वंशवाद के मुखौटे (व्यंग्य)
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
प्रातःकाल का घूमना स्वास्थ्य के लिए उचित है, इससे मानव तन तंदुरुस्थ तो रहता ही है, दूसरी ओर उसका मन भी तरोताजा हो जाता है। उस समय आपके मन में नए नए विचारों की दस्तक होती है, बस आपको अपने मन के कपाट खुले रखना है। लेखक के लिए तो इससे सुनहरा अवसर कुछ हो ही नहीं सकता। कुछ लेखक तो ऐसे हैं जो रात भर बिजली जलाकर जागते रहते हैं। बिजली के बिल का भुगतान भी करते हैं, तो दूसरी ओर सरकार की राष्ट्रीय ऊर्जा बचत अभियान की अवहेलना कर सही नागरिक न होने का इल्जाम भी झेलते रहते हैं। तीसरी बात यह कि वे रोज अपने घर परिवार के भी कोप भाजन के शिकार होते रहते है। न तो खुद सोते और न उनको सुख चैन की नींद से सोने देते हैं। कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि बेचारे सारी रात जागकर गुजार देते हैं और सुबह उन्हें मालूम पड़ता कि उनका कल रात का जागरण व्यर्थ ही गया। लेखकीय धर्म के निर्वाहन में ठीक से दस पंक्तियाँ भी नहीं लिखीं जा सकीं।
मैं तो सुबह अपने यदु एवं क्षत्री वंशियों के साथ वाटिका में विचरण के लिए ब्रम्ह मुहूर्त में उठकर निकल पड़ता हँू। बस अंतर इतना है कि वाटिका में राम-कृष्ण अपने भाईयों के साथ घूमने जाते थे। आजकल मैं उनके इन वंशजों के साथ जाता हूँ। इनके अलावा भी अनेक वर्गों के साथियों से वार्तालाप हो जाती है। उनके विचार सुनने को मिल जाते हैं।
हम लोग सब अब अपनी उम्र के संध्या पड़ाव पर पहुँचते जा रहे हैं। शरीर में बीमारियों का वास न हो इस वजह से रोज आने लगे हैं। दूसरे शब्दों में आप यह भी कह सकते हैं कि डाक्टर की बार बार चेतावनी के डर से आने लगे हैं। इस उम्र में आकर सभी को अपने लम्बे जीवन की कामना की ललक जाग उठती है। इसीलिए अनेक बेचारे इस उम्र में सुबह घूमने के अभियान में जुट जाते हैं। पर जहाँ तक मेरी बात है, मेरा मत इन लोगों से भिन्न है। स्वस्थ तन की चाह तो मुझे भी रहती है, पर तन से ज्यादा अपने मन की चाह रहती है। मन से ही तो नए नए विचार उत्पन्न होते हैं। इस तरह मुझे सुबह साहित्य उर्जा मिल जाती है।
अपने जीवन में जो समय साहित्य को देना था, वह किन्हीं कारणों से उतना नहीं दे पाए पर अब उसे अपना शेष जीवन समर्पित कर देना चाहता हूँ। यही सोच कर सुबह सोने का बिस्तर छोड़कर इस अभियान में जुट जाता हूँ। हमारे आस पास या मित्रों के पास से बिखरी सामग्री को बटोर कर साहित्य में संजोना चाहता हँू ताकि साहित्य समाज का दर्पण बन सके।
हमारे साथ प्रातः घूमने में यदुवंशियों की एक अच्छी जमात शामिल हो गई थी। जिनका मुख्य व्यवसाय दूध उत्पादन है। रोज उनकी चर्चा का विषय हमारा यादव समाज से होता। उसकी द्वापर काल की उपलब्धियों से वर्तमान काल पर समाप्त होता। पर जब विषय राष्ट्र पर आकर ठहरता और वर्तमान आलोचनाओं का दौर चलता तो फिर इसके बाद वे अपने वंशजों पर पहुँचते हुए श्री कृष्ण का गुणगान करते हुये उनसे अपना नाता जोड़ बैठते। अपने आपको महिमा मंडित करने लगते अपनी जाति को बड़ा बताने में जुट जाते। भगवान कृष्ण के स्वयं वंशज बनकर खुद को सर्वश्रेष्ठ बताने में लग जाते। वे अपने आप को कृष्ण के यदुवंशियों से नाता जोड़कर खूब गदगद हो उठते। तब यहाँ पर आकर सब चुप हो जाते, मानों बातों पर विराम लग जाता।
उसी तरह कुछ दलित मित्र भी बाबा भीमराव अम्बेडकर से अपना नाता जोड़ कर अपनी विद्वता का बखान करने लगते। उनसे नाता जोड़कर अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध कर देते और आगे चर्चाओं पर विराम लगा देते। बड़े से बड़ा नेता भी आज के युग में बाबा अम्बेडकर से अपना नाता जोड़कर गर्व से सीना फुला लेता है। सत्ता सुख मिलने के बाद हर नेता और दलित नेता उस दलित जनता को भुला बैठतें हैं। जो पहले नारा दिया करते थे कि ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो ...आदि ...’ पर जब देखते हैं यह सीढ़ी सत्ता तक जाने के काम नहीं आएगी तो सोशल इंजीयरिंग की परिभाषा गढ़ कर चलने लगते हैं। इन सभी ने जाँत पाँत में लोगों को भटका कर मानव समाज को तो बाँट दिया। पर आज तो ये सब अब ईश्वर को भी बाँटने को तैयार हो गये हैं।
द्वापर युग के कृष्ण एवं कलयुग के यदुवंशियों में बस एक बदलाव देखने में आता है। वे गायों को पालते, उनकी सेवा करते और उनको चराते थे। गायों को अच्छे से अच्छा चारा खिलाते थे, वे उनके दूध दही मक्खन का व्यवसाय करके भविष्य के स्वस्थ भारत निर्माण करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते थे। पर कभी भैंसों का पालन का उल्लेख नजर नहीं आया। शायद भैंस पर उनकी नजर नहीं गई होगी। आजकल यदुवंशी गायों को न पालकर भैंसों को पालने लगे हैं। चूंकि गाय के पतले दूध और कम दूध देने की वजह से फायदा कम है तो आज के इस युग में जहाँ फायदा अधिक मिले उसे ही अपनाना चाहिए। अतः भैंस के दूध का ही सभी व्यवसाय करने लगे हैं।
मुख्य बात फायदे पर ठहर जाती है। इसीलिए हर वर्ग अपना नाता किसी इतिहास पुरूष या संतो महात्माओं से जोड़कर रक्षा कवच ओढ़ने लगते हैं उसमें अपने आप को सुरक्षित महसूस करने लगते हैं। उसी तरह यदुवंशी भी अपना नाता कृष्ण से जोड़कर अपने को धन्य मानता है। उनके कर्मयोग और उनके ज्ञान योग से उन्हें क्या वास्ता। जब उनकी लाठी से काम चलता हो तो कौन कर्म ज्ञान योग में पड़े। लाठी लेकर अपनी भैंसों को चराने एवं दुहने से ही अपना वास्ता बना लिया। बस अपना नाता जोड़ लिया और स्वयं को महान समझने लगे, सरकारी योजनाएँ चारा उत्पादन की ओर मुड़ गईं। उसमें सामाजिक समरसता जाति की उन्नति दिखने लगीं, सभी सराहने लगे। लोगों को गरीबों का उत्थान नजर आने लगा। उनके लिए कागजों पर चारा उगाया जाने लगा। जानवर बेचारे उस हरे भरे चारे को निहारने लगे किन्तु जब उन्हें चारा मिले तब न। सब नेता चारा खाने लगे परिणाम स्वरूप चारा घेटाले हो गये।
एक मित्र हमें और मिल गए थे, वे क्षत्री थे। सतयुग के राम से नाता जोड़ बैठे। हालाकि राम के उनमें एक लक्षण भी मौजूद नहीं थे। किन्तु क्षत्री वंशी होने से उनके अंदर राम वंशी होने का अपना एक अहं छलकने लगा था। उनसे नाता जोड़ना तो मुझे अच्छा लगा पर अपने को मात्र महिमा मंडित करने के उद्देश्य से नाता जोड़ना ठीक नहीं लगा। आप उनके पद चिन्हों का अनुसरण कर चले तो एक अच्छी बात हो सकती है। पर वंशानुगत नाता जोड़कर अपनी श्रेष्ठता को प्रतिपादित करना कतई उचित नहीं है।
कभी कभी हमारा संत समाज करने लगता हैं। विपरीत आचरण के होते हुए भी अपने आप को कृष्ण तो कभी राम का अवतार को बतला कर स्वयं को अपनी पूजा करवाने के लिए प्रस्तुत कर देते हैं ं। और सारे समाज या अपने अनुनाईयों से भी अपेक्षा करते है कि वे अवतार समझ कर हमारी पूजा करे। हमारे कर्म प्रधान समाज में कालान्तर में जिस ढंग से लोगों में पुराने महापुरुषों को लपकने की भावना बढ़ी है, वह सचमुच गलत तो है ही। समुदाय विशेष और वर्णागत व्यवस्था में जकड़े, हमारे समाज से आज सारी सद्रचरित्रता ही विलोपित हो गयी है। उनका अनुकरण करना तो दूर की बात है।
आज रामलीला की तरह सभी ने उनके पात्रों के नाम के मुखौटे पहिन लिए है और तरह तरह के पात्र बन कर जीने की राह में चल पड़े हैं। उक्त रामलीला में राम जब क्षत्रियों के हिस्से में आ गये, तो मैं ब्राम्हण वंशीय होने के नाते रामायण काल के लंका नरेश के हिस्से में सहज ही पहँुच चुका था। मैं भी अपने वंशजो से भला कैसे मुँह मोड़ता। मैंने रावण की विद्वता पर अपना लम्बा चैड़ा आख्यान प्रस्तुत कर दिया। मैंने उनके सामने तर्क दिया कि रावण के अथाह ज्ञान के सामने स्वयं भगवान राम भी स्वीकारते थे। तभी तो अपने भाई को रावण के अंतिम क्षणों में ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा। हालाकि इस तर्क को उन पर विजय की भावना से मैंने प्रस्तुत किया था।
मैं इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ ज्ञानी होना और अपने जीवन में उसे धारण करना दोनों अलग अलग हैं। सद्चरित्र आचरण को अपने जीवन में उतारना बड़ा कठिन कार्य है जो उतारता है वही राम कृष्ण बन पाता है या महापुरूष की श्रेणी में पहुँच पाता है। ज्ञान और आचरण सिक्के के दो पहलू के समान है समाज और देश में वही सिक्का चल पाता जो उसमें एकदम खरा उतरता है। और कालान्तर में उस समाज एवं देश के लिए बेशकीमती होकर संग्रहणीय बन जाता है। और भविष्य में पीढ़ी दर पीढ़ी लोग उसका अनुगमन करने लगते हैं।
तब मैंने भी उस दिन उनके सामने अपने ब्राम्हणत्व की महत्ता पर मुस्कराते हुए परिहास करते हुए प्रकाश डाला। ब्राम्हण वही होता है, जिसे ब्रम्ह का ज्ञान होता है। अच्छे बुरे को ज्ञान हो, सभी बुराईयों से दूर होकर समाज को एक आदर्श प्रस्तुत करे। अपने त्याग तपस्या से पूज्य होने की श्रेणी में अपने को खड़ा करे। भाई साहब, आप यादव समाज के वंशज होकर कृष्ण भगवान के नजदीक पहुँच रहे हैं। और आप ठाकुर साहब कहते हैं कि हमारे क्षत्रियों के वंशज भगवान राम थे। तो हमारे वंशज भी परशुराम भगवान थे। जिन्होने कई बार क्षत्रियों को मार भगाया। बस क्रोधी थे। जिसकी वजह से समाज में वह स्थान नहीं मिला, जो राम कृष्ण को मिला। दूसरी ओर ज्ञानी होते हुए भी रावण में राक्षसीय प्रवृतियों की भरमार थी। तभी ब्राम्हणों ने कभी रावण के सामने खड़े होकर उसकी आरती नहीं उतारी और न ही उसके सामने घंटियाँ बजायी। बजाई तो राम कृष्ण के सामने ही जो धर्म कर्म आदर्श मर्यादाओं की एक लक्ष्मण रेखा खींच कर सारे मानव कल्याण के पथ प्रदर्शक बन कर सारे विश्व के लिए पूज्य बन गए। यही ब्राम्हणत्व की सही पहचान है। केवल वंशानुगत होना मात्र नहीं। ......
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”