सब बिछुड़ते जा रहे मनमीत.....
सब बिछुड़ते जा रहे मनमीत हैं।
चल रही अब आंँधियांँ विपरीत हैं।।
बैठकर खुशियांँ मनाते थे कभी,
आँगनों में खिच रहीं अब भीत हैं।
है समय बदला हुआ यह चल रहा,
धर्म और ईमान सब विक्रीत हैं।
युग युगांतर से पले संस्कार को,
नेह-रिश्तों में मिले नवनीत हैं।
खींच दीं लक्ष्मण रेखा द्वारों में,
पार करने पर हुए मुख-पीत हैं।
चुनावों की फिर गदर है मच रही,
शांति प्रिय ही लोग फिर भयभीत हैं।
देश के निर्माण में हैं जो लगे,
उनको संबल दें तभी सुनीत हैं।
मिल रही हैं धमकियां उस पार से,
फिर भी अपने भाव सब पुनीत हैं।
है बदलती जा रही तस्वीर अब,
विश्व में सारे हमारे मीत हैं।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’