सुख-दुख जब धूप-छाँव.....
सुख-दुख जब धूप-छाँव, चिन्ता है क्यों ?
जीवन संघर्षों से, डरता है क्यों ?
जीवन में धूप और, छाँव है भली ।
खुली- खुली नभ की, चैपाल है सही ।
वृक्षों के आँचल की, हवा है भली,
मस्ती में झूमती है, हर गली-गली ।
हैं, काली - घटाएँ, बरसती जहाँ,
हरी - भरी रहती है, धरती वहाँ ।
चारों दिशाओं में, है झूमती बहार,
कोयल की गॅूंजती है, मोहक पुकार ।
तन मन जब भींजता, तो खिलती कचनार,
हॅंसी - खुशी गाता है, जीवन मल्हार ।
संघषों से प्यार, जिसने किया,
मानव से भगवान, बनकर जिया ।
मीरा ने प्याला, हलाहल पिया,
सूरदास अँधियारा, पी कर जिया ।
कर्म से जुलाहा, कबीरा बना,
ईसा भी सूली पर, चढ़ कर बना ।
तुलसी की मानस का, वन्दन हुआ,
घर - घर के माथे का, चन्दन हुआ ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’