हमारे जीवन में संस्कारों एवं मनोबल की आवश्यकता
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
हमारे हिन्दू संस्कृति में सृष्टि के रचियता के रूप में ब्रम्हा जी को माना गया है। कहते हैं कि उसने इस सृष्टि का निर्माण करके अनेक जीव निर्जीव शक्तियों का सृजन किया। प्रत्येक में अमृतरूपी प्राण का संचार किया। उनके जीवन की सार्थकता को परिभाषित करने के लिए उनके अंदर मूल्यवान संस्कारों का बीजारोपण भी किया। साथ ही उनके अंदर एक आत्मशक्ति भी प्रदान की। जो उनके जीवन में कुछ कर सकने की महत्वाकांक्षा को सदा प्रेरित करती रहे। पृथ्वी की इस संरचना में अपना भी योगदान देता रहे। उसे विकास के सर्वोच्च शिखर पर ले जाए। उसका यह मनोबल ही उसे स्फूर्तिवान व गतिवान बनाए रखता है। उसे सदा आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहता है। इससे वह स्वयं की उन्नति तो करता ही है, साथ ही सृष्टि के निमार्ण में भी अपना योगदान देता है।
जब एक नन्हा सा बीज भूमि से अंकुरित होता है और धीरे-धीरे पौधे के रूप में बढ़ने लगता है तब उसके अंदर एक आत्मविश्वास भी जन्म लेता है। एक सम्पूर्ण वृक्ष बनते बनते वह विभिन्न परिस्थितियों से गुजरता है। आसपास के वातावरण और अपनी संस्कृति से परिचित होता है। उसके अंदर वृक्ष के संस्कार अंगड़ाई लेने लगते हैं ओर वह अपने जीवन की सार्थकता से भली भांति परिचित हो जाता है।ृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृवह वृक्ष अपने संस्कारों से अभीभूत होकर राह के हर पथिक की थकान दूर करने जुट जाता है। जो भी जीवन से निराश थका हारा उसके पास आता है, वह उसे अपने संस्कारों से प्राप्त शीतल सुवासित मंद हवा के झोंकों की थपकियाँ देकर उसके कष्टों को दूर करने का प्रयास करता है। गर्मी की तेज धूप और लपटों से रक्षा करने के लिए वह अपनी विशाल टहनियों और हरे -भरे पत्तों को फैलाकर हर पथिक को छाया देने को आतुर हो जाता है। भूखे अतिथियों का स्वागत सत्कार जिस सेवा भाव से करने को तत्पर हो जाता हे उसका कोई जवाब नहीं। यहाँ तक कि उसका अतिथि उसके फल पाने के लिए उस पर पत्थर भी बरसाता है, इसके बावजूद भी वह अपने फल को देकर उसकी भूख को शांत करता है। वह अपने जीवन की सार्थकता की यहीं विराम नहीं देता वरन् मानव के पर्यावरण का निर्माण कर सभी के स्वस्थ्य होने की कामना भी करता है। वह मस्ती में झूम-झूम कर मेघों को धन-धान्य, सुख-शांति की वर्षा करने के लिए भी आव्हान करता है ताकि जगत के सभी जीव निर्जीव का कल्याण हो। इसके बावजूद जब वह अपना प्राणोत्सर्ग करता है, तब वह स्वयं को मानव कल्याण एवं राष्ट्र कल्याण के लिए अपने आप को समर्पित कर देता है। यही हमारे संस्कार एवं हमारा मनोबल होना चाहिए और यही हम सब के जीवन की सार्थकता भी होना चाहिए।
हमारे जीवन में भी उसने वही संस्कारों और मनोबल को डाला है और जीवन की सार्थकता को भी परिभाषित किया है। किन्तु फिर भी मानव दिशा हीन हो कर भटक जाता है। कुसंस्कारों की ओर मुड़ जाता है और सृष्टि में उत्पात मचाने लगता है तब अशांति एवं अत्याचार का बोलबाला हो जाता है। व्यक्तिगत स्वार्थ हावी हो जाता है। परमार्थ के भाव लुप्त हो जाते हैं। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की भावना विलोपित हो जाती है। इसीलिए कहा जाता है, जबसे इस सृष्टि का निर्माण हुआ है -तबसे संस्कारों और कुसंस्कारों का द्वन्द्ध युद्ध चलता चला आ रहा है। यही कारण है कि वृक्ष के इस त्याग परोपकार के बदले कुसंस्कारवानों के द्वारा उछाले गए पत्थरों को भी संस्कार वानों को सहन करना पड़ता है। जब उनकी बहुतायत हो जाती तब और भी विकट परिस्थितियाँ निमार्ण हो जाती हैं। उनमें कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपने निजि स्वार्थों की रोटियाँ सेंकनें के खाातिर उस परोपकारी के यौवन काल में उसे काट डालते हैं। तब सही मायने में उसके पूर्व संस्कारों और उसके मनोबल की यहीं परीक्षा होती है। ऐसी कठिन परिस्थितियों में वह जरा भी विचलित नहीं होता और पुनः दुगने उत्साह और स्फूर्ति के साथ फिर आगे बढ़ने लगता है,उन परिस्थितियों से संघर्ष करता है और बाद में फिर हरियाने लगता है। यही उसके पूर्व संस्कार हैं जो उसकंे अंदर पुनःआत्म विश्वास को जागृत करते हैं। उसके मनोबल को बढ़ातें हैं और उसे उत्साहित करते हैं।
मानव के शरीर में मन एक ऐसा उर्जावान शक्ति का केन्द्र बिन्दु है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन कार्य को सरलता व सहजता संे कार्यरूप में परिणित कर डालता है। वह अपने मन में ऐसी इच्छा शक्ति को जगाता है जिसके कारण मानव किसी भी कार्य को करने तैयार हो जाता है। मानव क्षमता से भी परे असाधरण कार्यों को चुटकियों में अंजाम दे देता है। कभी-कभी उसके द्वारा किए गए ऐसे कार्यों को देखकर लोग उसे देवीय चमत्कारों वाला व्यक्ति तक कहने लगते हैं। जबकि यह उसके आत्मविश्वास एवं मनोबल का ही कमाल होता है। प्रायः देखने में आता है कि दुबला पतला कृशकाय सा दिखने वाला या अपाहिज भी ऐसे कार्य को करके अपना इतिहास बना लेते हैं और बहुचर्चित हो जाते हैं। सभी के आँखों के तारे बनकर चमकने लगते हैं। इसमें किसी भारी भरकम शरीर की आवश्यकता नहीं होती।
अतः यह निर्विवाद सत्य है कि जिसके अंदर यह आत्म विश्वास या मनोबल का प्रचुर भंडार होता है वह इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा जाता है। इस बात के लिए इतिहास गवाह है कि दुबले पतले से दिखने वाले महात्मा गाँधी जी ने सम्पूर्ण जन मानस को उद्वेलित कर दिया था और उस विश्व के शक्तिशाली ब्रिटिश प्रशासन को भी झुकने को मजबूर कर दिया। दूसरी ओर मुट्ठी भर सैनिकांे को लेकर छत्रपति शिवाजी इतिहास पुरूष बन कर अमर हो गये। नेपोलियन ने तो अपने मनोबल में इतनी वृद्वि कर ली थी कि उसने अपने शब्द कोष से असम्भव शब्द को ही निकाल फेंका था और फिर अपने सामाज्य का विश्वव्यापी विस्तार किया। तभी तो कहा गया है कि “मन के हारे हार है- मन के जीते जीत ...”
मन से परास्त मनुष्य निराशाओं से पूरी तरह से घिर जाता है और किसी भी कार्य में सफल नहीं हो पाता। जिसने मन को जीत कर अपने वश में कर लिया, वह संसार का कोई भी कार्य कर सकता है। वह संकट व विपत्तियों के समय भी कभी हार नहीं मानता और अपने आत्मबल को ऐसे मौकों पर जागृत करके अपनी सफलता का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। ऐसे समय में ही हमारे मनोबल की सही पहिचान होती है और उसका सही मूल्यांकन भी।
जीवन की सार्थकता पर यदि विचार करे तो पहले हमें जीवन के अर्थ एवं उद्ेश्यों को समझना होगा। तभी सही मूल्यांकन कर पाएँगे। ईश्वर ने हमें इस सृष्टि के निर्माण एवं विकास के लिए बनाया है। उसने सबके अंदर अच्छे गुणों को भी डाला। बुद्धि विवेक को डाला ताकि वह नीर क्षीर का निर्णय लेने में सक्षम हो सके। जीवन के उत्थान एवं पतन में हमारे गुणों का बहुत बड़ा हाथ होता है। सद्गुण एवं दुर्गुण ये दोनों ऐसी विरोधी धाराएँ हैं, जिसका चुनाव करना मनुष्य के उपर निर्भर रहता है। दुर्गणों से हमारा जीवन व राष्ट्र विनाश की ओर जाता है तो दूसरी ओर सद्गुणों को अपनाने वाला जीवन व राष्ट्र सदैव विकास की दिशा में बढ़ता है। फिर एक समय ऐसा आता है कि वह उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाता है। इसीलिए सदियों से सद्गुणों की पूजा होती चली आ रही है। इसलिए हमें भी उसके स्वागत और अभिनंदन के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। संस्कारों वाला व्यक्ति ही राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण कर सकतेे हैं, जिससे वह एवं उसका राष्ट्र एक दिन विश्व के सामने वंदनीय ही नहीं वरन् पूज्यनीय हो जाता है।
आज सभी अपने जीवन की सार्थकता के ज्ञान से दूर होते जा रहे हैं। अपने संस्कारों से भटक गए हैं और उनका मनोबल क्षीण होता जा रहा है। उनको कुसंस्कारों व दुर्गुणों ने बुरी तरह से घेर लिया है, ऐसी विषम परिस्थितियों एवं अनेक विसंगतियों के बीच वह बुरी तरह से पीड़ित हैं, कराह रहा है - उससे निकलने को छटपटा भी रहा है। वह इससे मुक्ति पाने के लिए कस्तूरी मृग की भांति हकस्तूरी की तलाश में यहाँ वहाँ भटक रहा है। यह मृग मरीचिका की स्थिति उसे कहाँ और किस दिशा में ले जाएगी कहना मुश्किल है। जबकि कस्तूरी तो उसके अंदर ही है, उसकी यह दौड़ निरर्थक है। संस्कार और मनोबल तो उसके मन के अंदर रहने वाली कस्तूरी है, जिसकी सुवासित महक से वह अपना व अपने परिवार, समाज, देश का नाम चमका सकता है। अतः वह उसे अपने जीवन में भरपूर स्थान दे,उसे अपनाए और दृढ़ता से अंगीकार करे। तभी सफलता उसके कदम चूमेगी।
आज हमारे बीच दुर्गणों ने सद्गुणों का चोला धारण कर हमें भ्रमित सा कर दिया है। यह आज हमारे मानव जगत को ही नहीं वरन् राष्ट्र की सम्पूर्ण व्यवस्था को लीलने को खड़ा है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को युद्ध की चुनौती दे रहा है। विश्व में शांति की जगह अशांति ने हथिया ली है। शिष्टाचार की जगह भ्रष्टाचार ने ले ली है। चोरी, डकैती, हिंसा,आतंकवाद, लूटपाट जैसे अनेक दुर्गुणों ने सम्पूर्ण मानव समाज को दुखों के पहाड़ के नीचे दबा दिया है, जिससे निकल पाना असम्भव सा लगने लगा है। समाज में जो सुखों का सागर नजर आ रहा है, वह नजरों का धोखा मात्र ही है। आज अनेक लोग इन दुखों में ही सुखों की खोज में लगे हुए हैं। इससे लगता है कि हम सही रोग की पहिचान नहीं कर पा रहें हैं। सभी अपने अपने ढंग से रोग के निदान में लगे हुए हैं। सही स्थिति यही है कि हम अपने जीवन की सार्थकता को अच्छी से तरह से जाने और समझें। अपने अंदर अच्छे संस्कारों को जागृत करें और अपने सोए हुए मनोबल को जगाएँ। तभी हम स्वयं का,परिवार का, समाज का और राष्ट्र का कल्याण कर सकेंगे।
अतः जैसा किसी ने कहा है हमें सदैव यह ध्यान में रखना होगा कि जीवन प्राप्त करके जीवन को सार्थक बनानेवालों की वजह से ही इस संसार का इतिहास निर्मित हुआ है। संस्कारों और मनोबलों से आच्छादित मानव जिस समाज व राष्ट्र में बहुसंख्यक निवास कर रहे हों तब भला ऐसे परमार्थ की भावना से अभिभूत और दृढ़ संकल्पित राष्ट्र की कीर्ति ध्वजा को विश्व में फहराने से भला कौन रोक सकता है। ं
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”