मेरे आँगन की तुलसी
मेरे आँगन की तुलसी
जो मेरे पूर्वजों ने लगाई थी,
वह लोकरंजनी नहीं,
लोक मंगलकारी थी ।
जब कोई साँझ की बेला में
थका हारा,श्रम की बूँदों में नहाया
घर लौटता था ,
तो वह लहरा-लहरा कर
उसका स्वागत करती थी ।
तब प्रत्युत्तर में उसे
दोनों हाथ जुड़े मिलते थे ।
तो तत्क्षण ही उसे
निरोगी होने का
आशीर्वाद भी मिलता था ।
वह श्रद्धा- विश्वास -
और भक्ति की प्रतिमूर्ति थी ।
मेरी माँ, माटी के दिये में
बड़े लगन से प्रेम की बाती भाँजती
और श्रद्धा के तेल में डुबो कर
दीप प्रज्ज्वलित करती थी ।
रोज भोर होते ही जल चढ़ाती
और तुलसी दल को
अपने मुख में रखकर
पूजन अर्चन करती थी,
तो वह अपने लिये ही नहीं
सभी के लिये सुख – शांति
और मंगल की कामना करती ।
तब मेरे पिता जी भी
उसके सामने बैठ कर
रामचरित मानस का पाठ करते हुए ,
एक- एक शब्द का गूढ़ रहस्य
बडे़ भाव विभोर होकर बतलाते
सुनकर सभी लोग
सिसकियाँ भरने लगते
और आँखों से अश्रु बहाने लगते ।
यह दृश्य हमारे घर का ही नहीं ,
सभी घरों का था ,
जहाँ दया, क्षमाशीलता, उदारता
और आदर्शों -मर्यादाओं का
नित्य संवेदनशील संगम होता था ।
कहने को तो आज भी
मेरे आँगन में
वह तुलसी लगी है ।
फर्क सिर्फ इतना है,
कि कल वह हरी- भरी थी,
पर आज मुरझायी और
उदास खड़ी है ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’