राष्ट्रनिर्माण में राष्ट्रभाषा का महत्व
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
आज विश्व के अधिकांश आधुनिक प्रगतिशील राष्ट्र अपनी कीर्ति ध्वजा को फहराने की प्रतिस्पर्धा में अपनी पूरी शक्ति से जुटे हुए हैं। प्रगति के नित नए बदलते परिवेश में अपने देश के इतिहास मंे नए नए अध्यायों को स्वर्णाक्षरों में लिखने को आतुर हैं। तब ऐसे समय में हमारे भारतीयों के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हमारा अतीत हमारी संस्कृति इतनी समृद्ध होते हुए भी हम विश्व की प्रतिस्पर्धा में अब तक प्रगति की कितनी सीढ़ियाँ पार कर चुके हैं , भविष्य में कैसे पार करंेगे और अन्य देशों से क्यों पिछड़ रहे हैं ?
विश्व के जितने भी उन्नतिशील देश हैं, उनकी विकास की आधार शिला एकता ही रही है। कोई भी राष्ट्र चाहे वह कितना भी छोटा या विशाल क्यों न हो वगैर अपनी राष्ट्रभाषा के वह गूंगों के समान है। आपसी संवाद के लिए उसे एक भाषा का सहारा लेना ही होता है। भाषा और एकता का सम्बंध चोली दामन के समान है। भाषा अभिव्यक्ति का एक अच्छा माध्यम है। जिसके माध्यम से देश का मानव समाज एक दूसरों के विचारों को सुनकर आत्मसात करके एकता के बंधन में बंधता है। यह एकता का भाव आपसी सहकार के भावों को जगाता है। फिर यह सहकारिता का भाव ही हमारे बीच में प्रगति पथ पर बढ़ने की प्रेरणा जागृत करता है।
राष्ट्र शब्द का अभिप्राय किसी स्थान में रहने वाली जनता से है, देश की अपनी भौगोलिक सीमा के अंदर जहाँ विभिन्न धर्म भाषा, जाति, वर्ग के लोग निवास करते हैं। विभिन्नताओं के होते हुए भी राष्ट्रीय एकता की भावना से बंधे रहते हैं। एक स्थान में रहने सुख,दुख -दर्दों के सहभागी बनने के कारण यह एकता के भाव आपसी प्रगाढ़ता को जन्म देते हंै। इनकी आपसी आत्मीयता की अभिवृद्धि में अभिव्यक्ति अर्थात भाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जनता को अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक राष्ट्र भाषा का होना नितांत आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता के लिए एक ऐसी सशक्त भाषा हो जो विशाल जन समूह को एकता में पिरोने की सामर्थता रखती हो। जो उनकी आपसी विभिन्नताओं के बावजूद एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य करती हो। उनमें राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाकर उनकी एकता का शंखनाद करती हो।उन्हें सदा आगे बढ़ने को उत्साहित करती हो।
आज विश्व में जितने भी समुन्नत प्रगतिशील राष्ट्र हैं, उनकी अपनी एक राष्ट्रभाषा अवश्य है। रूस की रूसी भाषा, फ्रंा स की फ्रेंच, जर्मनी की जर्मन, जापान की जापानी, चीन की चीनी, इजराईल की हिब्बू,और इंग्लैंड की अंग्रेजी भाषा आदि। इन सभी की उन्नति का एक ही कारण रहा है, उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता की भावना में अपने आप को आत्मसात कर लिया। राष्ट्रीयता की भावना का एक मुख्य सूत्र राष्ट्रीय भाषा है। वह अपनी राष्ट्र भाषा के द्वारा प्रगति सोपान को पार करते रहते हैं। जिस देश की भाषा जितनी वैज्ञानिक, सरल, व्यापक व अभिव्यक्ति के हर पहलू में परांगत होगी वह भाषा उतनी ही उत्कृष्ट कहलाती है। उसका साहित्य भी उतना ही विशाल एवं उत्कृष्ट होगा। उसमें शब्दकोश की प्रचुरता हो, लोच हो, नमनीय एवं पठनीयता के साथ ही सुबोध -सरल लिपि हो जो मानव की अभिव्यक्ति को ज्यों का त्यों उतार दे, ऐसी क्षमता होनी चाहिए। उस भाषा में देश के बहुसंख्यकों के नेतृत्व करने की क्षमता हो। साथ ही वैज्ञानिकता की कसौटी में खरा उतरती हो, वही भाषा राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने की सच्ची अधिकारिणी होती है।
किसी भी भाषा का साहित्य उस देश व समाज का सच्चा दर्पण होता है। उसमें उसकी संस्कृति, ज्ञान - विज्ञान, धर्म,इतिहास, रहन- सहन, वेषभूषा के साथ ही उसकी प्रगति का सही दर्शन होता है। उसकी भाषा ही अपने साहित्य के माध्यम से विश्व के सामने सही अभिव्यक्ति करती है। किसी विद्वान ने सही ही कहा है कि कोई भी राष्ट्र बगैर राष्ट्रभाषा के गूंगा ही है। भाषा सदैव जन सहयोग व शासन का सहयोग पाकर अपना स्वरूप दिन प्रतिदिन निखारती जाती है। कालान्तर में वही भाषा श्रेष्ठता को प्राप्त होती है।
जहाँ तक हमारे भारत का गौरवमय सांस्कृतिक,धार्मिक, आध्यात्मिक, ज्ञान विज्ञान की सम्पन्नता की बात करे, तो आज भी ईसा से हजारों वर्ष पूर्व यह समृद्ध एवं उन्नतशील रहा है। देश के किसी भी भू भाग पर पहुँच जाईए, आपको हमारे धर्म -कला -संस्कृति के प्राचीन धरोहरों के रूप में आज भी दर्शन हो जाएँगे। उनकी प्राचीनता और कला पक्ष की भव्यता आज भी अपनी कहानी उकेरते नजर आ जाएँगे। हमारे देश वासियों के दिलों में ही नहीं वरन् विश्व के कोने कोने से लोग उन अमूल्य धरोहरों को देखने की लालसा लिए लोग आते हैं और उसकी भूरि- भूरि प्रशंसा करते नहीं अघाते। विभिन्नताओं विषमताओं के रहते हुए भी हमारी धर्म संस्कृति ने अनेक प्रान्तों को जोड़ने का काम किया है। उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम विभिन्न भाषा भाषियों की विवधता के बाचजूद आज भी अपने अतीत के इतिहास के उन अद्भुत स्थलों को देखने लोग ललायत हो उठते हैं। अपनी धरोहरों को अपने नेत्रों से अविरल निहारते रहते हैं और नतमस्तक हो जाते हैं। उन निर्माणकर्ताओं के प्रति जिन्होनें उस प्राचीन समय में एकता की कड़ी में सबको कस दिया था। इसके लिए हमारी संस्कृति और संस्कृत भाषा को श्रेय जाता है, जो उस समय एक छोर से दूसरे छोर तक जानी और बोली जाती थी। यह हमारे देश की राष्ट्रभाषा थी जिसने अपनी एकता से भारत को बांधे रखा था। पर कालान्तर में इसे हमारे विदेशी आक्रान्ताओं एवं लम्बी गुलामी के साथ ही हमारी तुच्छ क्षेत्रीयतावाद की सोच ने हमें कई टुकड़ों में विभक्त कर डाला। एक दूसरे से अलग थलग कर डाला। समस्त राष्ट्रभक्त देशवासियों के हृदय में आज भी यह एक शूल की भांति चुभता है। हमारे सम्पर्कता का अभाव व गूंगेपन का दर्द आज भी हमारे सामने किसी यक्ष के प्रश्न की भांति हमारे सामने खड़ा है।
हमारे देश में सैकड़ों वर्ष पहलें अरबी फारसी शासको ने अपना वर्चस्व बनाया उन्होंने अपनी भाषा को थोपा फिर हमारे देश में सैकड़ों वर्ष अंग्रेजों का शासन रहा जिन्होंने अंग्रेजी कोअपनाया। चूंकि उन्हें यहाँ की जनता के बीच अपना शासन चलाना था अतः शासन तंत्र के लिए अंग्रेजी प्रशिक्षित क्लर्कों की जरूरत पड़ी तो लार्ड मेकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को लागू कर दिया गया। 1928 में इन्होंने तो भारत में इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा तक दे डाला। यह शिक्षा पद्धति नौकरी करवाने के आधार पर बनाई गई थी। इसमें सम्पूर्ण शिक्षा एवं स्वाबलम्बन की भावना का अभाव था। ज्ञान विज्ञान अनुसंधान के लिए नहीं वरन् ‘पीछे देखो -आगे बढ़ो ’की तर्ज पर यह शिक्षा थी। उनके शासन काल में यह रोजीरोटी की भाषा बन गई। इस तरह लोगों का झुकाव इस दिशा में बढ़ने लगा। दूसरी ओर हिन्दी आम जनता के बीच सम्मान पाती हुई अपना राष्ट्रीय क्षितिज तैयार करती जा रही थी।स्वतंत्रता की लड़ाई में तो यह सम्पूर्ण देश की अस्मिता के साथ जुड़ चुकी थी और भाषा के तौर पर अपना नेतृत्व कर रही थी।
आजादी के बाद हमारी क्षेत्रीयतावाद को कुछ छुटभईए नेताओं ने हवा दी। उनके क्षेत्रीय स्वार्थ प्रेम ने भाषाओं की बाहुल्यता को जन्म दिया। एक देश में भाषाओं की अनेक दीवारें खड़ी कर दीं। जिससे हमें आज अपने भावों की अभिव्यक्ति और सम्प्रेषणता की कमी खटकने लगी है। यही कारण है कि आज सम्पूर्ण देश एक होते हुए भी उत्तर भारत, दक्षिण भारत, बंगाली, बिहारी, मद्रासी, गुजराती, मराठी, तेलगू, मलयाली जैसी परिधियों में अपने आप को बटा पाने लगा। इस आपसी प्रतिस्पर्धा में बुरी तरह लोग बंट गये है। कभी -कभी उनकी आपसी टकराव की ज्वालाएँ देश को झुलसाने लगती हैं। तब ऐसे समय हमारी राष्ट्रीयता की भावना आहत होती है। दर्द से कराह उठती है। तब राष्ट्रभाषा का अभाव खटकने लगता है। जो हमारी एकता को फिरसे मजबूती प्रदान कर सके। हमारे प्राचीन भारत की अखण्डता का वही मजबूत आधार मिल सके और इस नए प्रगतिशील भारत को अभय होने का वरदान मिल सके। तब हम सब मिल कर फिर आम जनता के साथ विकास के नए सोपान गढ़ सकें। विश्व के सामने एक शक्तिशाली देश के रूप में अपने आपको प्रतिष्ठिापित कर सकें।
आज हमारे देश में बहुत सी भाषाएँ हैं। अनेक बोलियाँ हैं, जिनकी कोई लिपि भी नहीं है। जिनके बोलने वालों की संख्या कुल आबादी के एक दो प्रतिशत तक ही पहुँच पाती है। आज हमारी सरकार द्वारा मुख्य बाईस भाषाओं का मान्यता दी गयी हैं। अधिकांश भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा मानी गई है। संस्कृत भाषा का बृहद शब्द कोष है उच्चकोटि का साहित्य है। विश्व के किसी भी भाषा के मुकाबले शब्दकोष में धनाढ्य है। स्वयं अंग्रेजी ने 1200शब्द लेकर अपना शब्दकोष बढ़ाया है। आज हमारे इस भाषा की दुर्दशा लम्बे कालचक्र के प्रहार, विदेशी शासकों के आक्रमणों और उन शासको के असहयोग ने उसे जनसाधारण से दूर बहुत दूर कर दिया। सत्ता से जुड़ी भाषा जो रोजी रोटी जुटाने का साधन बनती है वही भाषा कालान्तर में जीवित रह पाती है। यह भाषा का नियम है। यह बात अलग है कि आज भी संस्कृत का साहित्य आकाश में सूर्य के समान चमक रहा है। इसी संस्कृत भाषा के गर्भ से हमारे देश की अनेक भाषाओं को जन्म हुआ है जिनकी अपनी सीमाएँ एवं विशिष्टताएँ हैं। हमारे देश में बहुत सी ऐसी भी भाषाएँ हैं, जो हिन्दी के सर्वाधिक सम्पर्क में हैं या अनेक समानताएँ हैं। हिन्दी गुजराती मराठी आदि भाषाओं की लिपि देवनागरी ही है। देश की पचहत्तर प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों की भाषा हिन्दी है। इसमें अनेक भाषायी विशेषताएँ हैं। इसकी लिपि में स्वर व्यंजन,शब्दकोष, सरल- सुगम -सुबोध की विशेषताओं के साथ ही ज्ञान- विज्ञान-आध्यात्म जैसे गूढ़ विषयों को आत्मसात करने की अभूतपूर्व क्षमता विद्यमान है। इन सभी गुणों को देखते हुए संविधान निर्माताओं ने पूर्व में ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया था।
राष्ट्रभाषा के पद हिन्दी को हिन्दी भाषियों द्वारा ही नहीं वरन् आजादी के बहुत वर्ष पूर्व सन् 1916 में बंगाल की माटी में प्रस्ताव पारित करके उसका राजतिलक कर दिया गया था। यह महाअभियान बाद में महाराष्ट्र , गुजरात आदि सीमाओं को पार करता हुआ सारे देश में फैल गया था। हिन्दी की यह मशाल उन बलिष्ठ अहिन्दी भाषी नेताओं ने थाम रखी थी, जो स्वतंत्रता की अलख जगाने में ही नहीं वरन् उसे प्राप्त करने में भी अग्रणी रहे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजाराम मोहनराय, बंकिमचन्द्र चटोपाध्याय, भूदेव मुखर्जी, अरविन्द घोष ,स्वामी दयानंद सरस्वती, वीरसावरकर जी जैसे अनेकों दिग्गजों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष किया। किन्तु आजादी के बाद क्षेत्रीयतावाद से ग्रसित नेताओं ने रोड़े अटका कर उसे लम्बे समय तक लटका दिया। इस लम्बे समय में उन्होंने पूरा समय अपनी अपनी भाषाओं के विस्तार में लगाकर राष्ट्रभाषा की परिकल्पना को धूमिल कर दिया।
स्वतंत्रता और स्वराज्य दोनों शब्द हमें स्वयं का राज्य या स्वयं का तंत्र का बोध कराते हैं। स्व से जनता और तंत्र से शासन का आभास होता है। इन दोंनों के बीच जोड़ने वाली कड़ी भात्र भाषा ही होती है। अलग अलग भाषाओं के होने से जनता और तंत्र को काफी परेशानी होती है। उनके बीच संवाद एवं समझ की दीवारे बनती हैं। अनेक भाषाओं का होना मात्र क्षेत्रीयता की दृष्टि से उचित हो सकता है किन्तु जब हम राष्ट्र शब्द को सामने रखते हैं तो एक सामूहिक एकता-चेतना का प्रश्न हमारे सामने आता है। तब केवल ऐसी स्थिति में उसका जवाब एक राष्ट्र भाषा ही है। वही हमारा बिखराव को रोक सकती है। किन्तु हमारी कुछ सरकारी उदासीनता एवं क्षेत्रीय राजनैतिक स्वार्थपरता की तुष्टिकरण के कारण जो होना चाहिए था वह नहीं हुआ। हिन्दी राष्ट्रभाषा को राजभाषा के पद पर डाल दिया गया। वह अपने घर में ही उपेक्षित रहने लगी। सरकारी कार्यालयों ,न्यायपालिका, कार्यपालिका , विधान परिषदों एवं संसद में उपेक्षित कर दी गई। मंद गति से प्रतिष्ठापित की बातें चलने लगीं। यदि आजादी के बाद तेजी से यह शुभ कार्य हो जाता तो आज हम वर्तमान विषमताओं, प्रान्तवाद वर्गभेदों जैसी कठिन परिस्थितियों में न जीते। बल्कि एकता के सूत्र में बंधकर विकास की सही दिशा में तेजी से आगे बढ़ते और आकाश की ऊँचाई नापते नजर आते।
अविष्कारों के लिए जरूरी है कि किसी विषय को सही ढंग से अपने दिमाग में उतारना और उसकी गहराई तक पहुँचना। उसके लिए अपनी सोच अपनी भाषा ही एक श्रेष्ठ उपाय है। वही राष्ट्रज्यादा से ज्यादा अविष्कारों की श्रेणी में खड़ा होता है और अपनी उन्नति करता है जिसकी अपनी भाषा और अपनी सोच होती है। हमारे देश के नेताओं ने आजादी के बाद के शैशवअवस्था को सही दिशा न दे कर पूरी तरह से दिक्रभ्रमित कर दिया। क्षेत्रीयतावाद के आपसी टकराहट बिखराव की तस्वीर आज हमारे सामने है। भाषा, धर्म, वर्ग भेद भाव, जाति आरक्षण की जो दीवारे आज हमारे सामने खड़ी हो गईं हैं, क्या उसके लिए हमारी नीतियाँ दोषी नहीं हैं ? इससे हमारे देश की अखंडता पर भी कभी कभी प्रश्न चिन्ह लगने लगता है। जो समय हमें विकास की दिशा में देना चाहिए था, वह आज इन छोटे छोटे समस्याओं में उलझ कर गवाँ रहे होते हैं।
हमारे देश में त्रिभाषा का सूत्र एक वोट बैंक की घृणित चाल के सिवाय कुछ नहीं हैं। क्षुद्र स्वार्थी राजनीति ने क्षेत्रवाद की खाल ओढ़कर राष्ट्रीय अस्मिता को खतरे में डाल दिया है। आजादी के छियासठ वर्ष गुजर जाने के बाद भी हमारी एकता पर जो आज प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। इसके पूर्व कभी ऐसी परिस्थितियाँ नहीं बनी। प्रान्तों का विभाजन व निर्माण भाषा के आधार पर होने लगा है। जनता का शासन से और शासन का जनता से विश्वास टूटता जा रहा है। दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ रहीं हैं। एक वर्ग गरीब जनता का शोषण कर रहा है तो दूसरा वर्ग भ्रष्टाचार कर सरे आम अट्हास करता दिखाई देता है। विभिन्नताओं में एकता का स्वर गुनगुनाकर अपने दिल को बहला रहे हैं। वैसे भी हमारे देश की राष्ट्रीय साक्षरता कम है फिर भी हम दुरूह भाषा को अपनाने में समय और धन का दुरूपयोग करने को मजबूर हैं। लोगों की कुशाग्रताकल एवं दक्षता पर एक प्रश्न चिन्ह लगाकर उनके अंदर हीन भावना पैदा करने का प्रयास कर गलत दिशा में बढ़ रहे हैं। आज समय की आवश्यकता है कि हम सभी राष्ट्रभाषा के महत्व समझें और सभी राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बंधकर राष्ट्र निर्माण में जुट जाएँ। अतः हम सभी ईमानदारी से सहर्ष स्वभाषा अर्थात् समृद्ध राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को अपना कर उसे निखारें, चमकाएँ और अपने देश को प्रगति की सीढ़ियों में चढ़ाकर ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अपनी कीर्ति ध्वजा फहराएँ।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”