विचार सूक्तियाँ
कुछ सुख त्यागे तब बने, आँगन और मकान ।
आई जब संध्या घड़ी, हुए काल मेहमान ।।
सपनों में जीवन जिया, समझो बंटाढार ।
तन, मन, धन, अभिमान सब, बिछुड़ेंगें अधिकार ।।
मन में अहं ना पालिये, लगे कभी ना चोट ।
जीवन में भी फिर कभी, नहीं घुसेगी खोट ।।
ऐसी वाणी बोलिये, हर मन खुश हो जाय ।
बोली की ही शिष्टता, सब को सुख पहुँचाय ।।
खुशियाँ मिल कर बाँटिये, तन- मन तब हरषाय ।
जीवन की हर मुश्किलें, खुशियों में कट जाय ।।
चाहें सारे मतलबी, अपनी उन्नति होय ।
कंगाली में सब रहें, हमसे बड़ा न कोय ।।
गर्भाशय में मातु से, मिलता रहा दुलार ।
जन्मे तो उससे मिली, प्रेम भरी पुचकार ।।
बातें करिये धैर्य से , बात - बतकही होय ।
ना जाने कब किस घड़ी , चूक कहीं पर होय ।।
सुख- दुख जीवन की सड़क, सबको चलना होय ।
जो इसमें न चल सका, जीवन मुश्किल होय ।।
हार - जीत , सुख- दुख सभी , जीवन में है संग ।
जो इनमें है रम गया, बनता मस्त मलंग ।।
वाद और प्रतिवाद में, कभी फँसें न आप ।
है जीने की यह कला, कभी न उलझें आप ।।
साठ वर्ष के हो गये, कहें लोग सठियाय ।
पेंशन लो घर पर रहो, घर बैठो बतियाय ।।
घरवाली होती वही, जो घर रखे सहेज ।
द्वेष - ईर्ष्या - कलह से, सदा करे परहेज ।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’