जीवन में उलझन हैं भारी.....
कुछ मैं खाऊँ कुछ तू खाले ।
फिर पैसों के पड़ें न लाले।।
जात-पाँत में बटी है जनता,
पहुँच गए कुछ मन के काले।
रेवड़ी का बजार गर्म है ,
लुभा रहे नदियों को नाले।
नारों से सत्ता अब चलती,
नेताओं के ढंग निराले ।
झूठे सपने दिखा रहे हैं,
लोलुप-सत्ता के रखवाले।
देख सुशासन खाता चारा,
मिलते गंगा में अब नाले ।
राजनीति की बिछी बिछायत,
जीजा जिज्जी लड़ते साले।
नेताओं की भ्रष्टाचारी,
शोषण के चुभते हैं भाले
मूर्ख बनाते जो जनता को,
कुंडलियों को कौन खँगाले।
जीवन में उलझन हैं भारी।
लगी सभी को यह बीमारी।।
फुटपाथों पर जीवन गुजरे,
हाथ पसारे खड़े भिखारी।
नदी पार करना भी सीखो,
हारेगी तुमसे बेकारी।
पग-पग बाधा आती रहतीं,
चाहे नर हो या फिर नारी।
आशाओं का दीप जलाओ,
कभी न निकलेगी सिसकारी।
मन में छाए नहीं निराशा,
निभ जातीं हैं जिम्मेदारी।
साहस धीरज कभी न हारे,
जीती उसने, बाजी हारी।
जन्म-मरण सँग जीना हमको,
इसको कहते दुनियादारी।
सुख-दुख तो बस धूप-छाँव है,
फिर भी गूँज रहीं किलकारी।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’