चेतना का सूर्य
मेंढक का टर्र-टर्र चिल्लाना
और शिकारी सर्प द्वारा
उसे जबड़ों में दबोचे
धीरे-धीरे
जिंदा ही निगलना ।
दूसरी ओर मूक दर्शक
भीड़ का निहारते रहना -
कितना अजीब सा लगता है,
संसार का यह तमाशाई खेल ।
जो युगों-युगों से इसी तरह
चलता चला आ रहा है ।
इसे विवशता कहें या लाचारी,
धर्म कहें या अधर्म
या कहें अकर्मण्यता ।
कुछ समझ में नहीं आता।
जब कभी कोई बचाने भीड़ से
आगे बढ़ता है,
तो तर्कशाही उसे
पीछे की ओर खींच ले जाता है ।
कोई कहता
यही उसकी नियति है,
तो कोई कहता है-
यही उसका आहार है
और निराहार का कौर छीनना
तो बड़ा भारी पाप है।
तभी एक कहता है -
मेरे भाई ,
यह सब मिथ्या है।
मेंढक तो एक जीव ही है
और सांप तो काल चक्र का
एक प्रतीक है ।
यही तो है,
जो उसे मुक्ति दिलाकर
पुनर्जन्म के
द्वार खोल रहा है ।
और तू है ,जो अभी तक
इस सर्प को ही
कोस रहा है ।
कोई कहता है ,सर्प को
पत्थर मार कर
भगाने के लिये
न जाने कितनों से
लड़ना होगा ,
और हो सकता है,
विधि के विधान को भी
नकारना होगा ।
किन्तु
सच्चाई तो यही है,साथियो
सर्प आराम से
इन सुरक्षा कवचों में
सुरक्षित
निगल रहा है,
उस निरीह मेंढक को ।
जो अब तक केवल
मौत की बाट
जोह रहा है
और जानते हुये भी
यह मुक्ति का संघर्ष
उसे ही करना है ।
फिर भी वह
टर्र...टर्र...,टर्र... टर्र..
चिल्लाए जा रहा है ।
शायद कभी
इस क्षितिज पर
चेतना का नया सूर्य
ऊग आए
और मुझे इस सर्प से
मुक्ति दिला जाए ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’