बन्धु मेरे जा रहा मैं.....
बन्धु मेरे जा रहा मैं , आज सब कुछ छोड़ कर,
अब बिदा कर दो मुझे, तुम नेह नाते तोड़कर ।
जो सँवारा औ बनाया, कर्म की इस भूमि पर,
त्याग कर सब जा रहा मैं ,अब कफन को ओढ़ कर ।
जन्म देकर गर्भ से, माँ ने खिलाया गोद में,
औ पिता की बाँह थामे, चल पड़ा इस दौड़ में ।
बन्धु- बांधव, धाम - धन के, अनगिनत रिश्ते गढ़े,
जिन्दगी जीने की खातिर, कितनी हम मंजिल चढ़े ।
मूर्ति में अभिमान की ढल, कितने तो अकड़े रहे,
मान और अपमान की, जंजीरों में जकड़े रहे ।
कुछ ने जीने की कला को, ज्ञानी बन कर जी लिया,
उनने जीवन पर विजय पा, जिंदगी को जी लिया ।
अब नहीं श्रँगार की, दर्पण की अभिलाषा मुझे,
ना किसी के नेह की, ना प्रेम की आशा मुझे ।
पत्नी का क्रन्दन मुझे, किंचित डिगा न पाएगा,
पुत्र वधुओं का न आग्रह, अब मुझे छल पाएगा ।
अर्थी कैसी भी सजा लो, चलना है प्रस्थान पर,
यह तो तन निर्जीव है, बस ले चलो शमशान घर ।
मोह से अब क्या मिलेगा, यह ना चल फिर पाएगा,
एक दिन मुश्किल पड़ेगा, कल तलक गल जाएगा ।
रो लो जितना रो सको तुम, अब नहीं उठ पाउॅंगा,
आँसुओं की धार में भी, अब ना मैं बह पाउॅंगा ।
मेरे इस निष्प्राण तन से, चेतनाएँ लुप्त हैं,
द्वार सब संवेदना के, टूट कर परिलुप्त हैं ।
जन्म है तो मौत निश्चित, यह कथानक सत्य है,
युग - युगान्तर से चला आया, सनातन सत्य है ।
जिंदगी का खेल यह, सदियों से चलता आ रहा,
जो खेल बढ़िया खेलता, वह अमर होता जा रहा ।
जब तलक तन में हमारे, प्राण था – विश्वास था,
आप सबके प्यार व, अनुराग का संसार था ।
प्रेम का दीपक जलाकर, तिमिर को हरता रहा,
सपनों की मंदाकिनी में, नाव को खेता रहा ।
चक्र जीवन - मृत्यु का यह, है निरंतर चल रहा,
आज कोई जा रहा, तो कल है कोई आ रहा ।
आगमन - प्रस्थान ही, हर प्राणियों का लक्ष्य है,
गीता का संदेश ही, जीने का अंतिम सत्य है ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’