मेरे देश में ये कैसी, आँधी है उठी.....
मेरे देश में ये कैसी, आँधी है उठी ,
चारों ओर घर -घर, आग है लगी ।
आज अपने देश को, बचाना पड़ेगा ,
सोये हुए लोगों को, जगाना पड़ेगा ।
मेरे देश रोना मत, सपूत हैं अभी ,
तेरे आँसू पोंछने को, वीर हैं अभी ।
माता तेरे शेर ये, दहाड़ेंगे जहाँ ,
दुश्मन तेरे देश में ,टिकेगें फिर कहाँ ।
ये किनके हाथ बढ़े हैं, सुलगाने के लिये ,
लगता है भारत को, जलाने के लिये ।
हमें इनके हाथों को, कुचलना पड़ेगा ,
अपने प्यारे भारत को, बचाना पड़ेगा ।
गोलियों की बौछारों से, छातियाँ छिदी,
बमों के धमाकों से है, धरती हिल उठी ।
शांति मेरे देश की, घबराने लगी है ,
आतंकी घटनाएँ कैसे , बढ़ने लगी हैं ।
हमने तो ये चाहा था, सब शांति से रहें ,
भाईयों से भाईयों को, जुदा न करें ।
अपने -अपने घरों में, सब प्रेम से रहें ,
देश के विकास में, सहभागी सब बनें।
राम की धरा है, ये कृष्ण की जमीं ,
गौतम की है भूमि, महावीर की जमीं ।
कबीर का है देश, रसखान की जमीं ,
ईसा और नानक, पैगम्बर की जमीं ।
जिन्ना जैसे नेता थे, जो जिन्न बन गये ,
घृणा और नफरतों के, बीज बो गये ।
क्षुद्र राजनीति से तो, देश था बटा ,
बॅंटवारे की चालों ने ही, देश को छला ।
बॅंटवारों से दिलों में, जो दीवारें बनीं ,
ढहाने में पाक की, ना दिलचस्पी रही ।
ईर्ष्या और द्वेश को, बढ़ाते रहे हैं ,
जनता को बस युद्ध में, बहलाते रहे हैं ।
हजारों साल लड़ने की, तकरीर दे रहीं,
बजीरे पाकिस्तानी जो, चुनौती दे रहीं ।
मियाँ भुट्टो की जुबान, जो बोल रहीं हैं ,
पिता श्री के हश्र को, क्यों भूल रही हैं ।
ऐसी धमकी को फिर, कुचलना पड़ेगा,
देश की सीमाओं को, बढ़ाना पड़ेगा ।
खोये हुए पाक को, मिलाना चाहिये,
गलती बॅंटवारे की, सुधारना चाहिये ।
देश में नेताओं की जो, बाढ़ बढ़ रही,
देश-प्रेम, त्याग-श्रद्धा, भक्ति की कमी ।
राष्ट्रीयता की भावना, मर्माहत हो रही ,
देश की अखण्डता को, खंडित कर रही ।
नेताओं की भीड़ में, जो भेड़िया घुसे ,
भेड़ियों की ओट में, जो शेर हैं बने ।
इनसे अपने देश को, बचाना पड़ेगा ,
भेड़ियों को गोली से, उड़ाना पड़ेगा ।
घोटाले इस देश में, अब रोज हो रहे,
किसने कितनी जेबें भरीं, साथ मिल रहे ।
भ्रष्ट कारनामों का ये, खेल कैसा है ,
चोटी के नेताओं का, ये मेल कैसा है ।
कितने हर्षद दाउद और, हितेन बढ़ेगें ,
साँप बन जन- जन को, ये डसते रहेंगे ।
बमों के धमाके, कब तक करते रहेंगे ,
देश को न जाने, कितना और छलेंगें ।
पूँजी और अफसरों में, खेल चल रहा ,
चारागाह देश को, समझ के चर रहा ।
देश में पैसों का, जो तालाब बन रहा ,
गरीबों के लिये तो, अभिशाप बन रहा ।
गरीबों के हक छीन, जो तिजोरियाँ भरें ,
उनके ही पेटों में, जो घुटनों को धरें ।
ऐसे शोषकों को अब, मिटाना चाहिए ,
वक्त रहते इनको, हटाना चाहिए ।
विज्ञापनों की होड़ में, जो दाम हैं बढ़े ,
महॅंगाई की मार में, सहायक हैं बने ।
वक्त रहते इनको, समझना पड़ेगा ,
जितनी जल्दी हो सके, बदलना पड़ेगा ।
महॅंगाई की मार से, जनता है दुखी,
ऊॅंची - ऊॅंची मीनारों में, लोग हैं सुखी ।
ये अर्थ की विषमता, मिटाना चाहिए,
देश में समानता को, लाना चाहिए ।
योजना विकास की, सब नीचे से बनें ,
गाँवों से चलें और, शहरों को बढ़ें ।
काम हर हाथ को, दिलवाना पड़ेगा ,
देश में उद्योगों को, बढ़ाना पड़ेगा ।
बेटियाँ हमारी सब, मातृ शक्ति हैं,
वे बेटों से नहीं हैं कम, आदि शक्ति हैं ।
देश के विकास में, सहभागी हैं रही ,
कर्तव्यों के निर्वाहन में,वे आगे ही रही ।
समाज में अभिशाप की, जो मुहर है लगी,
ये दहेज की तराजू में, तुलने है लगीं ।
पासंगों में तुलीं जो, अंगारों में जलीं ,
जलने से बची तो फिर, नर्क में जियीं ।
ऐसी बलिवेदी को, हटाना पड़ेगा ,
जागरण का बिगुल भी, बजाना पड़ेगा ।
दण्ड के विधान को, बदलना चाहिए ,
दोषियों को फाँसी पर, लटकना चाहिए ।
गिरते हुये लोगों को, उठाना सही है ,
बढ़ते हुये लोगों को, गिराना नहीं है ।
छाये अॅंधकार को, हटाना सही है ,
अर्थ से ही आरक्षण का, नाता सही है ।
ऐसी नीतियों को भी, बदलना पड़ेगा,
उच्च मापदण्डों को, अपनाना पड़ेगा ।
कुंठाओं से देश को, बचाना पड़ेगा,
जातिगत आरक्षण, हटाना पड़ेगा ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’