एक फक्कड़ साहित्यकार: श्री रूपनारायण वर्मा ‘वेणु’
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
जीवन की संध्या बेला पर मानव को अपने अतीत के क्षण काफी याद आने लगते हैं। बात उन दिनों की है जब मेरा ट्रान्सफर रायपुर में हो गया। मैं कुछ माह अपने को नए कार्यालय में एडजस्ट करने के बाद तलाश में जुट गया कि कहाँ अपना समयसाहित्य की सेवा में बिताया जाये। स्वाभाविक ही था कि एक साहित्यकार अपने मन के अनुकूल संस्था में अपने साहित्यिक मि़त्रों के साथ गुजारना चाहेगा। सो मन के अनुकूल एक साहित्यिक संस्था मिल गयी। हिन्दी साहित्य मंडल रायपुर जो कि रायपुर की सबसे पुरानी संस्था थी। जिसमें छत्तीसगढ़ क्षेत्र के सभी वरिष्ठ एवं कनिष्ठ शिक्षाविद् साहित्यकार जुड़े हुए थे। संस्था को अभी मुझे एक वर्ष भी ज्वाईन किए नहीं हुआ था कि मुझे उस संस्था के लोगों ने उपाध्यक्ष के पद पर बैठाल दिया। उस समय तक मेरा हर साहित्यकारों से परिचय लगभग हो ही गया था।
एक दिन मैं रविवार को घर पर छुट्टी मना रहा था कि किसी ने मेरे घर का दरवाजा खटखटाया। बेटी सपना ने बताया कि पापा जी, कोई दादा जी आपको पूँछ रहे हैं। मैंने बाहर आकर देखा कि श्री रूपनारायण वर्मा ‘वेणु’जी खड़े थे। मैंने तुरंत उन्हें नमस्कार करते हुए अन्दर बैठक रूम में सादर बैठाया। बेटी को चाय नास्ता लाने का इशारा कर मैं उनके पास बैठ गया। उन्होंने मेरे इशारे का आशय समझ कर मना करने की औपचारिकता को निभाया। अपने कंधे पर लटकाए खादी के झोले से पचास- साठ पेज की एक पुस्तक निकाली और मेरी ओर बढ़ा दी कि “शुक्ला जी यह मेरी नई पुस्तक है जो आज ही प्रेस से लेकर आया हॅूं। “ मैंने उस पुस्तक को हाथ में लिया पलट कर देखा, मूल्य बीस रूपए था। मैंने जेब में हाथ डालकर चालीस रूपए निकाले और उन्हें थमा दिया। डन्होंने बीस ही लेकर बीस वापस करना चाहा। मैंने टोकते हुए कहा कि वेणु जी मुझे एक किताब नहीं दो किताब चाहिए, मेरा एक मित्र है वह भी पढ़ने का शौकीन है उसे प्रजेन्ट करूँगा। उन्होंने अपने झोले से एक पुस्तक निकाली और मुझे थमा दी। पर उनकी पैनी नजर मेरे कहे गये शब्दों के सत्यता की गहराई को तलाशते नजर आ रही थी।
रूपनारायण वर्मा ‘वेणु’ जी चार सवा चार फुट के कद काठी के सत्तर वर्षीय साहित्यकार थे, जो खादी का सफेद कुर्ता तो पहिनते ही थे, अधोवस्त्र के रूप में कभी धोती या पैजाम के साथ ही सिर पर गाँधी टोपी को सदा लगाए रायपुर की सड़को में सदा किसी को भी नजर आ जाते थे। टूटी सिली हुई चप्पलों मेंउनके पैर सदा सुरक्षित रहते थे। उनकी पैरों की एड़ियाँ सदा फटी हुई रहती थीं। सफेद कपड़े कभी कभी उनके न धोने का दुखड़ा भी बयान करते नजर आ जाते थे। एक बार उन्होंने बताया कि उनका जन्म 1921 को दीपावली के एक दिन पूर्व नरक चैदस (दैत्य नरकासुर के वध के दिन) पा्रतः 5 बजे हुआ था। उनका जन्म बैजनाथ पारा रायपुर में ही हुआ था। इसलिए वे रायपुर के हर गलीकूचे से वाकिफ थे।रायपुर के एक छोर से दूसरे छोर को पैदल ही नापने सदा आतुर रहते थे। अगर राह में कोई गाड़ी में लिफ्ट मिल जाये तो अलग बात है। उसके संग हो लेते हैं।
रूपनारायण वर्मा ‘वेणु’ ने अपने बचपन में शिक्षा प्रायमरी स्कूल तक ही पायी थी, बाद में ‘धर्म विशारद ’की डिग्री आर्य समाज देहली द्वारा प्राप्त किया। पढ़ने लिखने के काफी शौकीन थे किन्तु अभाव सबसे बड़ी मजबूरी थी। इसके बावजूद उन्होंने संगीत,कला, दर्शन, मनोविज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र जैसे गूढ़ विषयों में भी अपने को परांगत कर लिया था। उनका साहित्य सृजन सन्1935 से ही प्रारम्भ हो गया था,उस समय वे 14 वर्ष के थे। ज्योति निर्झर शीर्षक नाम से उनकी एक किताब जिसमें लगभग 20 लघु कहानियाँ एवं 399 विचार सूक्तियाँ दिसम्बर 1971 को विश्वभारती प्रकाशन नागपूर से प्रकाशित हुई। इसके बाद सहस्त्र सुमन का प्रकाशन 1981 में हुआ। अप्रकाशित लगभग 80 कृतियाँ अर्थाभाव के कारण पड़ी रह गयीं।
रूपनारायण वर्मा ‘वेणु’ की पत्नी शांत बाई थीं जिनका निधन हो चुका था। उसी तरह पिता बालमुकुन्द वर्मा का भी स्वर्गवास हो चुका था। उनके साथ उनकी माँ श्रीमती नरबद बाई का साथ काफी दिनों तक रहा। उनकी सेवा उन्होंने काफी वर्षों तक की। उनको नहलाना घुलाना सेवा करना अपने हाथ से खाना बनाना और खिलाना। अपने जीवन काल में उन्होंने काफी समय तक माँ की सेवा की । उनके रहने का ठिकाना गणेशगंज मंे डाॅ.बजाज के दवाखाना की एक परछी थी। लोगों ने बताया कि वेणु जी काफी वर्षों से वहीं रह रहे थे। आयुर्वेदिक डाँ बजाज साहब से उनकी अच्छी आत्मीयता थी। वेणु जी को आयुर्वेदिक का अच्छा ज्ञान तो था ही। रूपनारायण वर्मा ‘वेणु’ परामर्श करके स्वास्थ्य या निरोगधाम जैसी प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के लिए आयुर्वेद से सम्बंधित लेख आदि लिख कर भेजते थे। बदले में उन्हे पारिश्रमिक भी मिल जाया करता था। इससे वे डाॅ. साहब के प्रिय एवं स्नेही बने हुए थे।
वेणु जी अपने जीवनकाल में जीवन यापन के लिए कपड़ों में काज व बटन टाँकने का कार्य किया करते थे। अपने जीवन में अर्थाभाव से जूझते हुए भी उनका साहित्य के प्रति झुकाव, आस्था और ऊपर से प्रकाशन की दीवानगी अपने आप में स्तुत्यनीय तो थी ही। बढ़ती उम्र ने उनकी आँखों में धुंधलका ला दिया था। इस पर उनके स्नेहियों ने उनकी नाक में चश्मा चढ़वा दिया था। स्वाभिमानी इतने थे कि हर दानवीरों को उनको कुछ देने के पहले काफी पापड़ बेलने पड़ते थे। तब जाकर कहीं उसको स्वीकारते थे। रहने का तो ठिकाना डाॅ. बजाज के यहाँ बना लिया था पर खाने के लिए वे कहते थे कि जब तक ऊपर वाले की कृपा है, मिलता रहेगा क्योंकि इस उम्र में तो भूख भी मर जाया करती है। काफी पूँछने पर वे यह कह कर टाल देते कि ऊपर वाले ने जिसने रहने का ठिकाना दिया है, वही मेरी भी चिंता करेगा मुझे तनिक भी चिन्ता नही ं है। यह बात अलग थी कि उनको पढ़ने लिखने की साहित्यिक भूख बहुत तेज थी। साहित्यिक गोष्ठियों में बगैर नागा किए अपनी उपस्थिति दर्ज कराते और बड़े धैर्य और ध्यान से सबकी रचनाओं को सुनते और बहुत देर तक बैठते, जब उनकी बारी आती तो वह सुनाते।
उनकी रचनाओं में जीवन की जीने की सूक्तियाँ अपने जीवन की अनुभूतियाँ अपने ढंग से परिभाषाओं को गढ़ कर सबके सामने रखते। मानव के अलंकारों, प्रेम, करूणा, वात्सल्य,राग, द्वेष, क्रोध,ईष्र्या,आदि एवं उनके आन्तरिक मन और द्ददय से निकली बातों के साथ ही संवेदनाओं और जीवन के संस्कारों का उनकी रचनाओं में उपदेशात्मक आख्यान होते। जिन्हें कुछ नवोदित साहित्यकार कुछ देर का इंटरवल समझ कर दाँए बाएँ होने लगते। कई मनोयोग से उनके जीवन का सार ग्रहण कर उसे सुनते और सराहते।
भाषा विभाग म.प्र.सरकार की ओर से उन्हें 1973 से कुछ पेंशन की राशि भी दी जाने लगी थी। एक बार किन्ही कारणों से उनकी तीन चार माह तक पेशन नहीं मिल पायी तो उन्होने पेपर में निकलवाकर आमरण अनशन की तैयारी कर ली थी। किन्तु सरकार समय पर चेत गयी और पेंशन को चालू कर दिया। इस राशि को उन्होंने कभी अपने खाने पीने में व्यय नहीं किया। बल्कि किसी प्रेस में जाकर एडवांस के बतौर उस राशि को जमा कर देते और अपनी अगली पुस्तक के प्रकाशन की तैयारी में लग जाते। प्रेस वाला भला मानुष था, उनकी किताब को छाप देता फिर जितना वह बेच लेते और उसके पास आकर पैसा जमा करते उतनी की किताबें उन्हें फिर पकड़ा देते। यही साहित्य के व्यवसाय से जो आमदनी होती वह उनके जीवन यापन के लिए पर्याप्त होती थी। साहित्यऔर असाहित्यक रूचि वाले उनकी पुस्तक को बड़े सम्मान सहित क्रय कर लेते। वे उनकी इस साहित्य साधना से प्रभावित थे। साहित्य उनके लिए केवल कुछ आय का साधन मात्र नहीं था वे तो सभी के हित की बात लिखकर उसे कुछ अतिरिक्त प्रकाशित मूल्य लेकर पाठकों एवं समाज के लोगों को सौप देते थे। उसमें उन्हें बड़ी आत्मसंतुष्टि प्राप्त होती। सन 1991 तक मुझे अच्छी तरह से याद है कि उनकी लगभग छःके आस पास पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं थी। एक अभावग्रस्त और फटेहाल जीवन यापन में जीने वाले साहित्यकार जिसे मित्रों से मिले पेन और डायरियों में अपने साहित्य के प्रति अनुराग भाव को सतत बना कर रखना कितना दुरूह कार्य है, उनकी इस जिजीविषा के प्रति हम सभी नत मस्तक थे।
21 सितम्बर 1991 को हिन्दी साहित्य मंडल एवं शासकीय सहकारी कर्मचारी गृह निर्माण समिति कुशालपुर के संयुक्त तत्वाधान में एक ऐसा कार्यक्रम का आयोजन बना जिसे वेणु एवं सरस का सम्मान-अभिनंदन नाम दिया गया। उनको सार्वजनिक रूप से समाज के सामने अभिनंदित किया गया। उक्त अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद् डाॅ. सरयूकान्त झा के मुख्य अतिथि एवं श्री देवीसिंह चैहान जी की अध्यक्षता में कार्यक्रम रखा गया। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद् चैहान जी ने सही कहा था कि”रूपनारायण वर्मा ‘वेणु’ हमारे इस अंचल के एक ‘कबीर’ हैं जो अपनी फक्कड़ता के लिए मशहूर हैं। ऐसा फक्कड़ साहित्यकार अपने विचारों संस्कारों से समाज में अलख व चेतना जगाने का कार्य कर रहा है। जो समाज के लिए ही नहीं वरन् हम सभी के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत हैं। वे विगत चार दशक से हमारी संस्था से जुड़े हैं और अपने सादगीपूर्ण व्यक्तित्व एवं समाजोपयोगी कृतित्व से उदयीमान रचनाकारों को सदा प्रोत्साहित करते रहे हैं। यह हमारे लिए एक सौभाग्य का दिन है कि उनका सम्मान कर हम सब स्वयं सम्मानित होने का अनुभव कर रहे हैं।”
आज भी छत्तीसगढ़ अंचल के उस फकीर ‘वेणु ’ की स्मृतियाँ हमारे दिल में समाई हुयीं हैं। उनका वह ठिगना गौरवर्ण, उम्र की सिलवटों से चमकता वह चेहरा जो सफेद कपड़ों के साथ दमकता हुआ रहता था। सदा अपने सिर पर गाँधी की टोपी पहने सबको आकर्षित करता था। मानो सबको संदेश देता रहता था कि जीवन में अभाव गरीबी समयाभाव को दरकिनार किया जा सकता है। उन सबके बीच में रहते हुए भी आप अपना स्वयं रास्ता बना सकते हैं। आपके अंदर अपने मंजिल की ओर बढ़ने की एक प्रबल शक्ति भर चाहिए। उनके सिर की सफेद टोपी में किनारे उभरी पसीने की बूंदें ने एक स्थाई आकार ले लिया था जो उनके कर्मयोगी होने का प्रमाण दे रहा था। उनका लोगों के लिए कपड़ों की सिलायी बुनाई काज बटन करने के साथ ही साहित्य साधना में अनवरत डूबे रहना हमें कबीर दास की छवि की ओर इंगित करता है। भले ही वे उस ऊँचाई को न छू पाए हों पर उनके पद चिन्हों पर चलने की कोशिश अवश्य की है। हम सबके लिए तो यही प्रेरणास्पद है। उनके साहित्य के प्रति अगाध अनुराग और अपना सब कुछ समर्पण भाव जिसे जीवन के अंतिम पड़ाव तक वे निभाते रहे।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”