श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’की कृति ‘‘संवेदनाओं के स्वर ’’ का अवलोकन किया । मानवीय जीवन इतना विलक्षण है कि उसे पहचान पाना, पूरी तरह से अनुभव कर पाना अत्यन्त कठिन है । मैथिली शरण गुप्त की यह पंक्ति बहुत सार्थक है कि - राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है । कोई कवि बन जाये सहज संभाव्य है। गोस्वामी जी जैसे युग -पुरुष , युग- कवि, युग चिन्तक ने भी कहा:- कवि न होऊॅं नहिं चतुर कहाऊँ । मति अनुरूप राम गुन गाऊॅं ।। यहाँ दोनों स्थलों पर राम के स्थान पर ‘भाव’ कर दिया जाय तो आज की सृजनात्मक आकुल -व्याकुलता सहज स्पष्ट हो जाती है । फिर जो उच्छवास प्रकट होता है, वह स्थापित काव्य- प्रतिमानों में भले ही न ढल पाता हो पर मानव मन की विविधवर्णी अभिव्यक्ति उसमें अधिक सहज और आदिम भाव से प्रकट होती है । श्री मनोज जी ने भी रचनात्मक क्षेत्र में बहुत कार्य किया है । वे एक ऐसे परिवार के सदस्य हैं, जहाँ प्रतिभा के विविध रूप सहज ही दृष्टिगोचर होते हैं । इनके पिता स्व.श्रीरामनाथ शुक्ल ‘श्री नाथ’ पितृव्य साहित्यकार, श्रेष्ठ कवि स्व. दीनानाथ शुक्ल, सुयोग्य धर्म वेत्ता पं. द्वारिकानाथ शुक्ल, अशोक शुक्ल एवं मेरे पूर्व विद्यार्थी श्री स्वामीनाथ अपने ढंग के अलग किन्तु उल्लेखनीय व्यक्तित्व हैं ।
श्री मनोज जी ने इसके पूर्व ‘क्रांति समर्पण’ कहानी संग्रह ‘याद तुम्हें मैं आऊॅंगा’ काव्य संग्रह ‘‘एक पाव की जिंदगी ’ कहानी संग्रह का सृजन कर चुके हैं और प्रस्तुत कृति अब सुधी रसिक अध्येताओं के लिये प्रस्तुत है । इस कृति में अनेक प्रकार के विषयों को और शैलीगत प्रयोगों को लिया गया है । छन्द की दृष्टि से भी मुक्त छंद रचनाएँ , गीत और दोहों को भी यहाँ प्रस्तुत किया गया है जीवन सुक्तियाँ और विचार सुक्तियाँ अनुभव प्रसूत भावनाओं को व्यक्त करती हैं । इसके अतिरिक्त जो दीप बनाते रहते हैं, प्रलय तांडव कर दिया, साथ पिता थे दुख नहीं, जब जब श्रद्धा विश्वासों पर, नव सृजन की कल्पनाएँ ,गाँवों की गलियों में, चेतना का सूर्य, श्री गोर्बाचोव, फागुन के स्वरगूँज उठे, आघातों प्रतिघातों से कब, तुलसी तेरे घर आँगन में, मधुमास है छाया चलो प्रिये, सुख दुख जब धूप छॅाव, पतझड़ बीता छाई बहारें, ओ दीप तुझे जलना होगा, पत्थर के सीने में उगकर, विरहन की पीड़ा को, संझा बिरिया जब जब होवे, बूढी आजी और मैं, फिंगर प्रिंट और लगभग अन्त में गांधी संग्रहालय तथा अन्य अनेक ऐसी कविताएँ हैं जिनमें उनके अनुभव का लम्बा और गहरा संसार दिखाई देता है ।
रचनाकार श्री मनोज की यह कृति अनेक दृष्टि से प्रेरणा देती है । साधारण की असाधारणता के प्रति स्नेह और उसके सात्त्विक प्रयत्न इस कृति में सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं । नगर में उनका होना हम सब के लिये प्रसन्नता का विषय है मुझे भरोसा है कि इस कृति के प्रति सहृदय पाठकों का प्रेम सहज ही मिलेगा ।
आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी
पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष संस्कृत-पाली-प्राकृत विभाग
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर
पूर्व निदेशक कालिदास अकादमी, उज्जैन म. प्र.