हाथों में श्रम के हैं छाले.....
हाथों में श्रम के हैं छाले।
छाती में शोषण के भाले।।
प्रकृति सभी को उपकृत करती,
बाँट रहे हम विष के प्याले ।
गंगा पर उछाड़ने कीचड़
उमड़े अवसरवादी नाले
बुरे काम का बुरा नतीजा,
कहने वालों के मन काले
सोना जब भट्टी में तपता,
बिखराता है खूब उजाले।
झूठ कुतर्क भले रचता है
सच्चाई के तथ्य निराले।
कैसी विषम परिस्थिति छाई,
हर मंदिर में लटके ताले।
नेता का संरक्षण पाकर
चापलूस फिरते मतवाले।
नेक राह पर चलते हैं जो
ईश्वर देता उन्हें निवाले।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’