नव संवत्सर आ गया, खुशियाँ छाईं द्वार ।
दीपक द्वारे पर रखें, महिमा अपरंपार ।।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को, आता है नव वर्ष।
धरा प्रकृति मौसम हवा, सबको करता हर्ष।।
संवत्सर की यह कथा, सतयुग से प्रारम्भ।
ब्रम्हा की इस सृष्टि की, गणना का है खंभ।।
नवमी तिथि में अवतरित, अवध पुरी के राम ।
रामराज्य है बन गया, आदर्शों का धाम ।।
राज तिलक उनका हुआ, शुभ दिन थी नव रात्रि।
राज्य अयोद्धा बन गयी, सारे जग की धात्रि ।।
मंगलमय नवरात्रि को, यही बड़ा त्योहार।
नगर अयोध्या में रही, खुशियाँ पारावार।।
नव रात्रि आराधना, मातृ शक्ति का ध्यान ।
रिद्धी-सिद्धी की चाहना, सबका हो कल्यान ।।
चक्रवर्ती राजा बने, विक्रमादित्य महान ।
सूर्यवंश के राज्य में, रोशन हुआ जहान ।।
बल बुद्धि चातुर्य में, चर्चित थे सम्राट ।
शक हूणों औ यवन से,रक्षित था यह राष्ट्र।।
स्वर्ण काल का युग रहा, भारत को है नाज ।
विक्रम सम्वत् नाम से, गणना का आगाज ।
मना रहे गुड़ि पाड़वा, चेटी चंड अवतार ।
फलाहार निर्जल रहें, चढ़ें पुष्प के हार।।
भारत का नव वर्ष यह, खुशी भरा है खास।
धरा प्रफुल्लित हो रही, छाया है मधुमास।।
कोरोना के तिमिर से, पीड़ित है संसार।
मिलकर इसे भगाइये, बिखरे जग उजियार।।
दो गज की दूरी रखें, धोएँ अपने हाथ।
मास्क लगाकर ही चलें, जीवन का तब साथ।।
अमृत महोत्सव पर्व पर, सबको है यह हर्ष।
मिलकर इसे मनाइए, आजादी का वर्ष।
लोकतंत्र अब प्रौढ़ है, प्रजातंत्र उत्कर्ष।
स्वर्णिम बेला आ गई, हुए पछत्तर वर्ष ।।
जागरूक जनता बनी, उसकी जगी है आस।
जो विकास पर ले चले, उस पर अब विश्वास।।
कुछ नेता हैं स्वंय भू, उनसे आशा व्यर्थ।
उनका तो निज स्वार्थ है,जोड़ सकें बस अर्थ ।।
मतदाता परिपक्व हैं, जब भी हुआ चुनाव।
जिसको चाहा है चुना, या पलटा दी नाव।।
सत्ता का हस्तांतरण हर चुनाव के बाद।
सहज भाव से हो रहा, होता नहीं विवाद।।
भाषा धर्म स्वतंत्र सब, हो नैतिक यह ज्ञान ।
कर्त्तव्यों का बोध हो, अधिकारों का भान।।
देशभक्ति मन में बसे, तभी राष्ट्र निर्माण ।
संकट कभी न छा सकें, जग में रहा प्रमाण।।
देश भक्ति की भावना, भरती रग- रग जोश।
राष्ट्र सुरक्षा की घड़ी, अरि के उड़ते होश।।
साहस धीरज आत्मबल, बिन होते हैं दीन।
परावलम्बी जो हुआ, तालिबान आधीन।
हम कृतज्ञ हैं देश के, किया बड़ा अहसान।
मोदी के नेतृत्व से, बढ़ा जगत में मान ।।
ज्योतिपुंज दीपावली, खुशियों की सौगात।
रोशन करती जगत को, तम को देती मात।।
दीपक का संदेश है, दिल में भरें उजास।
घोर तिमिर का नाश हो, रहे न विश्व उदास।।
रिद्धि-सिद्धी और संपदा, लक्ष्मी का वरदान ।
दीवाली में पूजते, हम सब करते ध्यान।।
सदियों से दीपक जला, फैलाया उजियार ।
अंधकार का नाश कर, मानव पर उपकार ।।
हर मुश्किल की राह में, चलता सीना तान ।
राह दिखाता है सदा,जो पथ से अनजान ।।
दीवाली में दीप का, होता बड़ा महत्त्व ।
हर पूजा औ पाठ में, शामिल है यह तत्व।।
लक्ष्मी और गणेश जी, धन-बुद्धि का साथ।
दोनों के ही योग से, जग का झुकता माथ।।
मानवता की ज्योत से, नव प्रकाश की पूर्ति।
सबके अन्तर्मन जगे, मंगल दीपक मूर्ति।।
कैकेयी संँग मंथरा, का है विकट प्रलाप ।
मानव के शुभ भाग्य को, दे देती है श्राप।।
इन्द्रियजित दशरथ रहे, थे पृथ्वी सम्राट।
विजयी रथ के वे रथी, भूल गए सब घाट।।
जीवन से ही हार कर, गए चिता में लेट।
दशरथ की अर्थी सजी, कैकेयी-आखेट।
मन मंदिर में मंथरा, डाले है अवरोध।
जिसने काबू में किया, उसे कर्म का बोध।।
निजी स्वार्थ में फँस गया, नारी का विश्वास।
किसने जाना भाग्य को, रूठेगी यह साँस।।
राजपाट यह सम्पदा, कभी न आती काम।
छोड़ सभी कुछ सब यहाँ,जाते हैं प्रभु धाम।।
मन पछताता है नहीं, जो करते सत्कर्म।
राम कृपा उसको मिले, यह जीवन का मर्म।।
पितर-पक्ष में चल पड़े , पुरखे घर की ओर ।
आतुरता से देखते, नापें दिल के छोर ।
जल तर्पण अब कर रहे, नदी जलाशय भोर।
मात-पिता भूखे रहे, नहीं दिया कागोर।।
परलोकी जब हो गए, प्रस्तुत करते जान।
जीवित रहते कब दिया, बूढ़ों को सम्मान।
जब तक वे जिन्दा रहे, रखा न अपने साथ।
जब अर्थी पर सो गए, पीट रहे थे माथ।।
स्वर्ग लोक से हंँस रहे, कभी न समझी पीर।
पिंडदान करते फिरें, गया-त्रिवेणी तीर।।
रूप बदल कागा नहीं, घर में करते शोर।
श्राद्ध-पक्ष में बन रही, पर उनको कागोर ।
गौ कागा दिखते नहीं, सभी गए हैं भाग।
पंछी सारे उड़ गए, सुने न कलरव राग ।।
प्रेम नेह सम्मान के, छूट रहे नित छोर ।
निज स्वार्थों में लिप्त हैं, चलें नेह की ओर।।
सुख-दुख में सब एक हों, थामें पर-दुख डोर।
शहरी संस्कृति ने डसा, बढे़ गाँव की ओर।
साँस देह में चल रही, ईश्वर की सौगात ।
साँस रुकी माटी हुआ, यह तन है खैरात।।
जाने का दुख क्यों करें, हमको है आभास।
कर्म सभी अच्छे करें, फिर क्यों रहें उदास।।
रिश्ते-नातों से बने, आपस में पहचान।
प्रेम भाव से सब जुड़े, मिला मान सम्मान।।
आना जाना है लगा, सबने जाना मर्म।
रोना धोना व्यर्थ है, करो सदा सत्कर्म।।
प्रभु ने भेजा जगत में, करने को कुछ काम।
मिलजुलकर पूरा करें, जग में होगा नाम।।
हों कृतज्ञ माँ बाप के, पाला है कुछ सोच।
तब उनकी उस सोच को, क्यों आने दें लोच ।।
पीढ़ी दर पीढ़ी चली, यह लेकर संदेश।
मानव हो, मानव रहें, धर मानव का वेश।
लोकतंत्र अवधारणा, यह भारत है देश।
धर्म जात मजहब सभी, सुंदर है परिवेश।।
मानवता की सोच से, सुद्दृढ़ बनता देश।
कभी आँच आती नहीं, कभी न आते क्लेश।।
हम सब हैं इस जगत के, राहगीर अनजान।
कब चल दें जग छोड़ कर, जा पहुँचे श्मशान ।।
आशाओं से जग बंँधा, भटक गये तो मौत।
उठो गर्व से चल पड़ो, फेंक निकालो सौत।।
ग्यारह दोहे लिख रहे, पढ़ो प्रेम से यार।
नया वर्ष मंगल रहे, हो आपस में प्यार।।
लेकर खुशियाँ आ रहा, अब तो है इक्कीस।
भूलो बिसरो बीस को, ईश्वर का आशीष।।
वर्ष वायरस का रहा, दो हजार वह बीस।
लोहा लेने आ गया, देखो यह इक्कीस।।
अवसादों से है घिरा, बीत गया वह साल।
उथल-पुथल भी कर गया, जगत् रहा बेहाल।।
बिल से निकले सर्प भी, डसने को तैयार।
बीन सपेरों ने बजा, डाला कारागार।।
टुकड़े-टुकड़े गैंग ने, खूब मचाई धूम।
ढपली लेकर पिल पड़े, आजादी की बूम।।
सत्ता की चाहत बुरी, बुरी हो गई चाल।
नाजुक से हर मोड़ पर, खींच रहे थे खाल।।
घिरे रहे धृतराष्ट्र भी, पुत्र मोह के पाश।
धर्म के रक्षक कृष्ण थे, हुआ अंततह नाश।।
चीर हरण भी हो गया, था दुःशासन हाथ।
शकुनि की हर चालों में, दुर्योधन का साथ।।
एक तरफ पाँडव रहे, कौरव दूजी ओर।
धर्म ध्वजा लेकर चले, किया कृष्ण ने भोर।।
विजयी मानव हो गया, जो था संकट काल।
मिली आज वैक्सीन है, होंगे फिर खुशहाल।।
बुझी जिंदगी है हँसी, तन-मन हुआ गुलाब।
चली हवाएँ प्यार की, महका प्रेम शवाब।।
हिन्दी हिन्दुस्तान के, दिल पर करती राज।
आजादी के वक्त भी, यही रही सरताज।।
संस्कारों में है पली, इसकी हर मुस्कान।
संस्कृति की रक्षक रही, भारत की पहचान।।
स्वर शब्दों औ व्यंजनों, का अनुपम भंडार।
वैज्ञानिक लिपि भी यही, कहता है संसार।।
भावों की अभिव्यक्ति में, है यह चतुर सुजान।
करते हैं सब वंदना, भाषा विद् विद्वान ।।
देव नागरी लिपि संग, बना हुआ गठजोड़।
स्वर शब्दों की तालिका, में सबसे बेजोड़।।
संस्कृत की यह लाड़ली, हर घर में सत्कार।
प्रीति लगाकर खो गए, हर कवि रचनाकार ।।
तुलसी सबको दे गए, मानस का उपहार।
सूरदास रसखान ने, किया बड़ा उपकार ।।
जगनिक ने आल्हा रची, वीरों का यशगान।
मीरा संत कबीर ने, गाए प्रभु गुण गान।।
मलिक मोहम्मद जायसी, रहिमन औ हरिदास।
इनको जीवन में सदा, आई हिन्दी रास।।
सेवा की साहित्य की, हिन्दी बनी है खास।
श्री विद्यापति पद्माकर , भूषण केशवदास।।
चंदवरदायी खुसरो, पंत निराला नूर।
जयशँकर भारतेन्दु जी, है हिन्दी के शूर।।
दिनकर मैथिलिशरण जी, सुभद्रा, माखन लाल।
गुरूनानक रैदास जी, इनने किया धमाल।।
सेनापति, बिहारी हुए, बना गये इतिहास।
हिन्दी का दीपक जला, बिखरा गये उजास।।
महावीर महादेवि जी, हिन्दी युग अवतार।
कितने साधक हैं रहे, गिनती नहीं अपार ।।
हेय भाव से देखते, जो थे सत्ताधीश।
वही आज पछता रहे, नवा रहे हैं शीश ।।
अटल बिहारी ने किया, हिन्दी का यशगान।
वही पताका ले चले, मोदी सीना तान।।
हिन्दी का वंदन किया, मोदी उड़े विदेश।
सुनने को आतुर रहा, विश्व जगत परिवेश।।
ओजस्वी भाषण सुना, सबको दे दी मात।
सुना दिया हर देश में, मानव हित की बात ।।
विश्व क्षितिज में छा गयी, हिन्दी फिर से आज।
भारत ने है रख दिया, उसके सिर पर ताज।।
कुछ नेता गण पालते, अपने मन में भ्रांति।
अनय बढ़े जब चरम पर, तब होती है क्रांति।।
ताकतवर होती कलम, करे शत्रु पर वार।
मानव हित रक्षा करे, दे सद्बुद्धि विचार।।
हुए कूप मंडूक हैं, कुछ नेता गण आज।
धरती से अब कट गए, समझ न पाए राज।।
चला देश में है गलत, स्वर विरोध का आज।
आगजनी, पत्थर चलें, कब आएगी लाज।।
सरकारी संपत्ति का, जो करते नुकसान।
अब उनकी ही जेब से, होता है भुगतान।।
कर दाता हैं देश के, प्रगति हेतु दें दान।
आग लगा कुछ तापते, कैसे हैं शैतान।।
राह अग्निपथ की चुनें, यह संकट का काल।
तन मन से चैतन्य हो, सजग रहें हर हाल ।।
सबका यह कर्तव्य है, करें देश कल्याण।
जो भी इससे विमुख हों, उनको देवें त्राण।।
बुलडोजर की यह कथा, चलो सुनाते आज।
शिव का वाहन बुल यही,शिव-भक्तों को नाज।।
हर गलियों में अतिक्रमण, भू-कब्जों का राज।
जन अधिकारों का हनन, जन मानस नाराज ।।
बढ़ा अतिक्रमण देश में, खड़ी कर रहा खाट।
राष्ट्र- सृजन के दौर में, बुलडोजर के ठाट।।
बुलडोजर से काँपते, गुंडे सब शैतान।
लुकते-छिपते फिर रहे, देख रहा इंसान।।
बुलडोजर को पूजते, अधिकारी, युवराज।
चला जहाँ भी यह विकट, शासन है सरताज।।
बुलडोजर से पथ बनें, बुलडोजर से बाँध।
पर्वत को भी तोड़ता, बने प्रगति का काँध।।
बुलडोजर का है समय, करता काम अनेक।
पर सरकारी काम में, जाग्रत रखें विवेक।।
प्रिय यह ठेकेदार को, इसका बढ़ा रिवाज।
आनन फानन काम कर, पूर्ण करें हर काज।।
बुलडोजर का अब चलन, बुलडोजर का काम।
बुलडोजर की है धमक, बुलडोजर का नाम।।
चौथेपन की शिथिलता, ने छीना सुख चैन।
सभी किनारे कर गए, जो थे अपने नैन।।
पति की यादें आ रही, रही-मौन बेहाल ।
सरमन बेटे थे मगर, अब दिल से कंगाल।।
मुँह दिखलाई में मिला, घर का हर सामान।
महलों की रानी रही, खोया सपन-विहान।।
पति वियोग के दौर में, दुखद चली फिर रेल।
बहुओं का घर आगमन, सास बहू का खेल।।
बीवी बच्चों से घिरे, डूबे सब दिन रात।
अपनों में सब मगन थे, पूँछें कब हालात।।
जनम दिया पाला जिसे,भूल गए उपकार।
नहीं मिला वह आसरा, जिसकी थी दरकार।।
नाती पोतों से भरा, उसका घर संसार।
पर कोई अपना नहीं, सूना सा घर द्वार।।
सूने कमरे बैठ कर, मन से करती बात।
कौन वृद्ध से बात कर, बाँटे कुछ जज्बात।।
अब ईश्वर का आसरा, वही दिख रहे नाथ।
जीवन से वे मुक्ति दें, मुख-अग्नि दें हाथ।।
होटल में शादी हुई, घर अब हुआ उदास।
आँगन बैठा रो रहा, हर घर का संत्रास।।
सूना घर है चाहता, उत्सव तीज त्यौहार।
बच्चों की किलकार से, घर-सपना साकार।।
हर कोनों को देखते, बालक हुए जवान।
विस्मृत पल उनके रहे, समय देख हैरान।।
आम्रकुंज की पत्तियाँ, लटकें घर के द्वार।
आगत का स्वागत करें, हाथ जोड़ परिवार।।
हल्दी का उबटन लगे, महिला गाएँ गीत।
शहनाई के सुर सजें, सज-धज आएँ मीत।।
मंडप आँगन में गड़े, नीचे हो ज्योनार।
मान मनौवल बीच में, सँग गारी की मार।।
पुड़ी बिजोरे रायता, मिष्ठानों का दौर।
दही-बड़े सँग नाश्ता, खाएँ जी भर भोर।।
परिवारों के मिलन का, पक्का था गठजोड़।
नव-जोडे़ के मिलन का, नव पथ पर थी दौड़।।
लड़के-लड़की खोजते, जीवन साथी आज।
नहीं चाहिए अब मदद, उनको खुद पर नाज।।
प्री-मैरिज शूटिंग करें, होते फोटो शूट।
समय बदलता जा रहा, रहे किनारे टूट।।
बरगद की वह छाँव अब, बैठी घर के पार।
धूप और बरसात में, संकट का अब द्वार।।
अपनी नाव चला रहे, खुद ही खेवनहार ।
फँसे भँवर में डूबते, डूबा घर संसार ।।
परम्पराएँ तोड़ते, संस्कृति का उपहास।
सीमाओं को लाँघने, कमर कसी है खास।।
शरद पूर्णिमा में खिला, चंदा जब आकाश।
दूध नहाई-सी धरा,तमसादिक का नाश।।
चंदा की वह चाँदनी, तारों की बारात।
धरा मौन भी देखती, अनुपम यह सौगात।।
धुआँधार अद्भुत दिखा,संँगमरमर चट्टान।
जल प्रपात दुधिया हुआ, शरद पूर्णिमा जान।।
हुआ शरद ऋतु आगमन, मौसम बदले रंग ।
धूप सुहानी अब लगे, मन में भरे उमंग।।
रात अमावस की हटी, ऋतु का है संदेश ।
आई ऋतु मन भावनी, चलो पिया के देश।।
मुकुल खिलेंगे बाग में,अधरों पर मुस्कान।
भौरों के संगीत ने, छेड़ी मधुरिम तान।।
क्वाँर मास की पूर्णिमा, शरदोत्सव का रंग।
अमरित की बूँदें गिरीं, धरणी ने पी भंग ।।
शीतल पवन बजा रही, तन-मन में सुरताल।
हँसता नभ में चंद्रमा, करता बड़ा कमाल।।
अगहन मासी शरद ऋतु, देती यह संदेश।
मौसम ने ली करवटें, कट जाएँगें क्लेश।।
संकट के इस काल में, सेवा का सम्मान ।
मानवता के यज्ञ में, दें आहुति का दान।।
करोना के वीरों का, अभिनंदन है आज।
सेवाभावी कार्य से, उनपर हमको नाज।।
कोरोना से लड़ गए, फिर जीते जो जंग।
सम्मानित हम कर रहे,बिखरेंगे फिर रंग।।
ईश्वर उनको शक्ति दे, और भरे उत्साह।
निर्भय होकर जी सकें, यही हमारी चाह।।
सभी स्वस्थ जीवन जिएँ, करें राष्ट्र निर्माण।
हम सब की है कामना, रहें सुरक्षित प्राण।।
विपदा के इस काल में, जन सेवा का काम।
सच्चे पूत सपूत हैं, हृदय पटल पर नाम।।
मंथन का संदेश है, हर विपदा में साथ।
मिलजुल कर संकट हरें, झुका रहे यह माथ।।
ईश्वर की आराधना, संकट का है मंत्र।
सामूहिक यह प्रार्थना, रक्षा का है यंत्र।।
बाधाएं सब दूर हों, करें सभी मनुहार।
मानवता निर्भय रहें, हो सबका उद्धार ।।
यम का गुस्सा शांत हो, कटें दुखों के पाश।
ईश्वर से है प्रार्थना, बने न मानव लाश।।
सभी भक्त हैं आपके, आशा भरी निगाह।
हाथ जोड़ विनती करें, कर ले अब परवाह।।
यह विछोह की त्रासदी, मँडराई है आज।
देवों की ही भूमि है, इसकी रखना लाज।।
जन्म मरण का सिलसिला,नहीं रुका हर काल।
काल-चक्र गतिशील है, सभी हुए बेहाल ।।
ईश्वर जग को शांति दे, बने सुखद संयोग।
हिल मिलकर जीवन जिएँ, सहें न दुखद वियोग।।
स्मृतियों में हैं बसे, दृश्य सहज संवेद्य ।
प्रेम सरलता सहजता, उनके थे नैवेद्य।।
श्रद्धांजलि हम दे रहे, प्रिय जन को हम आज।
शक्तिपुंज प्रज्ज्वलित करें, सजें सभी फिर साज।।
जैन धर्म में है बसा, जीवों का कल्यान।
भारत ने सबको दिया, जीने का वरदान।।
राम कृष्ण गौतम हुए, महावीर की भूमि।
योग धर्म अध्यात्म से, कौन रहा अनजान।।
धर्मों की गंगोत्री, का है भारत केन्द्र।
जैन बौद्ध ईसाई सँग, मुस्लिम सिक्ख सुजान।
ज्ञान और विज्ञान का, भरा यहाँ भंडार।
सबको संरक्षण मिला, हिन्दुस्तान महान।।
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को, जन्मे कुंडल ग्राम।
वैशाली के निकट ही, मिला हमें वरदान।।
राज पाट को छोड़कर, वानप्रस्थ की ओर।
सत्य धर्म की खोज कर,किया जगत कल्यान।।
सन्यासी का वेषधर, निकल चले अविराम।
छोड़ पिता सिद्धार्थ को, कष्टों का विषपान।।
प्राणी-हिंसा देख कर, हुआ बड़ा संताप।
मांसाहारी छोड़ने, शुरू किया अभियान।।
अहिंसा परमोधर्म का, गुँजा दिया जयघोष।
जीव चराचर अचर का, लिया नेक संज्ञान।।
दया धर्म का मूल है, यही धर्म की जान।
मूलमंत्र सबको दिया , पंचशील सिद्धांत।।
हिंसा का परित्याग कर, अहिंसा अंगीकार।
प्रेम दया सद्भाव को, मिले सदा सम्मान।।
चौबीसवें तीर्थंकर, माँ त्रिशला के पुत्र।
महावीर स्वामी बने, पूजनीय भगवान।।
वर्धमान महावीर जी, बारम्बार प्रणाम ।
त्याग तपस्या से दिया, सबको जीवन दान।।
हिलमिल कर जीना यहाँ, संस्कृति का संदेश।
सर्व-धर्म सम-भाव ही, भारत की है शान।।
शक्ति -एकता से बनें, बिगड़े काम अनेक।
इसके बल पर देश को, राहें मिलती नेक।।
महामहिम होते प्रमुख,उनके हाथ कमान।
चुनी हुई सरकार का, करते हैं सम्मान।।
सौम्य राष्ट्रपति थे प्रथम, श्री राजेंद्र प्रसाद ।
बसे हमारी याद में, सबके सौहार्द।।
संविधान अध्यक्ष थे, कुशल रहा नेतृत्व ।
मिलकर देश संवारने, का उनमें था तत्व ।।
बने अनोखा देश यह, हो सद्भावी दृश्य ।
संविधान ऐसा बने, उन्नति प्रगति भविष्य।।
सीधे-सादे सरल थे, किए अनेकों काम।
भारत के वे रत्न थे, लड़ा महासंग्राम।।
गृह मंत्री तब थे बने, बल्लभ भाई पटेल ।
रजवाड़ों को एक कर, उन पर कसी नकेल।।
शक्ति एकता से झुका, चीन देश नापाक।
कश्मीर घुसपैठ की, काटी हमने नाक।।
दुनियाँ में डंका पिटा, भारत में है आज।
शक्तिवान अब है बना, पहना उसने ताज।।
हीरे मोती व्यर्थ हैं, रखे दिलों में नेह।
प्रेम भाव से सब रहें, सुंदर होता गेह।।
मन में श्रद्धा को रखें, जैसे मोती सीप।
मन-मंदिर आलोक हो, ज्यों जलते हैं दीप।।
तन रूपी इस सीप में, सदा बिराजे राम।
कृपा सिंधु भगवान हैं, श्रृद्धा से लें नाम।।
सबके दिल में बस रहे,ईश्वर का है धाम।
जो भी उसे पुकारता, बनते बिगड़े काम।।
सबकी नैया के सुनो, ईश्वर खेवनहार।
दूर-भंँवर से ले चलें, नैया करते पार ।।
कितनी नदियाँ रेत में, हुईं विलोपित आज।
सूख गए सब खेत हैं,तृषित विहग-परवाज।।
केवट खड़ा निहारता, कब आएंँगे राम ।
संकट में परिवार है, बिन मजदूरी काम।।
नदियों पर पुल बन रहे, केवट खड़ा उदास।
प्रभु पुल से हैं जा रहे, व्यर्थ लगी है आस।।
चारों ओर सुगंध से, महक उठी है शाम।
प्रिय का है शुभ आगमन,आज मिलेंगे श्याम।।
विहग उड़ें आकाश में, फैलाकर के पंख।
अकर्मण्य बस बैठ कर,बजा रहे हैं शंख।।
नारी की है अस्मिता, लुटी भरे बाजार।
दीन-हीन असहाय है, कैसा यह संसार।।
मन में उठी तरंग है, होली की हुड़दंग ।
गाल गुलाबी हो उठे, मस्ती में हैं रंग।।
मन की लहर विचित्र है,पहुँचे वह आकाश।
पल में पृथ्वी को छुए, वन-वन करे तलाश।।
शांत सरोवर की लहर, देती है संदेश ।
किसने पत्थर फेंककर, पहुंँचाया है क्लेश।।
सागर में लहरें उठीं, घोर गर्जना साथ ।
किसकी हिम्मत है लड़े,जो टकराए माथ।।
उमर गुजरती जा रही, ज्यों मुट्ठी में रेत।
रूप सलोना सोचता, हो जाता है खेत।।
तन मन में अंतर बड़ा, तन सबके है साथ।
मन की तो मत पूछिए, आता कभी न हाथ ।।
बगुला और मराल में, नीर-क्षीर का भेद ।
श्वेत-धवल दोनों दिखें, कठिन यही विच्छेद।।
नाते-रिश्तों से बंँधा, भारत में परिवार।
सामाजिक परिवेश का, है अनुपम संसार।।
मात-पिता की गोद में, ममता की है छाँव।
शिक्षा-दीक्षा सब मिले, संस्कारों की ठाँव।।
जीवन भर तक साथ है, पत्नी का सहयोग ।
सुख-दुख में सहभागिता, विधिना से है योग।।
घर आँगन बचपन हंँसे, समय करें मनुहार।
जन्म -मरण उत्सव सभी, होते हैं गुलजार।।
धर्म-कर्म आराधना, का होता सत्कार।
पीढ़ी दर पीढ़ी मिले, यही अनोखा प्यार ।।
बेटी-बेटों से बढ़े, रिश्तों की जब डोर ।
जीवन के हर मोड़ पर, होती है नित भोर।।
त्योहारों की रौनकें, खुशियों के भंडार।
गले मिले हर धर्म के, हर उत्सव त्यौहार।।
रिमझिम बारिश हो रही, खुशियों की बरसात।
दादुर झींगुर मगन हो, मधुरिम स्वर में गात।।
तन भींगा बरसात में, मौसम का है शोर।
पड़ी फुहारें अंग पर, नाच उठा मन मोर।।
पावस का स्वागत हुआ, गुमी उमस की छोर।
सारे दुख हैं हट गए, खुशियों की हिलकोर।।
सावन-भादों में चली, मेघों की बारात।
हरियाली घोड़े चढ़ी, पावस की सौगात।।
सावन की बौछार ने, भरे खेत के पेट।
रोपे-धान किसान ने, जो था मटिया-मेट।।
मेघों से अमृत लिया , नदिया हुई सजीव।
मीठे जल को ले चली, बनकर के राजीव।।
धानी चूनर ओढ़ कर, चढ़ा केशरी रंग।।
झंडा वंदन हो रहा, देश प्रेम सत्संग।।
श्याम वर्ण घनश्याम का, राधा गोरी-रंग ।
प्रेम सरोवर में बसें,जन्म-जन्म का संग।।
घन गरजा आकाश में, बिजली चमकी साथ।
यामा से डूबी धरा, झुका कंस का माथ।।
भक्ति कर्म आराधना, ज्ञान ध्यान सत्संग।
शुभ दिन चातुर्मास के,पावन पवित्र प्रसंग।।
महादेव की है कृपा,चार-मास त्यौहार।
गौरी सुत की वंदना, कान्हा का अवतार।।
जब आता गणतंत्र है, मन में उठे तरंग ।
तन मन हर्षित झूमता, ले हाथों में चंग ।।
भारतीय गणतंत्र का, गौरवमय यह साल।
खुशियों की सौगात से,करता मालामाल।।
संविधान ही ग्रंथ वह, पावन सुखद पुनीत।
अधिकारों कर्तव्य का,अनुबंधित यह मीत।।
आजादी के शब्द का, पहले समझें अर्थ।
कर्तव्यों का बोध हो, भटकें कभी न व्यर्थ।।
हाथ तिरंगा ले चले, राष्ट्र भक्त चहुँ ओर।
गणतंत्री त्यौहार में, करता हमें विभोर।।
राष्ट्रगान हर देश का, गरिमा-शाली मंत्र।
आराधक सब नागरिक, राष्ट्र समर्पण तंत्र।।
सदियों से भारत रहा, ऋषियों का यह देश।
मन में बसी सहिष्णुता, कभी न बदला वेश।।
भारत ऐसा देश यह ,जग में छवि है नेक ।
विविध लोग रहते यहाँ, भाषा धर्म अनेक ।।
भारत के गणतंत्र का, करता जग यशगान ।
जनता के हित साधकर, सबका रखता मान।।
जनता तो मिलकर चुने, अपनी ही सरकार ।
फिर नेतागण स्वार्थवश, करते बंटाधार ।।
धरती माँ के तुल्य यह, सबकी पालनहार ।
वंदन अभिनंदन करें, हाथ उठा जयकार।।
ऋषि जाबालि का नगर, पावन पुण्य महान।
नाम जाबालिपुरम् से, कभी रही पहचान।।
शहर जबलपुर है बसा, सबको उस पर नाज ।
मिली-जुली संस्कृति यहाँ,खुशहाली का राज।।
भारत के है बीच में, इसका धन्य स्वनाम।
है महर्षि जाबालि का, सुप्रसिद्ध यह धाम।।
आदि शंकराचार्य ने, जला ज्ञान की ज्योत।
ग्रंथ नर्मदाष्टक लिखा,भक्ति-मुक्ति का स्रोत।।
बहे सरित पावन यहाँ, कहें नर्मदा धाम।
दर्शन करने मात्र से, बनते बिगड़े काम ।।
शिक्षा का है केंद्र यह, संस्कृति से धनवान।
सरिता तट पर है बसा, सदियों से पहचान।।
देख मुग्ध पर्यटक गण,भेड़ाघाट-प्रसंग।
होता ग्वारीघाट में, नित नवीन सत्संग।।
मंदिर चौसठ योगिनी, शिल्प कला इतिहास।
धुआँधार और पंचवटी, हर लेती संत्रास।।
शरद पूर्णिमा दिवस में, स्वर्ग भरा अहसास।
एक बार छवि देख ले, बुझ जाती है प्यास।।
रानी दुर्गावती का, स्वर्णिम है इतिहास।
गौंड़ वंश के राज का, मदन महल है खास।।
त्रिपुर सुंदरी दिव्य है, शिव का रूप विशाल।
पिसनहारि को देखते, झुक जाता यह भाल।।
यह जबलपुर की धरा, संस्कार सरताज ।
रचनाकारों से भरी, सबको इस पर नाज।।
नूर भवानी कामता, केशव हैं विख्यात।
परसाईं रजनीश की, मिली हमें सौगात।।
अंचल माखनलाल जी, जगजाहिर ये नाम ।
आजीवन इनने किया, हिंदी-हित पर काम ।।
लिखा सुभद्रा ने यहाँ, गीत काव्य बिंदास।
लक्ष्मीबाई का अमर, लिखा गया इतिहास।।
नेता जी की याद की, छवि कमानिया गेट।
मदन महल की वादियाँ, अनुपम प्राकृत भेंट ।।
न्यायालय भी उच्च है, विद्युत मंडल केंद्र।
बरगी डैम विशाल है, लगता नगर सुरेंद्र।।
देश प्रेम रग-रग बसा, धर्म कला साहित्य ।
विश्व क्षितिज में छा गया, जीवन का लालित्य।।
देश कनाडा में सभी, सभ्य सुसंस्कृत लोग ।
सद्गुण से परिपूर्ण हैं, करें सभी सहयोग।।
हाय हलो करते सभी, जो भी मिलता राह।
अधरों में मुस्कान ले, मन में दिखती चाह।।
कर्मनिष्ठ व्यवहार से, अनुशासित सब लोग।
नियम और कानून सँग, परिपालन का योग।।
झाँकी पर्यावरण की, मिलकर समझा देख।
संरक्षित कैसे करें, समझी श्रम की रेख।।
फूलों की बिखरी छटा, गुलदस्तों में फूल।
घर बाहर पौधे लगे, पहने खड़े दुकूल।।
हरियाली बिखरी पड़ी, कहीं न उड़ती धूल।
दिखी प्रकृति उपहार में, मौसम के अनुकूल।।
मखमल सी दूबा बिछी, हरित क्रांति चहुँ ओर।
शीतल गंध बिखेरती, नित होती शुभ भोर।।
प्राण वायु बहती सदा, बड़ा अनोखा देश।
जल वृक्षों की संपदा, आच्छादित परिवेश।।
प्रबंधन में सब निपुण, जनता सँग सरकार।
आपस में सहयोग से, आया बड़ा निखार।।
साफ स्वच्छ सड़कें यहाँ, दिखते दिल के साफ।
भूल-चूक यदि हो गई, कर देते सब माफ।।
तोड़ा यदि कानून जब, जाना होगा जेल।
कहीं नहीं फरियाद तब, कहीं न मिलती बेल।।
शासन के अनुकूल घर, रखते हैं सब लोग।
फूलों की क्यारी लगा, फल सब्जी उपभोग।।
रखें प्रकृति से निकटता,जागरूक सब लोग।
बाग-बगीचे पार्क का, करें सभी उपयोग।।
सड़कें अरु फुटपाथ में, नियम कायदा जोर।
दुर्घटना से सब बचें, शासन का यह शोर।।
भव्य-दुकानों में यहाँ, मिलता सभी समान।
ग्राहक अपनी चाह का,रखता है बस ध्यान।।
दिखे शराफत है यहाँ, हर दिल में ईमान ।
ग्राहक खुद बिल को बना, कर देते भुगतान।।
वाहन में पैट्रोल सब, भरते अपने हाथ।
नहीं कर्मचारी दिखें, चुक जाता बिल साथ।।
बाहर पड़ा समान पर, नजर न आए चोर।
लूट-पाट, हिंसा नहीं, राम राज्य की भोर ।।
फूलों सा सुंदर लगा, बर्फीला परिवेश।
न्याग्रा वाटर फाल से, बहुचर्चित यह देश।।
विपदा जब भी हो खड़ी, मन जब रहे उदास।
तब ईश्वर को याद कर, प्रभु आएंगे पास।।
भक्ति-भाव की डोर में, आस्था अरु विश्वास ।
तब इसका अनुभव करें, होता मन आभास।।
श्रद्धा का दीपक जले, मिलता सही प्रकाश।
निर्भय पथ आगे बढ़ें, अवरोधों का नाश।।
ईश्वर का सानिध्य ही, भर देता आलोक।
दुर्गुण से मानव रहित, मिट जाते हैं शोक।।
संत पुरुष की कृपा से, मिले सदा सम्मान ।
रोग-शोक अरु व्याधि से, मुक्ति मिलेगी जान ।।
भावों से कर अर्चना, तब जीवन में भोर ।
धूनी वाले की दया, बिखरी है चहुँ ओर।।
गणपति की है वंदना, पर्यूषण का पर्व।
खुशहाली हो देश में, होगा सबको गर्व।।
सबके प्रभु श्री राम हैं, केवल देखें भक्ति।
भेद न जूठे बेर से , ऐसी है अनुरक्ति।
समदर्शी प्रभु राम हैं, बने स्वयं अवधूत।
राम नाम की शिव मलें, तन पर स्वयं भभूत।।
मंगल करते कामना, भारत के हैं लोग।
जग में सुख शांति रहे, खाएँ छप्पन भोग।।
सैन्य शक्ति सुदृढ़ रहे, तभी राष्ट्र निर्माण ।
संकट कभी न छा सकें, जग में रहा प्रमाण।।
साहस धीरज आत्मबल, बिन होता है दीन।
जो परावलम्बी हुआ, तालिबान आधीन।
आनन-फानन चल दिए, पूछ न पाए हाल।
सैन्य-बुलावा आ गया, था संकट का काल।।
अधर फड़कते रह गए, बुझी न दिल की प्यास।
सीमाओं पर चल दिए, जगा गए फिर आस।।
देश भक्ति की भावना, भरती रग- रग जोश।
राष्ट्र सुरक्षा की घड़ी, अरि के उड़ते होश।।
राष्ट्र-धर्म सबसे बड़ा, हो सबको संज्ञान।
शेष धर्म निजिता रहे, यही सूत्र है जान।।
बना तिरंगा विश्व में, सुख शांति की खान।
आजादी की शान यह,भारत की पहचान।
वल्लभ भाई पटैल का, वन्दनीय है काम।
भारत के निर्माण में स्वर्णांकित है नाम।।
पिता भाई झावेर जी,मात लाड़वा लाल।
सौंपजिगरके खून को,उनने किया कमाल।।
नाडियाड गुजरात में, रहे कृषक परिवार।
लंदन से शिक्षित हुये,प्रखर बुद्धि भंडार।।
स्वाभिमान रग रग भरा,चेहरे में था नूर।
ऊँची शिक्षा प्राप्त कर, अहंकार से दूर।।
अन्यायों के सामने, ताना सीना नेक।
जनता के हित के लिये,मुद्दे लड़े अनेक।।
बारडोली सत्याग्रह, थी हाथों में डोर।
झुका दिया सरकार को,सबके जीवन भोर।।
अपेक्षायें सबकी बढ़ीं, और रही दरकार।
जनता ने सम्मान दे,नाम दिया सरदार।।
गांधी का युग था तभी,उनने किया प्रणाम।
आन्दोलन से जुड़ गये,शीर्ष हुआ था नाम।।
विनम्र भाव के थे धनी,अलग रहा व्यक्तित्व।
गांधी नेहरु सरदारजी, के हाथों नेतृत्व।।
आजादी की भोर को, देख रहा था देश।
बागडोर इनको मिले, तो बदले परिवेश।।
कर्मठ थे वे देश के, दिखा गये नई राह।
पीएम पद की दौड़ में,नहीं दिखा उत्साह।।
विचारों में थी भिन्नता,किन्तु ध्येय था येक।
सफल हुये हर कार्य में, राष्ट्रपुत्र थे नेक।।
गृहमंत्री के रूप में, एकीकरण प्रयास।
उपप्रधान मंत्री बने, हुये देश के खास।।
दूरदर्शिता शिवा की,गीता के सुविचार।
कार्यदक्षता में प्रखर,अर्जुन सी टंकार।।
कूटनीति कौटिल्य की, अंगद का था पैर।
जहाँ रखा फिर न हटा, सबने माँगी खैर।।
छोटे-छोटे राज्य में, बटा हुआ था देश।
आपस में लड़ते रहे, विचित्र रहा परिवेश।।
सभी रियासत एक कर,किया अनोखा काम।
भारत में शामिल किया,नहीं रुके अविराम।।
जूनागढ़ राजा भगा, बस गया पाकिस्तान।
हैदराबाद निजाम ने, सौंपी राज कमान।।
मसला था कश्मीर का,जो नेहरु के हाथ।
आज तलक सुलझा नहीं,सभी पीटते माथ।।
भारत के वे रत्न थे, युनिटी के आधार।
लौह पुरुष के रूप में, हर सपने साकार।।
कभी नहीं चाहा मिले, मान और सम्मान।
मोदी जी ने दे दिया,उनको ऊँचा स्थान।।
प्रतिमा को ऊँचा बना,दिया विश्व संदेश।
भारत के वे पूत थे, सिंहों जैसा वेश।।
पौरुष साहस के धनी, माँ का था आशीष।
वल्लभभाई पटैल को, देश नवाता शीश।।
फागुन के दिन आ गये, मन में उठे तरंग।
हँसी ठहाके गूँजते, नगर गाँव हुड़दंग ।।
हुरियारों की भीड़ है, उड़ती खूब गुलाल।
रंगों की बरसात से, भींग उठी चौपाल ।।
अरहर झूमे खेत में, पहन आम सिरमौर।
मधुमासी मस्ती लिये, नाचे मन का मोर।।
जंगल में टेसू खिले, हँसी गाँव की नार।
चम्पा महकी बाग में, शहर हुये गुलजार।।
प्रेम रंग में डूब कर, कृष्ण बजावें चंग ।
राधा पिचकारी लिये, डाल रही है रंग।।
दाऊ पहने झूमरो, गाते मस्त मलंग।
होली के स्वर गूँजते, टिमकी और मृदंग।।
निकल पड़ी हैं टोलियाँ, हम जोली के संग।
बैर बुराई भूलकर, गले मिल रहे रंग ।।
फाग-ईसुरी गा रहे, गाँव शहर के लोग।
बासंति पुरवाई में, मिटें दिलों के रोग।।
जीवन में हर रंग का, अपना है सुरताल ।
पर होली में रंग सब, मिलें गले हर साल ।।
दहन करें मिल होलिका, मन के जलें मलाल ।
गले मिलें हम प्रेम से, घर-घर उड़े गुलाल ।।
जन्म मरण का सिलसिला,चला सनातन काल।
कुछ जीवन के काल में, करते बड़ा कमाल ।।
कविता अक्षर-धाम हैं, अक्षर-अक्षर मंत्र।
जप-तप है आराधना, संकट का है यंत्र।।
स्वप्न सलोने खो रहे, छायी तम की रात।
प्रभु सबका कल्याण कर, आए सुखद प्रभात।।
आतंकी है वायरस, कौन बचा हे नाथ।
अब उमंग उत्साह से, छूट रहा है साथ।।
मंदिर में कीर्तन जमीं, प्रभु से जुड़ा लगाव।
छाया संकट दूर हो, भरें सभी के घाव।।
गहरा तम जग से हटे, नव प्रभात की चाह।
यह आशा विश्वास ही, है जीवन की राह।।
कोरोना संजीवनी, आई घर-घर आज।
टीका सबको ही लगे, तभी बनेंगे काज।।
प्रत्याशा बढ़ने लगी, मिली दवाई नेक।
टीका लगने पर सभी, काटेंगे फिर केक।।
दो गज की दूरी रखें, धोएँ अपने हाथ।
मास्क लगाकर ही रहें, तब जीवन है साथ।।
सेवा को तत्पर रहें, यही राह है नेक।
हर मन में करुणा बसे, मानवता ही एक।
इजरायल की वह धरा, देती है संदेश।
देश प्रेम के पाठ में, होता सुफल निवेश।।
दो पाटों के बीच में, याहूदी-परिवेश ।
सीना ताने है खड़ा, जूझ रहा है देश।।
छोटे से इस देश में, धीर-वीर-गंभीर।
चौतरफा से है घिरा, कहलाता है वीर।।
मजहब ने आतंक का, पहना नया लिबास।
तोड़ रहे निर्दय बने, जनमत का विश्वास।।
हार गया अलकायदा, भस्मासुरी हमास।
खड़ा लश्करे-तैयबा, नंगा हुआ हमाम।।
मानवता के असुर हैं, हिजबुल मुजाहिद्दीन।
जैश-मोहम्मद सरफिरे, बजा रहे हैं बीन।।
फिरकापरस्ति देखकर, जगत हुआ हैरान।
अग्निकुण्ड में जल-मरे , लुटे-पिटे इंसान।।
इस्लामिक फिलिस्तीनी, हुए एक जुट आज।
मौन विश्व है देखता, इनका यह अंदाज।।
अपनी सीमा में रहें, करें भलाई काम।
खुद अपने को बदल लें, जग में होगा नाम।।
अमन चैन सुख शांति से, रहना चाहें लोग।
कट्टरता की आग में, पाल रहे नित रोग।।
दुखद बना आतंक अब, इसका हो उद्धार।।
जग समाज का हित सधे, हो मानव उपकार।।
कर प्रहार आतंक पर, मिलकर करें विरोध।
मठा जड़ों में डाल कर, करें खत्म प्रतिशोध।।
भारत ने आतंक के, अनगिन झेले घाव।
मिली मुक्ति है इस घड़ी, शीतल चली बहाव।।
नयन हंँसें तो जग हँसे, हँसे चाँदनी - धूप।
नयन चलें तो नेह की, डोरी बँधे अनूप।।
नयन विनोदी जब रहें, करें हास परिहास।
व्यंग्य धार की मार से, कब दे दें वनवास।।
नयन जलें क्रोधाग्नि से, डरें देख कर रूप।
राजा हो या रंक हो, अच्छी लगती धूप।।
नयन रो पड़ें जब कभी, मिट जाता अभिमान।
पत्थर दिल रोते दिखें, आँसू हैं वरदान।।
नयनों की अठखेलियाँ, जब-जब होतीं तेज।
नेह प्रीत के सुमन से, सजती तब-तब सेज।।
जो नयनों को भा गया, खुलें दिलों के द्वार।
नैनों की मत पूछिये, दिल के पहरेदार ।।
नयनों की भाषा अजब, इसके अद्भुत ग्रंथ।
बिन बोले जब बोलते, अलग धर्म हैं पंथ।।
बंकिम नैना हो गये, बरछी और कटार।
पागल दिल है चाहता, नयन करें नित वार।।
प्रकृति छटा को देखकर, नैना हुए निहाल।
सुंदरता के दृश्य को, मन में रखे सँभाल।।
नैंना चुगली भी करें, नैना करें बचाव।
नैना से नैना लड़ें, नैंना करें चुनाव।।
नैना बिन जग सून है, अँधियारा संसार।
जग सुंदरता व्यर्थ है, जीवन लगता भार।।
सम्मोहित नैना करें, चहरों की है जान ।
मुखड़े में जब दमकतीं, बढ़ जाती है शान।।
प्रभु की यह कारीगिरी, नयन दिए वरदान।
साहित्य हुआ लालित्य, उपमाओं की खान।।
टके सेर बिकता रहा, पहले कभी अनाज।
शिला लेख में है लिखा, कैसा था वह राज।।
घोड़ा गाड़ी पैर से, नापे सकल जहान।
महँगी कारों में रमा,भूल गया इन्सान।।
पीढ़ी दर पीढ़ी पड़ी, महंँगाई की मार।
कम वेतन पाकर सभी, पाते रहे दुलार।।
वेतन वृद्धि में अड़ा, जब जब भी इंसान।
जिन्सों की कीमत बढ़ी, फिर महँगा सामान।।
वेतन बढ़ता ही गया, कष्टों का अम्बार।
अपने-अपने ढंग से, जीवन रहे गुजार।।
महंँगाई की बाढ़ से, सब तो हैं, बेहाल।
पूंँजीपति उपभोक्ता, की उतरी है खाल।।
सुख सुविधा भोगी बढ़े, जीवन जीते मस्त।
क्रेडिट मिलता था कहाँ, बाँध रहे अब किस्त।।
पहले पैर पसार कर, सोता था यजमान ।
लम्बी चादर ओढ़कर,अब सोता इन्सान।।
अब कोई भूखा नहीं, राशन-पत्र में नाम ।
मजदूरी भी है बढ़ी, भांँति-भांँति के काम।।
तालमेल से सध गया, उपभोक्ता सरकार ।
महंँगाई की मार से, घटता बढ़ता भार ।।
अपने-अपने ढंग से, जीवन जीते लोग ।
जीवन के इस सफ़र में, मिल ही जाता रोग।।
महंँगा सब कुछ हो गया, रोटी वस्त्र मकान ।
कर्मठता से ही मिले, मानव को सम्मान।।
शिक्षा वह मंदिर जहाँ, सबको मिलता ज्ञान।
देवतुल्य शिक्षक रहें, हरते हर अज्ञान।।
शिक्षा वह अनमोल धन, जीवन भर का साथ।
लक्ष्मी जी का वरद हस्त,जग का झुकता माथ।।
मानव के निर्माण में, शिक्षक रहा महान।
बचपन को संयोजना, नव पीढ़ी को ज्ञान।।
शिक्षक की कर वंदना, सुदृढ़ बने समाज।
शिक्षित मानव ही गढ़े, नैतिक-धर्म-सुराज ।।
ज्ञान और विज्ञान से , भरता प्रखर प्रकाश।
मानव हित को साधकर, करे तिमिर का नाश।।
शिक्षा पाने के लिए, मानव गया विदेश।
थाह नहीं भंडार का, है अमूल्य विनिवेश।।
शिक्षित मानव देश की, नींव करे मजबूत।
रखे सुरक्षित देश को, बुने प्रगति के सूत।।
एकदंत रक्षा करें, हरते कष्ट अनेक।
दयावंत हैं गजवदन,जाग्रत करें विवेक।।
करूँ सुमुख की अर्चना, हरें सभी के कष्ट।
गौरी-शिव प्रभु नंदना, रोग शोक हों नष्ट।।
गणाध्यक्ष प्रभु गजवदन, हर लो सारे कष्ट।
बुद्धि ज्ञान भंडार भर, कभी न हों पथभ्रष्ट।।
भालचंद्र गणराज जी, महिमा बड़ी अपार।
वेदव्यास के ग्रंथ को, सुखद दिया आकार।।
बुद्धि विनायक गजवदन, ज्ञानवान गुणखान ।
प्रथम पूज्य हो देव तुम, करें सभी नित ध्यान ।।
धूम्रकेतु गणराज जी, इनका रूप अनूप।
अग्र पूज्य हैं देवता, चतुर बुद्धि के भूप।।
गजकर्णक लम्बोदरा, विघ्नविनाशक देव।
रिद्धि-सिद्धि के देवता, हरें कष्ट स्वयमेव।।
पावस की बूँदें गिरीं, हर्षित हुआ किसान।
धरा प्रफुल्लित हो उठी, हरित क्रांति अनुमान।।
गूँज पपीहा की सुनी, बुझी न अब तक प्यास।
आम्र कुंज में बैठकर, स्वाति बूँद की आस।।
मेघ गरज कर चल दिए, देकर यह संदेश।
बरसेंगे उस धरा में, कृष्ण भक्ति-अवधेश।।
शिव की है आराधना, हरियाली की धूम।
काँवड़ यात्रा चल पड़ी, आया सावन झूम।।
छाई सावन की घटा, रिमझिम पड़े फुहार।
तन भीगा उल्लास से, उमड़ा मन में प्यार।।
भारत में जन्माष्टमी, पर्व मनाते लोग ।
पूजन अर्चन सँग में, मिलता लड्डू भोग।।
हाथों में रच मेंहँदी, छाईं खुशियाँ भोर।
सखियाँ झूला झूलतीं,नापें नभ का छोर।।
रचा हाथ में मेंहँदी, दुल्हन का शृंगार।
सपनों में साजन बसे, छोड़ा घर संसार।।
सावन आया है सखी, चल बाबुल के देश।
आँगन में झूले पड़े, बदलेंगे परिवेश।।
पाती लिखकर भेजती, बाबुल-आँगन देश।
दरस-बरसअँखियन बसी, सावन का उन्मेश।।
झूला सावन में डलें, गले मिले मनमीत।
कजरी की धुन में सभी, गाएँ मंगल गीत।।
देवी की आराधना, कजरी सावन गीत।
नारी करतीं प्रार्थना, जीवन-पथ में जीत।।
सावन-भादों माह में, पड़ें तीज-त्यौहार।
संसाधन कैसे जुटें, महँगाई की मार।।
भाद्र माह कृष्ण पक्ष को, आती तृतीया तीज।
महिला निर्जल व्रत करें,दीर्घ आयु ताबीज।।
लाड़ो चूड़ी पहनकर, भर माथे सिंदूर।
चली पराए देश में, हृदय हुआ मजबूर।।
शृंगारित परिधान में, चूड़ी ही अनमोल।
रंग बिरंगी चूड़ियाँ, खनकातीं कुछ बोल।।
सपनों की डोली सजा, आतीं पति के पास।
हाथों में रच-मेंहँदी, पिया मिलन की आस।।
लाल रंग मेहँदी रची, आकर्षित हैं लोग।
प्रियतम के मन भावनी, अनुपम मिलते भोग।।
सावन की प्यारी घटा, लुभा रही चितचोर।
झूला झूलें चल सखी, हरियाली चहुँ ओर।।
घर-घर में झूला सजें, कृष्ण रहे हैं झूल।
भारत में जन्माष्टमी, मना रहे अनुकूल।।
गौरैया कहती सुनो, चलो चलें फिर गाँव।
कांक्रीट के शहर में, नहीं मिले अब छाँव।।
रवि है आँख दिखा रहा, बढ़ा रहा है ताप।
ग्रीष्म काल का नवतपा, रहा धरा को नाप।।
कंठ प्यास से सूखते, तन-मन है बैचेन ।
दूर घरोंदे में छिपे, बाट जोहते नैन।।
ठूँठों से है आजकल, जंगल की पहचान।
मानव ने खुद कर दिया, काट उन्हें बेजान।।
सभी घोंसले मिट गए, ढूँढ़ रहे पहचान।
दाना पानी अब नहीं, हम पंछी हैरान।।
झील ताल पोखर पुरे, उनमें बनें मकान।
हम पक्षी दर-दर फिरें,खुला हुआ मैदान।।
सूरज के उत्ताप से, सूखे नद-तालाब।
आकुल -व्याकुल कूप हैं, हालत हुई खराब।।
मौसम में आते रहे, परदेशी कुछ मित्र।
बदले पर्यावरण से, बदल गए वे चित्र।।
घर को नीरस कर रहे, खुद जाते परदेश।
पर्यटक रूठा देश से, बदला है परिवेश।।
चलो सखी हम चोंच में, लेकर उड़ते बीज।
गिरि कानन अरु गाँव में, पूजें आखातीज।।
सूरज की गर्मी बढ़ी, उगल रहा अंगार।
धरा गगन पाताल सब, व्यथित लगे संसार।।
नदिया रूठी गाँव से, दिखा बाँध का छोर।
परबत खड़े उदास हैं, गली-गली में शोर।।
लगे नवतपा-दिवस जब, चढ़ी हंडिया आग।
उबल रही तब यह धरा, वर्षा ऋतु का राग।।
पगडंडी हर गाँव में, मिलें सखीं जब चार ।
सिर पर गगरी ले चलीं, प्यास बुझाने नार।।
जेठ माह में रवि-किरण, बरसाती है आग।
धधक रही नित यह धरा, जीव रहे हैं भाग।।
लूक लिए दिनकर खड़ा, छाया ढूँढें लोग ।
फसल पके है खेत में, मिलता मोहन भोग।।
ग्रीष्म तपिश से झर रहे, वृक्षों के सब पात।
नव-पल्लव का आगमन, देता शुभ्र-प्रभात।।
वर्षा ऋतु का आगमन, सुनकर लगता हर्ष।
जीव जन्तु निर्जीव जन, तन-मन का उत्कर्ष।।
माघ माह की पंचमी, शुक्ल पक्ष तिथि आज।
वीणा वादिनि शारदे, रखती सिर पर ताज।।
विद्या की शुभ दायिनी, करती तम का नाश।
ज्ञान चक्षु को खोलती, काटे भ्रम का पाश।।
ऋतु वसंत का आगमन, मन में भरे उमंग।
धरा मुदित हो नाचती, नेह प्रेम हुड़दंग।।
खिलें पुष्प हर डाल पर, भ्रमर करें रसपान।
तितली झूमें बाग में, करते कवि ऋतु गान।।
पीत वसन पहने धरा, लाल अधर कचनार।
शृंगारित दुल्हन चली, ऋतु वसंत गलहार ।।
रामलला की आरती, करता भारत वर्ष।
मंदिर फिर से सज गया, जन मानस में हर्ष।।
मन मंदिर में रम गए , श्याम वर्ण श्री राम।
शायद कारागार से, मुक्त दिखें घन श्याम।।
प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम, बना अयोध्या धाम।
सूर्यवंश के मणि मुकुट, रघुनंदन श्री राम।।
आल्हादित सरयू नदी, लौटा स्वर्णिमकाल।
सजा अयोध्या नगर है, उन्नत भारत भाल।।
हर्षोल्लास का पल अब, लाया है चौबीस।
देश तरक्की कर रहा, मिले कौशलाधीश।।
धनुषबाण लेकर बढ़े, निर्भय सीता-राम।
सरयू तट पर सज गया, राम अयोध्या धाम।।
आँखें अश्रु बहा रहीं, यादें अनुज विनोद।
कदम मिला कर तुम चले,मन आह्लाद प्रमोद।।
भाई थे हम चार पर, जोड़ी थी अनमोल।
कंधे दोनों के सबल,भवन रहा था बोल।।
मिलजुल सपने बुन लिये, उठालिया सब भार।
मात-पिता की आस पर, पूरा था अधिकार।।
कानों में वह गूँजती, भाई की आवाज।
चलो बड़े भैया अभी, निपटाते कुछ काज।।
बिगड़े जितने काम थे, उनको रहे सुधार।
मात-पिता के दीप पर, चढ़ा रहे थे हार।।
टूटा हृदय विछोह से, चैन नहीं दिन-रात।
कदम-कदम पर साथ था, तुम संबल थे भ्रात।।
अविरल आँसू कोर से, छलक रहे दिन-रात।
मुझे अकेला छोड़ कर, दिया बड़ा आघात।।
प्रेम-नेह निश्चल बसा, कभी दिया ना क्लेश।
छोटा जीवन जी गया, बनकर के दरवेश।।