डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
प्रवाहमय मानव जीवन में लयबद्धता, नियमितता एवं सामंजस्य की प्रधानता होती है। इनके अभाव में बिखराव की परिस्थितियों का निर्माण स्वाभाविक है। मानव मस्तिष्क में स्मृतियाँ अथवा यादें वे माध्यम हैं जो हर कहीं संपर्क स्थापित करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। यादों के सहारे समाज में संबंधों को बखूबी निभाया जाता है। मेरी मान्यता है कि हम यादों से एकाकीपन को निजी जीवन में हावी होने से बचा सकते हैं। यदि हमने जीवन की यादों को लिपिबद्ध कर लिया है तो वह ऐतिहासिक धरोहर बन जाती है। हमारे इर्दगिर्द नाना-नानी की कथाओं से लेकर वर्तमान तक के ऐसे असंख्य ग्रंथ, अभिलेख एवं लिखित संस्मरण उपलब्ध हैं जो हमें तात्कालिक वातावरण, परिस्थितियों, धर्म, समाज तथा मानवीय मूल्यों से परिचित कराते हैं। लोग ज्ञान की दृष्टि से इन सबका अध्ययन भी करते हैं।
अनेक लोगों ने दैनन्दिनी, संस्मरण, रिपोर्ताज शैली में अपने अतीत की घटनायें एवं अनुभव लिखे हैं। इन्हीं में एक नाम पूज्य श्री रामनाथ जी शुक्ल ‘श्रीनाथ’का भी है। जिन्होंने विभिन्न संस्मरणात्मक आलेखों के रूप में ‘यादों के झरोखे’ शीर्षक से एक कृति का सृजन किया है। इसमें इन्होंने अपने पैतृक गाँव, बचपन, वैवाहिक परिदृश्य,परिवार, ग्राम्यांचल, पारिवारिक रिश्तों, व्यवसाय, राष्ट्रप्रेम, स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य एवं सामाजिक बातों, का विवरण प्रस्तुत किया है। तथ्यात्मक और सरल भाषा में लिखी गई यह कृति हमें आज से लेकर 80-90 वर्ष पूर्व तक के भारतीय परिवेश में वापस ले जाती है। उत्तर प्रदेश के महोबा से मध्यप्रदेश के सीलोन (छतरपुर), फिर जबलपुर में आकर स्थापित होने के दौरान व्यतीत बचपन की स्मृतियाँ, अपने मामा जी की सेवा, अपने पिता जी एवं भाईयों के चरित्रचित्रण तथा व्यवसाय आदि का उल्लेख हमें सोचने पर मजबूर करता है कि लोग बिना बिजली, बिना आवागमन के साधन एवं बिना संचार माध्यम के कैसे आदर्श जीवन जी लेते थे। उन दिनों मेला, तीज-त्यौहार, रामलीला एवं संगीतमय भजन-कीर्तन ही मनोरंजन तथा मेल-मिलाप के साधन हुआ करते थे। इन दिनों अंग्रेजों का खौफ उनकी खुशियों और जीवन यापन में ग्रहण जैसे थे।
खुशियों व बच्चों के सुखी भविष्य की आकांक्षा के चलते आपके पिता श्री सरमन प्रसाद जी शुक्ल को बड़े अनमने भाव से मातृभूमि छोड़कर जबलपुर आना पड़ा। यहाँ विभिन्न परिस्थितियों का सामना करते हुए। श्रेष्ठ संस्कारों, संतोषी स्वभाव एवं कर्मकांडी ब्राह्मण की छवि लिए शीघ्र ही समाज में अपना स्थान बनाने में इन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई। पूज्य रामनाथ जी शुक्ल का बचपन मिलौनीगंज में ही बीता। बचपन की अनेक घटनाओं एवं साहित्यिक अभिरुचि के उल्लेख से यह तो स्पष्ट है कि आप प्रारंभ से ही सृजनात्मक प्रवृत्ति के थे। आपने अपने अध्ययन काल, व्यवसाय हेतु भिलाई प्रवास में भी अपनी सृजनात्मक अभिरुचि को जागृत रखा।
अपने परिवार को एक सूत्र में पिरोए रखने के साथ इनके द्वारा दी गई शिक्षा, संस्कार एवं संबंधों के निर्वहन का प्रभाव आज भी आपके जेष्ठ पुत्र मनोज शुक्ल ‘मनोज’ एवं परिवार के अन्य सदस्यों में भी दिखाई देता है। मनोज शुक्ल जी वर्तमान में संस्कारधानी के स्थापित कवियों एवं कहानीकारों में शामिल हैं।
प्रस्तुत कृति में समसामयिक 50 से अधिक विषयों पर आधारित आलेख समाहित हैं, जो पूज्य रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’के पूर्व एवं पश्चात की पीढ़ी का आईना कहे जा सकते हैं। प्रमुखतः ग्राम्यदर्शन एवं सामाजिक परिवेश, शरद पूर्णिमा का मेला, रिश्तों के अटूट बंधन, जबलपुर में पहला पड़ाव, विषाक्त वातावरण के बीच राष्ट्रप्रेम, मेरी साहित्यिक यात्रा, त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन, स्वयं की बारात का रोचक प्रसंग, घर खरीदने का सपना, मेरे पुनर्जन्म की एक घटना, पारिवारिक उतार-चढ़ाव की कहानी जैसे विविध विषयक आलेख बेहद रोचक बन पड़े हैं।
बीसवीं सदी के तीसरे एवं चैथे दशक में भारत की आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय थी। साक्षरता, बिजली, उद्योग एवं आवागमन के साधन नगण्य थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणाम महँगाई के रूप में सामने थे। यह बात अलग थी कि इन सबके बावजूद स्वतंत्रता संग्राम का जज्बा देशवासियों में हिलोरे ले रहा था। तिलक, नेहरू, आजाद, भगत, गांधी जी, एवं सुभाष बाबू की सक्रियता के चलते लोग घरों से बाहर निकल रहे थे। जबलपुर के 52वें त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन के बाद सुभाष बाबू की आजाद हिंद सेना में लोगों के भर्ती होने की उत्सुकता दिखाई दे रही थी। सेना को इंफाल कब्जे के दौरान मिली विफलता ने स्वातंत्र्य वीरों को निराश किया था। त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में लोगों के उत्साह एवं भव्यता का भी वर्णन किया गया है, लेकिन दूसरी ओर हिंदू-मुस्लिम कट्टरता का भी पैर पसारना लेखक को बुरा लगा। जबलपुर में भी झगड़े तथा पथराव होने लगे थे। ये करतूतें कट्टरपंथियों की थीं, हर कोई ऐसा नहीं था। ‘भाईचारे की अनूठी मिसाल की कहानी’शीर्षक के संस्मरण में श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’जी ने बताया कि एक बार मुस्लिमों द्वारा पथराव एवं हमले से उन्हें और उनके साथियों को अपनी जान की परवाह ना करते हुए एक मुस्लिम परिवार ने ही उन्हें अपने घर में सुरक्षित रखा। सन 1947 में देश की आजादी के समय पाकिस्तान बंटवारे से उत्पन्न तात्कालिक घटनाओं से भी उन्हें व्यथित पाया।
देश की आजादी, रियासतों का एकीकरण, गांधी जी एवं सरदार पटेल के अवसान जैसी घटनाओं के उल्लेख से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई है कि पूज्य रामनाथ जी शुक्ल के बुद्धि-विवेक का दायरा व्यापक था। उनकी सोच तथा समझ ने उनके पूरे परिवार को जहाँ स्थायित्व प्रदान किया वहीं शिक्षा संस्कारों के संवर्धन में भी विशेष सहयोग दिया। फरवरी 1952 में देश के पहले आम चुनाव से 1971 के पाँचवें आम चुनाव तक का लेखा-जोखा एवं विश्लेषण करना उनकी राजनैतिक रुचि का प्रमाण है।
आदर्श दैनन्दिनी, संस्मरण अथवा आलेखों की विशेषता यह होती है कि उनमें मुख्य विषयवस्तु के अतिरिक्त समाज, प्रकृति, धर्म, राजनीति एवं वर्तमान घटनाओं के साथ-साथ विभिन्न विषयों पर अपने विचार भी समाहित रहते हैं। हमें अच्छा लगा कि पूज्य रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’जी द्वारा प्रस्तुत संस्मरणों में उपरोक्त सभी बातों का समावेश है।
सन 1962 का चीन आक्रमण, सन 1965 में पाकिस्तान का कश्मीर पर हमला, ताशकंद समझौते के चलते शास्त्री जी की मृत्यु, दक्षिण में हिन्दी विरोध। इसी तरह पंजाब-हरियाणा बँटवारा, मेघालय की स्थापना अहमदाबाद एवं भिवंडी के सांप्रदायिक दंगे, पाकिस्तान से युद्ध और बांग्लादेश की स्वतंत्रता की बात हो। इस तरह आपने विभिन्न सामयिक व तात्कालिक घटनाओं को लिखकर इतिहास बनाया है। ये पाठकों के लिए जानकारी के स्रोत सिद्ध होंगे। कृति में निहित राजनैतिक आलेख, पारिवारिक बातें, सामाजिक घटनाएँ अथवा राष्ट्रीय गतिविधियों ने आपकी लेखनी को सार्थक सार्थकता प्रदान की है।
अंत में हम यह कह सकते हैं कि यह कृति पिछली सदी एवं वर्तमान सदी में घटित ऐसी अनेक घटनाओं का दस्तावेज बन पड़ी है जो हमें भारत के सामाजिक परिवेश से परिचित कराती है। पढ़ते समय यह ‘यादों के झरोखे से’नामक संस्मरणात्मक कृति हमें भी अपना हिस्सा बना लेती है। पूज्य रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’जी ने भले ही स्वान्तः सुखाय लिखा हो परंतु इसे पढ़कर प्रत्येक पाठक को बहुत कुछ सीख मिलेगी। मैं इनके कृतज्ञ ज्येष्ठ पुत्र श्री मनोज शुक्ल ‘मनोज’ को भी साधुवाद देता हूँ जिन्होंने अपने पिताजी के संस्मरणों को साहित्य जगत में अमर बना दिया।
डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’
साहित्यकार, पत्रकार एवं ब्लागर