कुछ मैं खाऊँ कुछ तू खाले.....
कुछ मैं खाऊँ कुछ तू खाले ।
फिर पैसों के पड़ें न लाले।।
जात-पाँत में बटी है जनता,
पहुँच गए कुछ मन के काले।
रेवड़ी का बजार गर्म है ,
लुभा रहे नदियों को नाले।
नारों से सत्ता अब चलती,
नेताओं के ढंग निराले ।
झूठे सपने दिखा रहे हैं,
लोलुप-सत्ता के रखवाले।
देख सुशासन खाता चारा,
मिलते गंगा में अब नाले ।
राजनीति की बिछी बिछायत,
जीजा जिज्जी लड़ते साले।
नेताओं की भ्रष्टाचारी,
शोषण के चुभते हैं भाले
मूर्ख बनाते जो जनता को,
कुंडलियों को कौन खँगाले।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’