प्रस्तुत कृति कविवर श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘‘मनोज’’ का काव्य संग्रह है । यह उनका प्रथम काव्य संग्रह नहीं है । ये साहित्य जगत के संस्थापित हस्ताक्षर हैं । अनेक संस्थाओं एवं पत्र पत्रिकाओं से इनकी सम्बद्धता है । जिस प्रकार से ये व्यक्तित्व से सहज सरल हैं । उसी प्रकार इनका कृतित्व भी आडम्बर से रहित सहज, सरल एवं सार्थक है ।
कविता हृदयगत भावों का उद्वेलन है । यह सीखी या सिखाई नहीं जाती , बल्कि परावाणी के रूप में पश्यन्ती एवं मध्यमा के सोपानों को पार करती हुई बैखरी के रूप में श्रोताओं एवं पाठकों के समक्ष आ पाती है । काव्य जीवन की जान है । आत्मा की आवाज है । पहचान है । माँ सरस्वती की कृपा का प्रसाद है । कवि मात्र निमित्त रूप में होता है । माँ शारदा कवि उर अजिर में वाणी को नचाती है , तभी उद्भूत होती है कविता, काव्य एवं महाकाव्य ।
श्री मनोज जी एक स्थापित कवि एवं कहानी लेखक हैं । इनके पिता स्व .श्री रामनाथ शुक्ल‘‘श्री नाथ ’’ आजादी के पूर्वोत्तर एक स्थापित कहानीकार रहे हैं । उपन्यासकार कुषवाहा कान्त, गोविंद सिंह एवं हरिशंकर परसाईं के सानिध्य में इन्होंने लेखन कार्य किया है । पिता पुत्र के दो कहानी संग्रह एवं एक कविता संग्रह पूर्व में प्रकाशित हो चुके हैं । अतः साहित्य जगत के लिये ये कोई नये नहीं हैं । श्री मनोज जी सशक्त ऊर्जावान कवि हैं । लेखक हैं । कहानीकार हैं । विचारक हैं । बैंक की नौकरी । व्यस्तता का जीवन । उसके साथ काव्य की सरसता से सम्बद्धता । आश्चर्यजनक घटना है यह ।
प्रस्तुत कृति में कवि द्वारा अपनी संवेदनाओं के मोतियों को तो समाज के निमित्त परोसा ही गया है । इसके साथ ही अन्य बहुत से लुभावने काव्य व्यंजन सजाये गये हैं ।
आईये हम भी श्री मनोज जी की संवेदनाओं के साथ अपनी संवेदनाओं का सामंजस्य बनाकर इनमें अवगाहन का सद्प्रयास करते हैं ।
परम्परानुसार प्रस्तुत कृति का शुभारम्भ माँ सरस्वती की वन्दना से हुआ है । यथा:-
हे माँ वीणा वादिनि, शत् शत् तुझे प्रणाम ।
हम तेरे सब भक्त हैं, जपते तेरा नाम ।।
बीच बीच में दोहा, छन्द के माध्यम से कवि श्री मनोज द्वारा जीवन की सार्थक सूक्तियाँ कही गईं हैं। यथा:-
धर्म धुरंधर बन गये, चादर ओढ़ी नाम ।
घड़ी-परीक्षा की खड़ी, बन गए गिरगिट राम ।।
आज समाज का यही परिदृश्य है । कपड़े रंगे न जाने कितने गिरगिटिया छली एवं प्रपंची लोगों का जमावड़ा समाज में छा गया है । श्री मनोज जी उदारवादी दृष्टिकोण रखते हैं । इनका मन साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से पूर्णतः विमुक्त है । इनका कथन है कि:-
ईश, खुदा, भगवान सब, एक सत्य हैं जान ।
समझ न पाये बात जो, वह बिल्कुल अनजान ।।
संसार द्वन्द्वमय है । सभी वस्तुयें जोड़े में हैं । दोनों समान हैं । दोनों की उपस्थिति से उनका अस्तित्व है । यथा:- सुख-दुख । रात -दिन । जन्म - मृत्यु । सत्य है कि इन दोनों को क्रमशः आना और जाना है । यद्यपि दोनों एक साथ कभी नहीं रहते हैं । किन्तु आते जाते अवश्य हैं । एक में राजी का भाव हो दूसरे में नाराजी का भाव कदापि उचित नहीं है । श्रेष्ठता समत्व में है । यही सोच हमारे जीवन में सार्थकता प्रदान करती है ।
यह गम्भीर भाव कवि श्री मनोज द्धारा अपनी एक सूक्ति में किस सरलता के साथ पिरोया गया है , उसका स्वरूप दृष्टव्य है :-
हार-जीत, सुख- दुख सभी, जीवन में है संग ।
जो इनमें है रम गया, बनता मस्त मलंग ।।
आज भारतीय राजनीति का परिदृष्य अत्यन्त घिनौना हो गया है । शोषण की बलवती नीति से आज सभी मात्र अपना घर भरने में तल्लीन हैं। समाज एवं राष्ट्र पूर्णतः उपेक्षित हैं । बानगी स्वरूप श्री मनोज जी के कुछ दोहे देखिये:-
राजनीति में छा गये, चतुर गिद्ध और बाज ।
जनता का हक छीन कर, खा जाते हैं आज ।।
राजनीति अब हो गयी, एक नया व्यापार ।
घर उनके भरते वहाँ, कष्टों का अम्बार ।।
यह है बिडम्बना हमारी प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था की । किससे क्या कहा जाये ? केवल मन मार कर रहने की बाध्यता बन गई है ।
भ्रष्टाचार आज अपने चरम पर है । उसके घृणित स्वरूप का वर्णन करना बहुत ही कठिन काम है । कवि मनोज कहते हैं कि:-
कितना खाया कितना लूटा, किसकी कथा सुनायें ।
अपनी माँ के दर्द को यारो, हम कैसे बतलायें ।।
वास्तव में यह अकथ्य स्थिति है । कहाँ होगा इस भ्रष्टाचारी अजगरी क्षुधा का अन्त ?
आज समाज के समीकरण बदल रहे हैं । शत्रु मित्र बन रहे हैं, मित्र पीठ में छुरा भौंक रहे हैं । कवि का मन व्यथित है, मीत से उसका निवेदन है कि:-
मित्र मेरे मत रुलाओ, और रो सकता नहीं हूँ ।
आँख से अब और आँसू , मैं बहा सकता नहीं हॅूं ।।
ऐसा नही उनकी कविताओं में हताशा- निराशा ही है वे उसके उपचार के उपाय भी बतलाते हैं । उनकी कविताओं में हर्ष, उल्लास, नाते –रिश्ते, तीज- त्यौहार, उत्सव, प्रेम, धर्म, भाषा, संस्कृति और जीवन के सार्थक संदेश की गॅूंज भी सुनाई देती है । प्राकृतिक ऋतुओं का प्रेम भी छलकता है । जैसे:-
मन भावन ऋतुराज है आया, हिलमिल स्वागत कर लो ।
खुशियों की सौगातें लाया, प्रेम की झोली भर लो ।।
राष्ट्र के प्रति उनका मन सदैव सचेष्ट है कुछ कर गुजरने की चाह उनके अन्दर मचलती रहती है,वह कहते हैं -
इस तिमिर में एक दीपक, मैं भी बनना चाहता हूँ ,
दीप बनकर इस जगत में, आलोक करना चाहता हूँ ।
प्रस्तुत कृति में बीच-बीच में मधुरिम श्रंगारिक परिकल्पनायें मरुस्थल में हरित भूमि की परिकल्पना को साकार सा कर जाती हैं। उनके लेखन में इन्हीं तत्वों की प्रमुखता है । किन्तु बीच में मन को आह्लादित करने वाले एक श्रंगारिक गीत की बानगी दृष्टव्य है:-
चाँद आज आसमां में, शोखियाँ दिखा रहा ,
चाँदनी के साथ - साथ, प्रेम गीत गा रहा ।
समीर संग रोशनी का, मस्त नृत्य चल रहा,
संगीत का प्रत्येक वाद्य,-वादियों में बज रहा ।
कवि का लेखन फलक किसी देश विदेश तक सीमित नहीं है। उसका भावुक मन कभी नगर में, कभी देश में, कभी विदेश में और कभी धूल से भरे नन्हें से गाँव की सैर करने के लिये मचल उठता है । वह कहता है कि:-
खुशहाली के गीत गूँजते, गाँवों की चैपालों में ।
टोरा-टोरी धूम मचाते, खेत-मेढ़, खलिहानों में ।
उनके मन में गाँवों की स्मृतियाँ सजीव हो उठती हैं -
गाँवों की गलियों में, दौड़ रही शाम,
श्रम के पसीने को, सोख रही शाम ।
आल्हा रामायण की, गूँज रही तान ,
ढोलक मंजीरे से, झूम रही शाम ।
ये है श्री मनोज जी के गीतों में समाहित उनके विचारों की बानगी । उनके चिन्तन मनन के प्रतिफलन स्वरूप सार्थक एवं श्रेष्ठ गीत, कवितायें । भाषा की सहजता । भावों की प्रबलता । आडम्बर विहीनता यही श्री ‘मनोज’ के सद्लेखन के आभूषण हैं, जिनसे विभूषित है उनका सृजन । आशा करते है कि सृजन की यह धारा रुके नहीं । थमे नहीं । अनवरत तब तक बहती रहे जब तक कि इसे अपनी मंजिल न मिल जाये । बधाई इस सार्थक सृजन के लिये।
सनातन कुमार वाजपेयी ‘‘ सनातन ’’
(वरिष्ठ शिक्षा विद् एवं साहित्यकार)
पुराना कछपुरा स्कूल, गढ़ा जबलपुर (म प्र)