‘‘वेदनाओं के गर्भ से ही संवेदनाओं का जन्म होता है । संवेदनाएँ प्रत्येक इंसान के अंतर मन में निवास करती हैं । संवेदनशील मानव ही समाज के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसीलिये मानव के अंदर स्वस्थ संवेदनाओं का पल्लवित और पुष्पित होना नितांत आवश्यक है। इसी से स्वस्थ प्रगतिशील घर, परिवार, समाज, देश की परिकल्पना साकार होती है ।’’ यह मेरा मानना है । उसे मैंने अपने जीवन में आत्मसात करने की कोशिश की और फिर चल पड़ा अपनी मंजिलों पर । राह में अनेक पड़ाव आये किन्तु मैं अडिग अपनी राह पर निरंतर चलता रहा और जीवन में अनेक झंझावतों को पार करता हुआ बढ़ता गया ।
हमारे पिता श्रीरामनाथ शुक्ल‘‘श्री नाथ’’ संवेदनाओं के एक सागर थे जिनके अंदर सबके हित करने की प्रबल आकांक्षा सदा मचलती रहती थी । उनके अंदर का साहित्यकार सदा उन्हें इसके लिये उत्प्रेरित करता रहता था । परिवार, समाज देश के प्रति अपनी संवेदनाओं को स्वर देने उन्होंने अपने हाथ में कलम थामी और कहानीकार बन गये । उनकी वह बात कि अच्छा साहित्य आपके अंदर अच्छे संस्कारों का बीजारोपण करने में सहायक होता है । आपको एक अच्छा इंसान बनाने में सदा सहयोग करता है ।
मैं बचपन से ही उनसे सर्वाधिक प्रभावित रहा, किन्तु आज के इस आर्थिक युग के बदलते परिवेश में साहित्य को मात्र आत्मसंतुष्टि या शौकियातौर पर लिया जाने लगा है । आधुनिक युग ने भी उसकी भूमिका को दरकिनार कर दिया है । इसलिये आज अच्छे इंसानों की कमी दिखलाई पड़ने लगी है ।
यह बात भी सच है कि इस भौतिक संसार में साहित्य से मानव को उतना आर्थिक सहयोग नहीं मिलता । वे बिरले होते हैं जो इसमें जीवन यापन की संभावनायें खोज लेते हैं और सफल भी हो जाते हैं । पिता जी ने अपने जीवन के इस सच से मुझे आगाह किया था किन्तु इंसानियत जगाने के लिये, बचपन से ही मुझे हिन्द पाकेट बुक्स के द्वारा प्रकाशित होने वाली पुस्तकों को उपहार स्वरूप भेंट कर पढ़ने का अवसर प्रदान करते रहे । मैं उनके उपरोक्त कथन में कितना खरा उतरा, इसका निर्णय वर्तमान व भविष्य के हाथों में सौंप रहा हॅूं। हाँ मैं इतना अवश्य दावे से कह सकता हूँ कि मुझे उससे एक आत्मशक्ति मिली, एक दिशा मिली जिससे मैं अपनी मंजिलों की ओर निरंतर बढ़ता गया ।
मैंने अपने जीवन की यात्रा में, अतीत की तीन पीढ़ियों के संग गुजारे और वर्तमान की दो पीढ़ियों के बीच रहने का सौभाग्य प्राप्त किया । अपने जीवन में काफी अनुभव के भंडार भरे । घर परिवार, समाज और देश में आए आर्थिक राजनैतिक परिवर्तनों, विसंगतियों, विकासों की बनती बिगड़ती तस्वीरों को अपने अन्दर समेटता रहा । मानव मूल्यों के गिरते पारे से आईं विकृतियों को देख कर मन में संवेदनाओं का ज्वार- भाटा उठता रहा और मन को कचोटता रहा । एक कलम का सिपाही होने के नाते मैं उसे कागज में उकेरता रहा, उनसे लड़ता रहा । समाज को दिखाता रहा जैसे हर साहित्यकार करता है । आज मैंने उन्हीं संवेदनाओं को समेट कर काव्य के माध्यम से प्रकाशित करने का दुस्साहसी कार्य कर रहा हॅूं ।
हमारी यह पुस्तक‘‘संवेदनाओं के स्वर ’’आपके दिलों में कितना जगह बनायेगी, कितना समाज में परिवर्तन लायेगी, यह मैं नहीं जानता किन्तु मैं मानता हूँ कि हर मानव को एक आशावादी होना चाहिये । उसी क्रम में यह एक प्रयास मात्र है । गीता के श्लोक पर विश्वास करते हुये कि ‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेशु कदाचन......।’’ याद कर आपके हाथों में सौंप रहा हॅूं ।
मेरी इस पुस्तक में मेरे प्रिय भाई डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’ के अविस्मरणीय सहयोग को भुला पाना तो असम्भव है । उनके मार्गदर्शन ने मुझे एक सही राह दिखाई । मुझे आत्मबल प्रदान किया । साथ ही आचार्य पं. सनातन बाजपेयी जी ‘सनातन’ का एवं डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी जी का मुझे आशीर्वाद मिला ।
मेरे जीवन की साहित्यिक यात्रा में ‘‘क्रांति समर्पण’’, ‘‘याद तुम्हें मैं आऊॅंगा’’ और ‘‘एक पाव की जिन्दगी ’’के विभिन्न पड़ावों में जबलपुर में आदरणीय हरिशंकर परसाईं, श्री लीलाधर यादव का सहयोग रहा तो रायपुर में प्रोफेसर देवी सिंह चैहान,श्री सरयूकान्त झा, डॉ.राजेश्वरगुरु, श्री हरिठाकुर, प्रो.बालचंद कछवाहा, डॉ.सालिकराम ‘शलभ’, श्री प्रभाकर चौबे, श्री अमरनाथ त्यागी का सानिध्य मिला । रतलाम में श्री दुर्गाशंकर शर्मा, श्री रामचंद्र गहलोत ‘अम्बर’ तो सतना में श्री चिंतामणि मिश्रा, डॉ.आत्माराम तिवारी, डॉ.राजन चौरसिया का स्नेह मिला । इसके साथ ही श्री आशुखत्री एवं श्री गौरव खत्री के सहयोग का आभारी हूँ ।
आदर्श छात्र मंडल से लेकर मिलन, अनेकांत, हिन्दी साहित्य मंडल, मंथन, वक्ता मंच, अनुभूति संस्था, संवेदना साहित्य कला मंच, एवं पाठक मंच जैसी अनेक जबलपुर, रायपुर, रतलाम, सतना की संस्थाओं से जुड़कर मैंने इस दिशा में उड़ान भरी । विशेष कर विजया बैंक की विजया विकास एवं भारतीय स्टेट बैंक की रेवा पत्रिका सहित मैं इन सभी का आभारी हॅूं ।
वहीं पत्रकारों में श्री पं.भगवतीधर बाजपेयी (युगधर्म), श्री बवन मिश्रा, श्री मोहन शशि(नवभारत), श्री मायाराम सुरजन, श्री ललित सुरजन(देशबन्धु), श्री प्रदीप पंडित (दैनिक भास्कर), श्री अनंत राम दुबे (नवीन दुनिया), श्री बल्देव भाई शर्मा (स्वदेश), श्री गोविंदलाल वोरा (अमृत संदेश), श्री कुमार साहू (समवेत शिखर) का सहयोग मिला तो राजनैतिक क्षेत्र में श्री ईश्वरदास रोहाणी, श्री विद्याचरण शुक्ल, श्री बृजमोहन अग्रवाल, श्री रमेश बैस, श्री केयूरभूषण जैसे अनेक महानुभावों की सदा शुभकामनाएँ मिलीं ।
अपने परिवार के सभी नाते रिश्तेदारों और मित्रों का हृदय से आभारी हॅूं जिनके साथ मैंने अपने जीवन के क्षण गुजारे विशेष कर अपनी सहधर्मिणी श्रीमती ममता शुक्ल, बेटे मनीष, गौरव एवं बेटी सपना दुबे का जिन्होंने मेरे साहित्यिक जुनून में मेरा हर समय साथ दिया ।
जीवन के इस पड़ाव में पहुँच कर मेरी एक ही अभिलाषा रह गयी है कि सुधी पाठकों तक अपने विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं को अपने काव्य और कहानियों के माध्यम से उन तक पहुँचा सकूँ । हिन्दी साहित्य के महायज्ञ में अपनी कुछ आहूतियाँ दे सकूँ । शेष आप के हाथों में है, उसे पढ़े, गुने और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचायें ।
आपके द्वारा प्राप्त समालोचना का लिखा पत्र भी मुझे मार्गदर्शन और इस दिशा में आगे बढ़ने की नित प्रेरणा देता रहेगा । जिसका मैं बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा करता रहूँगा । उनका हृदय से स्वागत करूँगा । इसी आशा विश्वास के साथ मैं अपने आत्मनिवेदन को यहीं विराम दे रहा हॅूं ।
आपका
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’