राजनीति के दोहे
राजनीति में छा गये, चतुर गिद्ध और बाज ।
जनता का हक छीन कर, खा जाते हैं आज ।।
नेता की चमड़ी हुई, मोटी और कठोर ।
वोटों का व्यापार कर, धन को रहे बटोर ।।
घूस, दलाली, दलबदल, खनिज सम्पदा लूट ।
सत्ता में नेताओं को, मिलती इसकी छूट ।।
राजनीति अब हो गयी, एक नया व्यापार ।
घर उनके भरते वहाँ, कष्टों का अम्बार ।।
जनता को उलझा रखो , रोटी और मकान ।
सत्ता में फिर बैठ कर, खोलो नई दुकान ।।
जंगल में हाथी नहीं, मिलते कभी सफेद ।
हैं सत्ता में अनगिनत, बगुले भगत सफेद ।।
सत्ता की माया अजब, कब छिन जाये ताज ।
माया में भरमा गई, मायावती भी आज ।।
दलितों के उत्थान की, लम्बी - चौड़ी बात ।
सत्ता पाकर दलित ही, भूल गये हर बात ।।
पिछड़ों के उत्थान का, नारा दिया गुँजाय ।
सत्ता मिलते ही सभी, उनको रहे भुलाय ।।
जाति – पाँत में बाँट कर, सत्ता ली हथियाय ।
अन्दर खाते साथ में, मुख से कुछ बतियाँय ।।
बुत बैठे यह सोचते, अमर हमारा नाम ।
आँधी चलती वक्त की, सब होते गुमनाम ।।
सभी प्रवक्ता हो गए, दोंदा और लबार ।
इनको सुन सोचें सभी, हैं सब गधे सवार ।।
नेता दल - दल में फँसे, अंट - संट बक जाँय ।
बनें प्रवक्ता ढाल तब, शकुनी -चरित दिखाँय ।।
टैक्स वसूली कर रहे, जनता हुई अनाथ ।
गड्ढा कर -कर भर रहे, मंत्री - तंत्री साथ ।।
निज हित का कानून गढ़, नेता हैं आबाद ।
मॅंहगाई की मार से, जनता हैं बरबाद ।।
रखवाले कानून के, बैठे आँखें ढाँप ।
बने डराने के लिए, नेता तक्षक साँप ।।
राजनीति में आयु का, नहीं तनिक भी ठौर ।
जितना भी तुम जी सको, मिले तरक्की और ।।
नेता सच्चा वही जो, हरता सब की पीर ।
दीन - दुखी को देख कर, होता सदा अधीर ।।
नेता ऐसा चाहिए, दिशा दिखाये नेक ।
साथ सभी को ले चले, दिल से जुड़ें अनेक ।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’