डाॅ. सालिकराम अग्रवाल ‘शलभ’
मध्यप्रदेश की संस्कारधानी नगर जबलपुर के वरिष्ठ रचनाकार श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’ एवं उनके सुपुत्र श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’ के कहानी संग्रह ‘एक पाव की जिंदगी’ कहानी संकलन, जहाँ एक ओर उनके पिताश्री की समर्थ लेखनी से विसृत कहानी कालिंदी प्रवाहित है, वहीं दूसरी ओर उनके चिरंजीव की कहानियाँ उनकी कहानी लेखन की अशेष संभावनाओं को उजागर करतीं हैं। श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’ की कहानियों के अध्ययन-अवलोकन कर, मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हँू कि वे स्व. श्री जैनेन्द्र कुमार की समकक्ष हैं। उनकी कहानियों में सामाजिकता के प्रदीर्घ चिन्तन एवं अध्ययन परिलक्षित होते हैं। कहानियों की कथावस्तु कथोपकथन के साथ कहानियाँ सायास अपने लक्ष्य तक पहुँचती हैं, पाठकों को बाँधे रखने की प्रत्येक कहानी में अपूर्व क्षमता है। भाषा सरल, हृदयग्राही एवं प्रसाद गुण पूर्ण हैं। आपकी कहानियों में आंचलिकता का जो संस्पर्श है, वह आपकी लेखकीय धर्म की ईमानदारी से प्रतिबद्धता का जस पत्र है।
‘एक पाव की जिंदगी’ में सभी कहानियाँ जो संकलन के नामकरण की सार्थकता को सिद्ध करतीं हैं। सभी कहानियाँ एक निम्नवर्गीय व्यक्ति की कष्ट कालकूट पीकर अदम्य जिजीविषा को सिद्ध करतीं हैं। श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’ एक वरिष्ठ कहानीकार हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता पश्चात् भारत को करीब से देखा है। उनकी अभिव्यक्ति स्वरूप कहानी ‘कसम गांधी की’ एवं ‘स्वतंत्रते’ पूरी सच्चाई के साथ सामने आई है। प्रसिद्ध पत्रिका सन्मार्ग के सन् 1950 के अंक में प्रकाशित कहानी ‘मरघट का धुआँ’ हिन्दी कहानी की विकास यात्रा में मील का पत्थर है। सर्वग्रासी श्मशान उसके प्रहरी का रौद्र एवं कोमल रूप और जीवन का अंतिम सत्य आपकी इस कहानी में बड़े ही मर्म स्पर्शी ढंग से चित्रित किया गया है
समाजिक कहानियों में ‘दर्द का दर्द’, ‘लाल चुनरिया’, ‘संकल्प’, ‘वर्चस्व’, ‘एक चिरैया’, ‘संघर्ष’, ‘दहेज’, ‘जेबकट’, ‘करवट’, ‘भिखारिन’, ‘सबक’, ‘बदला’, ‘माँ’, ‘सफर के साथी’ आदि कहानियाँ भी संप्रेषणीयता से ओतप्रोत हैं। कथानक, कथोपकथन, चरित्र, भाषाशैली एवं उद्देश्य सभी दृष्टिकोण से सराहनीय हैं। श्री शुक्ल की सभी कहानियों की एक विशेषता है कि पाठक बिना थके एक ही बैठक में न केवल एक कहानी वरन् सभी कहानियों को संपूर्ण मनोयोग से पढ़ने का आनंद लेता है। साथ ही प्रत्येक कहानी का एक संदेश और एक उद्देश्य है, जिसे पाठक आत्मसात करते चलता है।
श्री मनोज शुक्ल ‘मनोज’ को हम साठोत्तरी कहानीकार के अंतर्गत रख सकते हैं। ‘गिरा दो ये मीनारें, मचा दो इंकलाब’, जवां दिल के जोश की कहानी है, पर जिसे पूरे होश के साथ लिखी गई है। कहानीकार जो जिया है, जो भोगा है, उसे ही लिखा है। कागौर, समर्पण, अंधेरे और उजाले, बड़प्पन, दौड़ एक अंतहीन, रिश्तों का दर्द, और वह रुक न सका, अनोखा बलिदान, पराजय, परिवर्तन, यह कैसा उपहार, बदलते समीकरण, रोपवे, एवं वार्ड नम्बर पाँच आदि कहानियाँ समकालीन परिस्थितियों का जीवन्त दस्तावेज हैं। श्री मनोज मूलतः कवि हैं, इस कारण आपकी सभी कहानियों में रसात्मकता पूर्णरूपेण विद्यमान होने के कारण पाठक के साथ समरसता बनाने में सक्षम हैं। सारांश में हम यह कह सकते हैं कि यह कहानी संकलन प्रसाद के अनुसार पथ पाथेय ही नहीं वरन् एक मुसल्सल सफर की ओर इशारा करता है।
इस पथ का उद्देश्य नहीं है। श्रांत भवन में टिक रहना।।
किन्तु पहुंचना उस सीमा पर। जिसके आगे राह नहीं।।
डाॅ. सालिकराम अग्रवाल ‘शलभ’
वरिष्ठ कवि एवं साहित्यकार
शंकर नगर रायपुर
वर्ष-1997