पतझड़ बीता छाई बहारें.....
पतझड़ बीता छाई बहारें,
मधुप कली को चूम रहा है ।
प्रिय बरखा की यादें करके,
तन-मन सारा झूम रहा है ।
पतझड़ बीता छाई बहारें ........
नभ में छाई घोर घटायें,
तेज हवा सॅंग दौड़ रही हैं ।
कड़-कड़ करती बिजली नभ से,
मेघों को मनुहार रही हैं ।
पतझड़ बीता छाई बहारें ........
पावस की बॅूंदों की खातिर,
प्यासा चातक अकुलाया है ।
इन्द्र धनुष को देख मोर भी,
पंख पसारे मुसकाया है ।
पतझड़ बीता छाई बहारें ........
मखमल दूब बिछोने खातिर,
पशु-पक्षी -वृन्द चहक रहे हैं ।
उमस भरी गर्मी से व्याकुल,
आतुर जंगल झुलस रहे हैं ।
पतझड़ बीता छाई बहारें ........
झींगुर , मेंढक ,जुगनू सारे,
आगत स्वागत में डोल रहे हैं ।
स्वर सरगम आतिश बाजी से,
रॅंग खुशियों के घोल रहे हैं ।
पतझड़ बीता छाई बहारें ........
बरखा की बॅूंदे गिरते ही,
सौंधी खुशबू फैल गई है ।
गर्म हवाओं के झोंकों में,
अनुपम ठंडक घोल गई है ।
पतझड़ बीता छाई बहारें ........
पोखर, नदियाँ, ताल - तलैयाँ,
यौवन में बौराये हैं ।
अमृत जल अॅंजुरी में भर कर,
हमें छकाने आये हैं ।
पतझड़ बीता छाई बहारें ........
खेतों के व्याकुल बीजों ने,
मन मोहक अॅंगड़ाई ली है ।
श्रमी किसानों के चेहरों में,
पावस ने खुशियाँ भर दीं हैं ।
पतझड़ बीता छाई बहारें ........
श्रम की बॅूंदों को बरखा ने,
जो समुचित सम्मान दिया है ।
वसुन्धरा को हरियाली का,
उसने ही परिधान दिया है ।
पतझड़ बीता छाई बहारें ........
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’