अतीत की खिड़की में निहारती माँ
अपने अतीत में
निहारती माँ
आज परेशान है-
अपने हाथ और पैर से
जिसके बल पर वह
घर आँगन को बुहारकर
साफ सुथरा कर देती थी ।
और फिर नहा धोकर
आँगन के किनारे बने
मंदिर की घंटियाँ
रोज सुबह – शाम
बजाती थी ।
हाथ जोड़कर भगवान से
दुआ माँगती थी ।
और सूर्य को अर्ध्य देकर
सबके मंगल की
कामना करती थी ।
फिर वह इन्हीं हाथों से
आटा गॅूंथ कर
गरम तवे पर
सबको गरम रोटियाँ
खिलाने आतुर रहती थी ।
‘‘सदैव अतिथि देवो भव ’’
की परम्परा का
निर्वाह करने वाली माँ
आज लाचार है,
उन्हीं हाथों और पैरों से
जो आज बेजान हैं ,
निष्क्रिय हैं ।
और वह बेबस है ।
माँ देख रही है,
उस अतीत को
और अपने
इस वर्तमान को ।
सचमुच आज
उसके अतीत से
वर्तमान परास्त है ।
तभी तो आज भी उसे
अपने अतीत पर
गर्व है, नाज है ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’