हिन्दी साहित्य में मैथली शरण गुप्त जी का "साकेत" महाकाव्य
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
संस्कृत में महाकाव्य के संदर्भ में कहा गया है -”सर्ग बन्धो-महाकाव्यम “ इति महाकाव्यस्य लक्षणम् -और “नेता विनीतो मधुरस्य त्यागी दक्षो प्रियम्बदा रक्त श्लोके शुर्चिवाग्मी धीर वीर विलक्षणः। आचार्य भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र में महाकाव्य के नायक के ये सभी लक्षण बताए गए हैं। इस प्रकार से “साकेत” के राम में वे सभी गुण विराजमान हैं। साथ ही साकेत में भी बारह सर्ग हंैं। इन्हीं कारणों से हिन्दी साहित्य में “साकेत” महाकाव्य के रूप में प्रतिस्थापित है।
आदिकवि बाल्मीकि जी की संस्कृत “रामायण” और हिन्दी में तुलसीकृत “रामचरितमानस “से प्रभावित राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त जी ने “साकेत”की रचना की। जहाँ दोनों कवियों ने महाकाव्य में नायक राम को आलौकिक चमत्कारिक पुरुष को ईश्वरत्व की चकाचैंध से मंडित किया और राम की भक्ति एवं उसे मुक्ति का साध्य बताया तो वहीं दूसरी ओर साकेतकार ने उस चकाचैंध को कुछ कम कर मानवीय-भावनाओं संवेदनाओं और पारिवारिक धागों में पिरोकर उन्हें सहज ही जन- मन के बीच प्रतिष्ठापित करने का काम किया है। गुप्त जी ने अपने पात्रों को सौम्य गंभीरता आदि गुणों में तो पिरोया ही है, साथ ही शिष्टता पूर्ण, हास्य-परिहास और विनोद को भी उनके बीच वार्तालाप के द्वारा प्रस्तुत किया है। पारिवारिक रिश्ते -नातों को ध्यान में रखते हुए मानव की सहज प्रवृत्तियों को सरल ढंग से चित्रण कर हिन्दी साहित्य को मानवतावादी ‘साकेत’ महाकाव्य के रूप में प्रदान किया है। ऐसा भी नहीं हुआ कि राम की श्रद्धा और भक्ति में गुप्त जी पिछड़ गए हैं।
राम की भक्ति और श्रद्धा में डूबे गुप्त जी की वाणी स्वयं मुखरित हो गुनगुना उठती है -
“राम तुम्हारा वृत्त आप ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।”
“पापियों का जान लो अब अन्त है , भूमि पर प्रकटा अनादि अनंत है।”
ऐसी अनुराग की भावना को उद्घोषित करते हुए हमारे पुण्य आर्य भूमि पर फैले दुराचार, अनाचार और पापाचार का अन्त करने हेतु अखिल ब्रम्हाण्ड के धीर-वीर नायक सर्वगुण सम्पन्न मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार होता है। ऐसे मानस हंस को पाकर जहाँ तुलसी की ज्ञान गंगा ने करोड़ों मानवीय हृदयों को पवित्र किया तो वहीं अनेक इस आर्यावर्त के कवियों ने भी उसी ज्ञान गंगा में स्नान किया। तब भला हमारे साकेतकार कब चूकने वाले थे।
गुप्त जी ने देखा आर्यावर्त अब पश्चिमी सभ्यता के बाहुपाश में जकड़ता जा रहा है। आत्मा और परमात्मा, प्रेम और आध्यात्म आदि हमारे भारतीय संस्कृति के सभी अलंकार परदेशी हवाओं में बहने लगे हैं। गुलामी काल में हमारे विदेशी शासक हमारी आत्माओं को मरोड़ देना चाहते हैं। और जनक्रांति की भावना निराश्रित सी होती जा रही है , तब उन्होंने शंखनाद किया -
“मैं आया उनके हेतु कि जो तापित हैं,
जो विवश विकल बलहीन दीन शापित हैं।
हो जाएँ अभय वे जिन्हें कि भय भाषित है...।”
वहीं दूसरी ओर कहते हैं - “ हम हों समिष्टि के लिए बलिदानी, निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी “
कहकर वे समिष्टि के लिए त्याग सेवा की प्रतिस्थापना हेतु प्रेरित भी करते हैं। और अपने साहित्य में जागरण का बिगुल बजाते हैं। जो स्थान भक्तिकाल में तुलसी को मानस की रचनोपरान्त मिला, वही स्थान गुप्त जी को साकेत की रचना के बाद मिला। हिन्दी साहित्यविदों ने इसे आधुनिक मानस की संज्ञा दी है।
दोनों महाकाव्य रचियता की पारिवारिक स्थिति एक दूसरे से भिन्न थी। एक ओर पत्नी से तिरस्कृत तुलसी का एकांकी जीवन, वहीं दूसरी ओर कनक-थार में भोजन करते हुए गुप्त जी का पारिवारिक जीवन जो कि उनके साकेत को प्रभावित करता रहा। जहाँ तुलसी जी राम भक्ति को साध्य बनाकर मानव का उपकार करने में संलग्न हैं। तो वहीं साकेत के राम गांधीवाद की कल्पना को साकार करने में शासकों को अधिकारों की अपेक्षा त्याग और सेवा के गुणों से विभूषित करना चाहते हैं। तभी तो कहते हैं कि -
“राज्य को यदि हम बना लें भोग , तो बनेगा वह प्रजा का रोग।”
गुप्त जी ने सदैव उपेक्षित तिरस्कृत पात्रों को अपनी रचना में विशिष्ट स्थान दिया है। साकेत महाकाव्य की नायिका जो कि लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला हैं, उनके आँसुओं को सींचकर अपने काव्य की प्रतिष्ठा को चमकाया है। प्रथम सर्ग में ही दोनों के हास -परिहास के बीच रामराज्याभिषेक की वार्तालाप से प्रारम्भ किया और अन्त भी चैदह वर्ष की विरह वेदना में डूबी उर्मिला जिसने अपना यौवन गुजार दिया। अपने स्वामी के आगमन पर श्रंगार की उधेड़बुन में उलझी और अन्त में मिलन क्षणों में मानवीय भावनाओं को गुप्त जी ने जिस ढंग से अपने साहित्य में चित्रण किया। वह अन्य कहीं नहीं मिलता।
द्वितीय सर्ग में मंथरा द्वारा कहे गए कैकेयी के कानों में गूंजते वे शब्द-
“ भरत से सुत पर भी संदेह, बुलाया तक न उसे जो गेह।”
की बार-बार पुनरावृत्ति कर राम के प्रति पुत्रवत भावना की प्रतिकूलता में जिस सहज मानवीय स्वभाव में ढाला है। उसमें तो वे कहीं -कहीं तुलसी से भी आगे निकलते जान पड़ते हैं।
चित्रकूट में भरत की मनः स्थिति का चित्रण करते हैं-
“ चिरकाल राम है भरत भाव का भूखा,
पर उसको तो कर्तव्य मिला है रूखा। “
और वहीं राम की वापसी के प्रयास में असफल कैकयी की मनः व्यथा -
“हाँ जानकर भी मैंने न भरत को जाना ,
सब सुन लें तुमने स्वयं अभी यह माना।
यह सच है तो लौट चलो घर भैया ,
अपराधिन मैं हॅूंू ं तात, तुम्हारी मैया।”
पश्चाताप् की अग्नि में जलती कैकेयी कहती है -
“रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी ,
निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा।
धिक्कार उसे था महास्वार्थ ने घेरा।
ऐसे गंभीर शोक विहल परिसंवाद में भी जब कैकेयी उनकी पुरानी बचपन की यादें सुनाकर राम को मना रही है तो दूसरी ओर राम द्वारा कहे गए यह शब्द -
“ वे दिन बीते तुम जीर्ण दुख की मारी,
मैं बड़ा हुआ अब और साथ ही भारी।
अब उठा सकोगी तुम न तीन में कोई।
तुम हल्के कब थे ? हँसी कैकेयी रोई। “
कैकेयी के मानवीय भावनाओं के चरित्र चित्रण में तो वे मानो बाजी मार ले गये।
अपने महाकाव्य साकेत में नायक राम को सगुण और निर्गुण रूप में अपना कर राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त जी ने मानववादी बंधनों में उन्हें पिरोया है। तत्कालीन विषय राजनैतिक,धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उन्होंने हिन्दी साहित्य में जिस नवीन पांन्जन्य का शंखनाद किया है, उसे हमारा हिन्दी साहित्य जगत कभी विस्मृत न कर सकेगा। इस अनुपम महाकाव्य के रचियता राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त जी हिन्दी में साहित्य युग पुरुष के रूप में हमारे बीच में प्रतिस्थापित हो गए हैं।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”