श्रमिक-रोज शंका में जीते.....
श्रमिक-रोज शंका में जीते ।
दुख के आँसू खुद ही पीते।।
राह देखता खड़ा सुदामा ,
शासक के बस हुए सुभीते।
फल तो कई फले हैं लेकिन,
खाने को कब मिले पपीते।
अखबारों में छपी योजना,
तंत्र लगाते रहे पलीते।
तन-गरीब ऐसे हैं ढकते,
सुइ-धागों से थिगड़े सीते।
हर गरीब का जीना दूभर,
कैसे उनका जीवन बीते।
सबने पाल रखे हैं सपने।
पर उनके दिल दिखते रीते।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’