संझा बिरिया जब-जब होवे.....
संझा बिरिया जब -जब होवे, घर की याद सतावे ।
खड़ी द्वार पर राह निहारे, दुल्हनियाँ मुस्कावे ।
ताँबे के गड़ुआ में पानी, भर कर महरी लावे ।
मुँह धुलवावे पैर पखारे, तन-मन तब खिल जावे ।
गरम-गरम सौंधी रोटी से, घर अँगना महकावे ।
भूखे-पेट में चूहे दौंड़ें, मन खावे अकुलावे ।
दाल-भात भाजी की खुशबू, मन खों बहुतई भावे ।
छौंक शुद्ध घी के लगते ही, व्याकुलता बढ़ जावे ।
किलकारी नन्हों की सुनके, मुख-मिश्री घुल जावे ।
दिन भर की मेहनत से भैया, चित्त शांत हो जावे ।
ढोलक और मंजीरे सॅंग, जब स्वर लहरी लहरावे ।
मन का मोर खुशी के मारे, झूम - झूम कर नाचे ।
रोजई राह निहारे बिस्तर, सुख की नींद सुलावे ।
श्याम सलोने सुन्दर सपने, अँखियन में छा जावें ।
कानों में नूपुर की रुन-झुन, खुशियाँ बन हरषावें ।
चूड़ी खनके गलबहियों में, खुसुर -पुसुर बतियावें ।
पहर तीसरा जैसई गुजरे, चिड़ियाँ हाट सजावें ।
गेसू की मादक खुशबू सॅंग, अॅंगिया भी शरमावे ।
अलसाई सी सुबह उठावे, सूरज की अरुणाई ।
भोर हुई - अब उठ रे भैया, न्योतो देवन आई ।
चलो चलें करमन खों करिबे, श्रम की बूँद बहावें ।
खेतों में हर तरह की फसलें, रोपें और उगावें ।
मेहनत कर खलिहान को भरने, खूबई फसल उगावें ।
खुशहाली से मोरे भैया, अपनो देश सजावें ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’