आग की लपटों में....?
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
नन्दराम एक पल्लेदार है। जाति का कोरी। घर मे केवल तीन प्राणी है, वह स्वयं बुढि़या माँं और नव विवाहित पत्नी। नन्दराम दिन भर ठेला चलाता है और रात्रि में सानंद अपने हम जोलियों के साथ ढोलक मजीरे के साथ गाना बजाना इत्यादि करता है। हर व्यक्ति अपने जीवन में आनंद उत्सव के क्षण तलाश लेता है। उसे उस सम्मेलन में अद्वितीय आनन्द का आभास मिलता है।
शिवरतन का निजी ठेला है। पहिले वह भी नन्दराम की तरह किराये का ठेला लेकर काम करता था, पर मितव्ययी बनकर बडी साधना से उसने पसीने के मूल्य को संग्रहीत किया था। ठेला बनवा लिया था। घर में औरत के लिए दो चार जेवर। लड़के को हाथ पाँव का चूडा। आजकल वह पल्लेदारों का मुखिया है। नन्दराम उसी के सम्पर्क में रहता है। लल्लू, रामधन, वासुदेव उसके अभिन्न सहयोगी है।
वे सब मालगुजार के बाडे़ में रहते है। कच्ची मिट्टी के मकानों से घिरा हुआ बाड़ा है। आस पास कच्चे मकान और घास फूस की जीर्ण शीर्ण अनेक झोपड़ी हैं। उन झोपड़ीयों की द्रावक हालत देखकर हृदय में एक तूफान सा उठता है .......एक शूल सा खटकता है ..........
वह कंगालों की बस्ती है। गरीबी के अभिशाप की मर्मस्पर्शिनी प्रत्यक्षता। वह उन महा प्रासादों से दूर, उस अटूट वैभव विलास से भयभीत अपनी अलग निराली दुनिया बसाये हैं। वहाँ सभी मजदूर रहते हैं। सभी मजदूरी करके अपने निर्दयी पेट की क्षुधा पूर्ति करते हैं।
सबेरा होते ही घर के घर बंद हो जाते हैं। औरतें, बाल-बच्चे, बूढे-जवान सभी मजदूरी के लिए चल देते हैं।
माखन ने अभी नई नई झोपड़ी बनवाई है। रामधन का भी विचार था, पर तीन प्राणियों का पेट भरने फिर उससे पैसा बचाना नन्दराम के लिए कठिन कार्य था। अभी अभी एक धोती माँं के लिये और एक गोपी के लिये लाया था। उसकी मैली कुचैली मिर्जई सड़ गई थी, उसमें कई थिगडे़ लग चुके थे फिर भी उसे काम में ला रहा था।
गोपी कई बार उससे आग्रह कर चुकी थी कि वह भी पडोसिन मोहनियाँ के साथ रेजा का काम करने जायेगी। पर यह कार्य नन्दराम की इच्छा के विपरीत था। वह नहीं चाहता था कि गोपी भी अपना पसीना बहाये। वह मर्द है, उसमें कूबत है। पसीने के बजाय यदि उसे प्रतिदिन खून भी बहाना पड़े तो वह स्वीकार कर लेगा। किन्तु यह मृत्यु पर्यन्त भी न चाहेगा कि उसकी गोपी लांछना सुनने के लिए मारी मारी फिरे। उसने एक नियम बना लिया। रोज की कमाई का कुछ अंश शिवरतन के पास जमा करता रहा। उसने झोपड़ी बनाने की ठान ली थी। धीरे धीरे सस्ता सामान लाकर रखता गया। इससे अब उसे चार रुपये प्रति माह की बचत होगी। जरा सी जगह और चार रुपये का भाड़ा देना उसे मँहगा पड़ रहा था। अब झोपडी ही उसके लिए अनुकूल है।...........
सम्पूर्ण साधन एकत्रित होने पर नन्दराम ने झोपड़ी तैयार की। वह छोटी थी, पर सुन्दर। उसने माजगुजार का किराये का मकान खाली कर दिया और गोपी तथा माँं को लेकर उसी में आकर रहने लगा। गोपी ने सलाह दी कि अब लगे हाथ सत्यनाराण भगवान की कथा भी सुन ली जाय। नन्दराम ने उसकी बात का समर्थन किया और शिवरतन से पांच रुपये उधार लेकर, पंडित तथा अड़ोस पड़ोस वालांे को बुलाकर खूब खुशी मनाकर भगवान का पूजन करवाया और प्रसाद बांटा। बाद में कुछ लोगों ने मिलकर ढोलक मजीरे बजाकर खूब गाना गाया। उत्सव मनाया। गोपी और बूढी माँं भी प्रफुल्लित थी।
नन्दराम शाम को ठेला रखकर आया ही था कि गोपी ने कहा कि ‘रामधन के यहाँ लड़का हुआ है, अभी-अभी बुलौआ आया था।’
‘कौन आया था ?’ नन्दराम ने पूछा।
‘जसुदिया।’
‘माँं कहाँ गई ?’
‘उन्हीं के यहाँ।’
‘खाना बना है ?’
‘आटा खतम है। दाल भात बनाया है। चलो, मुँह हाथ धो कर खालो।’
नन्दराम ने हाथ पैर धोये। चौके में जाकर बैठ गया। गोपी ने थाली परोसी।..........
‘कल के बनाने के लिए अभी कुछ है न ?’........
‘हाँ, पूज तो जेहै।’
‘अभी अभी सुन के आया हूँ , कल बाजार बन्द रहेगा। चना-वना ले लिए होते, तो अच्छा होता...क्या करूँ......पैसा ही नहीं बचते। शिवरतन का कर्जा था, सो अदा हो गया। कौर चबा कर नन्दराम ने पानी पिया।’
गोपी सिर झुकाये बैठी रही। नन्दराम की बात खतम होते ही उसने सिर उठाया। मधुर ध्वनि से बोली ‘मानो तो एक बात कहूँ ?’..
‘क्या ?’ नन्दराम ने पूछा।
‘तुम मुझे क्यों नहीं जाने देते काम पर....मोहनियाँ को देखो- बारह आना रोज लाती है, पूरे बारह आने रोज’.........
‘पागल हो गई है ! ..........नन्दराम शब्दों में जोर देते हुए बोला- ‘लोग क्या कहेंगे, मुझे अभी शादी भये साल भर हुआ कि नहीं और तुझे कुली कबाड़ी रेजा बना दूँ। इज्जत भी कोई चीज होती है, गोपी अभी मैं मर्द हूँ , मेहनत करता हूँ। तब भगवान आप देते हैं खाने को।’
‘सो तो ठीक है लेकिन’.....
‘लेकिन वेकिन कुछ नहीं सौ मर्तबा कह चुका हूँ तुझसे, ऐसी बहकी बातें मुझे पसन्द नहीं पर तू माने तब न ?’
‘पर मुझे ये छीटा कसी अच्छी नहीं लगती, वो दिन जसुदिया ही तो कहती थी- पड़ी-पड़ी खा, और नन्दू को लूट। तुझे क्या काम वाम से...फिर ठीक ही तो कहती थी वह, ....गोपी की वाणी दर्द भरी हो आई थी......आँखों में आंसू उतर आये थे गोपी की इस दशा ने नन्दराम को भावावेश से भर दिया। वह तीव्र स्वर में बोला ‘तेरी सास ठीक ही कहती थी। दूसरों के मर्दाे के साथ काम पर जाना क्या यह भल मनसाहत है ? लाख बार कहा तुझसे जमाना कुछ भी बके बकने दे। आग लगाना तो काम ही है, जोरुओं का। अपने काम से काम रख, मजाल है जो टेढी बात करके निकल जाय’........
नन्दराम की अपनी सोच दृढ़ था किन्तु गोपी का हृदय साफ न हो सका। उसे उसके वचनों में विवशता की पुट मिलती। वह उसी तरह शांत बैठी रही।
नन्दराम पानी पी कर उठा। गोपी ने उठकर सुपारी लोंग दी।
‘अच्छा, मैं आता हूँ। माँं को भेज दूँगा।”
नन्दराम चार कदम बढ़ा ही थी कि माँं आ गई।
‘रोटी खा आये हो बेटा’
‘हाँ खा तो आया हूँ , कौन कौन है वहाँ माँ ?’
‘सब हैं तुझे भेजने को कहते थे।..........जल्दी आना’।
नन्दराम बिना कुछ कहे आगे बढ गया।
रामधन मालगुजार के बाडे़ में रहता है, जहाँ गाना बजाना हो रहा है, वहाँ जाकर नन्दराम बैठ गया। सभी बिरादरी वाले एकत्रित थे। ढोलक, मजीरा संग नाचने गाने का आयोजन था। सभी से राम-राम, जय सीता-राम’ हुई।
‘वहाँ कैसे बाहिर बैठे हो नन्दराम भाई यहाँ आओ।’
‘ठीक तो बैठा हूँ । कई बार उसने दुहाया। अन्त मे उसे उठकर बीच मे बैठना ही पड़ा। चिलम तैयार थी, गाँजा तम्बाखू की हुई। गाना बजाना शुरू हुआ। धीरू और सुक्खन शराब पी कर आए थे। रामधन से साडि़याँ लेकर दोनों ने पहिनी। फिर क्या था ढोलक की ताल पर लगे कमर मटका कर नाचने। हास्य का सागर उमड़ पडा। ‘सौ बरस जिओ री दुलहनियाँ’ आवाजें की जाने लगीं। सब अपनी अपनी धुन में मस्त थे। कई उठ-उठ कर न्योछावर कर रहे थे। चारों ओर आनन्द ही आनन्द था। नंदराम की बारी आई, आज उसकी इच्छा गाने की न थी किन्तु सहयोगियों के प्रेम पूर्वक आग्रह की अवहेलना भी कैसे करता ? नन्दराम ने महफिल मे समा बाँध दिया।
‘वाह क्या गाना गाया’ । तारीफ के पुल बाँधे गये।
रात्रि का तीसरी पहर खतम होने को आ गया था। सबको जमुहाई आने लगी। रामधन ने बतासे बाँटे और सब चल पडे़ अपने अपने घर की ओर।
‘नन्दराम भाई, तुम्हारे घर में आग लग गई है ..’
‘आग...बिजली सी गिर पड़ी उस पर ‘कैसे’?
‘पता नहीं चला, गोपी और तुम्हारी बच्ची...
नन्दराम पूरा वाक्य बिन सुने ही हड़बड़ा कर दौड़ पड़ा। धक धक होने लगा, उसका कलेजा। आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा..गोपी और बच्ची ...हे भगवान ...
अंधेरी रात और ठोकरें खाते हुये उसके विकल पैर....गोपी और बच्ची....वह पागल सा हुआ जा रहा था।
उसने दूर से देखा.....आग की भयानक लपटें निकल रही हैं ....पडोस के आदमी चिल्ला रहे हैं ....वह भीड़ में घुसते ही चिल्ला उठा गोपी कहाँ है ?........
‘वहाँ फंस गई रे.....अभागिन वही फंस गई रे नन्दू ...
हृदय चूर चूर हो गया नन्दू का, शीघ्रता से लपका आग की ओर। उसका आर्तनाद आकाश को भेदने लगा...
‘गोपी ! गोपी ! तुम कहाँ हो गोपी....’
वह आग मे कूदना ही चाहता था कि किसी के लौह हाथों ने उसे जकड़ लिया। तीन चार आदमी और आ गये। मछली की तरह तड़प उठा नन्दराम। उसकी विवशता छटपटा उठी। सागर का ज्वार उमड़ पड़ा आँखों के रास्ते से.......‘मेरी गोपी जल रही होगी दादा, मुझे जान दो... मुझे जाने दे दादा...देखो, वह चीखे मार रही है....दादा।’....जसवन्त दादा ने जोर से जकड़ लिया। ‘पागल मत बन नन्दू’
आग जोरों पर है। क्या गोपी के साथ तू भी स्वाहा होना चाहता है। चल पीछे हट नन्दू’........
‘मै बचा लूँगा गोपी को...मुझे छोड़ दो दादा’..........
नन्दू ने भर ताकत जसवन्त दादा को धक्का दिया। हाथ पैर फड़ फड़ाये। पर कामयाब न हो सका...वह दिल मसोस कर रह गया। आग फैलती गई। आस पास की झोपडि़याँ भस्म होने लगीं। ‘टन...टन...’करती हुई ‘फायर ब्रिगेड’की मोटर आई। नन्दू को अब भी आशा थी। उसकी गोपी बच जायगी पर.........
घंटों बाद आग शांत हुई, आग की लपटों में गरीबी का अभिशाप जल कर खाक हो गया था।
नन्दराम उस राख के ढेर में अपने प्राणों से प्यारी गोपी को खोज रहा था.....लोग कह रहे थे, बड़े आदमियों को इन गरीबों का सुख नहीं भाया रे। वातावरण में गरीबों की एक ‘हाय’ छा कर रह गई थी।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’