मैथली शरण गुप्त के साकेत में श्री राम
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
“पापियों का जान लो, अब अंत है। भूमि पर प्रकटा अनादि अनन्त है।।”
साकेत में मैथली शरण गुप्त इस तरह से शंखनाद करते हैं। राम के प्रति अपने अनुराग की भावना को उद्घोषित करते हुए वे इस पुण्य आर्यभूमि में फैले दुराचार,अनाचार और पापाचार का अंत करने हेतु कटिबद्ध नजर आते हैं। राम हमारे अखिलब्रम्हाण्ड के धीर-वीर, ललित सर्वगुण सम्पन्न मर्यादा पुरुषोत्तम नायक है। वे भक्तवत्सल भगवान हैं। राम सचराचर के स्वामी ,धर्म के संस्थापक, लोकरक्षक ,दीनबन्धु और पापियों का अंत करने वाले हैं ं। साकेत नगरी इनके चरण रज पाकर सौभाग्यवती बनी। ऐसे मानस हंस को पाकर जहाँ तुलसी की लेखनी ने मानवीय हृदयों को पवित्र किया। वहीं अन्य काव्य मर्मज्ञों ने भी उनको अपनी काव्य धारा में समाहित किया। इस तरह अनेक साहित्यकारों ने अपने ज्ञान गंगा के माध्यम से जन मन का रंजन किया।
साकेत रचियता गुप्त भी इस पवित्र ज्ञान गंगा में स्नान करने को लालायित हो उठे। उन्होंने जब देखा कि हमारा यह आर्यावर्त अब पश्चिमी सभ्यता के बाहुपाश में जकड़ता जा रहा है। ईश्वर और मुक्ति , आत्मा और परमात्मा , प्रेम और आध्यात्म आदि भारतीय संस्कृति के अलंकार परदेशी हवाओं में उड़ने लगे हैं। विदेशी शासक हमारी आत्माओं को कुचल देना चाहते हैं। जनक्रांति की भावना निराश्रित सी होती जा रही है। ऐसी विषम परिस्थिति में साहित्य से भी समाज को जन जागरण की अपेक्षा होती है। तब गुप्त जी के मन में विदेशी शासन से घृणा तथा अपने देश के प्रति अनुराग की भावना जाग्रत हो गयी। अपनी इस अनुराग भावना और लोकहित से वे आलौकित हो उठे और उन्होंने साकेत महाकाव्य की रचना की। गुप्त जी अपनी उस भावना के रंग में रंगकर इसीलिए कह उठते हैं।
“मैं हॅूंू तेरा सुमन चढ़ूं सरसँू कहॅूं , मैं हॅूं तेरा जलद,बूंद बरसूँ कहॅूं।
रूचि शिष्या दर्शवरद घन पुंज तूं,कला कलिम अति ललित कल्पना कुंज तँू।”
यही कारण है,जिससे राम न केवल देश के अपितु विदेशियों के मन मंदिरों में भी सुशोभित होकर व्यवस्थागार बने हुए हैं। जो अपना मूर्त स्वरूप बनाकर शाश्वत् रूप से प्रतिष्ठित हो गये हैं।
वैश्य कुल में जन्में और पूर्वजों से प्राप्त राम की भक्ति और निष्ठा के रूप में शिरोधार्य कर मैथलीशरण गुप्त स्वयं धन्य हो गये। तभी तो उनकी वाणी स्वयं गुनागुना उठी।
“राम तुम्हारा वृत्त आप ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभव्य है।”
भक्ति और श्रद्धा का प्रसाद पाकर वे धन्य हो उठे। उस समय की राजनैतिक परिस्थितियो से उद्द्वेलित जन भावना को उन्होंने हृदयंगम किया और राजा-प्रजा के परस्पर सम्बन्धों को रेखांकित करने का बीड़ा उठा लिया। देश में जागरण बिगुल बजाने और अपने साहित्य में नई लहर को समावेष कर राष्ट्रकवि गुप्त ने कमर कस ली । हालाकि उन्होंने रामभक्ति को अपनी रचना में समाहित किया है। किन्तु उन्होंने राम को मानवीय मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में चित्रण कर हिन्दी साहित्य को एक साकेत के रूप में अपनी स्वर्णाक्षरति रचना भेंट की है। तत्कालीन परिस्थितियों के बीच में से उभार कर उन्होंने हिन्दी साहित्य को एक अनुपम कृति प्रदान की है। जो स्थान भक्तिकाल के तुलसी को मानस के रचना के उपरान्त मिला। वही स्थान गुप्त को साकेत की रचना के उपरान्त मिला। साकेत की भक्ति भावना को देखते हुए आधुनिक साहित्यकारों ने इसे आधुनिक मानस की संज्ञा प्रदान की है।
श्री गुप्त जी तुलसी के गंथों से अत्यधिक प्रभावित हैं, फिर भी रचनाकाल की परिस्थितियों ने उन्हें अपने काल में ढालने को विवश किया है। जहाँ तुलसी राम भक्ति को साध्य बनाकर मानव का उपकार करने में संलग्न दिखायी दिए तो वहीं साकेत के राम गाँधी वाद की कल्पना को साकार करने हेतु दिखाई पड़े। प्रजा के दायित्व का भार राज्य को सौंपकर शासकांे को त्याग और सेवा के गुणों से विभूषित करना चाहते हैं।
एक ओर अपनी पत्नी से तिरस्कृत तुलसी का एकांगी जीवन तो दूसरी ओर कनक थार में भोजन करते हुए कवि गुप्त जी का पारिवारिक जीवन भी उनकी रचना को प्रभावित किए बिना न रह सका। इसी कारण जहाँ मानस के पात्र अपने आदर्शों की लक्ष्मण रेखा में चलते हैं। वहीं साकेत के पात्र मनोविज्ञानिक तथ्यों का सूक्ष्म चित्रण करते गतिशील और अपनी वीरत्व भावना को संजाए हुए समाज में नवीन जागृति हेतु समष्टि के लिए व्यष्टि का त्याग करके सेवा की प्रतिस्थापना भी करते हैं। इसीलिए राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत लोकरक्षा के लिए राम, वन को जाते हैं और गुप्त जी के राम ने कहा है।-
“हम हों समष्टि के लिए बलिदानी , निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी। “
गुप्त जी ने यह कहकर, राम की सेवा और त्याग की भावना का निरूपण किया है। यद्यपि राम को उनकी लेखनी ने साकेत में नई दिशा देने का प्रयास किया है। किन्तु यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि साकेत भी मानस का अनुवर्ती अनुगमन काव्य है।
साकेत में हमें राम के दर्शन मानव स्वरूप में अत्यन्त निकट से प्राप्त होते हैं। साकेत में राम का स्वरूप सौम्य गंभीर आदि गुणों से युक्त होते हुए भी हमें हास्य,परिहास और विनोद के बीच शिष्टता पूर्ण वातावरण के दर्शन होते हैं। इस तरह गुप्त जी ने मानव की सहज प्रवृत्तियों का चित्रण करते हुए साकेत को मानवतावादी महाकाव्य बनाया है। तथा राम को ही मुख्य पुरूष पात्र मानते हुए प्राचीनता और नवीनता, आदर्श और अपनी कल्पना का सुन्दर समन्वय किया है।
तत्कालीन शासकीय नीति ने स्वार्थ और भेदभाव को उत्पन्न कर मनुष्यों को एक दूसरे से बहुत दूर कर दिया था। साकेत ने पवित्र प्रजा धर्म को प्रतिष्ठित करके राम को अपने ढंग से धर्म संस्थापक कहा। -
“उच्चारित होती चले वेद की वाणी , गूंजे गिरी कानन सिंधु पर कल्याणी।”
इस तरह आर्य संस्कृति के प्रसार को मुख्य उद्देश्य मानकर गुप्त जी ने धर्म सहिष्णुता और उदारता का प्रचार किया। दूसरी ओर -” सुख शांति हेतु मैं क्रांति मचाने आया “ से स्पष्ट है कि राम दलित पीड़ित शोषित और भय से तृषित मानवों के उद्धार के लिए कटिबद्ध हैं। विवश होकर जो जर्जरित जीवन में पड़े रहने को तथा जीवन की आखिरी सांस लेने को बाध्य कर दिये गए हों का उद्धार करने के लिए उद्यत् हैं तभी वे कहते हैं -
“मैं आया उनके हेतु कि जो तापित हैं, जो विवश विकल बलहीन दीन शोषित हैं।। “और -
“हो जाँय अभय वे जिन्हें भय भाषित हैं ,मैं आया जिससे बनी रहे मर्यादा। “
साकेत कार ने महाकाव्य की नायिका उर्मिला के आँसू सींचकर अपने ग्रंथ की प्रतिष्ठा का चमकाया है। जो तुलसी की आदर्श सीमा से परिष्कृत थी। साथ ही राम की भगिनी शांता का भी चित्रण जो राम को राखी बांधती है। इसका श्रेय गुप्त जी की पारिवारिक अटूट आस्था को ही जाता है। साकेत कार ने उन्हें ईश्वर का प्रतिरूप तो माना है किन्तु उन्हें उनका मानवीय रूप ही ज्यादा भाया है। तभी तो वे कहते हैं -
“राम तुम मानव हो ?, ईश्वर नहीं हो क्या ?
विश्व में रमे हुए नहीं, सभी कहीं हो क्या ?
तब मैं निरीश्वर हॅूं , ईश्वर क्षमा करें,
तुम नर में रमो तो, मन तुममें रमा करे। “
ऐसे ईश्वरी मानव को न केवल सामान्य मानव से प्रेम है अपितु वह अछूत जातियों का भी सखा है। यह बात वनगमन के प्रसंग में स्पष्ट हो जाती है। जब पुरजनों ने अत्यन्त उद्विग्न होकर उनके साथ चलने का आग्रह किया तथा राम से निवेदन करने लगे कि -
“जहाँ हमारे राम वहीं हम जायेंगें , वन में ही नव नगर निवास बनाऐंगें।
ईंटों पर अब करे भरत शासन यहाँ , जन समूह ने किया महा कल कल वहाँ।। “
और जब वे अपने अश्रुयुत नेत्रों से देखते हैं कि राम नहीं रूके तो वे कह उठते हैं -
“जाओ यदि जा सको रौंद हमको यहाँ ,यों कह पथ में लेट गये बहुजन वहाँ।।”
यदि चैपाये वाणी पा जाते तो वे भी परिजनों और पुरजनों सा दुख प्रकट कर अपना आर्तनाद सुनाते। रामवियोग से ग्रसित रथ में जुते घोड़ों के पैर भी नहीं उठ रहे हैं। कवि ने पशुओं के प्रेम और अनुरक्ति भावना का स्वाभाविक चित्रण किया है।
“जो थे समीर के जाड़ों के , उइते थे न पैर घोड़ों के।
थे राम बिना वे भी रोते , पशु भी प्रेमानुरक्त होते।। “
तुलसी के समान ही गुप्त जी ने भी रामनाम कंे महत्व को स्वीकारा है।-
“जो नाम मात्र ही स्मरणी मदीय करेंगे, वे भी भव सागर बिना प्रयास तरेंगे।”
किन्तु इसके आगे भी गुप्त के राम आगे कहते हैं कि -
“पर जो गुण -कर्म -स्वभाव धरेंगें, वे औरों को भी तार पार उतरेगें।। “
उनके राम कभी भी ऐसा कार्य नहीं करते, जिसमें उन्हें क्षमा मांगना पड़े। इसलिए गुप्त जी कहते हैं -
“क्षमा चाहने वाला काम , कभी नहीं करता है राम। “
गुप्त जी के राम का यह उद्घोष आज के स्वार्थ, लोभ, मोह से ग्रसित राजनेताओं की भांति नहीं वरन् उनका संकल्प अनूठा है -
“सुख देने आया, दुख झेलने आया। मैं राज्य भोगने नहीं भुगाने आया।।”
साकेत के राम मानव वादी होने के नाते इस धरातल में ही स्वर्ग के समान वे समस्त सुख शांति वैभव को अवतरित करने के लिए व्यग्र और लालायित हैं। इस वसुधरा को ही स्वर्गमयी बनाने को आतुर जान पड़ते हैं।
“संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया। इस भूतल को ही मैं स्वर्ग बनाने आया।।”
साकेतकार के राम अपने शत्रुओं से भी मैत्री की आशा रखते हैं। रावण के दुख में भी अपनी सहानुभूति प्रगट करते हैं। यहाँ तक कि वे लंका के युद्ध-मैदान में कहते हैं कि -
“आ भाई वह बैर भूलकर , हम दोनों समदुखी मित्र।
आजा क्षण भर भेंट परस्पर , कर लें अपने नेत्र पवित्र।। “
सम्प्रति उस साक्षात् ईश्वर को सगुण और निर्गुण रूप में अपनाकर साकेतकार ने मानवता वादी बंधनों में पिरोया है तथा उसके माध्यम से तत्कालीन राजनैतिक धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों पर भी अपना प्रभाव डाला है। उन्होंने हिन्दी भाषा को सरल किन्तु प्रांजल अलंकारों में गूंथकर साहित्य क्षेत्र में नवीनता को ध्वनित किया है। यह ध्वनि ही उन्हें एक अनुपम काव्य के रचियता एवं युग पुरूष के साथ ही उनके राष्ट्रीय कवि होने की एक छवि बना सकी है।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”