बोली भाषा अलग पर.....
मैं कुर्सी पर बैठकर, देख रहा परिदृश्य ।
मन संवेदित हो गया, मुझे भा गया दृश्य ।।
नन्हीं चिड़िया डोलती, शयन कक्ष में रोज ।
चीं चीं करती घूमती, कुछ करती थी खोज ।।
चीं चीं कर चूजे उन्हें, नित देते संदेश ।
मम्मी पापा कुछ करो, क्यों सहते हो क्लेश ।।
नीड़ बना था डाल पर, जहाँ न पत्ते फूल ।
झुलसाती गर्मी रही, जैसे तीक्ष्ण त्रिशूल ।।
वातायन से झाँककर, देखा कमरा कूल ।
ठंडक उसको भा गयी, हल खोजा अनुकूल ।।
कूलर से खस ले उड़ी, वह नन्हीं सी जान ।
तेज तपन से थी विकल, वह अतिशय हैरान।।
पहुँच डाल उसने बुना, खस-तृण युक्त मकान ।
मिला ग्रीष्म ऋतु में उचित, लू से उसे निदान ।।
सब में यह संवेदना, प्रभु ने भरी अथाह ।
बोली भाषा अलग पर, सुख की सबको चाह ।।
कौन कष्ट कब चाहता, जग में जीव जहान ।
सुविधायें सब चाहते, पशु-पक्षी इन्सान ।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’