मनोज कुमार शुक्ल ‘‘मनोज’’
हृदय स्पर्शीय कहानियों का जन्म सदा संवेदनाओं के गर्भ से ही होता है। कहानीकार जितना अधिक संवेदनशील होगा, उसमें विषय वस्तु की गहराई में जाकर मोती को निकालने की क्षमता उतनी ही अधिक होगी। साधारण से साधारण घटनाओं को अपनी संचित संवेदनाओं और शब्दों के प्रवाह को कलम-कागज के माध्यम से पाठकों के सामने उकेरने में वह उतना ही अधिक सफल होता है। कालान्तर में वही कहानीकार अपने पाठकगणों के गले का हार बनकर चमकता है।
कहानियाँ आदिकाल से सदैव मानव समाज को एक अच्छा संदेश देती आ रहीं हैं। मानव समाज का पथ प्रदर्शक बनकर नेक राह पर चलने सदैव प्रोत्साहित करती रहीं हैं। नर नारी ही नहीं वरन् समस्त जीव निर्जीव से तारतम्य स्थापित करके उसे एक दूसरे से जोड़ने का ताना बाना बुनती रहीं हैं। सत्य-असत्य, विसंगतियों और कुरीतियों पर धारदार प्रहार कर उसे मानवीयता की ओर उन्मुख होने को सदा प्रेरित करती आ रहीं हैं।
कहानियों के कथ्य में अवश्य समयकाल के हिसाब से बदलाव आते रहें हैं। पर कहानियाँ अपने मूल कर्तव्य से कभी भटकी नहीं। मानव और समाज का पथप्रदर्शक बन कर उसे सदैव एक प्रगतिशीलता की ओर चलने को प्रेरित करती रही है। मानवहित से विमुख, दिशा कर्तव्य एवं संदेश विहीन कहानियों का अस्तित्व क्षणिक ही होता है। ऐसी कहानियाँ समाज व मानव पर कोई अपनी अमिट छाप नहीं छोड़तीं। कालान्तर में ये कहानियाँ पृष्ठभूमि से स्वयं ही अदृष्य हो जाती हैं।
श्रीमती सरोज दुबे की कहानियों में वह सब कुछ है, जो एक श्रेष्ठ कहानी में होना अपेक्षित होता है। उनकी कहानियों में नारी विषय की विभिन्नता, रोचकता एवं गंभीरता समाहित हैं। दूसरी ओर समाज की विसंगतियों से उनमें विद्रोह के स्वर भी प्रस्फुटित हुए हैं। नर-नारी के समानता के भाव को संजोए हुए उनकी सभी कहानियों में मौलिकता एवं धाराप्रवाह शब्दों का स्पष्ट संयोजन दिखता है। जिसमें मानव, समाज और देश के लिए एक संदेश भी छिपा है। जो पाठक के मन को उद्वेलित भी करता है। आज के बदलते परिवेश में कुछ सोचने को मजबूर भी करता है ताकि वह बदलते परिदृष्य में आपने आपको भी ढाल सके।
श्रीमति सरोज दुबे की सभी कहानियाँ देश की बड़ी-बड़ी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं के मूर्धन्य सम्पादकों की पैनी नजर से गुजरीं हैं। तभी देश की लोकप्रिय पत्रिकाओं में अपना स्थान पाकर प्रकाशित हो सकीं हैं। उन्हें अनेकों पाठकों के प्रशंसा पत्र भी मिले। अनेक पत्रिकाओं द्वारा आयोजित राष्ट्रीयस्तर की प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कारों से सम्मानित होने का गौरव भी मिल चुका है। जीवन साथी के विछोहोपरान्त अपने जीवन यात्रा में अकेले ही संघर्षों और झंझावातों को झेलते हुए अपने दो बच्चों के कुशल लालन-पालन के साथ ही घर-गृहस्थी को सम्हालते हुए, आज सफलता पूर्वक जीवन के अंतिम पड़ाव तक पहुँचना कोई आसान काम नहीं है। विभिन्न बाधाओं के बावजूद भी उन्होंने सदा ही समाज को घृत और मक्खन ही दिया है ताकि मानव, समाज और देश सदा स्वस्थ्य और सजग रहे।
अपने जीवन काल में शिक्षकीय कर्म को अंगीकार कर उन्होंने अपने जीवन काल में असंख्य छात्रों को दिव्य ज्ञान के आलोक से तेजस्विता प्रदान किया है। गुरु और शिष्य की आदर्श परम्परा का सदैव निर्वाहन किया है। उन्हें सन्मार्ग की ओर चलने को हमेशा प्रेरित किया है। देश में आदर्शों, मानवमूल्यों के संस्थापनार्थ सदैव जागरूक होकर आगे बढ़ने की ललक ने ही उनके व्यक्तित्व के आभामंडल को चमकाया है। यही एक गुण है जो उनके कथनी-करनी के भेद से परे उनके स्वभाव को निखारने में सक्षम हो सका है।
देश में वर्तमान भाषाई विद्रूपताओं के बीच उन्होंने महाराष्ट्र की धरती में अपने छात्रों को राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति प्रेम व अनुराग के भाव जगाने का जो कार्य किया है, वह अपने आप में प्रशंसनीय ही नहीं अपितु वंदनीय भी है।
उनकी अनेक उत्कृश्ट कहानियों से जब मेरा साक्षात्कार हुआ, तो मैं दंग रह गया और अपने आपको इस पुस्तक प्रकाशन से रोक न पाया। मैं शुक्रगुजार हूँ अपनी बेटी सपना, ऋचा और दामाद प्रत्यूष, मनीष दुबे का जिन्होंने बंद-संदूक को खंगाल कर, उनकी लगभग 25 चुनिन्दा कहानियों को मुझे सौंपा और आज मैं यह कहानी संग्रह आप सभी सुधी पाठकों के हाथों में सौंपकर स्वयं गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ। उनकी साहित्यिक लेखन की विरक्ति ने जहाँ मुझे किंचित दुख पहुँचाया, वहीं मेरे आशावादी दृष्टिकोण ने मुझे इस ओर प्रेरित किया कि शायद उनके अंदर का वह साहित्यकार फिर से जाग उठे और हमारे हिन्दी साहित्य को और भी अनमोल कहानियाँ दे सकें। इन्हीं शब्दों के साथ मैं उनके सुदीर्घ मंगलमय जीवन की कामना करता हूँ।
• मनोज कुमार शुक्ल ‘‘मनोज’’
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