आचार्य कृष्णकान्त चतुर्वेदी
श्रीमती सरोज दुबे का कहानी संग्रह ‘‘धुंघ के उस पार’’ सामने है। इसके साथ असंख्य पात्रों, घटनाओं, मनः स्थितियों, सुख-दुख, वेदना करुणा, आत्मग्लानि आदि मनोभावों का विपुल संसार सामने आकर खड़ा हो गया है, अपनी भाषा और शैली में बतियाने। श्रीमती सरोज दुबे जैसे प्रत्येक कहानी के पीछे खड़ी झाँक रही हों कि विविधता और अचानक उपजे अनुभवों की सम्पन्नता भी तो अनुभव कर लीजिये। मै गहरे भाव-बोध से विभिन्न तरंगों और प्रवाह में डूबता उतराता रहा और सोचता रहा कि कैसे समझेंगे मन की गति वह भी नारी मन की।
श्रीमती सरोज दुबे प्रतिष्ठित और लम्बे समय से लोकप्रिय और चर्चित लेखिका हैं। उनका निवास नागपुर है। मैंने जिस नागपुर को पहली बार देखा है, वह ‘सीपी और बरार’ अर्थात महाकौशल और विदर्भ की राजधानी और न्यायधानी के रूप में सुस्थापित था। यह बात उन्नीस सौ त्रेपन की है। हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद मुझे अपनी बुआ के पास अवकाश में घूमने भेजा गया था। तबका नागपुर उसकी सीताबर्डी, पुलिस लाईन, सिविल लाईन सब जैसे साकार हो गए। फिर अब दो हजार सोलह के नागपुर को देखा तो लगा एक छोटे गाँव का रहने वाला नए रूपरंग ठाठबाट अनुभव सम्पदा के साथ सम्मानित नगर की तरह व्यवस्थित खड़ा है। तब की भाषिक स्थिति और आज की स्थिति में भी पर्याप्त अंतर आ गया है। फिर भी पुराना नागपुर अब भी जीवंत और प्रभावी है, सूक्ष्म और व्यापक रूप में।
ऐसे परिवेष में श्रीमती सरोज दुबे की सुदीर्घ सृजन साधना अपनी भाव भूमि में स्थिर बनकर गतिशील रही, यह उल्लेखनीय तथ्य है। वे अपने जीवन में भी सहज घरेलू अनुभवों से परिचित होती रहीं हैं और जूझती भी रहीं हैं। उनकी प्रत्येक कहानी हमें बरबस एक आत्मीय पारिवारिक वातावरण में ले जातीं हैं, और तब तक बाँधे रखतीं हैं,जब तक उसके अचानक रूप से उपस्थित चौकाने वाले अंत तक नहीं पहुँच जाते।
उनकी कहानियों में महाराश्ट्र, महाकौशल और छत्तीसगढ़ का भूगोल उपस्थित तो होता है पर, एक मघ्यम वर्गीय घर के संस्कारों को प्राण मानकर।
नारी होना मात्र इस बात के लिए पर्याप्त कारण नहीं है कि वह नारी मनोविज्ञान को भली भाँति समझे प्रायः वह स्वयं को एक पात्र की भूमिका से पृथक नहीं कर पातीं। श्रीमती सरोज दुबे की कहानियों में नारी मनोवृत्ति के अनेक रूप बहुत विश्वसनीय एवं प्राणवत्ता के साथ उपस्थित हुए हैं। वे उसमें अनुप्रविष्ट और तटस्थ दोनों भूमिकाओं में दृष्टिगोचर होती हैं।
श्रीमती सरोज दुबे की कहानियों के पात्र घर के सहज वातावरण से और प्रचलित रूप से उठाए गये हैं। परिणामतः एक सहज आत्मीय सम्बंधों की अनुभूति निरंतर बनी रहती है। भाषा और कथोपकथन भी सरल और सहज है। उनकी भाषा में थोड़ा सा भी परिवर्तन करना संभव नहीं है, ऐसा करने पर वह परिवर्तन थिगड़े की तरह लगेगा या मूल स्वर को खंडित करने वाला होगा।
हिन्दी जगत में अपनी सृजनशीलता अनुभव और उसे प्रस्तुत करने की मार्मिक क्षमता के लिए उनकी ओर साहित्य जगत का ध्यान निश्चय ही आकृष्ट होगा।
मैं उनकी इस कृति के लिए साधुवाद देता हूँ और भविष्य में भी उनके कृतित्व से परिचित होने की अपेक्षा भी रखता हूँ।
• आचार्य श्री कृष्णकांत चतुर्वेदी,
कुलगुरू राजशेखर सृजनपीठ,
म.प्र. शासन संस्कृति विभाग
भोपाल
पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष,
संस्कृत पालि प्राकृत विभाग
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय,
जबलपुर
पूर्व निर्देशक कालीदास अकादमी,
उज्जैन