रामलला की आरती, करता भारत वर्ष।
मंदिर फिर से सज गया, जन मानस में हर्ष।।
मन मंदिर में रम गए , श्याम वर्ण श्री राम।
शायद कारागार से, मुक्त दिखें घन श्याम।।
प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम, बना अयोध्या धाम।
सूर्यवंश के मणि मुकुट, रघुनंदन श्री राम।।
आल्हादित सरयू नदी, लौटा स्वर्णिमकाल।
सजा अयोध्या नगर है, उन्नत भारत भाल।।
हर्षोल्लास का पल अब, लाया है चौबीस।
देश तरक्की कर रहा, मिले कौशलाधीश।।
धनुषबाण लेकर बढ़े, निर्भय सीता-राम।
सरयू तट पर सज गया, राम अयोध्या धाम।।
मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "
घूमा बहुत विदेश में, मिला मुझे यह ज्ञान।
मेरा *भारतवर्ष* यह, जग में बड़ा महान।।
विविध संस्कृतियाँ बसीं, हिल-मिल रहते लोग।
हैं *स्वतंत्र* सब जन सभी, पाते अमृत भोग।।
अमृत वर्ष मना रहे, हम भारत के लोग।
प्रगति राष्ट्र उत्थान में, सबका है यह योग।।
विश्व जगत में बन गई, *स्वाभिमान* पहचान।
अर्थ व्यवस्था पाँचवीं, अब भारत की शान।।
आजादी का *पर्व* यह, हिन्दू संस्कृति पर्व।
सत्य सनातन परंपरा, इस पर सबको गर्व।।
फहराया परदेश में, आज *तिरंगा* देख।
देश-भक्ति की भावना, खिंची बड़ी है रेख।।
अठत्तरवाँ यह पर्व है, मना रहे हम आज।
देश प्रेम में हम पगे, लोकतंत्र सरताज।।
शस्य श्यामला यह धरा, मिली सनातन राह।
झुके नहीं यह राष्ट्र ध्वज, भारत की अब चाह।।
जयति-जयति माँ भारती, हम सब करें प्रणाम।
सुख समृद्धि वर्षा करो, जपते हर-दम नाम।।
तीन रंग का ध्वज बना, बीच है चक्र निशान।
प्रगति ध्वजा फहरा रही, सारे जग पहिचान।।
जयति-जयति माँ भारती, स्वर्ग धरा यह देश।
विश्व गुरू भारत सुखद, विश्व शांति परिवेश।।
जन्म-भूमि है स्वर्ग-सम, भारत भूमि महान।
राम कृष्ण गौतम यहाँ, शिव का नित वरदान।।
अष्ट विनायक हैं यहाँ, ज्योतिर्लिंग महान।
नव दुर्गा को पूजते, सुसंस्कृति का ध्यान।।
धरा प्रफुल्लित हो उठी, पहन कर्म-गणवेश।
सबसे पहले उग रहे, ज्योतिर्वान दिनेश।।
विश्वशांति का पक्षधर, रहा सदा यह देश।
शांति दूत हनुमत बने, धरा कृष्ण ने वेश।।
उत्तर में हिमराज हैं, सच्चे पहरेदार।
ड्रैगन खड़ा निहारता, कैसे लाँघें द्वार।।
सागर चरण पखारता, रक्षा करते सिन्धु।
माँ भारत के माथ पर, तिलक लगाते बन्धु।।
विकसित भारत बढ़ रहा, सबका है उत्कर्ष।
दिल आनंदित हो उठे, होता भव्य प्रहर्ष।।
प्रत्याशा हर राष्ट्र से, हों मानव-हित काम।
हिंसा को त्यागें सभी, बढ़े विश्व में नाम।।
नव-प्रत्यूषा की किरण, बिखरे भारत देश।
जागृति का स्वर गूँजता, बदल रहा परिवेश।।
पुणे शहर की यह धरा, मन में भरे उमंग।
किला सिंहगढ़ का यहाँ, छाई-शिवा तरंग।।
हरियाली चहुँ ओर है, ऊँचे शिखर पहाड़।
मौसम की अठखेलियाँ, मातृ-भूमि से लाड़।।
भीमाशंकर है यहाँ, अष्ट विनायक सिद्ध।
दगड़ू सेठ गणेश जी, मंदिर बहुत प्रसिद्ध।।
महाबलेश्वर की छटा, फिल्म जगत की जान।
शिव मंदिर प्राचीन यह, हरित प्रकृति की शान।।
छत्रपति महाराज की, धरा रही यह खास।
जन्म भूमि शिवनेरि की, नगरी आई रास।।
मराठा साम्राज्य का, केन्द्र बिंदु यह खास।
मुगलों के हर आक्रमण, प्रतिउत्तर आभास।।
छल-छद्मों को हरा कर, जीते थे हर युद्ध।
गले लगाया प्रजा को, बनकर गौतम बुद्ध।।
मुगलों का हो आक्रमण, अंग्रेजों से युद्ध।
पुणे-मराठा अग्रणी, यश-अर्जन सुप्रसिद्ध।।
पेशवाइ साम्राज्य का, प्रमुख रहा यह केंद्र।
स्वाभिमान स्वातंत्र्य की, ज्योति जली रमणेंद्र।।
पर-देशों से कम नहीं, पूना का परिवेश।
ऊँची बनीं इमारतें, देतीं शुभ संदेश ।।
केंद्रबिंदु यह ज्ञान का, रोजगार भरपूर।
शांत सौम्य वातावरण, दर्शनीय हैं टूर।।
आई टी का हब बना, जग में चर्चित नाम।
देश विदेशी कंपनियाँ, करें रात-दिन काम।।
बैंगलोर मुंबई नगर, प्रसिद्ध हैदराबाद।
पुणे शहर की शान को, सब देते हैं दाद।।
भारत का छठवाँ शहर, बना हुआ अनमोल।
शहर बड़ा यह काम का,सभ्य सुसंस्कृति बोल।।
नया वर्ष मंगल करे, दो हजार पच्चीस।
खुशियों की माला जपें,मिटे दिलों की टीस।।
भारत-भू देती रही, अनुपम यह संदेश।
सकल विश्व में शांति हो, मंगलमय परिवेश।।
सुख वैभव की कामना, मानव-मन की चाह।
प्रगतिशील जब हम बनें, मिल ही जाती राह।।
सत्य सनातन की विजय, दिखती फिर से आज।
दफन हुए जो निकल कर, उगल रहे हैं राज।।
समृद्धि-मार्ग पर है बढ़ा, भारत अपना देश।
चलने वाला अब नहीं, छल प्रपंच परिवेश।।
महाकुंभ का आगमन, कर गंगा इस्नान।
जात-पात से दूर रह, रख मानवता मान।।
मंगलमय की कामना, हम सब करते आज।
सकल विश्व में हो खुशी, सुखद शांति सरताज।।
मनोज कुमार शुक्ल *मनोज *
महाशिवरात्रि पर्व में, करते शिव का ध्यान।
आदि शक्ति दुर्गा कृपा, कष्ट हरें श्री मान।।
धरा प्रफुल्लित हो रही,निकली शिव बारात।
शिव की शुभ आराधना, कष्टों को दें मात।।
गंग निकलती जटा से, नीलकंठ है नाम।
चंद्र बिराजे भाल पर, सृष्टि सृजन का काम।।
डम-डम डमरू है बजे, गूजें स्वर अविराम।
सर्जक अक्षर ध्वनि के, दुख-संहारक काम।।
तीन नेत्र के शंभु जी, महिमा बड़ी अपार।
खुला तीसरा नेत्र जब, जगका बंटाढार।।
भस्म लगा कर बैठते, योगी का धर वेश।
हिम गिरि की है कंदरा, शिव शंकर का देश।।
सिंह वाहिनी भगवती, दुष्ट दलन संहार।
दत्तात्रेय गणेश का, वंदन बारंबार।।
भोले भंडारी कहें, या फिर पशुपतिनाथ।
औघड़दानी शंभु जी, झुका सदा यह माथ।।
मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*
दीप-पुंज निःशब्द है, मौन हुआ यह देश।
स्तब्ध विश्व अब देखता, आतंकी परिवेश।।
इजराइल के दृश्य को, उनने दिया उभार।
निर्दोषों का खून कर, पंगा लिया अपार।।
पहलगाम में फिर दिया, आतंकी ने घाव।
नहीं हमें स्वीकार यह, पाकिस्तानी ताव।।
भारत की जयघोष से, मोदी का फरमान।
बचे नहीं आतंक-दल, पहुँचें कब्रिस्तान।।
बुलडोजर अवतार यह, नंदी का ही रूप।
शिव का अनुपम भक्त है, लगता बड़ा अनूप।।
आतंकी के घरों को, तोड़े सीना तान।
काशमीर में चल पड़ा, टूटेगा अभिमान।।
ढहा दिए आतंक गढ़, चला रखा अभियान।
नष्ट किए प्रक्षेप सब, तोड़ दिया अभिमान।।
सुना-धौंस परमाणु का, डरा रहा बेकार।
अपनी जनता का न जो,कर पाया उद्धार।।
बच्चों की मुख चूसनी, कब तक देगी स्वाद।
स्वप्न बहत्तर हूर का, कब्रिस्तानी खाद।।
भारत को सुन व्यर्थ ही, दिलवाता है ताव।
फिर से यदि हम ठान लें, गिन न सकेगा घाव।।
दिखा दिया सिंदूर ने, सैनिक शक्ति महान।
नहीं झुके आतंक से, भारत की पहचान।।
मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*
गुनिया धन है पा गया, बुधिया रहा गरीब।
शिक्षा का मतलब सही, पाएँ बड़ा नसीब।।
मंजिल रहती सामने, चलने भर की देर।
बैठ गया थक-हार कर, पहुँचा वही अबेर।।
भटक रहा मानव बड़ा, ज्ञानी मन मुस्काय।
ईश्वर का तू ध्यान कर, फिर आगे बढ़ जाय।।
दगाबाज फितरत रहे, मत करिए विश्वास।
सावधान उससे रहें, जब तक चलती श्वास।।
उलझन बढ़ती जा रही, सुलझाएगा कौन।
जिनको हम अपना कहें, क्यों हो जाते मौन।।
उमर गुजरती जा रही, व्यर्थ करे है सोच ।
चलो गुजारें शेष अब, हट जाएगी मोच।।
जितना तुझसे बन सके, करता जा शुभ काम।
ऊपर वाला लिख रहा, पाप पुण्य अविराम।।
सुप्त ऊर्जा खिल उठे, जाग्रत रखो विवेक।।
सही दिशा में बढ़ चलो, राह मिलेगी नेक।।
मन-संतोष न पा सका, बैठा पैर पसार।
लालच में उलझा रहा, मिला सदा बस खार।।
निष्ठुर आतंकी घुसे, बुझा गये आलोक।
पहलगाम ने दे दिया, उसे सिंदूरी शोक।।
उठो सबेरे घूमने, रोग न फटके पास।
स्वस्थ रहेंगी इन्द्रियाँ, मन मत रखो उदास।।
मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*
मूर्खों से उलझें नहीं, जीवन का यह सत्य।
चुप रहना ही श्रेष्ठ प्रिय, करें व्यर्थ मत नृत्य।।
ज्ञान वान कब दौंदते, दौंदें सदा लबार।
सच्चाई पर झूठ की, डालें परत हजार।।
पछताए अब होत क्या, पंछी चुग गए खेत।।
सावधान रहना सदा, मिलते शुभ-संकेत।।
मीठी वाणी बोलिए, छाती सभी जुड़ाय।
कोयल कूके आम पर,अमरित पान कराय।।
सदा सत्य का पक्ष लें, यही उचित है राह।
नारायण सत् में बसें, पूरण करते चाह।।
विनम्र भाव से जीतिए, सबका मन श्रीमान।
यही काम में आएगा, होंगे तब धनवान।।
ज्ञानी अपने ज्ञान से , हरता सब अज्ञान।
मूरख ज्ञान बखारता, सबको इसका भान।।
सूर्य देव उत्तरायणे, मकर संक्रांति पर्व।
ब्रह्म महूर्त में उठें, करें सनातन गर्व।।
ईश्वर की आराधना, भक्ति भाव का योग।
तिल के लड्डू को बना, सँग खिचड़ी का भोग।।
पोंगल हो या लोहड़ी, मतलब तो बस नेक।
मिल जुल खुशी मनाइए, सभी सनातन एक।।
मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "