बूढ़ी आजी माँ और मैं
मैं
टकटकी लगाए
देख रहा हॅूं ,
उन हाथों को
जो कर्मठता के
प्रतीक थे ।
माटी के लौंदो में
सने वे हाथ
अपने व अपने-
जिगर के टुकड़ों के लिए
घरौंदा बनाने
कितने उतावले थे ।
संग्रह की प्रवृत्ति ने
उन्हें कहीं का न छोड़ा था ,
तन तार-तार कर दिया था -
और सम्पूर्ण जीवन
लगा दिया था, दाँव पर ।
तब कहीं जा कर
एक घर बना था ।
ऐसा घर, जहाँ पूरा
कुनबा का कुनबा
रह रहा था-बड़े ठाट से,
बड़े आराम से ।
आज वही हाथ
झुर्रियों से भऱे थे -
और काँप रहे थे ,
किसी सहारे की आस में ।
इस कोने से उस कोने
घिसट- घिसट कर
लोगों के दिलों में
बैठने भर के लिये
स्थान ढूँढ़ रही थी ।
पर जगह तो
बिल्कुल सिमट कर
रह गयी थी ।
अब तो वह मात्र
पूजा गृह से बुहारे गये
बासे फूलों
और शेष बचे हवन के
कचरे जैसी थी ,
जिसे यूँ ही झाड़ कर
कहीं भी नहीं डालते
क्योंकि ऐसा करने से
लगता है -पाप ।
फिर तो उसे अभी कुछ दिन और
एक कोने में पड़े रहना है ।
जब तक वह ढेर न हो जाये,
ऐसा करने से किसी को भी
पाप नहीं लगेगा ।
और साथ ही सब पुण्य के
भागीदार बनेंगे ।
बस सभी को इंतजार है,
उनकी मृत्यु और उनसे मुक्ति का ।
जीवन का यह अंतिम सत्य
इसी तरह बार-बार दुहराया जाता है ।
इसीलिए कभी -कभी
मुझे अपना शरीर भी
झुर्रियों के आवरण से ढॅंका,
कमानी सा झुका,
खाँसता खखारता-
और हड्डियों के ढाँचे सा
किसी डॉक्टर की डिस्पेंसरी में टंगा
कैडलॉक सा नजर आता है।
बूढ़ी आजी के
काँपते तन के समान
स्वयं को पाता हूँ ।
और लगता है- मैं भी
उस कचरे के समान पड़ा हूँ ,
एक किनारे
ढेर होने के लिए ।
कोई आए और मुझे भी
विसर्जित कर आए ।
शायद इसी को
प्रत्येक के जीवन की
नियति कहते हैं ।
या कृतघ्नता की
पराकाष्ठा ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’