सभ्यता - संस्कृति - भाषा
आगरा में विदेशों से
लोग आते हैं,
शाहजहाँ मुमताज के
तराने गुनगुनाते हैं ।
भला मैं भी क्यों चूकता ?
एक नहीं, अनेक बार गया ।
मुगल वंशजों ने
सैकड़ों साल भारत को
अपनी भुजाओं में
समेटा था,
यमुना नदी के किनारे
श्वेत-धवल संगमरमर की
शिलाओं से
मुमताज की याद में
ताजमहल को
बड़ी खूबसूरती से
सजाया था,सँवारा था ।
ताज की दीवालों पर
उसने कुछ मजमून भी
तराशा था ।
उस दिन एक विदेशी ने
मुझे हिन्दुस्तानी समझ
वह पढ़ने को कहा था ।
तब उस दिन पहली बार
मेरी आँखें
उस भाषा पर जा लगी थीं ।
सचमुच मुझे निरूत्तर देख
वह मेरी अज्ञानता
पर हॅंसा था ।
मुझे नहीं पता,
भारत में कितने -
अरबी,फारसी के
ज्ञाता होंगे ?
मैंने फिर बाबर से लेकर
शाहजहाँ के इतिहास को
टटोला था ।
वर्षों हिन्दुस्तान में
रहने के बाद भी
वह नहीं भुला पाया था ,
अपनी सभ्यता संस्कृति
और भाषा को ।
पर ओह हम सब भूल गए !
और आजादी के
वर्षों बाद भी
आज पाश्चात्य संस्कृति के
उस मोह जाल में
बुरी तरह उलझ गए ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’