दोहे मनोज के: भाग - 6
1501. अविश्वास
*अविश्वास* के दौर ने, खींच रखी है रेख।
संबंधों की बानगी, बिगड़ रही है देख।।
1502. रामायण
*रामायण* के पात्र सब,बहुविध दें संदेश।
यश अपयश की राह चुन, बदलें खुद परिवेश।।
1503. विद्या
*विद्या* पा जाग्रत करें, अपना ज्ञान विवेक।
जीवन सफल बनाइए, राह बनेगी नेक।।
1504. नेकी
*नेकी* की दीवार से, गढ़िए नए मुकाम।
मानवता समृद्धि से, खुश होते श्री राम।।
1505. कालचक्र
*कालचक्र* अविरल चला, गढ़ी गई यह सृष्टि।
फिर उदास किस बात पर, बदलें अपनी दृष्टि।।
1506. चिंतन
*चिंतन* करना है हमें, सभी काम हों नेक।
कर्म करें जो भी सदा, जाग्रत रखें विवेक।।
1507. देर
शुभ कार्यों में शीघ्रता,करें न *देर*-अबेर।
यही बात सबने कही,जीवन का वह शेर।।
1508. रेत
समय फिसलता *रेत* सा,पकड़ न पाते हाथ।
गिनती की साँसें मिलीं, नेक-नियत हो साथ।।
1509. बैर
भजो तुम प्रभु को भाई, करेंगे राम भलाई....
तजो तुम बैर बुराई, मिलेगी दूध मलाई
1510. वीरान
चलीं कुल्हाड़ी वृक्ष पर, जंगल हैं वीरान।
धरती विहल निहारती,भ्रमित हुआ इंसान।।
1511. चरण
*चरण* वंदना राम की, हनुमत जैसे वीर।
दोनों की अनुपम कृपा, बनें धीर गंभीर।।
1512. राह
चाह अगर दिल में रहे, मिल ही जाती *राह*।
आशा कभी न छोड़ना, निश्चय होगी वाह।।
1513. हठधर्मी
केवल अपनी सोच को, सदा बताते नेक।
हठधर्मी से शून्य कर, शिक्षा ज्ञान विवेक।।
1514. हेमंत
ऋतु आई हेमंत की, देती शुभ संकेत।
प्रिये चलो अब गाँव में, पीली सरसों खेत।।
1515. त्याग
त्याग तपस्या से बनें , सुंदर घर परिवेश।
अहं भाव को त्याग दें, दूर हटेंगे क्लेश।।
1516. साधना
आदर्शों की कामना, बड़ा कठिन है काम।
सफल रही यदि साधना, जग में होता नाम।।
1517. समाज
मानवता को ध्यान रख, हो समाज निर्माण ।
विपदा कभी न छा सके, मिले दुखों से त्राण।।
1518. कुनकुना
पानी जब हो *कुनकुना*, तभी नहाते रोज।
काँप रहा तन ठंड से, प्राण प्रिये दे भोज।।
1519. धूप
*धूप* सुहानी लग रही, शरद शिशिर ऋतु मास।
बैठे कंबल ओढ़ कर, गरम चाय की आस।।
1520. नर्म
*नर्म* दूब में खेलतीं, रोज सुबह की बूँद।
सूरज की किरणें उन्हें, सिखा रहीं हैं कूँद।।
1521. ठिठुरन
*ठिठुरन* बढ़ती जा रही, ज्यों-ज्यों बढ़ती रात।
खुला हुआ आकाश चल, मिल-जुल करते बात।।
1522. सूरज
*सूरज* की अठखेलियाँ, दिन में करे बवाल।
शीत लहर का आगमन, तन-मन है बेहाल।
1523. परिवार
हँसी-खुशी *परिवार* की, आनंदित तस्वीर।
सुख-दुख में सब साथ हैं, धीर-वीर गंभीर।।
1524. माया
*माया* जोड़ी उम्रभर, फिर भी रहे उदास।
नहीं काम में आ सकी, व्यर्थ लगाई आस।।
1525. तस्वीर
टाँग रखी दीवार पर, मात-पिता *तस्वीर*।
जिंदा रहते कोसते, उनकी यह तकदीर।।
1526. अतीत
यादें करें *अतीत* को, बैठे सभी बुजुर्ग।
सुदृढ़ था परिवार तब, बचा तभी था दुर्ग।।
1527. कविता
*कविता* साथी है बनी, चौथेपन में आज।
रही साथ बन प्रियतमा, पहनाया सरताज।।
1528. जवान
तन-मन आज *जवान* है, नहीं गए दरगाह।
उम्र पचासी की हुई, देख करें सब वाह।।
1529. जगत
रहा *जगत* में सत्य ही, हुआ झूठ का अंत।
वेद पुराणों में लिखा, कहते ऋषि मुनि संत।।
1530. मंच
जीवन अद्भुत *मंच* है, भिन्न-भिन्न हैं पात्र।
अभिनय अपना कर रहे, बने नवागत छात्र।।
1531. कठपुतली
*कठपुतली* मानव हुआ, डोर ईश के हाथ।
कब रूठे सँग छोड़ दे, नश्वर तन यह साथ।।
1532. जीवन
*जीवन* तक ही साथ है, बँधी स्वाँस की डोर।
जितना जीभर जी सको, होती नित ही भोर।।
1533. खिलौना
मन बहलाने के लिए, दिया *खिलौना* साथ।
टूटे फिर हम रो दिए, बैठ पकड़ कर माथ।।
1534. आलोकित
हरे तमस दीपावली, *आलोकित* घर-द्वार।
सुख-वैभव सबको मिले, हटें दुखों के भार।।
1535. उजियार
पाँच सदी पश्चात यह, आनंदित त्यौहार।
सजी अयोध्या आज फिर, बिखरा है *उजियार*।।
1536. समृद्धि
सुख-*समृद्धि* की आस में, करता मानव कर्म।
दुखियों के हर कष्ट को, हरता यह है धर्म।।
1537. प्रदीप्त
चतुर्थ-दिशा *प्रदीप्त* हैं, खुशियाँ अपरंपार।
दीप-पर्व रोशन हुआ, झूम उठा संसार।।
1538. ज्योतिर्मय
*ज्योतिर्मय* साकेत-पुर, छटी अमा की रात।
राम-भरत का प्रिय मिलन, भातृ-प्रेम सौगात।
1539. प्रत्याशा
*प्रत्याशा* हर राष्ट्र से, हों मानव-हित काम।
हिंसा को त्यागें सभी, बढ़े देश का नाम।।
1540. प्रत्यूषा
नव *प्रत्यूषा* की किरण, बिखरी भारत देश।
जागृति का स्वर गूँजता, बदल रहा परिवेश।।
1541. प्रथमेश
करूँ *प्रथमेश* वंदना,गौरी तनय गणेश।
मंगलमय की कामना, कारज-सिद्धि प्रवेश।।
1542. प्राकट्य
रामचंद्र *प्राकट्य* हुए, पुण्य धरा साकेत।
रघुवंशी दशरथ-तनय, राम राज्य के हेत।।
1543. प्रहर्ष
विकसित भारत बढ़ रहा, सबका है उत्कर्ष।
दिल आनंदित हो उठा, होता भव्य *प्रहर्ष*।।
1544. जीवंत
सुख-दुख में हँस मुख रहें,जीना है *जीवंत*।
कर्म सुधा का पान कर, अमर बनें श्रीमंत।।
1545. सरोजिनी
मन *सरोजिनी* सा खिले, दिखे रूप लावण्य।
मोहक छवि अंतस बसे, प्रेमाश्रय का पुण्य।।
1546. पहचान
सतकर्मों से ही बनें ,मानव की *पहचान*।
दुष्कर्मों के भाव से, रावण बनता जान।।
1547. अपनत्व
जीवन में *अपनत्व* का, जिंदा रखिए भाव।
प्रियतम के दिल में बसें, डूबे कभी न नाव।।
1548. अथाह
प्रेम सिंधु में डूब कर, नैया लगती पार।
दुख-*अथाह*, जीवन-खरा,कर प्रभु का आभार।।
1549. सत्य
जीवन का चिर- *सत्य* यह, करना सबको कर्म।
जन्म लिया तो मृत्यु भी, समझें इसका मर्म।।
1550. अहिंसा
*अहिंसा* सत्याग्रह है, गांधी का प्रिय मंत्र।
डिगा सका न पथ उन्हें, ब्रिटिश हुकूमत तंत्र।।
1551. सत्याग्रह
*सत्याग्रह* की भूमिका, शस्त्रों से है दूर।
नहीं रक्त रंजित रहे, शांतिपूर्ण भरपूर।।
1552. सादगी
गांधी जी की *सादगी*, उतरी दिल के पार।
एक लँगोटी ने किया, जनमत को तैयार।।
1553. शांति
समय-समय पर खोजता, हर युग अपनी राह।
सुखद *शांति* की कल्पना, हर मानव की चाह।।
1554. छंद
मुक्त *छंद* के काव्य में, सुर- संगीत-अभाव।
दिल को छूता छंद है,स्वर-सरिता की नाव।।
1555. छप्पर
सब को *छप्पर* चाहिए, जहाँ करें विश्राम।
श्रम की दौलत से सजे, दरवाजे पर नाम।।
1556. कुशल-क्षेम
मानवता कहती यही, होगी युग में भोर।
मुलाकात होती रहे, *कुशल-क्षेम* पर जोर।।
1557. मौसम
*मौसम* करवट ले रहा, धूप कहीं बरसात।
जहाँ न वर्षा थी कभी, बरसे अब दिन रात।।
1558. प्रस्ताव
संकट के बादल बढ़े, छिड़ा हुआ है युद्ध।
भारत का *प्रस्ताव* यह, अब तो पूजो बुद्ध।।
1559. भूख
लगती *भूख* विचित्र है, रखिए इस पर ध्यान।
तन-मन को आहत करे, आदि काल से भान।।
1560. रोटी
*रोटी* से रिश्ते बनें,जीवन का दस्तूर।
झगड़ें रोटी के लिए, रोटी तन-मजबूर।।
1561. मजदूर
मजदूरी *मजदूर* की, उचित मिलें परिणाम।
क्षुधा पूर्ति को शांत कर, सुख-समृद्धि आराम।।
1562. श्रम
*श्रम* जीवन का सत्य है, मिले सफलता नेक।
पशु-पक्षी मानव सभी,जाग्रत रखें विवेक।।
1563. सत्ता
*सत्ता*-लोलुपता बढ़े, लोकतंत्र-उपहास।
भरी तिजोरी देखती, जनता रहे उदास।।
1564. स्वाद
*स्वाद* नशा का मत चढ़े, हो जाती मति भ्रष्ट।
सत्कर्मों के स्वाद से, पाप कीजिए नष्ट।।
1565. विषाद
मानव रूपी भेड़िया, कुछ बन बैठे संत।
छाया हुआ *विषाद* है, हो कैसे अब अंत।।
1566. महिमा
*महिमा* अपरंपार है, सावन-भादों मास।
गौरी शिव की वंदना, विघ्नविनाशक पास।।
1567. विमल
*विमल* विनय संकट हरण, गणपति शिव के पुत्र।
शुभ मंगल की कामना, रक्षा करें सर्वत्र ।।
1568. चरित्र
वातावरण बनाइए, निखरे नेक *चरित्र*।
सतयुग त्रेता लौटकर, कलयुग बने पवित्र।।
1569. दृष्टि
नेक *दृष्टि* सबकी रहे, होती सुख की वृष्टि।
जग की है यह कामना, मंगल मय हो सृष्टि।।
1570. अस्मिता
पोर्न फिल्म को देख कर, बिगड़ रहा संसार।
नारी की निधि *अस्मिता*, लुटे सरे बाजार।।
1571. शिष्टाचार
*शिष्टाचार* बचा नहीं, बिगड़ रहे घर-द्वार।
संस्कृति की अवहेलना,अब समाज पर भार।।
1572. तिलक
*तिलक* लगाकर माथ में, सभी बन गए संत।
छिपे हुए शैतान का, करा न पाए अंत।।
1573. अंतरिक्ष
*अंतरिक्ष* में पहुंँच कर, मानव भरे उड़ान।
धरा सुरक्षित है नहीं, बिगड़ रही पहचान।।
1574. पीहर
सावन भादों में सजन, जाना *पीहर*-देश।
भूली-बिसरी याद कर, दूर हटेंगे क्लेश।।
1575. भादों
*भादों* की बरसात में, त्यौहारों की धूम।
सखियाँ झूला झूलतीं, नीले-नभ को चूम।।
1576. कजरी
पीहर में सखियाँ मिलीं, गातीं *कजरी* गीत।
बचपन की यादें भली, मिले पुराने मीत।।
1577. बदरी
*बदरी* बन कर छा गए, राह देखती द्वार।
भादों गुजरा जा रहा, यौवन लगता भार।।
1578. पपीहा
प्रेम *पपीहा* गा रहा, प्रिय बिन निकले जान।
आम्र कुंज में जा छिपा, छेड़ रहा मृदु तान।
1579. अच्युत
*अच्युत* प्रभु परमात्मा, सबका पालन हार।
जगत नियंता है वही, यह वेदों का सार।।
1580. अलंकृत
अलंकार से *अलंकृत*, करें यशश्वी गान।
गुणवर्धन यश अर्चना, मिले सदा सम्मान।।
1581. सूर्यसुता
*सूर्यसुता* में गंदगी, नाग-कालिया दाह।
उगल रही है झाग फिर, नहीं सूझती राह।।
1582. गोरक्षक
द्वापरयुग में कृष्ण जी, *गोरक्षक* बलराम।
गोवर्द्धन संकल्प ले, किए विविध हैं काम।।
1583. जन्माष्टमी
भाद्रमाह *जन्माष्टमी*, मुरलीधर घनश्याम।
दुख को हरने अवतरित, जय पावन ब्रज-धाम।।
1584. वारिद
*वारिद* लाए विपुल जल, बुझी धरा की प्यास ।
धरती ने फिर ओढ़ ली, हरित चूनरी खास।।
1585. वर्षा
*वर्षा* ने हर्षित किया, जड़ चेतन संजीव।
मंदिर में कृष्णा हँसे, शांत दिखे गांडीव।।
1586. पुरवा
*पुरवा* सुखद सुहावनी, कर मन को आह्लाद।
हर लेती मन के सभी, क्षण भर में अवसाद।।
1587. पछुआ
पूरब में *पछुआ* बही, बदली उनकी चाल।
फटी जीन्स की आड़ में, दिखें युवा बेहाल।।
1588. पावस
*पावस* ने सौगात दी, हरियाली चहुँ ओर ।
झूम उठा मन बावला, झरनों का सुन शोर।।
1589. मेघ
*मेघ* बरसते पुणे में, प्रथम जुलाई माह।
मौसम गर्मी का नहीं, है बसने की चाह।।
1590. फुहार
लक्ष्मण मूर्छित गिर पड़े, करें राम मनुहार।
*मेघ*-नाद से युद्ध में, हनुमत करें प्रहार।
1591. बिजली
*मेघ* वर्ण श्री राम जी,रहे कृष्ण घनश्याम।
रुकमणि जी या जानकी, गौर वर्ण हैं वाम।।
1592. गाज
मेघ गरज कर रह गए, बरसी नहीं *फुहार*।
मेघों को यह क्या हुआ, जो रूठे इस बार।।
1593. गाज
*गाज* गिरी बरसात में, घर को रहे निहार।
बाढ़ बहा कर ले गई, दीनों के घर-बार।।
1594. बाढ़
*बिजली* चमकी रात में, देख रहा गिरि मौन।
घोर गर्जना हो रही, बना निशाना कौन।।
1595. बाढ़
भ्रष्टाचारी छिप रहे, नहीं रहे कुछ बोल।
पुल बहते जब *बाढ़* में, खोलें उनकी पोल।
1596. ओजस्वी
*ओजस्वी* नेता अटल, वक्ता थे अनमोल।
श्रोता सुनकर कह उठें, अदभुत है हर बोल।।
1597. संज्ञान
जब आए *संज्ञान* में, गलत काम को छोड़।
सही राह पर चल पड़ो, जीवन का रुख मोड़।।
1598. विधान
प्रभु का यही *विधान* है,करिए सदा सुकर्म ।
फल मिलता अनुरूप ही, गीता का यह मर्म।।
1599. सकारात्मक
सोच *सकारात्मक* रखें, जिससे मिलती राह।
हार न मिलती है कभी, जग में होती वाह।।
1560.अध्यवसाय
करते *अध्यवसाय* जब, मिले सफलता नेक।
जीवन का यह सत्य है, उन्नति सीढ़ी एक ।।
1561. अनमना
प्रिये हुआ मन *अनमना*, चली गई तुम छोड़।
सूना-सूना घर लगे, अजब लगा यह मोड़।।
1562. अकथ
*अकथ* परिश्रम कर रहे, मोदी जी श्री मान।
पार चार सौ चाहते, माँगा था वरदान।।
1563. आचरण
गिरे हमारे *आचरण*, का हो अब प्रतिरोध।
सभी प्रगति के पथ बढ़ें, यही हमारा शोध।।
1564. अमराईयाँ
दिखतीं न *अमराईयाँ*, कटे हमारे पेड़।
कहाँ गईं हरियालियाँ, चाट गईं हैं भेड़।।
1565. अनुपात
अधिक नहीं *अनुपात* में, है भोजन का तथ्य।
अनुशासित जीवन जिएँ, यही हमारा कथ्य।।
1566. सिकंदर
बना *सिकंदर* है वही, जिसने किया प्रयास।
कुआँ किनारे बैठकर, किसकी बुझती प्यास।।
1567. मतलबी
अखबारों में छप रहे, बहुत *मतलबी* लोग।
कर्म साधना में जुटे, मिले न उनको योग।।
1568. किल्लत
उत्पादक उपभोक्ता, बीचों-बीच दलाल।
*किल्लत* कर बाजार में, कमा रहा है माल।।
1569. सद्ग्रंथ
बहुत पढ़े *सद्ग्रंथ* हैं, पर हैं कोसों दूर।
प्रवचन में ही दीखते, खुद को माने शूर।।
1570. राजनीति
दौंदा बड़ा लबार का, *राजनीति* में योग।
भक्त बने बगुला सभी, लुका-छिपी का भोग।।
1571. नीर
आँखों से जब भी बहा, मोती बनकर *नीर*।
बालमीकि के मन जगी, मानवता की पीर।।
1572. नदी
*नदी* जलाशय बावली, जीवन अमरित-कुंड।
ग्रंन्थों में हैं लिख गए, ऋषिवर कागभुशुंड।।
1573. धरती
*धरती* की पीड़ा बढ़ी, कटे वृक्ष के पाँव।
सूरज की किरणें प्रखर, नहीं मिले अब छाँव।।
1574. बिवाई
फटी *बिवाई* पाँव में, वही समझता पीर।
लाचारी की दुख व्यथा, बहे आँख से नीर।।
1575. ताल
*ताल* तलैया सूखते, सूखे नद जल-कूप।
उदासीन दिखते सभी, क्या जनता क्या भूप।।
1576. परिमल
मात-पिता सानिध्य से, मिलता *परिमल* गंध।
ईश्वर की आराधना, मन का है अनुबंध।।
1577. पुष्प
*पुष्प* खिलें जब बाग में, बगिया हो गुलजार।
ईश्वर पर जब हैं चढ़ें, मिलें कृपा के हार।।
1578. कस्तूरी
*कस्तूरी* की लालसा, लेकर भटका कौन।
अंतर्मन में झाँक लें, देख छिपा वह मौन।।
1579. किसलय
कोमल *किसलय* झूमते, झरे पुराने पात।
शाखों पर मुस्कान की, मिली नई सौगात।।
1580. कोकिला
कंठ-*कोकिला* सा लिए, जन्मी भारत देश।
स्वर साम्राज्ञी लता जी, आकर्षित परिवेश।।
1581. चिरैया
उड़ी *चिरैया* प्राण की, तन है पड़ा निढाल।
रिश्ते-नाते रो रहे, आश्रित हैं बेहाल।।
1582. जीव
*जीव* धरा पर अवतरित, करें काम प्रत्येक ।
देख भाल करती सदा, धरती माता नेक।।
1583. धरती
गरमी से है तप रहा, *धरती* का हर छोर।
आशा से वह देखती, बादल-छा घनघोर।।
1584. दरार
दिल में उठी *दरार* को, भरना मुश्किल काम।
ज्ञानी जन ही भर सकें, उनको सदा प्रणाम।।
1585. ग्रीष्म
*ग्रीष्म* तपिश से झर रहे, वृक्षों के सब पात।
नव-पल्लव का आगमन, देता शुभ्र-प्रभात।।
1586. ज्वाल
फिर धधकी वह ज्वाल है, जब भी रहें चुनाव।
मरहम नहीं लगा रहे, बढ़ा रहे नित-घाव।।
1587. शीतलता
नित बरगद की छाँव में, तन-मन रहे प्रसन्न।
शीतलता सबको करे, जो थे तृषित-विपन्न।।
1588. विधान
विधि का यही विधान है, करते जैसा कर्म।
प्रतिफल वैसा ही मिले, जाना हमने मर्म।।
1589. जहाज
जीवन एक जहाज है, सुखद लगे उस पार।
सद्कर्मों की नदी में, फँसें नहीं मझधार।।
1590. पलक
पलक पाँवड़े बिछ गए, राम-लला के द्वार।
दर्शन के व्याकुल नयन, पहुँच रहे दरबार।।
1591. संदूक
पाँच सदी पश्चात यह, आया शुभ दिन आज।
न्यौछावर संदूक हैं, भव्य राम का काज।।
1592. मरुथल
नदियों का गठजोड़ यह, दिशा दिखाता नेक।
मरुथल में अब हरितमा, उचित कदम है एक।।
1593. संविधान
संविधान चलता तभी, चरित्र करें निर्माण।
जनता का हित साधकर, शोषित का कल्याण।।
1594. सरकार
जन सेवक सरकार ही, करती है कल्याण।
यश अर्चन सम्मान सँग,करे प्रगति-निर्माण।।
1595. गणतंत्र
गणतंत्र दिवस की घड़ी, सजी देहरी आज।
जनमानस हर्षित हुआ, बने राम के काज ।।
1596. सरपंच
बनें गाँव सरपंच तब, करें अनोखे काम।
देश तरक्की कर सके, जग जाहिर हो नाम।।
1597. राष्ट्र-पताका
राष्ट्र-पताका देश की, बनी हुई सिरमौर।
सोने की चिड़िया बने, आएगा नव-दौर।।
1598. नया साल
नया साल यह आ गया, लेकर खुशी अपार।
जन-मन हर्षित आज है, झूम उठा संसार।।
1599. नववर्ष
स्वागत है नव वर्ष का, देश हुआ खुशहाल।
विश्व जगत में अग्रणी, उन्नत-भारत-भाल।।
1600. शुभकामना
मोदी की शुभकामना, मिले सभी को मान।
देश तरक्की पर बढ़े, बने विश्व पहचान ।।
1601. दो हजार चौबीस
लेकर खुशियाँ आ रहा, दो हजार चौबीस । भूलो अब तेईस को, मिला राम आसीस।।
1602. अभिनंदन
अभिनंदन है आपका, नए वर्ष पर आज।
कार्य सभी संपन्न हों, बिगड़ें कभी न काज।।
1603. धुंध
धुंध बढ़ रहा इस कदर, दिखे न सच्ची राह।
राजनीति में बढ़ रही, धन-लिप्सा की चाह।।
1604. कुहासा
घोर कुहासा रात भर, पथ में सोते लोग।
मानवता को ढूँढ़ते, आश्रय का शुभ-योग।।
1605. कोहरा
मीलों छाया कोहरा, नहीं सूझती राह ।
प्रियतम-बाट निहारती, घर जाने की चाह।।
1606. बर्फ
जमती रिश्तों में बर्फ, हटे बने जब बात।
रिश्तों में हो ताजगी, अच्छी गुजरे रात।।
1607. शरद
शरद-काल मनमोहता, पंछी करें किलोल।
फूल-खिलें बगिया-हँसे, प्रकृति लगे अनमोल।।
1608. रतजगा
सैनिक करता रतजगा, सीमा पर है आज।
दो तरफा दुश्मन खड़े, खतरे में है ताज।।
1609. प्रहरी
उत्तर में प्रहरी बना, खड़ा हिमालय राज।
दक्षिण में चहुँ ओर से, सागर पर है नाज।।
1610. मलीन
मुख-मलीन मत कर प्रिये,चल नव देख प्रभात।
जीवन में दुख-सुख सभी, घिर आते अनुपात।।
1611. उमंग
पुणे शहर की यह धरा, मन में भरे उमंग।
किला सिंहगढ़ का यहाँ, विजयी-शिवा तरंग।।
1611. चुपचाप
महानगर में आ गए, हम फिर से चुपचाप।
देख रहे बहुमंजिला, गगन चुंबकी नाप ।।
1611. मार्गशीर्ष
मार्गशीर्ष शुभ मास यह, मिलता प्रभु सानिध्य।
भक्ति भाव पूजन हवन, ईश्वर का आतिथ्य ।।
1612. हेमंत
छाई ऋतु हेमंत की, बहती मस्त बयार।
मोहक लगता आगमन, झूम रहा संसार।।
1613. अदरक
अदरक औषधि में निपुण, वात पित्त कफ रोग।
तन को रखे निरोग वह, कर मानव उपयोग।।
1614. चाय
विकट ठंड में चाय की, सबको रहती चाह।
अदरक वाली यदि मिले, सब करते हैं वाह।।
1615. रजाई
गया रजाई का समय, हल्के कंबल देख।
ठंड नहीं अब शहर में, मौसम बदले रेख।।
1616. रंगबिरंगी
रंगबिरंगी वादियाँ, हरतीं मन का क्लेश।
गिरि कानन सरिता सुमन, सुगढ़ रहे परिवेश।।
1617. रमणीय
महल दिखा रमणीय जब, मन आनंद विभोर।
घर का ही पर आँगना, लगता है चितचोर।।
1618. व्यंजना
काव्य व्यंजना रस पगी, चखें सभी सुस्वाद।
बिखराए स्वागत सुमन, मिले दिलों से दाद।।
1619. प्रस्ताव
प्रेम भरा प्रस्ताव पा, खुशियाँ मिलें अपार।
धरा उतरते ही लगा, कुछ को जीवन भार।।
1620. संकेत
समझ गया संकेत से, प्रियतम के उर भाव।
आलिंगन में कस लिया, सूखे दिल के घाव ।।