आशाओं और निराशाओं के भंवर में फँसा मानव
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
उन्मुक्त आकाश में उड़ने वाला चाहे वह नभचर हो या समुद्र की गहराई नापने वाला कोई जलधर हो या इस धरा पर विचरण करने वाला कोई थलचर हो। इन सभी के जीवन की सृष्टि जननी के गर्भ से ही होती है। यहाँ तक कि हमारे पेड़-पौधे, वनस्पतियों, खनिजों की उत्पत्ति भी वसुन्धरा के गर्भ से ही होती है। यह जननी जब मातृत्व भावना से अभिभूत होकर अपने गर्भगृह मंे जब नव जीवन का अंकुरण करती है, तब निश्चित ही इसके पूर्व उसके मन मंदिर में उससे कुछ आशाएँ - अपेक्षाएँ की घंटियों का स्वर झंकृत होता है।
जननी को अपने वर्तमान और भविष्य का सुनहरा प्रतिबिंब झलकता दिखाई देता है। अपनत्वता की चाह, सुरक्षा, वंशवृद्धि, वृद्धावस्था का सहारा आदि न जाने कितनी छोटी -बड़ी आशाओं का सम्मोहन उसे अपनी ओर लुभाता नजर आता है। इन्हीं आशाओं के सम्मोहन से वह नवजीवन सृष्टि की परिकल्पना को साकार करने में जुट जाता है। यह बात भी निर्विवाद सत्य प्रतीत होती है कि सृष्टि निर्माता ने भी जब सृष्टि संरचना की परिकल्पना की होगी, तब उसके मन में भी कुछ आशाओं और अपेक्षाओं ने उसे सम्मोहित किया होगा।
जननी और पालक की आशाओं का वह नन्हा सा जीवन -उसके आँखों के सामने, उसके घर आँगन में शैनःशैनः अंगड़ाई ले कर बड़ा होता जाता है। तब दोनों उसे बड़ी तन्मयता से अपनी आशाओं के अनुकूल उसको गढ़ने में जुट जाते हैं। खान-पान स्वास्थ्य शिक्षा-दीक्षा से गुजरता हुआ - जब वह अपनी शारीरिक, मानसिक परिपक्वता को प्राप्त कर हमारे समाज के सामने आता है। तब वह मात्र माँ -बाप, परिवार, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र का ही नहीं वरन् विश्व की आशाओं के विस्तृत दायरों में अपने आपको घिरा पाता है। तब तक उसके अंदर भी भविष्य की आशाओं का समुंदर हिलोरें मारने लगता है फिर निकल पड़ता है, अपने पैरों के बल अपनी जीवन यात्रा को सार्थक बनाने। एक नया कीर्तिमान स्थापित करने। यही आशावाद की मूल भावना हमारे जीवन की संरचना में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है। उसको सुरक्षा, और सुदृढ़ता प्रदान करती है। उसमें प्रेरणा की सुवासित गंध प्रवाहित कर उसके जीवन में ऊर्जा , स्फूर्ति प्रदान करती है। उसकी जीवन यात्रा को जीवंत बनाकर दीर्घजीवी होने का अभय वरदान भी देती है। यह आशावाद का प्रखर तेज ही उसके जीवन यात्रा में आने वाली आँधी -तूफान जैसी बड़ी से बड़ी आपदाओं को भी सहज भाव से पार करने का सम्बल प्रदान करती है। उसे निरंतर आगे बढ़ने का विजय मार्ग प्रशस्त करती है। चूंकि वह जानता है कि संघर्ष ही जीवन का सत्य है , सत्य ही ईश्वर है। तभी तो कहा जाता है कि -
संघर्षों से प्यार जिसने किया, मानव से भगवान बनकर जिया।
मीरा ने प्याला हलाहल पिया, सूरदास भी अंधियारा पीकर जिया।
कर्म से जुलाहा कबीरा बना, ईसा भी सूली पर चढ़ कर बना।
तुलसी की रामायण वंदन हुयी, घर -घर के माथे का चंदन हुयी।
मानव जिस जीवन की किश्ती में बैठा सफर कर रहा है। उसकी पतवार आशा है। वह भली भांति जानता है कि
चाहों की किश्ती में बैठा , आशा की पतवार सम्हाले।
सागर की गहराई में भी ,अपनी नाव चलाना होगा।
जीना होगा बढ़ना होगा , सागर से अब लड़ना होगा।
जीवन के तूफानों में भी , अपनी नाव बढ़ाना होगा।।
अपने विकास यात्रा और अपनी सम्यता के विभिन्न पड़ावों से गुजरते हुए मानव ने अपने विवेक और बुद्धि को जागृत किया। उसकी नित नई खोजों ने उस ईश्वर को भी चकित कर दिया है। मानव ने अपने हित संवर्धन के लिए न जाने कितने साधनों संसाधनों की उत्पत्ति कर डाली। उसने अपने जीवन में सुख सुविधाओं के अम्बार लगा दिये। धीरे धीरे वह मानसिक सुखों की तलाश करते शारीरिक सुखों की ओर मुड़ गया। फिर वह अपने भौतिक सुखों की चाह व तलाश में ऐसा उलझ गया कि उसने अपनी संपूर्ण शक्ति को इसी खोज में समर्पित कर दिया। और आज वह तन-मन से इन भौतिक सुखों का दास बन गया। वह अपने जीवन में इनकी आवश्यकता व अनिवार्यता इस तरह से महसूस करने लगा है कि वह इन्हें प्राप्त करने के लिए कुछ भी कर सकने को तैयार हो गया। फिर चाहे उसे धूर्तता चालाकी बेईमानी का ही सहारा क्यों न लेना पड़े। इससे हमारे जीवन में नैतिकता का हृास होने लगा है।
मानव समाज में शोषक और शोषित जैसे शब्द उभर कर सामने आने लगे हैं। सम्पन्न-विपन्न, छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, जैसी गहरी खाईयाँ समाज में बनने लगीं। समाज दो वर्गों में विभक्त हो गया। चारों और असमानताएँ और विसंगतियों का फैलाव बड़ी तेजी से होने लगा। फलस्वरूप परिवार कुटुम्ब समाज में विखंडन की प्रक्रिया बड़ी तेजी से फैलने लगीं। समष्टि भाव की जगह व्यष्टि भाव ने ले लिया। इससे मानव धर्म की मूल भावना पर वज्रापात हुआ। समाज में असंतोष और निराशाओं का सैलाब उमड़ने लगा। धीरे-धीरे मानव जीवन कष्टप्रद, कंटकमय, ऊबड़ खाबड़ और दुरूह बनता गया। किन्तु निराशाओं के घनघोर बादलों के पीछे झांकती आशाओं की सूर्य रश्मियों को ही मानव ने अपना सम्बल बना लिया। यह सोचकर कि -
जीवन की उस धूप छाँव में, हिस्से में जब धूप मिली हो।
क्यों छाँवों की आस करें, जब चलना हमको धूप गली हो।।
जैसा कि कालजयी आशाएँ कभी मरा नहीं करती हैं। राख के ढेर के नीचे सुलगते अंगारों की तरह दबी रहती हैं। राख रूपी निराशाएँ उसे ढांके रहती हैं। किन्तु हवा के एक तेज झोंके के आते ही अंदर दबी आशाएँ फिर दहकने लगतीं हैं। इसीलिए हमारे विवेकी मानव को सदा जीवन की धूप ही सुहानी लगती है। वह अविवेकी मनुष्यों को इंगित करता हुआ कहता है कि -
तुमको जीवन की सुनहरी छाँह ही ललचायी है।
मुझको जीवन की रुपहली धूप ही भरमायी है।ं
अपने जीवन में विवेकी मानव ऐसी विचार धारा को लेकर निरंतर जीवन की यात्रा करता चला आ रहा है और वह चलता रहेगा। आशाओं को ज्यादा समय तक निराशाओं की बेड़ियों में जकड़ पाना संम्भव नहीं है।
आशाएँ मानव के अंदर पनपने वाली सहज आंतरिक शक्तियाँ हैं। तो वहीं दूसरी ओर निराशाओं का जन्म बाह कारणों से होता है। समाज में व्याप्त विसंगतियों, भेदभावों के कारण मानव मन को हतोत्साहित कर उसे चोट पहुॅचाने का कार्य करता है। इस घात प्रतिघात के द्वन्द्ध युद्ध में कभी-कभी हमारे मन की आंतरिक शक्तियाँ पराजय की दिशा में पहँुच जातीं हंै। तब मानव निराशाओं में डूब जाता है।
अतः समाज में जब-जब असमानताएँ, भेदभाव, ऊँच-नीच, वर्गभेद आदि जितने अधिक अपने पैर फैलाते हैं तब-तब समाज में मारकाट, हिंसा, तनाव, भ्रष्टाचार और अनैतिकता का तांडव नर्तन देखने को मिलता है। इससे वह समाज,देश पतोन्मुखी होता जाता है। और फिर विकास की दिशा से भटक जाता है। अतः समाज व राष्ट्र की कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका का यह प्रमुख कर्तव्य बनता है कि ऐसी नीतियों कानूनों का निर्माण करें एवं ईमानदारी से लागू करंे। जिससे मानव जीवन की सुकोमल आशाओं पर निराशाओं का तुषारापात न होने पाए। समाज की संरचना में मानव जीवन का चहुं विकास बगैर किसी भेदभाव के होना चाहिए। ताकि मानव समाज की जीवन पथ की हरियाली मुरझाने न पाए। वह निरंतर हरी भरी रहे। फैलती फूलती रहे। जीवन यात्रा कर रहे हर पथिक को छांह के साथ-साथ उसे पाथेय भी देती रहे। उसको कभी निराशाओं के झंझावत नष्ट न कर पाएँ चूंकि आशावाद यदि अमृत है तो निराशावाद विष है। एक ऐसा विष जो मानव के मस्तिष्क को कुंठित कर देता है उसे पंगु बना सकता है।
मानव के जीवन यात्रा में जब आशाओं की बदली बरखा बनकर बरसती है, तब वह दुरूह से दुरूह तपते रेगिस्तानी मार्ग को भी आसानी से पार कर जाता है, निरंतर आगे बढ़ता जाता है। पथ में गड़ रहे, हर शूलों की चुभन को भी वह विस्मृत कर देता है। आशाओं के रंग-बिरंगे, खिले-फूलों की मन मोहक छटा को देखकर हर पथिक सम्मोहित हो जाता है और उसकी सुवासित गंध उसके मन में रच बस जाती है। उसे आल्हादित कर देती है। इस तरह वह अपने जीवन की सार्थकता को प्रतिपादित करता हुआ निरंतर विजय पथ पर आगे बढ़ता जाता है।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”