संस्कारधानी अपने अनेक वैशिष्टय के कारण प्रसिद्ध है। साहित्य सर्जना यहाँ की माटी के कण-कण में बनाती रही है। परिणामतः एकाधिक पीढ़ी में काव्य-रचना के संस्कार यहाँ उपलब्ध हैं। श्री मनोज शुक्ल ‘मनोज’ ऐसे ही भाग्यवान व्यक्ति हैं। उनके पिता श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’ जी चाचा श्री दीनानाथ शुक्ल का काव्य सृजन बहुख्यात रहा है। श्री मनोज शुक्ल ‘मनोज’ ने कविता के विभिन्न रूपों की आराधना बहुत मनोयोग और साधना से की है। कुछ समय से उनका रुझान दोहा लेखन की ओर बढ़ा है। जिसके फलस्वरूप आज वे दोहा रचनाकार के रूप में अपना महत्वपूर्ण स्थान अन्तराष्ट्रीय जगत में बना चुके हैं।
प्रस्तुत कृति कविताएँ मनोज की एक सौ सत्रह रचनाओं का संग्रह है। इनमें अधिकांश भाग दोहों के रूप में हैं।श्री मनोज शुक्ल ‘मनोज’ चिन्तनशील व्यक्ति हैं, अतः उनकी कविताओं में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की दशा-दिशा के प्रति चिन्ता दिखाई देती है। वे अपनी अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावक बनाने के लिए व्यंग्य का उत्तम उपयोग करते हैं। मातृ-शारदे की वन्दना के उपरांत कवि अपने गाँव को नहीं भूला, तभी तो वह -याद आतीं हैं बहुत वे गाँव की अमराईयाँ... को यादों में बसाए हुए है। शांति गीत को दें विराम के भाव भी जगाता है। कवि अल्पनाओं के माध्यम से भारत के रचनाकारों के काव्य सृजन की ऐतिहासिक यात्रा को रेखांकित करता है:-
कभी वह ब्यास बन कर, गीता का उपदेश रचता है।
महाभारत का दृष्टा बन, वही संदेश गढ़ता है।।
कभी वह बाल्मीकि बनके, रामायण लिखा करता।
कभी वह तुलसी बनकर, राम का यशगान करता है।।
इसी क्रम में मीरा, कबीर, रसखान का स्मरण करना वे नहीं भूलते। उन्हें कवि की कल्पनाओं में सभी रंगों का आदर है। रुचि कर लगता है। कभी आजादी के बाद के परिदृश्य पर तीखी टिप्पणी जैसे:-
आजादी जब मिल गई, भूल गए सब छंद।
कट्टरता ऐसी बढ़ी, हुए सभी मति मंद।।
छलप्रपंच की आड़ ले, बूढ़ा बरगद देखता, बिना कर्म के व्यर्थ है, रिश्तों में खट्टास का, पाखंडी धरने लगे, कलियुग में धन ही सदा, खिड़की से अब झाँकते, मंदिर मस्जिद सज रहे, स्वतंत्र देश में बो दिए, राष्ट्रभक्ति की ठेकेदारी, चाटुकारिता भाव का, मोबाईल पर नाज है आदि कविताओं में सहृदय संवेदनशील कवि समाज पर तीखे प्रहार करता रहा है।
व्यंग्य की तीखी धार से अतिरिक्त अपनी संस्कृति, नगर, अपने जन आदि पर भी मनोहारी रचनायें यहाँ संग्रहीत की गईं हैं। वे सभी विविधवर्णी हैं।
रंगमंच सा लग रहा, दुनिया का यह मंच।
कुछ करते हैं साधना कुछ खल रचें प्रपंच।।
अथवा
हिन्दू संस्कृति में प्रमुख, ब्रम्हा विष्णु महेश।
तीनों की ही भक्ति से, हटते हैं सब क्लेश।।
सहृदय कवि श्री मनोज शुक्ल ‘मनोज’ सब ओर जब अपना मन केन्द्रित कर रहे हैं, तब अपने असंख्य स्मृतियों के आश्रय जबलपुर का कैसे भूल सकते हैं।
शहर जबलपुर जानिए, हमको उस पर नाज।
मिली जुली संस्कृति यहाँ, खुशहाली का राज।।
बहे सरित पावन यहाँ, कहें नर्मदा धाम।
दर्शन करने मात्र से, बनते बिगड़े काम।।
इस कविता में वे नगर के पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों, प्रसिद्ध व्यक्तियों तथा अन्य उल्लेखनीय गुणों का उल्लेख कर अपने को कृत-कृत मानते हैं। अपने क्षेत्र की प्रकृति भी ऋतुओं के साथ कैसे नर्तन करती है उसका उदाहरण है:-
फागुन के दिन आ गए, मन में उठे तरंग।
हँसी ठहाके गूँजते , नगर गाँव हुड़दंग।।
इसी भांति पारिवारिक सम्बन्धों पर- सास ससुर माता पिता, आत्म प्रशंसा रोग है, जल संरक्षण- पानी की बूँदें कहें, नव संवत्सर आ गया, विदेश यात्रा के संस्मरण शहर टोरंटो है बसा, रचनाएँ विविध पक्षों को उद्घाटित करती हैं। सबई के दिल में राम बसत हैं यह रचना उनके बुंदेली प्रेम को रेखांकित करती है। भाषा के महत्त्व पर हिन्दी हिन्दुस्तान की, रचना उल्लेख्य है।
इस तरह कविवर मनोज शुक्ल ‘मनोज’ की कविताएँ एक जीवंत जाग्रत और भाव प्रवण प्रतिभा के उन्मेष के रूप में हमारे सामने हैं। जिनके रसास्वाद में रचनाओं की सरलता, सहजता हमारी सहायिका सिद्ध होती है। यह कवि के स्वयं के विनम्र और स्नेहा स्वभाव का परिचायक है।
मैं श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’ का इस कृति की रचना के लिए अभिनन्दन करता हूँ और आशा करता हूँ कि आगे भी वे अपने काव्य -व्यक्तित्व को ऐसे ही प्रकट करते रहेंगे।
अशेष मंगल कामनाओं के साथ....
आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी
पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष संस्कृत-पाली-प्राकृत विभाग
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर
गुरु राजशेखर सृजनपीठ म.प्र.शासन संस्कृति विभाग
पूर्व निदेशक कालिदास अकादमी उज्जैन
पूर्व अध्यक्ष अ.भा. प्राच्य विद्या सम्मेलन जबलपुर