सरयूकान्त झा
हिन्दी कथा साहित्य आज नया इतिहास रच रही है। पिता-पुत्र अर्थात दो पीढ़ियों की रचना धर्मिता को हम एक ही संकलन में एक साथ सामने पाते हैं। दोनों ने वर्तमान आधार पर भोगे हुए अतीत और आने वाले भविष्य के जीवन सत्यों का मूल्यांकन किया है। श्री मनोज कुमार शुक्ल युवा हैं। उनके गहरे अन्तःस्थल में नई उमंगों की हिलोरें उठ रही हैं। मूल रूप में वे कवि हैं, काव्य की कल्पना के चित्रों को कथा के सूत्रों में गूँथकर उन्होंने नई बानगी दी है। उनके काव्य में कुछ पा लेने की चाह है, उनकी निराशा में आक्रोश का स्वर है और उनका वर्तमान विक्षुब्ध है। वे इन तीनों में सामंजस्य की स्थापना की चपेट में नई दिशाओं का सृजन करते चलते हैं। संतोष यही है कि उनकी गति में कहीं लड़खड़ाहट या भटकाव नहीं है। उन्हें अपनी मंजिल मालूम है और उनका प्रत्येक कदम उसी ओर बढ़ता प्रतीत होता है।
उनकी कहानी ‘गिरा दो ये मीनारें, मचा दो इंकलाब’ उनके उर्जस्थित व्यक्तित्व की छाप लिए हुये है। गोपाल बाबू का आजादी को लेकर टूटा हुआ स्वप्न एक नई चिंगारी का जन्म देता है। स्वतंत्रत भारत के हताश स्वरों में नव निर्माण की अनुगूंज को रेखांकित करने वाली सशक्त रचना है, कहानी ‘समर्पण’ में ग्रार्हस्थिक वातावरण में भी उसी विक्षोभ के दर्शन होते हैं। देविका, अर्पणा और उषा के रूप में तीन पारिवारिक अवस्थाओं का चरित्र चित्रण है। अनुपम उनको एक लरी में पिरोने की कोशिश में टूट चुका है। अनुपम के रूप में कविहृदय की कोमल संवेदनाओं को पहिचानने में गल्तियाँ नहीं होती। अर्पणा का त्याग अनुपम को सहारा देने का ही उपक्रम है।
‘अंधेरे और उजाले’ में भी सरोज के युवामन के आक्रोश को पहिचानने में देर नहीं लगती। आशा के रूप में सरोज को जब सत्य का पता चलता है, तब शांति के समर्पण भाव में वह अपने प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने लगता है। अच्छी कहानी बन पड़ी है। ‘बड़प्पन’ कहानी में बड़ी भाभी के समर्पण ने घर के वातावरण को जो नई दिशा दी है, उसका चित्रण स्वस्थ भारतीय परम्परा पर एक नए विश्वास को जन्म देता है। ‘दौड़ एक अन्तहीन’ कहानी में एक वृद्धा को परिस्थितिवश नई उर्जा से परिपूर्ण रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यहाँ पर भी वही समर्पण भाव है, जो मनोज जी की कहानियों का मूल स्वर है। ‘रिश्तों का दर्द’ भी घर गृहस्थी से जुड़ी हर भारतीय परिवार की कहानी है। एक भरे पूरे घर में भी एक वृद्ध का एकाकीपन हमारे मन में एक नए प्रश्न को उभारकर सामने परोस देता है।
देश की सुरक्षा में तैनात अरुण की भावनाओं को उकेरता हुआ कथाचक्र ‘और वह रुक न सका’ अपनी शैली और भावाभिव्यक्ति में अनूठी कहानी बन गयी है। दीपा की माँ अरुण की भाभी और अन्त में स्वयं दीपा ने अपनी भावनाओं का इजहार जिन शब्दों में किया है। वे चिरस्थायी प्रभाव छोड़ते हैं। श्री मनोज जी के कवि हृदय की झाँकी इस कहानी में देखने को मिलती है। युद्ध क्षेत्र में चोट खाये सैनिक को सम्हालती दीपा और उसका सहारा देता व्यक्तित्व पाठक के मन को कहीं गहराई से छू जाता है। इस कहानी ने ही पूरे संग्रह को नए प्रकाश से भर दिया है। ‘अनोखा बलिदान’ ने दो दूरस्थ विषयों को एक में बांधने का असफल प्रयास किया है। भास्कर और सुशीला न तो प्रेम को और न स्वतंत्रता के बाद के गाँधी के भारत की दुर्दशा के ताने बाने को जोड़ पाये। भास्कर का बलिदान भी संघर्षपूर्ण जीवन की एक सामान्य घटना का ही आभास दे पाई है। ‘पराजय’ भी इस कड़ी की दूसरी कहानी बनकर रह गयी है। निर्मला के त्याग से दीप्तचित्र भी इस कहानी को जीवन्त बनाने में असफल रही है। परिवर्तन मानवहृदय के उत्थान पतन की कथा है। कथा का केन्द्र शुभम से हटकर माधव में सिमिट गया है। कथाकार और उसकी कथा की रस्साकसी पठनीय है। लेखक शुभम को उभारना चाहता है, पर उभरता है माधव। चरित्र प्रधान कहानी के रूप में परिवर्तन चिरस्मरणीय रहेगी।
‘यह कैसा उपहार ’1972 की रचना है, पर उसका कथाभाग स्वतंत्रता की बलिबेदी पर मर मिटने वालों के घटनाओं से भरा है। कपूर की स्वतंत्रता पश्चात की परिस्थितियों के कारण देश में पनप रही विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित होता है। ‘बदलते समीकरण’ पौराणिक गणेशजी को आधुनिक युग में उतारने की कोशिश है। हास्य व्यंग्य शैली में गणेश और उनके वाहन मूषक में नए समीकरण के द्वारा पेशकर देश में विद्यमान भ्रष्टतंत्र के उजागर करने का अच्छा प्रयास है।
‘रोपवे’ कहानी अपनी धार्मिकता में जीवन के तथ्यों को उभारने में सफल कही जा सकती है। बूढ़े बाबा की सहायता में संलग्न सोनल और कहानीकार को लेखक ने टाल्सटाय या हमारे पुराण की उस कथा के समकक्ष प्रस्तुत किया है, जहाँ गरीबों की सहायता ही धर्म यात्रा मानी जाती है। वार्ड नम्बर पाँच अस्पताल का एक दृश्य है, जहाँ जीवन मृत्यु का निरंतर चलने वाला संघर्ष चित्रित है। ‘कागौर’ कहानी पिता पुत्र के संबंधों पर एक मार्मिक चोट करने वाली कथा है, जो कि अपने सशक्त कहानी के रूप में सामने है। ‘पथराई आँखंे’ं संग्रह की अधुनातन कहानी है, नए भाषा प्रयोगों के कारण इसका स्वरूप अच्छा बन गया है। यह संग्रह की सुन्दरतम रचना मानों नए गवाक्षों का उद्घाटन करती है।
मुझे तो पूरा कहानी संग्रह एक कथाकाव्य का आनंद देता है। कुछ कहानियों का प्रारंभ किसी कथाभाग से नहीं वरन किसी काव्य कथा से ही प्रतीत होता है, जैसे अस्ताचल की ओर भागते अरुण और संध्या के रक्तावरण में नहायी चतुर्दिक दिशायें, शाम का हल्का सा तम झींगुरों और मेढकों का संगीतमय वातावरण, पूर्व दिशा में रथ पर आरूढ़ भुवन भास्कर, थमती तेज होती बारिश आदि जैसे प्रारम्भिक वाक्यों के साथ भाव विभोरता में डूबा केन्द्रीय स्वर सुलझे कथाकारों की भावनात्मकता का आभास देती है। घटनाचक्रों में संकुलता के स्थान पर सीधी सपाट बयानी भी काव्य शैली की साक्षी बन गयी है। संवाद से अधिक चरित्र चित्रण पर कथा का भार टिका हुआ है। कहानी भी तो काव्य की एक संप्रेषित विधा है। भाषा पर अधिकार कहानीकार की अभ्यस्त लेखनी की कहानी कहती है। श्री मनोज के साहित्यकार के सामने एक लम्बा भविष्य है, उनमें लेखन की क्षमता है, अपने उद्गारों को विभिन्न काव्य शैलियों में उभारने का हुनर है, मानवीय संवेदनाओं से भरा भावप्रवण व्यक्तित्व है। उच्चराष्ट्रीयता से भरपूर एक नये स्वस्थ भारत के निर्माण की आकांक्षा और है आँखों में झाँकता सुन्दर सफल भविष्य का सपना। सफलता की अगली देहरी उनकी प्रतीक्षा कर रही है।
‘एक पाव की जिन्दगी’ में श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’ की नई व पुरानी कहानियों का अद्भुत संग्रह है। श्री शुक्लजी मंजे हुए भावनाओं की गहराई में झाँकने में माहिर हैं। सरजू और बदलू का वार्तालाप हो या हरी और मोहन का उनमें कथा अपने आप सरकने लगती है। पूरी कहानियाँ संवादों पर चलती है। मानों हमारे सामने नाटक का रूपान्तरण किया जा रहा हो। एक भी वाक्य छूटा कि धारा टूटी। पाठक सावधान की मुद्रा में कथा पढ़ने को मुस्तैद होना चाहिए यानि अटेन्शन का आदेश कथाकार ने दिया है।
कभी किसी उस्ताद ने कहा था कि कहानी एक क्षण की कवायद है, जिसके लिए तैयारी करने में ही पूरी परेड हो जाती है। इसके सत्य को जाँचना हो तो ‘श्रीनाथ’ जी की कहानियाँ को पढ़कर हमें आभास होगा। भाषा की स्वच्छन्दता ने कहानियों को स्वाभाविकता का रंग दिया है। ‘दर्द का दर्द’ में बात- बात में साला सम्बोधन जो कभी वह स्वयं को भी कह देता है। लगता है यह शब्द अपनी नई सामाजिकता में पुरानी रिश्तेदारी खो चुका है। जेबकट का अपुन भी हमसे अधिक जोरदार असर डालता है। कभी-कभी पंडितजी भी अपनी समझदारी बताने से नहीं चूकते। यदि विश्वास न हो तो संग्रह की एक कहानी ‘माँ’ का मुखड़ा पढ़ लें। मन के दर्पण में धुँध पोंछते-पोंछते नरेश ही नहीं रोता, वह सहृदय पाठकों की आँखें भी गीली कर देती है।
कहानी वह जो लेखक के हाथ से अपने आप कूदकर या फिसलकर पाठकों के गले का हार बन जाए। हर आदमी ने अपने बचपन में किसी न किसी ननकू को दिलीपकुमार बनते अवश्य देखा होगा। नहीं देखा है, तो बड़ा खतरा है- ननकू बनने का। आँख कान खोलकर देखिए हर गली कूचे में एक ननकू, दिलीपकुमार बनकर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। वह हमसे ‘अँखियाँ मिलाके’ हमारे जी को भरमा देता है। हर डायरिया के बाद नई जीवन शक्ति लेकर वह हमारे सामने आ खड़ा होता है और हम अपनी तमाम उम्रदराजी भूलकर बच्चों के सुर में सुर चिल्ला उठते हैं, दिलीप कुमार गाना गाओ, ‘‘अँखियाँ मिलाके जी भरमा के चले नहीं जाना’’। अच्छे का अच्छा, बुरे का बुरे, इस अति प्राचीन थीम पर कभी-कभी अच्छी कहानी बन जाती है, ‘अंधेरे के गम और उजाले के आँसू’ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
अपने कथ्य एवं घटना चक्रों की वक्रगति के कारण ‘दहेज’ का स्थान कहानी संग्रह में अलग दिखाई पड़ता है। पाठकों की उत्सुकता प्रारंभ से अंत तक बनी रहती है। अंतिम वाक्य में कहानी अपनी चरम स्थिति का बोध कराते हुए एक अनुगूंज छोड़ जाती है। जैसे मंदिर में आरती के समय अनेक वाद्य बजते रहते हैं और अंत में सभी के शांत हो जाने के बाद भी एक प्रकार की अंतिम ध्वनि पूजार्थीयों के मन-प्राण को बहुत देर तक अपने में समाये रखती है। कथा शिल्प की दृष्टि से यह रचना अपने उत्कर्ष पर है, इसका ‘दहेज’ नाम मन में कुछ भ्रांति अवश्य उत्पन्न करती है। पर बाद में वह भी सार्थक बन जाती है।
‘संकल्प’ विधवा विवाह को लेकर लिखी गई कहानी है। ‘संघर्ष’ कहानी में गरीबी के विरुद्ध चलने वाले अनवरत संघर्ष से हताश मन विद्रोह नहीं कर पाता तो पलायन और पागलपन ही एक मात्र रास्ता होता है। ‘एक चिरैया’ मानव के पक्षी प्रेम की अनूठी कहानी है। अपनी भावनाओं में बहता हुआ मानव हृदय कहाँ-कहाँ अपने रिश्ते की डोर फैलाता रहता है, उसी में अपने सुख-दुख की कहानी संजो लेता है। कहानीकार के भावप्रवण अंतराल की व्यथा कथा को प्रकट करती, इस विधा को क्या हम अकहानी कहें यही प्रश्न है। ‘स्वतंत्रते’ भारत की आज की परिस्थितियों को चित्रित करने वाली करुण कथा है। ‘कसम गांधी’ की भी इसी परम्परा की दूसरी कहानी है। साम्प्रदायिकता की आग में आहुति देने वाला नन्दू है, तो लाल चुनरिया का जानकी भी। भूख गरीबी का संत्रास भोगती सुन्नदा की त्रासदी की कथा है, जो उसे आत्महत्या के दरवाजे तक ले जाती है। ‘पुकार’ इसी कड़ी की अगली कहानी है, जिसमें भारत की दुर्गति को एक कलाकार के माध्यम से चित्रित किया गया है। ‘पश्चाताप’ शब्द चित्र है। मानव हृदय के अंधेरे कोनों को देखने का प्रयास है, जिसमें कहीं न कहीं एकाध प्रकाशमय किरण छिपी रह ही जाती है।
श्री शुक्ल शब्दचित्रों के माध्यम से जीवन के रहस्यों को प्रकट करने में दक्ष हैं। उनकी प्रत्येक कहानी हमें जीवन के एक नए सत्य से परिचित कराती हैं। उनकी कहानियों के घटना चक्रों का अनुभव हमें हो चुका है, उनके पात्रों से हम कहीं न कहीं टकराये जरूर हैं, उनके संवाद हमारे बोले या सुने हुए अवश्य लगते हैं। भले ही शब्द और परिस्थितियाँ बदली हुईं हैं। पर उनके अन्तर्निहित अर्थ से हम दो चार अवश्य हुए हैं।
छत्तीसगढ़ के शलाका पुरुष श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी कहा करते थे कि- हमारे पास कोट होना चाहिए, उसको टांगने के लिए खूँटी तो कहीं भी मिल जायेगी। यानि हमारे पास वैचारिक अनुभूति होनी चाहिए, उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम तो कहीं भी मिल जाएगा। श्री शुक्लजी की कथा में ये ही सुपुष्ट खूँटियाँ हैं, जिनपर वे विचार बड़े सलीके से टंगे हुए हैं। कहानी की सभी विधाओं में अपनी बात कहने की शैली में श्री शुक्लजी सिद्धहस्त हैं। जो जीवन की गहराईयों से जितना अधिक जुड़ा होगा उसकी कला भी उतनी ही समर्थवान होगी। उनकी पूर्व में भी उनकी अनेक कहानियाँ प्रकाशित हो चुकीं हैं।
इस कथा संग्रह की कहानियाँ हमें टू टीयर की बोगी की अवधारणा कराती हैं। गंतव्य और मार्ग एक होने पर भी एक आकाशी और वायवीय है, तो दूसरा लोअर बर्थ है-जो कि बेस से जुड़ा हुआ है। दोनों गतिशील हैं, दोनों की खूबियाँ हैं और दोनों के अपने-अपने रंग और उपयोगितायें हैं। इनमें तुलना करना हम अप्रासंगिक समझते हैं। दोनों के प्रति हमारा आत्मभाव हैं और दोनों के प्रति हम पूर्णतया आश्वस्त हैं।
डाॅ. सरयूकान्त झा
वरिष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद् एवं समीक्षक
भूतपूर्व प्राचार्य छत्तीसगढ़ महाविद्यालय रायपुर
सन् 1997