गांधी संग्रहालय से - एक साक्षात्कार
पहुँचा उस दिन, राजघाट में -
देखा वैभव गांधी जी का ।
अपने राष्ट्र के राष्ट्र पिता थे ,
स्मारक था-उनके अनुरूप ।
वह तो था, सब ठीक किन्तु
जब संग्रहालय में पहुँचा उनके -
बड़े जतन से, बड़े यतन से
रखा हुआ था-सब सामान ।
हाथ की लाठी आँख का चश्मा
कमर घड़ी और पाँव की चप्पल
खाने के - बर्तन भी देखे,
लिखने की-दावात कलम,
खून में सनी-वह एक लंगोटी,
चरखा पोनी भी साथ दिखी ।
सादा जीवन उच्च विचार की
वह झलक हमें झकझोर गई ।
राष्ट्रपिता की सादगी हमको
सीधे जमीन में गाड़ गई ।
मौन उन्हें मैं देख रहा था,
वे कातर सी देख रहीं थीं ।
मन के भाव भाँप कर बोली -
वह प्यारी गांधी की लाठी
उनके हर पग साथ चली थी,
जो सत्य न्याय का अवतारी था ।
मैं बनी सहारा गांधी जी का
जो अहिंसा का परम पुजारी था ।
पर हाय री, मेरी किस्मत देखो
किनके हाथों थमा दिया ।
स्वजनों का ही रक्त बहाने
मुझको कैसे फॅंसा दिया ।
गांधी की वह एक लंगोटी
मंद-मंद मुस्काई थी ,
बड़े प्रेम से बोली मुझसे -
कंगाली का रूप देखकर
अपनाया था, उनने मुझको ।
सबके तन को ढॅंकने खातिर
पहन मुझे वे घूमे थे ।
पर भोग विलासी मानव ने तो
सचमुच कितना गजब ढा दिया ।
तन को तो नंगा कर डाला
मन को भी तो न छोड़ा ।
मर्दों की बात करें हम क्या
नारी ने कदम बढ़ा डाले ।
चश्मा भी चुप क्यों रहता ।
वह बोल उठा यूँ खरी -खरी ।
आँखों के अंधों को देखो,
घूम रहे हैं गली -गली ।
मन में आए भावों को
आँखों से खूब पढ़ा जाता है ,
पर काले चश्मों की फैशन ने
सचमुच कितना गजब ढा दिया-
बेशर्मी शैतानी ढॅंकना
अब तो बहुत सरल होता है ।
अहिंसा के सीने में खुलके
हिंसा ने होली खेली थी ।
गांधी जी को छेद गई थी
मैं मनहूस अभागिन गोली ।
बोली वह-इतिहास बनी में,
यहाँ पड़ी हूँ –
इस अनमोल तिजोरी में ।
मुझसे शिक्षा न ले पाया
खेल रहा - वह गोली से ।
कितने गांधी और गिरेंगे
भारत तेरे आँगन में ।
कमर घड़ी का काँटा देखो -
बंद पड़ा है, शीशे में ।
किसे फिकर है, वक्त को परखे
और साथ चले हर पग पग में ।
अब समय चक्र का काँटा देखो
कितना धीमा चलता है ।
कितनी ऐसी और धरोहर
यहाँ वहाँ बेजान पड़ी थीं।
एक समय उनका भी था ,
जब गांधी के संग चलती थीं ।
इतिहास हमें क्या माफ करेगा ?
हमने यह क्या कर डाला ?
कहाँ वो रहना चाह रही थीं ?
कहाँ उन्हें हम बिठा गए ।
अष्ट धातु में ढाल- ढाल कर
हमने उन्हें बिठा डाला ।
चौराहों- दोराहों पर
हमने उन्हें सजा डाला ।
गाँधी तेरी आँधी खो गई -
राजनीति के गलियारों में ,
गांधी नर का नाम नहीं था ।
गांधी एक विचार धारा थी ।
ऐसी धारा-जिसमे आकर
सब अपनी प्यास बुझाते थे ।
समझ नहीं आता है अब तो
कहाँ खो गई, वह धारा ।
घूर घूर कर पूछ रही थी ,
खून से लथ-पथ वह चादर-
अब भी प्यास क्या बाकी
रह गई ?
नहीं बुझी तो और बुझा लो ।
पर इतना याद रखो
हे मानव,
गुजरा वक्त न आने वाला ।
हर पल को तुम आज समेटो ।
जो बीत गया-सो बीत गया ।
अब कल की घड़ियों का
स्वागत हो ।
तो आओ मुझे ओढ़ लो तन में
फिर बन जाओ तुम गांधी ।
फिर बन जाओ
तुम गांधी....।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’