मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’
पिता श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्री नाथ’ की इस पुस्तक को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने में मुझे काफी समय लग गया । जिसके अनेक कारण थे । पहला,मेरे द्वारा डायरी के लगभग 245 पृष्ठों को कम्पोजिंग के बाद कम्प्यूटर के वायरस ने डेढ़ माह की सारी मेहनत बेकार कर डाली । कुछ समय तक तो मैं हार मान कर बैठा गया किन्तु फिर उनकी लिखी डायरी ने मुझे सम्मोहित किया । मुझे ढाढस बंधाया और प्रेरणा दी, फिर नए सिरे से टाइपिंग कार्य में जुट गया, अन्तोगत्वा सफलता मिली । अपने मार्गदर्शक साथी श्री विजय तिवारी ‘किशलय’ एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री सनातन बाजपेयी जी से सलाह ली। दूसरी ओर उनकी डायरी में लिखे तीखे तेवरों को संवारने में मुझे बदलाव करना पड़ा । ताकि उनके किसी भी पात्रों के मन में चोट न पहुँच पाए । चूँकि हमारे पिता जी ने डायरी की शुरूआत में ही मुझे लिखित में यह अधिकार दे गए थे। हालाकि कुछ लोंगों का आग्रह था कि ज्यों का त्यों लिखना ही सही है किन्तु मुझे उचित नहीं लगा ।
पिता जी के जीवन काल में उनके बड़े पुत्र होने के नाते मुझे काफी लम्बे समय तक उनके सानिद्धय में रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। घर की आर्थिक विपन्नता किसी से छुपी हुई नहीं थी । उनकी हमसे बहुत कुछ अपेक्षाएं भी थीं,जो हर पिता अपने बड़े पुत्र से रखता है। इस लिहाज से मुझसे हर छोटी बड़ी समस्याओं पर सलाह मशवरा भी करने लगे थे। दोनों मिलकर परिवार के हर सुख-दुख में अपनी हिस्सेदारी बंटाने लगे थे। यहीं से हमारी पिता-पुत्र की अंतर्ररंगता एवं आत्मीयता का अभ्युदय हुआ था । मैं उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश भी करता रहा ।
मुझे अपने पूर्वजों की तीन पीढ़ियों का दर्शन और प्यार पाने का शुभ अवसर मिला । इसके लिए हम अपने आपको काफी भाग्यशाली मानते हैं । पिता जी का लिखा साहित्य सदा से ही मुझे प्रेरणा देता रहा है । पिता जी घर में बड़े होने के नाते परिवार के प्रति कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व के निर्वहन की चुनौती के कारण साहित्य से कटते जा रहे थे। जो मुझे वर्षों तक कचोटता रहा । हर पुत्र अपने पिता के सद्गुणों को पुष्पित-पल्लवित होते देखना चाहता है । वे मुझे बचपन में हिन्द पाकेट बुक्स की किताबंे मंगवाकर पढ़ने देते थे, तो मेरे अंदर का अंकुरित नन्हा सा साहित्यकार अपने पिता को भी उसमें प्रकाशित होते देखना चाहता था । चाहने और करने में बड़ा अंतर होता है। कालान्तर में शायद इसीलिए पिता जी ने मुझे हिन्दी साहित्य की जगह कामर्स लेकर पढ़ने को बाध्य किया । उनका यह आदेश मेरे जीवन और परिवार के लिए वरदान भी बना ।
मेरे बैंक में नौकरी लगते ही परिवार की गाड़ी पटरी पर दौड़ने लगी थी । वर्षों के अंतराल के बाद उनके अंदर सोए साहित्यकार को मेरी बेटी अर्थात उनकी नातिन सपना ने जगा दिया । उसने मेरे उस सपने को ‘एक पाव की जिंदगी ’ कहानी संग्रह के माध्यम से साकार करने का अवसर दिया । पिता जी ने मेरी नानुकुर के बाद भी मेरी कहानियों को भी उसमें डलवाकर पिता-पुत्र की कहानी संग्रह का नाम करण कराया। मैंने रायपुर में उनकी उपस्थिति दर्ज करवाकर उसका भव्य विमोचन भी करवाया। पाठक गण उनकी कहानियों को पढ़ने के लिए गूगल में ‘एक पाव की जिंदगी’ डालकर इन्टरनेट के माध्यम से भी पढ़ सकते हैं।
कापियों में उनके लिखे दो उपन्यास आज भी मेरे पास सहेज कर रखे हुए हैं। इसी बीच उनके अंदर का साहित्यकार जाग चुका था, अपने अतीत को अपनी डायरी में सहेज कर मुझे सौगात के रूप में चुपचाप थमा गए । जो उनके निधन के बाद अचानक मेरे हाथों में लगी । शायद मुझे यह सरप्राईज के रूप में देना चाहते थे, इसके बारे में मुझे कभी भनक भी नहीं लगी ।
ऐसी परिस्थिति में मैं अपने पिता की अंतिम इच्छा को पूरा करने का एक प्रयास कर रहा हूँ । मैं नहीं चाहता था कि इससे विमुख होकर मैं जीवन भर आत्म ग्लानि की अग्नि में जलता और पछताता रहँू ।
आज मुझे खुशी इस बात की है कि उन्होंने जो हमें यह कार्य सौंपा, उसका निर्वाहन कर रहे हैं । इस पुस्तक में उनकी लिखी कहानियों की लिस्ट को एवं कुछ अपनी नातिन सपना दुबे को लिखे पत्रों की बानगी को भी देने का प्रयास किया है। हमारे लिए यह गौरव की बात है कि उन्होंने हमारे पूर्वजों की गाथा को लिपिबद्ध ही नहीं किया वरन् देश की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण भी किया है । वे अपने अतीत की अनमोल धरोहर हमें सौंप गये हैं । जिसे संभाल कर रखना हमारा कर्तव्य एवं दायित्व भी है ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’
58,‘आशीष दीप’ उत्तर मिलौनीगंज
जबलपुर (म.प्र.)