सत्ता का भोगी बुरा.....
सत्ता का भोगी बुरा, जिसको चढ़ा खुमार।
नैतिकता को भूलकर, भरते रहे डकार।।
सतयुग में सुर औ असुर, रहे केन्द्र के बिन्दु।
ब्रम्हा विष्णु महेश ही, बने कृपा के सिन्धु ।।
त्रेता में श्री राम ने, किया दशानन युद्ध।
संकटमोचन बन गये, किया धरा को शुद्ध।।
अजुद्धा में श्री राम को, मिले भरत से भ्रात।
रामराज्य की कल्पना, के सर्जक थे तात।।
द्वापर में पलटा समय, त्रेता को दी मात।
सिंहासन अंधा हुआ, पुत्र मोह में तात।।
स्वार्थों में सब खो गये, अंध भक्ति का शोर।
दुर्योधन धृतराष्ट्र से, हुयी अनोखी भोर।।
मान और अपमान का, चला अनोखा दौर।
नीति अनीती भूलकर, हुये सिंहासन खोर।।
भरी सभा में द्रोपदी, किया वस्त्र से हीन।
जनता की न पूछिये, स्थितियाँ थीं दीन।।
तब द्वापर में कृष्ण ने, किये अनोखे काम।
सभी विधर्मी का किया, पूरा काम तमाम।।
जबसे कलियुग आ गया, फिर से छाया रोग।
नर-नारी के भाग्य में, बस कष्टों का भोग।।
सत्ता की चाहत बुरी, भूलें नैतिक राह।
परहित भाव बिसारते, जग से बेपरवाह।।
यवनकाल में तो मचा,जग जाहिर कुहराम।
पिता-पुत्र नाते सभी, बुरे हुये बदनाम।।
धर्मान्धों की फौज ने, कर दी बगिया सून।
सिंहासन की चाह में, खूब बहाया खून।।
अंगे्रजों के काल में, खूब मची थी लूट।
जितना चाहे लूट लो, उनको ही थी छूट।।
स्वतंत्रता जब मिल गई, थामी हमने डोर।
तब भारत को था लगा, अब तो होगी भोर।।
भ्रष्टाचार अचार का, लगा अनोखा स्वाद।
जिसको देखो खा रहा, चारों ओर विवाद।।
कालान्तर में शक्तियाँ, प्रखर हुयीं दिन रात।
लम्पट चोर मवालि की, चारों ओर बिसात।।
निज स्वार्थों की भीड़ ने, किये अनोखे काम।
खुद का घर भरने लगे, कैसे लगे विराम।।
आजादी के साथ में, बटवारे का शोर।
धरा रक्त से रंग गई, तब आयी थी भोर।।
लोकतंत्र की त्रासदी, आरक्षण का जोर।
अगड़े पिछड़े सब खड़े, मचा रहे हैं शोर।।
तुष्टिकरण की नीति से, बिगड़ी सारी सोच।
समीकरण सब रूठते, सबके मन संकोच।।
नेताओं की डुगडुगी, बजती है हर बार।
बंदर से सब नाचते, जब सजता दरबार।।
आशायें सबकी लगीं, कब बदलेगा तंत्र।
तिमिर हटे इस देश का, तब गूँजेगा मंत्र।।
रामराज्य की आस में, बैठा है इंसान।
भेद भाव का अंत हो, बदले हिंदुस्तान।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’