गाँवों की गलियों में.....
गाँवों की गलियों में, दौड़ रही शाम,
श्रम के पसीने को, सोख रही शाम ।
आल्हा रामायण की, गूँज रही तान,
ढोलक मंजीरे से, झूम रही शाम ।
ननकू के आँगन में, बैठी चौपाल,
क्षण भर में सुलझे, दसईं के बवाल ।
बाजरे की रोटी सँग, गुड़ की मिठास,
मक्खन से बघरी है, सरसों की साग ।
अॅंधियारी रातों में, जुगनू जले,
घुँघटा की ओट से, बहुनी हॅंसे ।
कान्हा की वंशी से, राधा सजे,
झुरमुट के पीछे से, ग्वाले हॅंसें ।
शीतल है बहती, पुरवाई चहुँ ओर,
ऊपर से हॅंसता है, चंदा चकोर ।
चाँदनी ले आई है, नभ मे बारात,
वसुधा ने भेजी है, दुबिया सौगात ।
मेंढक और झींगुर, बजाते हैं साज,
कोयल की गूँजती है, मीठी आवाज ।
इठलाती नदियाँ और, झरनें पहाड़,
हरे- भरे खेतों का, पूछो ना हाल ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’