कागौर
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
अरे पल्लवी ...! सुनो...! जल्दी आओ...!!!
घर के आँगन में कुर्सी पर बैठा अविनाश एक हाथ में अखबार लिए चिल्लाए जा रहा था। उसकी नजर एक समाचार पर टिकी थी। गला रुंध गया था, आँखों में अश्रु छलक आए थे।
पल्लवी ! सुनो... पल्लवी...! अविनाश का स्वर थोड़ा और तेज हुआ।
किचिन से आ रही बरतनों की खनखनाहट भरी आवाज के बीच एक आवाज और उभरी - “आ रहीं हूँ बाबा, क्यों शोर मचा रहे हो ? अब क्या आसमान सिर पर गिर पड़ा ? कमर में साड़ी का पल्लू खोंसकर दूसरे ही क्षण वह सामने खड़ी थी। - हाँ क्या बात है ...बताओ...ढेर सारा काम पड़ा है।”
अविनाश ने अखबार के समाचार पर उँगली रखकर कहा - “अरे, बड़ी बुरी खबर छपी है।अपने रूपेश के पिता जी का परसों गाँव में देहांत हो गया है। पिछले माह ही तो मैं जब गाँव गया था तो उनसे मेरी मुलाकात हुई थी। वे तो स्वस्थ और प्रसन्न दिख रहे थे। क्या बात हो गई होगी पल्लवी ! उनको क्या हो गया होगा।”-अविनाश विचलित भाव से बोला।
पल्लवी ने थोड़ा झुककर वह समाचार पढ़ा। अविनाश को दुखी देखकर उसके बालों को सहलाते हुए कहा -
“खबर तो बाबू जी की है, सचमुच होनी को कौन रोक सकता है, कब क्या हो जाए कौन कह सकता है।” कह कर एक दीर्घ श्वांस खींची। उसकी भी आँखों से अश्रु छलक आए। सचमुच बाबू जी का विशाल हृदय था। अपना बैटा जैसा चाहते थे इन्हें। तभी पल्लवी को स्टोव में चढ़े दूध की पतीली याद आयी। वह जाने के लिये मुड़ी ही थी कि अविनाश की आवाज से फिर रुक गई।
“पल्लवी मुझे गाँव जाना चाहिए न। बाबू जी का मुझ पर बड़ा स्नेह था। उनकी आत्मा को बड़ा दुख होगा, अगर मैं गाँव नहीं गया तो। काश यदि रूपेश ने मुझे खबर दे दी होती या मुझे पहले मालूम होता तो मैं भी उनकी अर्थी को कंधा लगा देता।उनके अंतिम दर्शन कर लेता। अब यदि ‘खारी’ में ही पहुँच जाऊँ तो मेरी आत्मा को बड़ा संतोष मिलेगा। क्या मालूम यह अवसर भी मिले न मिले। मैं अभी गाँव जाऊँगा, पल्लवी। “
पल्लवी ने बीच में टोंकते हुए कहा -” वहाँ रूपेश होगा, कहीं उसने फिर ऐसा वैसा कह दिया तो फिर ...।”
अविनाश ने कहा - “पल्लवी तुम भी कैसी बात करती हो ? उसके पिता का साया उठ गया है, ऐसे समय में तो मतभेद की बातें मत करो। यह झगड़ा कोई कट्टर दुश्मनी का नहीं। यह तो बाबूजी का मेरे प्रति अत्यधिक पुत्रवत प्रेम के कारण था। जो रूपेश के मन में विद्वेष का कारण बना। अब जब वे ही नहीं रहे तो किस बात की चिन्ता उसे ?”
पल्लवी ने अपनी सारी शंकाएँ समेटते हुए कहा -” ठीक है बाबा, कल रविवार है , सुबह चले जाइए। आज खारी में तो आप पहुँच भी न पाएँगे, क्या मतलब आज जाने से ....”
“तुम भी कैसी बात करती हो ? खबर आज मुझे मिली , तुम कहती कल जाऊँ ? गाँव वाले और रूपेश क्या सोचेगा... बड़ा पिता पु़त्र का नाता बनाए घूमता था। अरे, सभी क्या सोचेंगे। रूपेश की हालत कैसी होगी, पितृ विहीन पुत्र ही समझ सकता है। और तुम कहती हो कल जाऊँ।” अविनाश ने चिढ़ते हुए कहा।
अपने पति के स्वभाव से पल्लवी भली भांति परिचित थी। इसके आगे कुछ और कहना व्यर्थ था।
वे जो निश्चय कर लेते हैं, वही करते हैं। ठीक भी है, अपनेे पुत्र से ज्यादा बाबूजी का स्नेह इन पर था। पितृ विहीन पुत्र ही पिता की कमी को अच्छी तरह से समझ सकता है। सोचकर उसने कहा- “ठीक है, मैं अभी झटपट कुछ बना देती हूँ , तुम खाकर चले जाना। “
अविनाश ने हाथघड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा -” पल्लवी बस साढ़े आठ बजे छूटती है और अभी साढ़े सात बज चुके हैं। बस स्टैंड तक पहुँचने में बीस पच्चीस मिनट लग जायेंगे। अब खाना वाना तुम रहने दो। एक काम अवश्य कर देना,मेरे आफिस की चाबी तुम दस के पहले अवश्य पहुँचा देना।”
“मैं आफिस ... पाँच किलोमीटर कैसे जाऊँगी ? “-अचकचा कर पल्लवी ने पूंछा।
“अरे भाई, मैं तुम्हें पैदल जाने के लिए नहीं कह रहा हॅूं । रिक्शा करके चली जाना। सुनो, प्लीज...दस के पहिले अवश्य पहुँचा देना।” -अविनाश ने कपड़े पहिनते हुए कहा।
पल्लवी परेशान हो गई। स्वयं तैयार होकर रिक्शे की तलाश... वह भी दस के पहले ...इनके आफिस चाबी पहुँचाना, उसे असम्भव सा लगने लगा। उसने रोकने की आखिरी कोशिश करनी चाही-” सुनो जी, कल चले जाना न ?”
“अब कैसी बात करती हो, जरा सा काम बताया तो कल चले जाना ! किसी के जीने मरने से तुम्हें क्या ? तुम्हारा कोई सगा गया होता तो ऐसा नही कहती बार- बार।”-अविनाश ने भावावेष हो कहा।
पल्लवी को मन ही मन आत्मग्लानि हुई। कहा-” अच्छा सारी बाबा, आप जाइए। मैं दस के पहिले चाबी पहुँचा दूँगी।” कह तो दिया किन्तु उसे अपने पति का यूं भूखा जाना अच्छा नहीं लग रहा था। उसकी आत्मा उसे बार-बार कचोट रही थी। फिर कह उठी - “ बस यदि लेट हो तो होटल में कुछ खा पी लेना। भूलना नहीं ...। “
“ठीक है ... ठीक है... कहकर अविनाश अपनी चप्पल पहिन कर बस स्टैंण्ड की ओर चल दिया।
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रूपेश उसके गाँव की स्कूल का सहपाठी था। अविनाश बचपन से रूपेश के घर आता जाता रहा है। रूपेश के पिता श्री सूर्यकान्त जी का गाँव में एक बड़ा मकान था और सात-आठ एकड़ का खेत था। रूपेश अपने पिता का इकलौता पुत्र था। अविनाश एक मध्यम श्रेणी का पितृविहीन व्यक्ति था। रूपेश के पिता जी ने उसकी शिक्षा -दीक्षा में अपनी ओर से कोई कोर कसर न छोड़ी थी। आज उसी का परिणाम था कि वह एक सरकारी आफिस में बाॅस था। कार, नौकर-चाकर के अलावा शहर में भव्य निजि मकान भी था। सुन्दर बीबी थी। रुपयों की वर्षा होती थी। किन्तु पिता अपने पुत्र के उस वैभव की छाँव से बहुत दूर थे। दोनों के बीच अपनत्व का बोध सदा आड़े आता रहा। रूपेश और उसकी पत्नी के घमंड और अहंकार ने दोनों के बीच दीवार खड़ी कर दी थी। इस दीवार के कारण श्री सूर्यकान्त जी अपने पुत्र से दूर होते गये और अविनाश उनके करीब आते गये।
अविनाश की सेवाभाव, विनम्रता और चरणस्पर्शता ने वृद्धावस्था में पुत्र की उपेक्षा से सूर्यकान्त के दिल में जगह बना ली थी। वे उसे पुत्रवत चाहने लगे थे गाँव भर में उसकी प्रशंसा करते फिरते। रूपेश से उसके गुणों का बखान करते, जिसे सुन-सुनकर रूपेश ने अपनी मित्रता के बीच में भी एक दीवार खड़ी कर ली थी।
एक दिन अविनाश ने रूपेश को समझाया और उस पर अपने वृद्ध पिता की उपेक्षा का आरोप लगाया तो रूपेश भड़क गया। अविनाश पर बरसते हुये कहा -” मुझे ज्यादा शिक्षा देने की जरूरत नहीं। पिता मेरे हैं, मैं उनका कितना सम्मान करता हॅूं, तुम क्या जानों। देखो... रूपेश ने ड्राइंग रूम में चाँदी के सुनहरे फ्रेम में लगी अपने पिता की भव्य फोटो दिखलाई। तुम कहते हो, मैं उनकी ... मुझे सब मालूम है, तुम मेरे पिता जी को मेरे खिलाफ भड़काते रहते हो। “
“मैं तुम्हारे पिता को भड़काता हॅूं ? नहीं रूपेश, हर वृद्ध पिता, पुत्र से अपने जीवन के उत्तरार्ध में कुछ आशाएँ अपेक्षाएँ रखता है। उसे सहारे की आवश्यकता होती है। जो उसके तन -मन का सम्बल बन सके। रूपेश मैं तुम्हारा बचपन का दोस्त हँू। तुम्हारा सच्चा हितैषी ... इस चाँदी के फ्रेम से बाबू जी को निकाल कर अपने दिल में जगह दो फिर देखो ....। “ अविनाश अपने दोस्त को अपनी दोस्ती का फर्ज निभा रहा था। मगर रूपेश पर विपरीत असर पड़ रहा था।
बीच में ही गुस्से से उबलते रूपेश ने कहा- “ बस... बस... बहुत हो गया तुम्हारा लेक्चर। आईन्दा तुम यहाँ मत आना समझे ...हमारी दोस्ती गई भाड़ में ...समझे ...चले जाओ मेरे घर से।” मित्र के इस व्यवहार से अपमानित हो -” ठीक है “कहकर अविनाश चला आया।
जब वृद्ध सूर्यकान्त जी को इस बात का पता चला तो दिल में आघात लगा। उन्होंने अपने को फिर अपनी ही दुनिया में समेट लिया। यहाँ-वहाँ जाना बंद कर दिया। अपनों के होते हुए भी पूर्णतः बेगानों से रहने लगे। अंदर ही अंदर टूटने लगे। रूपेश साल-छः महीने में हाल चाल पूँछने आता और औपचारिकता का निर्वाह कर चला जाता। पर अविनाश निरंतर बाबूजी के सम्पर्क में बना रहा। उनसे एक आत्मीयता भरा लगाव जो हो गया था उसे।
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बस स्टैंण्ड आ गया था। अविनाश ने बस का पता लगाया, बस दो घंटे लेट थी। पल्लवी की बात सच होते प्रतीत लग रही थी। किन्तु आँखों के सामने रह-रहकर सूर्यकान्त जी का चेहरा घूम जाता। उनका स्नेह सगे पिता की तरह मिला था उसे। उनसे जब भी वह मिलता, वे अपना सम्पूर्ण वात्सल्य के प्रेम गागर को उस पर उड़ेल देते थे। उनसे आत्मीयता पाकर, वह अपने पिता के अभाव को भूल गया था।
सामने होटल का बोर्ड देखकर, वह पल्लवी का आग्रह पूरा करने अंदर गया। किन्तु उल्टे पैर वापस आ गया। खाने की जैसे इच्छा ही मर गयी थी। दुःख वेदना से ही उसका पेट भर गया था। वह बस स्टैण्ड के प्रतीक्षालय में आकर पुनः बैठ गया। सामने देखा रूपेश के बंगले का नौकर रामू हाथ में एक बड़ा झोला लटकाए हाँफते-हाँफते भागा चला आ रहा था।
अविनाश उठकर उसके पास गया। शायद इससे बाबूजी के बारे में कुछ विस्तार से जानकारी मिल सके। उसे रामू से ज्ञात हुआ कि बाबू सूर्यकान्त जी का स्वास्थ्य ठीक ही था। कोई बुखार बगैरह भी न था। अचानक परसों रात को गाँव से किसी का फोन आया था कि बाबूजी की तबियत बिगड़ गई है। ‘अविनाश और रूपेश साहब को तुरंत बुलाया है।’
‘क्या साहब ने आपको खबर नहीं दी।’- रामू ने रूपेश से पूँछा।
‘नहीं रामू मुझे तो समाचार पत्र से मालूम पड़ा। फिर ... ’- अविनाश ने और जानकारी लेने रामू की ओर देखकर पूँछा।
‘साहब रात को तो नहीं सुबह मेम साहब को कार में लेकर निकले।’- फिर दोपहर को साहब का फोन आया कि -‘दिल का दौरा पड़ने से बाबूजी का इंतकाल हो गया है। तुम मेरे आफिस में फोन करके यह समाचार दे देना और चन्द्रबाबू से कह देना कि अखबारांे में बाबू जी के निधन का समाचार छपवा दें।’
मेम साहब कल शाम को कार से वापस घर आ गईं थीं। उन्हांेने बतलाया कि -‘रामू, साहब तेरहीं
तक वहीं रुकेंगे। तुम यह सामान गाँंव में पहुँचा दो।’ रामू ने अपनी बात समाप्त कर अविनाश की ओर देखकर पूँछा - ‘क्या आप भी वहाँ जा रहे हैं।’
-‘ हाँ रामू मैं भी गाँव ही जा रहा हॅूं।’
बस आ गयी थी। दोनों बस में बैठ गए थे। बस अपनी दूरियाँ नापने बैचेन थी। सड़क पर सरपट दौड़ी जा रही थी। गाँव कब आ गया, पता ही नहीं चला। रूपेश का घर सामने था। देखा, आँगन की परछी में वह एक कम्बल पर बैठा था। सफेद धोती, आधा तन उघरा, सिर मुड़ा था। अविनाश ने दुःखी हृदय से हाथ जोड़कर सम्वेदना व्यक्त की और उसके आगे सिर झुकाकर शोक मुद्रा में बैठ गया। रामू ने भी वैसा ही किया। फिर उसने झोला आगे बढ़ा दिया। झोले से रूपेश ने वही सुनहरे फ्रेम से मढ़ी बाबूजी की तस्वीर निकाली और करीने से सजा कर तिपाई पर रख दी। उस तस्वीर को ढेर सारी मालाएँ पहिनाकर उसने अगरबत्ती जला दी। वहाँ आए लोंगो को वह अपने पिता-पुत्र के संस्मरणों को बढ़ा-चढ़ा कर सुना रहा था। सभी उसकी इस पितृभक्ति के नाटक को देख रहे थे।
अंदर से रूपेश की माँ सफेद साड़ी पहिने निकली। उनकी आँखें सूजी हुईं थीं। रोते-रोते हाल बेहाल था। अविनाश को देखते ही उसकी वेदना फूट पड़ी।- “अविनाश तू आज आया ? तुने बहुत देर कर दी बेटे। बाबू जी तेरी बार-बार याद कर रहे थे। काश तू आ जाता तो उनकी आत्मा को शांति मिल जाती। मैंने फोन पर रूपेश को खबर भिजवाई थी, -अविनाश को भी साथ लेते आना। वह कह रहा था, तू कहीं बाहर गया था ? “
अविनाश ने रूपेश को देखा, झूठ पकड़ा गया था। उसका चेहरा मलिन पड़ गया था। स्थिति को सम्हालते हुए अविनाश ने कहा -‘हाँ माँ जी... आफिस के काम से बाहर गया था। आते ही घर में पल्लवी ने रूपेश का संदेश सुनाया .. मैं तुरंत चला आया। “
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तेरह दिन गुजर गये थे। बहुत धूम- धाम से रूपेश ने बाबूजी की तेरहवीं संस्कार का आयोजन किया। गाँव में इतना बड़ा आयोजन कभी किसी के यहाँ नहीं हुआ था। गाँव और शहर से सभी चिर परिचित एवं रिश्तेदारों को ‘तेरहवीं-भोज’ पर आमंत्रित किया गया था। खाने में नाना प्रकार के मिष्ठान, पकवान बने। शहर से वेदपाठी पंडितों को बुलाकर अपने पिता जी की आत्मा की शांति के लिए हवन पूजन पाठ कराया गया।
पंडितों के आचार्य जी ने बाबूजी के लिए “कागौर” कांसे की थाल में निकाल कर दिया, कहा- “ बेटा रूपेश, हमारे शास्त्रों में कहा जाता है, अपने आत्मीय जनों के आसपास कौए के रूप में मृतात्मा तेरह दिनों तक भटकती रहती है। बाहर वृक्ष पर बैठे कौओं को यह कागौर जाकर खिला दो। इससे उनको तृप्ति मिलेगी। इसके पश्चात् सभी बा्रम्हण भोजन करेंगे। “
थाल लेकर रूपेश बाहर आया। वृक्ष पर बैठे कौओं को आवाज लगायी। “ कागौर” दिखाकर आओ...आओ..आओ... आओ...कहता रहा। पर कौए तो मानों -जैसे उसकी आवाज को अनसुना सा कर रहे थे। बुलाने पर भी वे नहीं आ रहे थे। परेशान हो गया, सभी का ध्यान उसी की ओर लगा था। अविनाश ने उसकी परेशानी को देख, थाल को अपने हाथ में ले लिया और आवाज दी। वे जैसे मानों इसी प्रतीक्षा में थे कि उनका सच्चा पुत्र बुलाएँ और वे तृप्त हो जाएँ। सभी ने देखा उसके बुलाने से कौओं का झुंड वृक्ष से उतर कर थाल से “कागौर” खाने लगे।
यह देखकर रूपेश का अन्र्तमन अपराध बोध से भर उठा। रूपेश ने सुनहरे फ्रेम से झाँकती बाबूजी की तस्वीर देखी, जैसे उसमें से एक व्यंग्यात्मक मुस्कान उभरी और कह रही हो -
“ बेटे धिक्कार है तुझे, तू इस समाज और दुनिया को दिखाने के लिए मुझे इस सुनहरे फ्रेम में कैद कर रख सकता है। पर मेरी आत्मा, मेरे दिल को नहीं। क्या तू अभी भी मुझे उसी पितृभक्ति के नाटक में उलझाए रखना चाहता है। लानत है, तेरे उस वैभव को और तेरी मानसिकता को ...बेटे धिक्कार है तुझे ... धिक्कार है...तेरे अहम को और तेरे उस भ्रम को...”
रूपेश अपने पिता की तस्वीर पर टक-टकी लगाए - आत्म चिंतन कर रहा था, इस आत्म मंथन में उसकी आत्मा उसे धिक्कारने लगी। आँखों से पश्चाताप् के आँसू टप...टप... टप...टप ...कर बह रहे थे। जो उसके द्वारा बनाए झूठे नाटक के भ्रमजाल को तोड़ रहे थे। अविनाश ने उठकर उसके कंधे को सहलाया और सांत्वना दी। रूपेश ने उठकर उसको गले लगा लिया।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”