प्रोफेसर देवीसिंह चैहान
‘एक पाव की जिन्दगी’ पुस्तक दो पीढ़ियों के जाने माने साहित्यकार पिता पुत्र की अनेक चुनिन्दा कहानियों व व्यंग्य का अनुपम संकलन है। इसमें दो पीढ़ियों की विचारधारा आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक अवस्थाओं की जीति जागती तस्वीर की झलक एक साथ देखने को मिल जाती है। मनुष्य के आचार विचार एवं मानसिकता को बदलते हुए समय ने किस प्रकार प्रभावित किया है और जीवन मूल्यों में शीघ्रता से किस प्रकार बदलाव आता जा रहा है। इसे जानने के लिए इस संग्रह की सभी कहानियों का अनुशीलन करना नितान्त आवश्यक है। लगभग पाँच दशकों के मानवीय संवेगों एवं आचार विचार पर बदलते हुए जमाने के प्रभाव को समझने के लिए यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है।
श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’ की अनेक कहानियाँ स्वतंत्रता संग्राम से लेकर अब तक के भारतीय जनजीवन, ऊँच-नीच के भेदभाव, सामाजिक विसंगतियों, अहंकार, पाखण्ड, ईष्र्या, द्वेष, निम्नवर्ग की चारित्रिक दुर्बलताओं, तलाक, पुनर्मिलन, साम्प्रदायिक, राष्ट्रभक्ति, सद्भाव आदि को आधार मानकर लिखी गईं हैं। वैसे तो सभी कहानियाँ अनूठी हैं, अपनापन लिये हैं और कहानीकार के व्यक्तिगत विचारों तथा कथाशिल्प की पहचान करातीं हैं, किन्तु उनमें ‘दर्द का दर्द’, माँ, एक पाव की जिन्दगी, अँधेरे के गम उजाले के आँसू, दहेज, संकल्प, संघर्ष एवं सफर के साथी संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ हैं।
‘दर्द का दर्द’ में शुक्ल जी ने ग्राम्य जीवन का सजीव चित्रण करते हुए बताया है कि ग्रामीण महिलायें बुरे पतियों को पाकर भी संतुष्ट रहतीं हैं और वे पराये लोगों के द्वारा अपने पति पर लगाये गए लांछनों को सहन नहीं कर सकतीं। बहू राधा की बदलू काका को कड़ी फटकार इस तथ्य को उजागर करती है। गाँवों में जहाँ सरजू जैसे एकदम सरल स्वभाव के ऐसे लोग रहते हैं जिन्हें अपने हृदय के भावों को छिपाने की कला नहीं आती, वहीं बदलू जैसे घाघ, धूर्त और ईष्र्यालू प्राणी भी निवास करते हैं, जो दूसरों की सिधाई का नाजायज फायदा उठाने का कोई मौका हाथ से निकलने नहीं देते। दूसरी कहानी ‘जेबकट’ में पाकिटमारों के मनोविज्ञान को दूसरों के पाकिट से माल उड़ाने की तरकीबों एवं मनोदशाओं का बड़ी सूक्षमता से चित्रांकन किया है। शुक्लजी की कहानी में अवकाश के क्षणों में पाकिटमार भी पाप-पुण्य एवं धर्म-अधर्म पर विचार करते हैं।
‘दहेज’ कहानी शुक्लजी की बड़ी सशक्त रचना है। इसमें एक उद्भट विद्वान एवं कुशल शिक्षक प्रोफेसर शील श्रीवास्तव एवं सम्पन्न परिवार में जन्मी सुख में पलित-पोषित पत्नी निधि के मिलन-विच्छेद और पुनर्मिलन की मार्मिक गाथा है। इकलौती पुत्री निशा के विवाह के आमंत्रण को पाकर प्रो. शाील का विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए जाना और पुत्री के आग्रह से उसके माँ बाप का पुनर्मिलन होना एक ऐसी मनोवैज्ञानिक घटना है, जिसमें ‘अहम्’ को भुलाकर एक दूसरे को पुनः स्वीकार करने की दिशा में सही कदम उठाना हृदय परिवर्तन की बेजोड़ मिसाल है।
बीस वर्ष के संबंध विच्छेद के दीर्घ अन्तराल की खाई को पाटकर माँ-बाप के कल्याण के लिए उन्हीं के रक्त-बीज, उन्हीं की प्यारी पुत्री ने जिस युक्ति से काम किया, उस मनोवैज्ञानिकता का सफल चित्रण करके शुक्लजी ने श्रेष्ठ कहानी-शिल्पकार होने का परिचय दिया है। हृदय परिवर्तन की एक और सशक्त कहानी है ‘माँ’। इसमें नवविवाहता सरोज अपने पति नरेश को उसकी माँ से अलग करने की कोशिश करती है। किन्तु नरेश ‘जज’ के ओहदे पर माँ के त्याग के कारण ही पहुँवा है, इसे वह कभी भुला नहीं पाता और सरोज को अपनी पूरी कहानी सुनाकर उसे प्रभावित कर उसका हृदय परिवर्तन करने में सफल हो जाता है। ‘अंधेरे के गम, उजाले के आँसू’ भी इसी तारतम्य में प्रणीत एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। यह गाँव के ऐसे दो पंडितों की गाथा है, जिसमें एक ईष्र्यालू और ढोंगी भूरे पंडित हैं, जो विद्वान पंडित सेवाराम को नीचा दिखाने के लिए हमेशा नई-नई योजनाएं बनाने में लगे रहते है, किन्तु सेवाराम की नेकनीयत अन्ततः भूरे पंडित को पश्चाताप् करने को विवश कर देती है। लेखक ऐसी परिस्थितियों के संयोजन में सफल होते हैं, जो भूरे पंडित जैसे दम्भी व्यक्ति की मनोदशा बदलकर पश्चाताप कराती है और उनके ईष्र्यालू मन को मानवीय मूल्यों के उजाले से आलौकित करती है। इन तीनों कहानियांे के कथानक भले ही भिन्न आधारों पर निर्मित किये गए हों किन्तु उनमें जीवन मूल्यों की पहचान कराई गयी है। इससे लेखक का मानवतावादी दृष्टिकोण उजागर होता है।
‘एक पाव की जिन्दगी’ कहानी निम्नवर्ग के कर्णछेदन कर गुजर बसर करने वाले ननकू उर्फ दिलीप की बड़ी मार्मिक जीवन गाथा है। निर्धन ननकू अभावग्रस्त होकर भी अपने पसीने की कमाई से ही अपना काम चलाता है और दूसरों के मन बहलाव के लिए नाचता गाता भी है और ननकू के बजाय दिलीप कुमार कहलाने में गर्व का अनुभव करता है। वह भूल से भी ऐसा कोई काम नहीं करता, जिससे किसी का दिल दुखे। इसीलिए परम संतोषी और ईमानदार ननकू की आड़े वक्त में मदद के लिए अड़ोस-पड़ोस के लोग हमेशा तैयार रहते हैं। ननकू का जीवन ऐसे लोगों के लिए आलोक स्तम्भ का काम करता है, जो या तो कष्टों से टूट चुके हैं या दुख निवारण के लिए बेईमानी का रास्ता अपनाना श्रेयस्कर समझते हैं।
लेखक ने ननकू के संतोषी जीवन से यह दर्शाने का सफल प्रयास किया है कि मन के आचार विचार ही जीवन के सुख-दुख की धुरी है। ईमानदारी और मेहनत से अर्जित थोड़ा धन भी जीवन में संतोष और सुख की धारा प्रवाहित कर सकता है, बशर्ते कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को कम करे और जो कुछ है, उसी में संतुष्ट रहे। शुक्लजी ने यह भी दर्शाया है कि जो दूसरों को सुख देना, अपने जीवन का लक्ष्य समझता है, संकट की अवस्था में उसकी मदद करने वालों की कमी नहीं रहती।
शुक्लजी की सभी कहानियाँ उद्देश्यपूर्ण और कोई न कोई जीवन संदेश देतीं हैं। कहानियों के कथानक, आम-आदमी के यथार्थ के इर्द-गिर्द घूमने वाली छोटी-छोटी घटनाएं होती हैं। कहानियों में बेईमानी, धोकाधड़ी, पाखंड, अहंकार एवं ईष्र्या के दृश्यांकन में लेखक के तीखे-तेवर एवं प्रखर प्रतिक्रिया की झलक देखने को मिलती है। शुक्लजी का जीवन उनका व्यक्तित्व और कृतित्व इस बात के साक्षी हैं कि उन्होंने अपनी लेखन शैली अपने ढंग से निर्मित की है, उनकी कहानियों में वण्र्य-विषय इस बात के प्रतीक हैं कि उन्हें कहानी लिखने के लिए विषय या शीर्षक ढूँढ़ने नहीं पड़े। दैनिक जीवन में चलते फिरते जो उन्होंने देखा, उसी घटना को लेकर उन्होंने कहानी गढ़ दी।
शुक्लजी का आधुनिक कथा शिल्पियों में सम्मानीय स्थान है। उनकी शैली मुख्यतः भावपूर्ण शैली है जिसे उन्होंने विषय और अवसर के अनुसार आलंकारिता प्रदान की है। उनके पात्र छोटे-छोटे वाक्यों में संवाद करते हैं, जो बड़े चुटीले बन पड़े हैं। वे अपने विचारों को सूत्र-रूप में कहकर कथानक को आगे बढ़ा देते हैं। शब्द-चयन पात्रानुकूल वाक्य-योजना कौतूहलपूर्ण एवं संवाद का ढंग अनूठा है उन्होंने प्रसंगानुकूल मुहावरों और कहावतों का सन्निवेश कर निर्झरिणी जैसी प्रवाहमयी शैली को जो रोचकता और उत्कृष्टता प्रदान की है, वैसा बहुत कम कहानीकार कर सके हैं। भाषा में अपनत्व है, सजीवता है और भावों को स्पष्ट करने की शक्ति है। प्रतिभा सम्पन्न कथाकार शुक्लजी की कहानियों का अन्तद्र्वन्द्व ऐसा कौतूहलपूर्ण है कि वह पाठक को कहानी आद्योपरान्त पढ़ने की प्रेरणा देता रहता है। धाराप्रवाह शैली में भाषागत सहजता और उद्देश्यपरक रचना के माध्यम से लेखक ने मानवीय मूल्यों की स्थापना कर जो प्रयास किया है, वह स्तुत्य है और शुक्लजी को महान् कथा-शिल्पी का आसन प्रदान करता है।
कहानीकार श्री मनोजकुमार शुक्ल ‘मनोज’ मूलतः ओज और प्रगतिशील रचनाओं के सशक्त कवि हैं। उन्होंने अपने हृदयोद्गार व्यक्त करने के लिए कहानी विधा को भी अपनाया है। इस संग्रह में संकलित मनोज की कहानियाँ इस बात की पुष्टि करतीं हैं कि उनमें सरलता, मनोरंजकता एवं हृदयस्पर्शिता के साथ, विरासत में प्राप्त उच्चकोटि की कहानी लेखन कला की प्रतिभा भी है। वैसे तो सभी कहानियाँ अपनापन लिए हुई हैं किन्तु ‘गिरा दो ये मीनारें, मचादो इंकलाब’, ‘समर्पण’, ‘अंधेरे और उजाले’, रोपवे, कागौर में वर्तमान व्यवस्था, सामाजिक कुरीतियों एवं गिरते हुए जीवनस्तर से उपजी मानसिकता तथा घोर भ्रष्टाचार के प्रति जो तीव्र आक्रोश व्यक्त किया है, वह लेखक की प्रखर-विचारधारा एवं चारित्रिक विशेषता को इंगित करता है।
सामाजिक एवं मानवीय भावनाओं को उकेरने में उनकी कहानी बड़प्पन, रिश्तों को दर्द, दौड़ एक अंतहीन, पराजय, परिवर्तन, पथराई आँखें, सफलता की सीढ़ी पर चढ़ीं हैं। व्यंग्य विधा में ‘बदलते समीकरण’ में वे एक नये रूप में उभर कर सामने आये हैं। लेखक ने बड़े कलात्मक ढंग से जीवन की गहराइयों एवं उच्चादर्शों का जीवन्त चित्रण कर जो संदेश दिए हैं, वे समाज को कर्तव्याकर्तव्य का बोध कराते हैं।
अंग्रजों के क्रूर शासन से सभी दुखी थे। देशभक्त क्रान्तिकारी एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सोचते थे कि बंधन मुक्त होने पर देश से गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी एवं भ्रष्टाचार का उन्मूलन हो जायेगा और सभी देशवासी आजादी से लाभान्वित होंगे। अपूर्व त्याग और बलिदान के फलस्वरूप देश ने मुक्त मार्तण्ड की रम्य रश्मियों के आलोक में देखा कि ‘यूनियन जैक’ के स्थान पर तिरंगा लहराने लगा है। समय गुजरता गया। देश भर में अब आजादी की स्वर्ण जयंती मनाई जा रही है, किन्तु दुःख की बात यही है कि देशभक्तों के स्वप्न साकार नहीं हो सके। शासक बदल गये किन्तु देश की दशा बद से बदतर होती जा रही है। पहले विदेशी शासकों की शोषण-चक्की में जनता पीसी जाती थी, अब अपने ही जन प्रतिनिधियों द्वारा लोकसेवा के नाम पर जनहित की भट्टी में स्वार्थ की रोटियाँ सेंकी जा रहीं हैं। संसद और विधान सभाओं में हुड़दंग के दृश्य, नेताओं के गगनचुम्बी भवन और नित्य प्रति हो रहे घोटाले जनआक्रोश भड़काने वाले हैं।
एक संवेदनशील लेखक होने के नाते श्री मनोज ने इन भावनाओं को अपनी कहानियों में बड़े प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है। कहानियाँ जहाँ हृदय पर स्थायी प्रभाव डालती हैं, वहीं वे जीवन और जगत व्यापी सामूहिक चेतना जागृत कर अपने अधिकारों को हासिल करने हेतु विद्रोह का स्वर भी मुखरित करती हैं। शब्द चयन विषयानुकूल है, आडम्बरहीन भाषा, हृदयगत उद्गारों को अभिव्यक्ति देने में पूर्ण सक्षम हैं और शैली सरिता सी प्रवाहमय, नवनीत सी स्निग्ध और ज्योत्सना सी शीतलता प्रदान करने वाली होकर भी आक्रोश व्यक्त करते समय ओजपूर्ण हो गई है। श्री शुक्लजी को जीवन संघर्ष में महारत हासिल है। सफल रचनाओं के सृजन के लिए वे बधाई के पात्र हैं उनके यशस्वी जीवन की कामना करते हैं।
प्रोफेसर देवीसिंह चैहान
वरिष्ठ साहित्यकार,समीक्षक एवं शिक्षाविद्
पूर्व उपप्राचार्य, राजकुमार कालेज रायपुर
वर्ष-1997