माँ की ममता
माँ
अपने कमरे की खिड़की से
निहारती रहती है,
अपने स्वजनों को -
और सड़क से गुजरते हुए
राहगीरों को ।
कभी वह देखती है ,
दूर छत पर
कपड़े बगराती-सुखाती
अपनी नातिन बहू को ,
जो अपने लाड़ले को
गोदी में लिये
दुलारती ,बहलाती
लोरियाँ सुनाती ,
यहाँ से वहाँ
घूमती दिखाई पड़ती है।
तब उसके अंदर
माँ की ममता जाग उठती है ।
उसे गोद में खिलाने
ललक उठती है ।
उसे याद आता है,
अपने बेटों का बचपन,
जब उन्हें
ऐसे ही गोद में लिए
वह लोरियाँ सुनाया करती थी ।
पीठ थपथपा कर
उन्हें सुलाया करती थी ।
बिस्तर पर लिटाते ही
वे कितनी जोर से
मचलने लगते थे ।
फिर भी वह थकी-हारी,
उसे गोद में उठाती
दुलारती,पुचकारती
और सीने से लगाकर
उनके गालों को चुम्बन की सौगातों से
भर देती थी ।
वे माँ की ममता पाकर
खिलखिला कर
हॅंस पड़ते थे ।
आज वही संवेदनशील माँ
पक्षाघात से पीड़ित
अपने कमरे में अकेली पड़ी
दिल मसोस
कर रह जाती है ।
अपने अतीत में
झाँकती माँ
अपनी आँखों से वेदना के
झर- झर आँसू बहाती है ।
और संवेदनाओं के द्वार पर
सिर्फ अपने को
अकेला खड़ा पाती है ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’