाल करेंगे
सजा राम का सरयू तट है
हे राम अयोध्या गई बदल
चिंताओं की गठरी बाँधे, जीवन भर ढोए
चलो करें शुचिता की बातें
कलयुग में न्यारी है यारी
ईश्वर ने उपकार किया है
मन में कुछ उत्साह नहीं है
प्रिय से कभी न आह कीजिए
यह देश हमारा चंगा है
सबकी अपनी राम कहानी
ईश्वर से वरदान मिला है
ग्रीष्म काल बरसात सुहाई
अग्नि सदा देती है आँच
जाते-जाते नई कहानी लिख जाएँगे
मौन कुछ गहरा हुआ है
छल-प्रपंच ने लिखी कहानी
मानव का मन कटा-कटा है
अपने संस्कारों को हमने
मंथन करते रहे उम्र भर
पीड़ाएँ हो गईं घनेरी
बजती कर्म युद्ध की भेरी
पीड़ाओं का अंत हुआ है
होते हैं कुछ, मन के काले
जीवन का लेखा-जोखा है
सड़कों पर उड़ती है धूल
जिंदगी तू बता, अब कैसे जिया जाए