आत्मानुभूतियाँ
ऊॅंचाई की चाह में, हुये घरों से दूर ।
मन का पंछी अब कहे, हैं खट्टे अंगूर ।।
ईश्वर ऐसा ना करे, मात - पिता से दूर ।
हम तो इस परदेश में, हो गये सच बेनूर ।।
करना है आराधना, इसका मुझे न ज्ञान ।
प्रभु के निकट न जा सका, मैं बिल्कुल अज्ञान ।।
तुम सोचो हम - गुरू हैं, धुर बाकी के लोग ।
समझो उस दिन से लगा, तुम्हें अहं का रोग ।।
पाप - पुण्य उनके लिये, जो करते बस पाप ।
लेकिन सज्जन पुण्य कर, हो जाते निष्पाप ।।
सच्चा सुख है शांति से, जीवन जीना यार ।
किच-किच में है जो जिया, वह जीवन बेकार ।।
न्य़ाय और अन्याय पर, चर्चा सबकी नेक ।
विपदा आती स्वयं पर, होते फेल अनेक ।।
पढ़ने - लिखने से सदा, मन तेजस्वी होय ।
अनपढ़ होकर जो जिये, सारा जीवन रोय ।।
तन - मन रोगों से घिरे, जो सोये दिन - रात ।
कर्म - क्षेत्र में जो रमे, वे होते विख्यात ।।
सपनों में जो जिये तो, खुद जीवन उलझाय ।
जीने के सपने बुने, तो जीवन मुसकाय ।।
सब कृतघ्न होते नहीं, दुनियाँ में इंसान ।
जो कृतज्ञ होते वही, पाते हैं सम्मान ।।
माँ ममता की मूर्ति है, पिता ज्ञान की खान ।
इसमें जो होकर तपे, बनते वही महान ।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’